Monday, 26 April 2010

क़ुरआन सूरह यूनुस १०


part-2

क़ुरआन मुहम्मद की वज्दानी कैफ़ियत में बकी हुई ऊट पटाँग बातों का ऐसा मज्मूआ ए कलाम है जिसका कुछ जंगी फ़तूहात से इस्लामी ग़लबा कायम हो जाने के बाद मज़ाक उड़ाना जुर्म क़रार दे दिया गया. जंगों से हासिल माले ग़नीमत ने इसे मुक़द्दस बना दिया. फ़तह मक्का के बाद तो यह उम्मी की पोथी शरीयत बन कर मुमालिक के कानून काएदे बन्ने लगी. इसके मुजरिमीन ओलिमा ने तलवार तले अपने ज़मीरों को गिरवीं रखना शुरू किया तो इस मैदान में दौड़ का मुकाबला शुरू हो गया. शिकस्त खुर्दा हुक्मरानों और मजबूरो मज़लूम अवाम ने इसे तस्लीम करना शुरू कर दिया. फूहड़ ज़बान, मुतज़ाद बातें, वज्द की बक बक, बे वक़अत क़िस्से, गढ़े हुए वाकए, बुग्ज़ और मक्र की गुफ्तुगू, झूट की सैकड़ों अक्साम को ढकने के लिए मुहम्मद ने इसे तिलावत की किताब बना दिया न कि समझने और समझाने की.
झूट की सदाक़त यह है कि वह अपना पुख्ता सुबूत अपने पीछे छोड़ जाता है. क़ुरआन को तहरीरी शक्ल में महफूज़ करने का मुहम्मद का कोई इरादा नहीं था, यह तो याददाश्त के तौर पर सीना बसीना क़बीलाई मन्त्र तक चलते रहने का सिलसिला था जो इसकी औकात है, मगर उस्मान गनी को तब झटका लगा जब इसके हाफिज़ जंगों में मारे जाने लगे. उनको लगा कि इस तरह तो एक दिन ऐसा भी आ सकता है कि क़ुरआन को अगले सीने में मुन्तकिल करने वाला कोई मिले ही नहीं. इस तरह उन्हों ने क़ुरआन के बिखरे हुए नुस्खों को चमड़ों, छालों, पत्थर क़ी स्लेटों और कागजों पर जहाँ जैसा मिला इकठ्ठा किया. आधे से ज्यादा क़ुरआन रद्द हुवा बाक़ी मौजूदा आप के सामने है अपने झूट के हश्र को लिए खड़ा है.
देखिए कि क़ुरआन में मुहम्मद अल्लाह बने हुए क्या कहते हैं - - -

''जब हम लोगों को बाद इसके कि इन पर कोई मुसीबत पड़ चुकी हो, किसी नेमत का मज़ा चखा देते हैं तो फ़ौरन हमारी आयतों के बारे में शरारत करने लगते हैं. कह दीजिए अल्लाह तअला सज़ा जल्दी देगा. बिल यकीन हमारे भेजे हुए फ़रिश्ते तुम्हारी शरारतों को लिख रहे हैं.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (२१)
इस किस्म की ज़नानी तबा मुहम्मद की बातें आज कठ मुल्लों के काम आती हैं खास कर औरतों को मुसलमान बनाए रखने के। क़ुरआन ऐसे बहुत से हरबे ईजाद करता है जो कुन्द ज़ेहनों पर बहुत काम करती है. बुत परस्ती और इन वहमों में क्या फर्क़, बल्कि यह ज़्यादः गाढे हैं. अल्लाह के कलाम में जगह जगह पर फरिश्तों की तैनाती है, क़ुरआन फरिश्तों पर भी यक़ीन और ईमान रखने की हिदायत करता है. बड़ा फ़रिश्ता जिब्रील मुहम्मद की मदद में बड़ा करसाज़ है. अल्लाह के क़ुरआन की आयतें यही ढो ढो कर लाता है और मुहम्मद के सीने में भरता है जिसे वह नबूवत के चैनल से रिले करते हैं. यही फ़रिश्ता मुहम्मद को अपनी सवारी पर लाद कर सातों आसमानों की सैर करता है. मुहम्मद और उनकी बहू ज़ैनब के आसमान पर निकाह होने का गवाह भी जोकर का पत्ता जिब्रील अलैहिस्सलाम ही होता है. जिस ब्याहता के साथ अल्लाह मियाँ मुहम्मद का नाजायज़ निकाह पढाते हैं. इस मुहम्मदी खेल में गाऊदी कौम देखिए कब तक फंसी रहे.
''और जिस रोज़ हम इन सब को जमा करेंगे कि तुम और तुम्हारे शरीक अपनी जगह ठहरो, फिर हम इन आबदीन (पूजक)और मुआब्दीन (पूज्य)में आपस में फूट डाल देंगे और उनके शुरका (सम्लित) कहेंगे तुम हमारी इबादत नहीं करते थे सो हमारे तुम्हारे दरमियान अल्लाह काफी गवाह है कि हम को तुम्हारी इबादत की खबर भी न थी.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (२८-२९)
लअनत है ऐसे अल्लाह पर जो दो आस्था वानों में फूट डलवाने का काम भी करता हो, यह तो सरासर शैतानी हरकत है। वह महज़ मिटटी पत्थर के बुत नहीं हैं, अल्लाह यह भी साबित कर रहा है कि उसकी मर्ज़ी के मुताबिक वह बोलने लगेंगे, जब कि उनको वह हमेशा बेजान और सिफार बतलाता है मगर मुहम्मद कि खोपड़ी कुछ भी साबित कर सकती है।यहाँ बुतों को अल्लाह का गवाह बना रही है.
''आप जानदार चीज़ों से बेजान को निकल देते हैं(जैसे बैजा से चूजा) और बेजान चीज़ों से जानदार को निकल देता है (जैसे परिंदे से अंडा)
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (३१)
अल्लाह की इस बात को बार बार आपके गोश गुज़र करा देता हूँ कि शायद कभी आपको यह बात दिल पर लगे और शर्म आ जाए कि आप किस अल्लाह की इबादत कर रहे हैं.जिसको उस वक़्त इतनी तमीज भी न थी कि अंडे में जान होती है.
'' इस में कोई शक नहीं कि यह (कुरआन ) रब्बुल आलमीन के तरफ़ से नाज़िल हुवा है. क्या वह लोग कहते है कि आप ने इसे अपनी तरफ से बना लिया है? फिर तुम कहदो कि तुम इस के मिस्ल एक ही सूरह लाओ और जिन जिन गैर अल्लाह को बुला सको बुला लो अगर तुम चाहो.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (३८)
मुहम्मदी अल्लाह का चैलेंज कुरआन के बारे में बार बार है कि वह इसे मुहम्मद की रचना नहीं मानता गोया मुहम्मद खुद अपनी किताब कुरआन को अपनी नहीं मानते और अल्लाह का नाजिल ओ नुजूल मानते है. इसमें बड़ी चालाकी छिपी हुई है.इसकी सारी खामियां अल्लाह के सर जाती हैं. कुरआन की कोई सूरह या कोई आयत भी कोई साहबे अक्ल और साहबे जेहन नहीं बक सकता अलावः किसी दीवाने के.
''और बअजे हैं जो इस पर ईमान लाएँगे और बअजे हैं जो इस पर ईमान न लाएँगे और आप का रब इन मुफस्सिदों(झूटों) को खूब जनता है और अगर आप को झुट्लाते है तो कह दीजिए कि मेरा किया हुवा मुझको और तुम्हारा किया हुवा तुमको मिलेगा. तुम मेरे किए हुए के जवाब देह नहीं, मैं तुम्हारे किए का जवाब देह नहीं.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (४१)
मुहम्मद के मुहिम में एक वक़्त मजबूरी आन पड़ी थी कि ऐसी आयतें नाजिल होने लगीं (देखें तारिख इस्लाम) वर्ना जेहादी अल्लाह के मुँह से इस किस्म की बातें ? तौबा ! तौबा !! यह आयत आज मुल्लाओं और सियासत दानों के बहुत काम आ रहे हैं. जैसे मुहम्मद के काम वक्ती तौर पर आ गई थीं ताक़त मिलते ही फिर ये लोग जेहादी तालिबान बन जाएँगे.
'' इन में से कुछ ऐसे हैं जो आप की तरफ़ कान लगा कर बैठे हैं, क्या आप बहरों को सुनाते हैं कि जिनके अन्दर कोई समझ ही न हो. और बअज़ ऐसे हैं जो सिर्फ़ देख रहे हैं तो क्या आप अंधों को रास्ता दिखाना चाहते हैं, गो इनको बसीरत भी नहीं है. यकीनी बात है कि अल्लाह तअला लोगों पर ज़ुल्म नहीं करता लेकिन लोग खुद ही को तबाह करते हैं.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (४२-४४)
आप की बातों में कोई दम ख़म हो, कोई इन्क्शाफ हो, इन्क्शाफ के नाम पर जेहालत की बातें कि अण्डे को आप बेजान बतलाते हैं और उसमें से जानदार परिन्द निकलते हैं, फिर परिन्द से बेजान अण्डा निकलने का अल्लाह का मुआज्ज़ा दिखलाते है. आप के बातें वही ईसा मूसा की घिसी पिटी कहानियाँ दोहराती रहती हैं, कहाँ तक सुनें लोग? ऊंघने तो लगेंगे ही, अनसुनी तो करेंगे ही. आप कहते हैं कि वह सब हम्मा तन बगोश हो जाएँ. मुहम्मद की इन बातों से अंदाजः लगाया जा सकता है कि उनके गिर्द कैसे कैसे लोग रहते होंगे और उस वक़्त इस क़ुरआन की वक़अत क्या रही होगी ? क़ुरआन की वक़अत तो आज भी वही है मगर हराम खोर ओलिमा और तलवार की धार ने इस पर सोने का मुलम्मा चढ़ा रखा है. नमाज़ अगर दुन्या के लोगों की मादरी जुबानों में हो जय तो चन्द दिनों में ही इस्लाम की पोल पट्टी खुल जाय. अवाम नए सिरे से आप को नए लकबों से नवाजना शुरू करदे.
''लोग कहते हैं कि यह वादा (क़यामत का) कब वाक़ेअ होगा, अगर तुम सच्चे हो? आप फरमा दीजिए कि अपनी ज़ात खास के लिए किसी नफा या किसी नुकसान का अख्तियार नहीं रखता मगर जितना अल्लाह को मंज़ूर हो. हर उम्मत के लिए एक मुअय्यन वक़्त है. जब उनका यह मुअय्यन वक़्त आ पहुचता है तो एक पल न पीछे हट सकते हैं न आगे सरक सकते है.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (५०)
''क्या वह (क़यामत) वाक़ई है? आप फरमा दीजिए कि हाँ ! वह वाकई है और तुम किसी तरह उसे आजिज़ नहीं कर सकते.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (५३)
मुहम्मद ने मुसलमानों के लिए अल्लाह को हाथ, पाँव, नाक, कान, मुँह, दिल और इंसानी दिमाग़ रखने वाला एक घटिया हयूला का पैकर पेश कर रखा है, तभी तो मजबूर बीवियों की तरह अपने शौहर नुमा बन्दों से आजिज़ भी हो रहा है, वर्ना इंसानों और जिनों से दोज़ख के पेट भरने का वादा किए हुए अल्लाह को इनकी क्या परवाह होनी चाहिए। बेचारा मुसलमान हर वक़्त अपने परवर दिगार को अपने सामने तैनात खड़ा पता है. वह ससी हुई, सहमी सहमी ज़िन्दगी गुज़रता है. कुदरत की बख्शी हुई इस अनमोल जिसारत ए लुत्फ़ से लुत्फ़ अन्दोज़ ही नहीं हो पाता. क़यामत का खौफ लिए अधूरी ज़िन्दगी पर किनाअत करता हुवा इस दुन्या से उठ जाता है. कौम की माली, सनअती, तामीरी और इल्मी तरक्की में यह अल्लाह की फूहड़ आयतें बड़ी रुकावट बनी रहती हैं. अवाम जो इन बातों की गहराइयों में जाते हैं वह हकीक़त को समझने के बाद या तो इस से अपना दामन झाड़ लेते हैं या इसका फायदा उठाने में लग जाते हैं. हर मज़हब की लग-भग यही कहानी है.
''याद रखो अल्लाह के दोस्तों पर न कोई अंदेशा और न वह मगमूम होते हैं. वह वो हैं जो ईमान लाए और परहेज़ रखते हैं. इनके लिए दुन्यावी ज़िन्दगी में भी और आखरत में भी खुश खबरी है - - -''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (५३)
आज अल्लाह के दोस्तों पर तमाम दुन्या को अंदेशा है. हर मुल्क में मुसलामानों को मशकूक नज़रों से देखा जाता है. एक मुसलमान किसी मुसलमान पर भरोसा नहीं करता. इनकी हर बात इंशा अल्लाह के शक ओ शुबहा में घिरी रहती है. कोई वादा क़ाबिले एतबार नहीं होता. आखरत के नाम पर एक दूसरे को धोका दिया करते हैं. भोलेभाले अवाम आखरत का शिकार हैं.
कुरआन एक हज़ार बार कहता है जो कुछ ज़मीन और आसमान के दरमियान है अल्लाह का है. कौन काफ़िर कहता है कि यह सब उनके बुतों का है. या कौन मुल्हिद कहता है कि नहीं यह सब उसका है? कौन पागल कहता है कि अल्लाह का नहीं, सब बागड़ बिल्लाह का है, कि मुहम्मद उस से पूछते रहते हैं कि कोई दलील हो तो पेश करो. वह खुद अल्लाह के दलाल बने फिरते हैं, इसका सुबूत जब कोई पूछता है तो बड़ी आसानी से कह देते हैं कि इसका गवाह मेरा अल्लाह काफी है.
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (६५-७४)
नूह के बाद मुहम्मद मूसा का तवील क़िस्सा फिर नए सिरे से ले बैठते है. इनके तखरीबी ज़ेहन में दूसरे मौज़ूअ का ज्यादह मसाला भी नहीं है. शुरू कर देते हैं फिरौन और मूसा की मुकलमों की फूहड़ जंग जिसको पढ़ कर एहसास होता है कि एक चरवाहा इस से बढ़ कर क्या बयान कर सकता है. इसमें तबलीग इस्लाम की होश्यारी खटकती रहती है. अकीदत मंदों की लेंडी ज़रूर तर हुवा करती है यह और बात है.बयान का वाक़ेअय्यत से कोई लेना देना नहीं. मसलन - - -
''ए मूसा आप मुसलामानों को बशारत देदें और मूसा ने अर्ज़ किया ए हमारे रब ! तूने फिरौन को और इसके सरदारों को सामान तजम्मुल और तरह तरह के सामान ए दुनयावी, ज़िन्दगी में इस वास्ते दी हैं कि वह आप के रस्ते से लोगों को गुमराह करें? ए मेरे रब तू उनके सामान को नेस्त नाबूद कर दे और इनके दिलों को सख्त करदे, सो ईमान नलाने पावें, यहाँ तक कि अज़ाबे अलीम देख लें और फ़रमाया कि तुम दोनों की दुआ कुबूल कर लीं.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (७५-८९)
मुहमदी कुरआन की नव टंकी देखिए , रसूल खेत की कहते हैं, मूसा खलियान की सुनता है और अल्लाह गोदाम की कुबूल करता है.
इन आयतों को पढ़ कर मुहम्मद की गन्दी ज़ेहन्यत का अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि वह बनी नवअ इंसान के कितने हम दर्द थे फिर भी यह हराम जादे ओलिमा उनको मोह्सिने इंसानियत कहते नहीं थकते.
''और हमने बनी इस्राईल को दरिया के पार कर दिया, फिर उनके पीछे पीछे फिरौन मय अपने लश्कर के ज़ुल्म और ज़्यादती के इरादे से चला, यहाँ तक कि जब डूबने लगा तो कहने लगा मैं ईमान लाता हूँ बजुज़ इसके कि जिस पर बनी इस्राईलईमान ले हैं.कोई माबूद नहीं कि मैं मुसलमानों में दाखिल होता हूँ.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (९०)
क़ुरआन में कितना छल कपट और झूट है यह आयत इस बात की गवाही देती है - - -
१- क़ुरआन का अल्लाह यानी मुहम्मद बक़लम खुद कहते है कि फिरऑन मय अपने लस्कर के दरियाय नील पार कर रहा था और उसमें गर्क हुवा.
तौरेती तवारीख कहती है कि यह वाक़िया नील नदी नहीं बल्कि नाड सागर का है और लश्करे फिरौन गर्क हुई फिरौन नहीं.
२- क़ुरआन का अल्लाह यानी मुहम्मद बक़लम खुद कहते है कि फिरौन ''कहने लगा मैं ईमान लाता हूँ बजुज़ इसके कि जिस पर बनी इस्राईल ईमान लाए हैं'' यानि यहूदियत को छोड़ कर, जब कि वह यहूदियत के नबी मूसा के बद दुआ का शिकार हुवा था, दो हज़ार साल बाद पैदा होने वाले इस्लाम पर कैसे ईमान लाया? कि फिरौन कहता है ''कोई माबूद नहीं कि मैं मुसलमानों में दाखिल होता हूँ.'' यहूदियत की बेगैरती के साथ मुखालिफत करते हुए, बे शर्मी के साथ इस्लाम की तबलीग ? कोई मुर्दा कौम रही होगी जो इनबातों को तस्लीम किया होगा जो आज बेहिस मुसलमानों पर इस्लाम ग़ालिब है.
है कोई जवाब दुन्य के मुसलमानों के पास ? मुस्लिम सरबराहों के पास ? आलिमों और फज़िलों के पास ?
''फिर अगर बिल्फर्ज़ आप इस किताब कुरआन की तरफ़ से शक में हों जोकि हमने तुम्हारे पास भेजा है तो तुम उन लोगों से पूछ देखो जो तुम से पहले की किताबों को पढ़तेहैं यानी तौरेत और इंजील तो कुरआन को सच बतलाएंगे. बेशक आप के पास रब की सच्ची किताब है. आप हरगिज़ शक करने वालों में न हों और न उन लोगों में से हों जिन्हों ने अल्लाह की आयतों को झुटलाया. कहीं आप तबाह न हो जाएँ.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (९४-९५)
अपने रसूल को अल्लाह खालिक ए कायनात को समझाने बुझाने की ज़रुरत पड़ रही है कि खुदा नखास्ता यह भी आदम जाद है गुमराह न हो जाएं ।साथ साथ वह इनको ईसा मूसा का हम पल्ला भी करार दे रहा है. चतुर मुहम्मदने अवाम को रिझाने की कोई राह नहीं छोड़ी.

*देखें कि अल्लाह की इन बातों से आप कोई नतीजा निकल सकते हैं - - -
''अगर आप का रब चाहता तो तमाम रूए ज़मीन के लोग सब के सब ईमान ले आते. सो क्या आप लोगों पर ज़बर दस्ती कर सकते हैं, जिस से वह ईमान ही ले आएं. हालाँकि किसी का ईमान बगैर अल्लाह के हुक्म मुमकिन नहीं और वह बे अक्ल लोगों पर गन्दगी वाक़े कर देता है और जो लोग ईमान लाते हैं उनको दलायल और धमकियाँ कुछफ़ायदा नहीं पहुचातीं.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (१००)
यहाँ मुहम्मदी अल्लाह खुद अपनी खसलत के खिलाफ किस मासूमयत से बातें कर रहा है। ज़बरदस्ती, ज़्यादती, जौर व ज़ुल्म तो उसका तरीका ए कार है, यहाँ मूड बदला हुवा है. वह अपने बन्दों की रचना पहले बे अकली के सांचे से करता है फिर उन पर गलाज़त उँडेल कर मज़ा लेता है. मुसलमान उसके इस हुनर पर तालियाँ बजाते हैं. कैसा तजाद(विरोधाभास) है अल्लाह की आयत में कि बगैर उसके हुक्म के कोई ईमान नहीं ला सकता और ईमान न लाने वालों के लिए अजाब भी नाजिल किए हुए है. यह उसके कैसे बन्दे हैं जो उस से जवाब तलबी नहीं करते, वह नहीं मिलता तो कम अज कम उसके एजेंटों को पकड़ कर उनके चेहरों पर गन्दगी वाके करें.

निसार '' निसार-उल-ईमान''

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ऐतिहासिक सत्य में क़ुरआन की
Tabari VIII:150 "When their leader, Rifa'ah, came within range, I shot an arrow into his heart. I leaped at him and cut off his head. Then I rushed toward the encampment and shouted, 'Allahu Akbar!' The families who were gathered there shouted, 'Save yourself.' They gathered what property they could, including their wives and children. We drove away a great herd of camels and many sheep and goats and brought them to the Messenger. I brought him Rifa'ash's head, which I carried with me. The Prophet gave me thirteen camels from that herd as booty, and I consummated my marriage." Page after page, Hadith after Hadith, it's just overwhelming. It's hard to believe that anything could be this destructive - annihilating people, property, and values.
Consistent with that theme, the next Islamic Tradition infers that terror was more profitable than working and that booty came in many forms, some more pleasing than others. Tabari VIII:151 "The Prophet sent Ibn Abi out with a party of sixteen men. They were away for fifteen nights. Their share of booty was twelve camels for each man, each camel was valued in the accounting as being worth ten sheep. When the people they raided fled in various directions, they took four women, including one young woman who was very beautiful. She fell to Abu Qatadah. The Prophet asked Abu about her. Abu said, 'She came from the spoils.' The Messenger said, 'Give her to me.' So Abu gave her to him, and the Prophet gave her to Mahmiyah."
Kidnapping, selling, and trading humans is an abomination - especially when it entails young women for sex. And while America is not without blame, our forefathers knew slavery was wrong and ultimately 600,000 Americans died trying to settle the matter. No one claimed that he had received scripture revelations approving slavery or rape. And no American founded a religion based upon the capture and sale of humans. Muhammad did.
Tabari VIII:151 "Allah's Apostle sent us to Idam. This was before the conquest of Mecca. As Adbat passed us, he greeted us with the greeting of Islam, 'Peace be upon you.' [Think about how perverted and deceitful that greeting was, and continues to be, in the midst of this barbarism.] So we held back from him. But Muhallim attacked him because of some quarrel, and he killed him. Then he took his camel and his food. When we reported what had happened to the Prophet, he said that the following Qur'an was revealed concerning us: 'Believers, when you are journeying in the path of Allah, be discriminating." This was from Qur'an 4:94 which actually dates to the prior year. But by providing this Hadith, Muhammad confirmed that my interpretation was correct.
Tabari VIII:152/Ishaq:531 "While the polytheists supervised the hajj pilgrimage, the Prophet sent out his expedition to Syria and its members met with disaster at Mu'ta." This was supposed to be the first Islamic raid on Christians, but it did not go well. "They equipped themselves and set out with 3,000 men. As they bade farewell, the Commanders of Allah's Apostle saluted him." However, we are told that one of them was crying. "What is making you weep.' someone asked. He said, 'I heard the Prophet recite a verse from the Qur'an in which Allah mentioned the Fires of Hell: "Not one of you there is, that shall not go down to it, that is a thing decreed." I do not know how I can get out of Hell after going down there.'" In other words, Muhammad scared him to death.
Marching off to kill and plunder Christians, the Muslim militants sang the following tune in rajaz meter: Tabari VIII:153/Ishaq:532 "I ask the Merciful One for a pardon and for a sword that cuts wide and deep, creating a wound that shoots out foaming blood. I ask for a deadly thrust by a thirsty lance held by a zealous warrior that pierces right through the guts and liver, slitting the bowels. People shall say when they pass my grave, 'Allah guided him, fine raider that he was, O warrior, he did well.'" Lovely.
Tabari VIII:153/Ishaq:532 "The men journeyed on and encamped at Mu'an in the land of Syria. They learned that Heraclius come with 100,000 Greeks and Byzantines joined by 100,000 Arabs and that they had camped at Ma'ab." That's not true, but why bicker over facts now. There is much more at stake than errant reporting. Tabari VIII:154 "The Muslims spent two nights pondering what to do. [Unable to think on their own...] They were in favor of writing to the Prophet to inform him of the number of the enemy. 'Either he will reinforce us or he will give us his command to return.'" Muslims lose their ability to think wisely or independently. These men were outnumbered sixty to one. They were facing, for the first time, a real army. These were not merchants or farmers - these were actual soldiers.
Tabari VIII:153/Ishaq:533 "Abdallah Rawahah encouraged the men, saying, 'By Allah, what you loathe is the very thing you came out to seek - martyrdom. We are not fighting the enemy with number, strength, or multitude, but we are fighting them with this religion with which Allah has honored us. So come on! Both prospects are fine: victory or martyrdom.' So they went forward." These men had been sent out as Jihadists on a Holy War by none other than Islam's lone prophet. Their motivation was to die martyrs and thus gain entry into Allah's whorehouse. Thus fundamental Islam is no different than the Islam that motivated the 9/11 suicide bombers.
Like the victims of every other Islamic terrorist raid, the Byzantines had done nothing to the Muslims. But unlike so many others, these men were prepared. Tabari VIII:155 "When I heard a verse being recited, I wept. Someone tapped me with a whip and said, 'What's wrong little fellow?' 'Allah is going to reward me with martyrdom, and I am going back between the horns of the camel saddle.'"
Tabari VIII:156/Ishaq:534 "The men journeyed on and were met by Heraclius' armies of Romans and Arabs. When the enemy drew near the Muslims withdrew to Mu'ta, and the two sides encountered each other. Zayd fought with the war banner of the Messenger until he perished among the enemy's javelins. Ja'far took it next but could not extricate himself from difficulties. He fought until he was killed. Abdallah took up the banner, urging his soul to obey. He hesitated and then said, 'Soul, why do you spurn Paradise?' He took up his sword, advanced, and was killed. Then Thabit took the banner. He said, 'O Muslims, agree on a man from among yourselves.' They said, 'You.' I said, 'No.' So they gave it to Khalid. He deflected the enemy in retreat, and escaped."
When the defeated militants returned, Muhammad had no compassion for the families of his fallen comrades. Ishaq:535 "The women began to cry after learning about Ja'far's death. Disturbed, Muhammad told Abd-Rahman to silence them. When they wouldn't stop wailing, Allah's Apostle said, 'Go and tell them to be quiet, and if they refuse throw dust in their mouths.'"
Trying to make hell look like paradise, and stifle the whining: Tabari VIII:158 "The Prophet ascended his pulpit and said, 'A gate to good fortune. I bring you news of your campaigning army. They have set out and have met the [Christian] enemy. Zayd has died a martyr's death.' He prayed for his forgiveness. He said, 'Ja'far has died a martyr's death,' and prayed for his forgiveness." ...and so on down the list. My question is, if Muhammad wanted to fool them with "martyrdom earns paradise," why ask for forgiveness. It weakened his case.
Then in typical Islamic fashion, the head cleric who had ordered men to martyrdom while he remained home in the arms of his consorts, tried once again to quell an angry city. Tabari VIII:159 "The people began to throw dust at the army, saying, 'You retreating runaways. You fled in the Cause of Allah.' But the Messenger said, 'They are not fleers. Allah willing, they are ones who will return to fight another day.""
A poem recited on this occasion reads: Ishaq:538 "While the eyes of others shed tears in the night of sorrows, I wasn't sobbing। I felt the shepherd of Ursa and Pisces [making Muhammad an Occult prophet] between my ribs and bowels, piercing me with pain, afflicting me. Allah bless the martyrs lying dead at Mu'ta. Refresh their bones for they fought for Allah's sake like good Muslims, stallions clad in mail. Their ranks were trapped and now they lay prostrate. The moon lost its radiance at their death. The sun was eclipsed and it became dark. We are a people protected by Allah to whom he has revealed His Book, excelling in glory and honor. Our enlightened minds cover up the ignorance of others. They would not embark on such a vicious enterprise. But Allah is pleased with our guidance and the victorious good fortune of our apostolic Prophet." Good and bad have been inverted.

Prophet of Doom

Saturday, 17 April 2010

क़ुर आन - सूरह यूनुस -१०

आम मुसलमान मुहम्मद कालीन युग में इस्लाम पर ईमान लाने वाले मुसलामानों को जिन्हें सहाबी ए कराम कहा जाता है, पवित्र कल्पनाओं के धागों में पिरो कर उनके नामों की तस्बीह पढ़ा करते हैं, जब कि वह लोग ज़्यादः तर गलत थे, वह मजबूर, लाखैरे, बेकार और खासकर जाहिल लोग हुवा करते थे. क़ुरआन और हदीसें खुद इन बातों के गवाह हैं. अगर अक़ीदत का चश्मा उतार के तलाशे हक़ की ऐनक लगा कर इसका मुतालिआ किया जाए तो सब कुछ कुरआन और हदीसों में ही न अयाँ और निहाँ है . आम मुसलमान मज़हबी नशा फरोशों की दूकानों से और इस्लामी मदारियों से जो पाते है वही जानते हैं, इसी को सच मानते हैं. क़ुरआन में मुहम्मद का ईजाद करदा भारी आसमान वाला अल्लाह अपनी जेहालत, अपनी हठ धर्मी, अपनी अय्यारियाँ, अपनी चालबाजियाँ, अपनी दगाबज़ियाँ, अपने दारोग (मिथ्य), अपने शर और साथ साथ अपनी बेवकूफ़ियाँ खोल खोल कर बयान करता है. मैं तो क़ुरआनी फिल्म का ट्रेलर भर आप के सामने अपनी तहरीरों में पेश कर रहा हूँ. मेरा दावा है कि मुसलामानों को अँधेरे से बाहर निकालने के लिए एक ही इलाज है कि इनको नमाज़ें इनकी मादरी ज़ुबान में तर्जुमें की शक्ल में पढाई जाएँ . मुसलमान हैं तो इन पर लाजिम कर दिया जाए क़ुरआनी तर्जुमा बगैर तफसीर निगारों की राय के इन्हें बिल्जब्र सुनाया जाए. जदीद क़दरों के मुकाबिले में क़ुरआनी दलीलें रुसवा की जाएँ जोकि इनका अंजाम बनता है तब जाकर मुसलमान इंसान बन सकता है।
आइए चलें बे कद्र और अदना तरीन कुरानी आयतों पर - - -

''अलरा''
यह भी अल्लाह की एक आयत है, उसकी कही हुई कोई बात है जिसके मानी बन्दे नहीं जानते। मुहम्मद और मुल्ले कहते हैं इसका मतलब अल्लाह ही बेहतर जानता है. यह वैसे ही है जैसे किसी करतब से पहले मदारी कोई मोहमिल मन्त्र की ललकार भरता है। इसको क़ुरआनी इस्तेलाह में हुरूफे मुक़त्तेआत कहते हैं. मुहम्मद ने मदारियों की नकल में सूरह शुरू करने से पहले अक्सर ऐसा किया है.

''यह पुर हिकमत किताब की आयतें हैं.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (१)
पूरे क़ुरआन में इस जुमले को बार बार दोहराया गया है और इस बेढंगी किताब को कुराने-हकीम कहा गया है। मगर इसमें हिकमत के नाम पर एक सूई की ईजाद भी नहीं है बखान है तो कुदरत के उन कारगुजारियों की जिसको दुन्या रोज़े अव्वल से जानती है। बहुत सी गलत और फूहड़ जानकारियां अल्लाह ने क़ुरआनमें गुमराह कुन ज़रूर पेश की हैं।

''क्या मक्का के लोगों को इस बात से तअज्जुब है कि हम ने उन लोगों में से एक के पास वही भेज दी कि सब लोगों को डराए और जो ईमान लाएँ उन को खुश खबरी सुनाएँ कि उन के रब के पास उन को पूरा मर्तबा मिलेगा. काफ़िर कहते हैं कि वह शख्स बिला शुबहा सरीह जादूगर है,''
बिला शुबहा तुम्हारा रब अल्लाह ही है जिसने आसमानों और ज़मीन को चार को दिनों में पैदा कर दिया और फिर अर्श पर कायम हुवा.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (२-३)
फिर इसके बाद अल्लाह को आसमान से उतरने की फुर्सत न रही न ताक़त न ज़रुरत. वह मुहम्मद और मूसा जैसे लोगों को अपना पयम्बर बना बना कर भेजता रहा कि जाओ और हमारी ज़मीन पर मन मानी करो. मेरे नाम पर अपने गढ़े हुए झूटों की बुन्यादे रक्खो और ज़मीन पर फ़साद के बीज बोते रहो. मक्का के लोगों को इस बात पर न कभी तअज्जुब हुवा न यक़ीन कि उनमे से ही जाना बूझा एक अनपढ़ अल्लाह का नबी बन गया है, हाँ! इन के लिए मुहम्मद कुछ दिनों के लिए मशगला ज़रूर बन गए थे बाद में एक बड़ी बद अमनी बन करअज़ाब बने.
मक्का के लोगों ने मुहम्मद को कभी भी जादूगर नहीं कहा न ही इनके कलाम में जादूइ असर की बात की, यह तो खुद मुहम्मद अपनी तारीफ में बार बार यह बात कहते हैंकि क़ुरआनी बातें जादूई असर रखती हैं जो कि उल्टा उनके खिलाफ जाती हैं. तर्जुमानों के लिए बड़ी मुश्किल पैदा होती है वह इस तरह बात को इस तरह
रफू करते हैं ---''नौज बिल्लाह जादू चूंकि झूट होता है यहाँ अल्लाह के कहने का मतलब है कि - - -''इस के बाद वह अपना झूट लिखते हैं.
मक्का के लोग मुहम्मद को दीवाना समझते थे और इनके कुरआन को दीवानगी. दीवानगी के आलम में अगलों से चली आ रही सुनी सुनाई बातें. यही सच है कुरआन में इस केअलावः अगर कुछ है तो जेहादी लूट मार.

''जिन लोगों को हमारे पास आने का खटका बिलकुल नहीं और वह दुनयावी ज़िन्दगी पर राज़ी हो गए हैं और जो लोग हमारी आयातों से बिलकुल गाफिल हैं, ऐसे लोगों का ठिकाना उनके आमाल की वजेह से दोज़ख है. जो शख्स अल्लाह और रसूल की पूरी इताअत करेगा, अल्लाह तअला उसको ऐसी बहिश्तों में दाखिल kar देंगे जिसके नीचे नहरें जारी होंगी, हमेशा हमेशा इन में रहेंगे. यह बड़ी कामयाबी है.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (७-९ )
दुन्या की बुलंद और बाला तर हस्तियों के आगे अवाम उनकी रूहानियत के कायल हो कर हाथ जोड़े दर्शन के लिए खड़े रहते हैं और मुहम्मद अवाम के आगे बेरूह कुरानी आयतें लिए पैगम्बरी की फेरी लगाते फिरते हैं कि मैं बक़लम खुद पैगम्बर हूँ और वह हर जगह से मारे भगाए जाते हैं. देखिए कि उनके दावत में कोई दम है? कुंद जेहन अकीदत मंद और अय्यार आलिमान ए दीन कहेंगे क़ि'' फिर इस्लाम इतना क्यूँ और कैसे फ़ैल गया ?'' जवाब है '' बाजोर तलवार और बाजारी ए माले-गनीमत

''और
अगर अल्लाह तअला इन लोगों पर इन के जल्दी मचाने के मुवाफ़िक, जल्दी नुकसान वाक़े कर दिया करता जिस तरह वह फायदे के लिए जल्दी मचाते हैं, तो इसका वादा ए अज़ाब कभी का पूरा हो गया होता - - - इस लिए हम इन लोगों को जिनको हमारे पास आने का खटका नहीं है , बिना अज़ाब चन्द रोज़ छोड़े रहते हैं क़ि वह अपनी सर कशी में चन्द रोज़ भटकते फिरेंगे ।''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (11)
मुसलमान कौम फटीचरों का गिरोह थी जब वजूद में आई इस के हाथ में कुछ न था यह भूखे नंगों की अक्सरीयत थी. इसकी पैदाशी फितरत थी खुश हालों की मुखालफत, गो कि दूसरों को लूट के खुश हाली की चाहत. अंजाम कार दूसरों का बद ख्वाह खुद अपनी कब्र खोदता है, यह कौम हमेशा बद हाल रही और दूसरों के निशाने पर रही.खुद मुसलमानो का खुश हाल हो जाना बड़ी मुसीबत है, हर घडी दीनी हराम खोर दामन फैलाए उसके दर पर खड़े रहते हैं।

''जब इंसान को कोई तकलीफ पहुँचती है तो हम को पुकारने लगता है, लेटे भी, बैठे भी और खड़े भी, फिर जब हम इसकी तकलीफ हटा देते हैं तो फिर अपनी पहली हालत पर आ जाता है. जो शख्स अल्लाह और रसूल की पूरी इताअत करेगा, अल्लाह तअला उसको ऐसी बहिश्तें में दाखिल करेंगे जिसके नीचे नहरें जरी होंगी। हमेशा हमेशा इनमें रहेगे, यह बड़ी कामयाबी है.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (12)
ऐ मुहम्मदी अल्लाह! तू मुसलामानों को तकलीफ में मुब्तिला ही क्यूँ करता है? क्या इस लिए कि वह तुझ को पुकारें? तकलीफ दूर हो जाने के बाद भी क्या तू चाहता है कि वह अल्ला हू अल्ला हू करता रहे?
मुसलामानों! क़ुदरत ने अपने मख्लूक़ के लिए एक निज़ाम सादिक़ बना कर खुद को इसके इंतेज़ाम से अलग थलग कर रखा है जिसकी वज़ाहत तुलसी दास ने बहुत खूब की है - - -
धरा को प्रमाण यही तुलसी, जो फरा, सो झरा, जो बरा, सो बुताना.
जिसे फ़ारसी में कुछ यूँ कहा गया है- - -'' हर कमाले रा ज़वाल.''
मुहम्मद इस निज़ाम ए कुदरत में अपनी क़ुरआनी खिचड़ी उबाल कर दुन्या को गुमराह किए हुए हैं. जागो! बहुत पीछे हो चुके हो!! और पीछे हो जागो तुम्हारे लिए अल कायदा, तालिबानियों और जैश ए मुहम्मद ने जहन्नम तैयार कर रक्खी है।

''और हमने तुम से पहले बहुत से गिरोहों को हालाक कर दिया, जबकि उन्हों ने ज़ुल्म किया (यानी कुफ़्र और शिर्क) हालाँकि इनके पैगम्बर दलायल लेकर आए. वह ऐसे लोग कब थे कि ईमान ले आते. हम मुजरिम लोगों को ऐसी ही सजा दिया करते हैं, फिर दुन्या में बजाए उनके तुम को आबाद किया कि ज़ाहिरी तौर पर हम देख लें कि तुम कैसा काम करते हो. जो शख्स अल्लाह और उसके रसूल की पूरी इताअत करेगा, अल्लाह तअला उसको ऐसी बहिश्तों में दाख़िल कर देंगे जिसके नीचे नहरें जारी होंगी, हमेशा हमेशा इसमें रहेंगे, ये बड़ी कामयाबी है.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (१३-१४)
इंसानी गिरोह के नादान और इस सदी के मासूम, सीधे सादे मुसलामानों! क्या तुम्हारा अल्लाह ऐसा ज़ालिम होना चाहिए जो कह रहा है कि उसने इंसानी गिरोहों को हलाक कर दिया है, सोचिए कि उसने ऐसे इंसानी गिरोह पैदा ही क्यों किया? उनको ऐसी नाकिस अक्ल ही क्यूं दी? जो इतना बेवकूफ कि इंसानों के ज़ाहिर को देखना चाहता है, उसका बातिन कैसा भी हो? जो धमकी दे रहा हो कि ईमान न लाए तो तुहारे मादरे वतन हिंद पर तुम को मिटा कर चीनियों और जापानियों को आबाद कर देगा. जो मुहम्मद की पुर जेहल बातों को दलायल भरी बातें मानता हो? वह कोई अल्लाह हो सकता है? सोचो कि तुम अल्लाह के धोखे में किसी फ्रोड की इबादत तो नहीं कर रहे हो. कुरान में बार बार दोहराता है ''जो शख्स अल्लाह और उसके रसूल की पूरी इताअत करेगा, अल्लाह तअला उसको ऐसी बहिश्तों में दाख़िल कर देंगे जिसके नीचे नहरें जारी होंगी, हमेशा हमेशा इसमें रहेंगे, ये बड़ी कामयाबी है.'' अगर सर्द मुल्कों में ऐसे नहरों वाले घर मिल जाएं तो अजाब ही होंगे मगर कुवें के मेंढक मुहम्मद को अरब के सिवा इल्म कि क्या था।

''और जब इनके सामने हमारी आयतें पढ़ी जाती हैं जो बिलकुल साफ़ साफ़ हैं तो यह लोग जिनको हमारे पास आने का बिलकुल खटका नहीं है, कहते है इसके अलावः कोई दूसरा कुरआन लाइए या कम अज़ कम इसमें कुछ तरमीम कर दीजिए. आप कह दीजिए कि मुझसे यह नहीं हो सकता कि मैं इस में अपनी तरफ़ से कुछ तरमीम कर दूं. बस मैं तो इसी की पैरवी करूँगा जो मेरे पास वहिय के ज़रिए भेजा गया है, अगर मैं इसमें अपने रब की ना फ़रमानी करूँगा तो मैं एक बड़े भारी दिन के अज़ाब का अंदेशा रखता हूँ.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (१५)
इस्लाम बुत परस्ती के खिलाफ़ मक़बूल हो रहा था। कुछ संजीदा और साहिबे इल्म लोग भी इसमें शामिल हो रहे थे जिनको कुरआन फ़ितरी तौर पर हज्म नहीं हो रहा था (जैसे कि आज तक इन मक्कार और खुद गरज़ ओलिमा के सिवा इसको समझने के बाद यह किसी को हज्म नहीं होता) लोग कुरआन को इस्लामी तहरीक से जुदा कर देना चाहते थे या फिर इसकी इस्लाह चाहते थे. चालाक मुहम्मद यह बात अच्छी तरह जानते थे कि अल्लाह से वहिय (ईश वाणी) का सिसिला ही उनकी पैगम्बरी की बुन्याद है. वह इससे एक सूत भी पीछे हटने को तैयार न थे. बिल आखीर उनको कहना पड़ा कि कुरआन तिलावत की चीज़ है ना कि समझने समझाने की. कुरआन का झूट ही मुसलामानों के दिलो-दिमाग और वजूद परग़ालिब है. इससे जिस दिन मुसलामानों को नजात मिल जाएगी उस दिन से उसका उद्धार शुरू हो जायगा,

''और यह लोग अल्लाह की तौहीद (एक ईश्वर वाद) को छोड़ कर ऐसी चीज़ों की इबादत करते हैं जो इन लोगों को ज़रर पहुँचा सकें न नफ़ा पहुंचा सकें और कहते हैं कि यह अल्लाह के पास हमारे सिफारशी हैं. आप कह दीजिए कि क्या तुम अल्लाह तअला को ऐसी चीज़ की खबर देते हो जो कि उसे मालूम नहीं?''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (१८)
इस्लाम के मुताबिक़ कुफ़्र वह है जो अल्लाह वाहिद लाशारीक को छोड़ कर किसी और को अल्लाह माने जो उमूमन हिन्दू बुद्ध और जैन वगैरह मानते हैं और शिर्क वह है जो अल्लाह वाहिद लाशारीक के साथ किसी को शरीक करे। इस सिलसिले में बावजूद इस्लाम के सब से ज़्यादः बर्रे सागीर का मुस्लमान शिर्क ज़दा है। कब्र पुज्जे सब से ज्यादह उप महाद्वीप में ही मिलेंगे. यह इंसानी फितरत है जहाँ हर अल्लाह फ़ेल है.
मुहम्मद को मालूम था कि इन मिनी अल्लाहों को अगर मिटा दिया जाए तो इस दुन्या में सिर्फ उनका नाम रह जायगा। जिसमे किसी हद तक वह कामयाब रहे मगर झूट केबद तरीन अंजाम के साथ.

''और यह लोग कहते हैं इन पर(मुहम्मद पर) इनकी रब की तरफ़ से कोई मुअज्ज़ा क्यूं नाज़िल नहीं हुवा? सो आप कह दीजिए को ग़ैब की खबर सिर्फ़ अल्लाह को है सो तुम भी मुन्तज़िर रहो, तुम्हारे साथ हम भी मुन्तज़िर हैं.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (२०)
मूसा और ईसा के बहुत से मुआज्ज़े(चमत्कार)थे जिनको देख कर लोग क़ायल हो जाया करते थे और उनकी हस्ती को तस्लीम करते थे. मूसा के करिश्मे कि पानी पर लाठी मारके उसे फाड़ देना, लाठी को ज़मीन पर डालकर उसे सांप बना देना, दरयाय नील को अपनी लाठी के लम्स से सुर्ख कर देना, नड सागर को दो हिस्सों में तक़सीम करके बीच से रास्ता बना देना वगैरह वगैरह. इसी तरह ईसा भी चलते फिरते करिश्में दिखलाते थे. बीमार को सेहत मंद कर देना, कोढियों को चंगा करदेना, सूखे दरख़्त को हरा भरा कर देना और बाँझ औरत की गोद भर देना वगैरह वगैरह. लोग मुहम्मद से पूछा करते कि आप बहैसियत पैगम्बर क्या मुअज्ज़े रखते हैं तो जवाब में मुहम्मद बजाय अपने करिश्मे दिखलाने के कुदरत के कारनामें गिनवाने लगते, जैसे रात के पीछे दिन और दिन के पीछे रात के आने का करिश्मा, मेह से पानी बरसने का करिश्मा, ज़मीन के मर जाने और पानी पाकर जी उठने का करिश्मा, अल्लाह को हर बात के इल्म होने का करिश्मा. किस कद्र ढीठ और बेशर्मी का पैकर थे वह करिश्मा साज़. बाद में रसूल के प्रोपेगंडा बाजों नें रसूली करिश्मों के अम्बार लगा दिए. पानी की कमयाबी अरब में मसला-ए-अज़ीम था, सफ़र में पानी की जहाँ कमी होती लोग प्यास से बिलबिला उठते, बस रसूल की उँगलियों से ठन्डे पानी के चश्में फूट निकलते. लोग सिर्फ प्यास ही न बुझाते, वजू भी करते बल्कि नहाते धोते भी. रसूल हांड़ी में थूक देते, बरकत ऐसी होती की दस लोगों की जगह सैकड़ों अफराद भर पेट खाते और हांड़ी भरी की भरी रहती. इस किस्म के दो सौ चमत्कार मुहम्मद के मदद गार उनके बाद उनके नाम से जोड़ते गए.
मुहम्मद जीते जी लोगों के तअनो से शर्मसार हुए तो दो मुअज्ज़े आख़िरकार गढ़ ही डाले जो मूसा और ईसा के मुअज्जों को ताक़ पर रख दें. पहला यह कि उंगली के इशारे से चाँद के दो टुकड़े कर दिए जिसे ''शक्कुल क़मर'' नाम दिया. दूसरा था पल भर में सातों आसमानॉ की सैर करके वापस आ जाना, इसको नाम दिया ''मेराज''। यह बात अलग है कि इसका कोई गवाह नहीं सिवाय अल्लाह के. अफ़सोस कि मुसलामानों का यह गैर फितरी सच ईमान बन गया है।

निसार '' निसार-उल-ईमान''

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ऐतिहासिक सत्य में क़ुरआन की हक़ीक़त



Moving from the Qur'an to the Hadith we find that one book was as violent as the other. Tabari VIII:139 "In this year the Messenger of Allah commanded Ghalib Abdallah to go on a raid to Kadid against the Mulawwih [a confederate of the Banu Bakr]. They traveled until they encountered Harith. Ghalib said, 'We captured Harith, but he said, 'I came only to become a Muslim. Ghalib replied, 'If you have come as a Muslim, it will not harm you to be bound for a day. If you have come for another purpose, we shall be safe from you.' So he secured him with rope and left a little black man in charge, saying, 'If he gives you any trouble, cut off his head.'"
Tabari VIII:140 "We continued on until we came to the bottomland of Kadid and halted toward evening, after the mid-afternoon prayer. My companions sent me out as a scout. I went to a hill that gave me a view of the settlement and lay face down on the ground. One of their men looked and saw others lying with me on the hill. He said to his wife, 'I see something. Let's see what the dogs have dragged away.' She wasn't missing anything so he asked her for his bow and arrows. He shot twice and hit my side and shoulder, but I did not move. He said, 'If it were a living thing it would have moved.'"
Proving that the religion corrupted the terrorists rather than the other way around: Tabari VIII:141 "We gave them some time until their herds had come back from pasture. After they had milked their camels and set them out to rest, we launched our raid. We killed some of them, drove away their camels, and set out to return. Meanwhile, the people appealed for aid from the rest of their tribe. But we moved quickly. When we passed Harith [the man they had bound on the way to the raid], we grabbed him. Reinforced, the villagers were too powerful for us. But Allah sent clouds from out of the blue, and there was a torrent that no one could cross so we eluded the tribesmen with what we had taken. The battle cry of the Companions of the Messenger of Allah that night was: 'Kill! Kill! Kill!'" If this were the only Hadith in all of Islam it would be sufficient to prove that Muhammad's scam was responsible for manufacturing terrorists. But it does not stand alone. It is but one of a thousand confirmations shouting out to all who will listen: Islam causes men to: "Kill! Kill! Kill!"
Moving to the next Hadith, we find Muhammad sending another letter. Tabari VIII:142 "Whoever prays our prayer, eats of our sacrifice, and turns to our Qiblah is a Muslim. Incumbent on whoever refuses is the payment of the jizyah tax." It was all about the money. If you surrender, you pay the zakat. If you don't submit you pay the jizyah. But either way you pay the piper.
Tabari VIII:142 "The Messenger made peace with them on condition that the Zoroastrians should be required to pay the jizyah tax [so onerous, it's akin to economic suicide] that one should not marry their women. The Prophet exacted the zakat tax on the wealth of the two men who [said that they] believed in him and collected the jizyah from all of the Zoroastrians." Khadija's Profitable Prophet Plan was paying dividends.
Tabari VIII:143 "In this year a twenty-four man raiding party led by Shuja went to the Banu Amir. He launched a raid on them and took camels and sheep. The shares of booty came to fifteen camels for each man. Also a raid led by Amr went to Dhat. He set out with fifteen men. He encountered a large force whom he summoned to Islam. They refused to respond so he killed all of them." I do believe that Allah lied in the 2nd surah when he said: Qur'an 2:256 "There is no compulsion in the matter of religion."
Consistent with the Qur'anic mantra, the Hadith confirms that Islam was about obedience to Muhammad. Tabari VIII:145 "The Prophet said, 'Amr, swear allegiance; for acceptance of Islam cuts off what went before.' So I swore allegiance to him."
Following this brief "religious" interlude, the Hadith returns to the never-ending saga of terrorist raids. Tabari VIII:146 "The Prophet sent Amr to Salasil with 300 men. The mother of As was a woman from Quda'ah. It has been reported that the Messenger wanted to win them over by that. Amr asked for reinforcements from the Ansar and Emigrants including Bakr and Umar with 200 more men." While it's not clear what happened in Salasil, we soon find the same gang heading for Khabat. Tabari VIII:147 "During the expedition they suffered such severe dearth and distress that they divided up the dates by number. For three months they ate leaves from trees."
Naturally, that leads us to another raid, this one for sex. Tabari VIII:149 "Abdallah married a woman but couldn't afford the nuptial gift. He came to the Prophet and asked for his assistance." But the miserly warlord said, "I have nothing with which to help you." So our love starved Muslim accepted a summons from his prophet: "'Go out and spy on the Jusham tribe.' he asked. He gave me an emaciated camel and a companion. We set out armed with arrows and swords. We approached the encampment and hid ourselves. I told my companion, 'If you hear me shout Allahu Akbar and see me attack, you should shout Allah is Greatest and join the fighting.'"
Prophet of Doom


Wednesday, 7 April 2010

क़ुरआन सूरह तौबः ९



सूरह तौबह --९
Repentance --9
F
अंडे में इनक़्लाब



इंसानीजेहन जग चुका है और बालिग़ हो चुका है. इस सिने बलूगत की हवा शायद ही आज किसी टापू तक न पहुँची हो, वगरना रौशनी तो पहुँच ही चुकी है, यह बात दीगर है कि नसले-इंसानी चूजे की शक्ल बनी हुई अन्डे के भीतर बेचैन कुलबुलाते हुए अंडे के दरकने का इन्तेज़ार कर रही है. मुल्कों के हुक्मरानों ने हुक्मरानी के लिए सत्ता के नए नए चोले गढ़ लिए हैं. कहीं पर दुन्या पर एकाधिकार के लिए सिकंदारी चोला है तो कहीं पर मसावात का छलावा. धरती के पसमांदा टुकड़े बड़ों केपिछ लग्गू बने हुए है. हमारे मुल्क भारत में तो कहना ही क्या है! कानूनी किताबें, जम्हूरी हुकूक, मज़हबी जूनून, धार्मिक आस्थाएँ , आर्थिक लूट की छूट एक दूसरे को मुँह बिरा रही हैं. ९०% अन्याय का शिकार जनता अन्डे में क़ैद बाहर निकलने को बेकरार है, १०% मुर्गियां इसको सेते रहने का आडम्बर करने से अघा ही नहीं रही हैं. गरीबों की मशक्क़त ज़हीन बनियों के ऐश आराम के काम आ रही है, भूखे नंगे आदि वासियों के पुरखों के लाशों के साथ दफन दौलत बड़ी बड़ी कंपनियों के जेब में भरी जा रही है और अंततः ब्लेक मनी होकर स्विज़र लैंड के हवाले हो रही है. हजारों डमी कंपनियाँ जनता का पैसा बटोर कर चम्पत हो जाती हैं. किसी का कुछ नहीं बिगड़ता. लुटी हुई जनता की आवाज़ हमें गैर कानूनी लग रही हैं और मुट्ठी भर सियासत दानों , पूँजी पतियों, धार्मिक धंधे बाजों और समाज दुश्मनों की बातें विधिवत बन चुकीहैं. कुछ लोगों का मानना है कि आज़ादी हमें नपुंसक संसाधनों से मिली, जिसका नाम अहिंसा है.सच पूछिए तो आज़ादी भारत भूमि को मिली, भारत वासियों को नहीं. कुछ सांडों को आज़ादी मिली है और गऊ माता नहीं. जनता जनार्दन को इससे बहलाया गया है. इनक़्लाब तो बंदूक की नोक से ही आता है, अब मानना ही पड़ेगा, वर्ना यह सांड फूलते फलते रहेंगे. स्वामी अग्निवेश कहते हैं कि वह चीन गए थे वहां उन्हों ने देखा कि हर बच्चा गुलाब के फूल जैसा सुर्ख और चुस्त है. जहाँ बच्चे ऐसे हो रहे हों वहां जवान ठीक ही होंगे.कहते है चीन में रिश्वत लेने वाले को, रिश्वत देने वाले को और बिचौलिए को गोली मारदी जाती है. भारत में गोली किसी को नहीं मरी जाती चाहे वह रिश्वत में भारत को ही लगादे. दलितों, आदि वासियों, पिछड़ों, गरीबों और सर्व हारा से अब सेना निपटेगी. नक्सलाईट का नाम देकर ९०% भारत वासियों का सामना भारतीय फ़ौज करेगी, कहीं ऐसा न हो कि इन १०% लोगों को फ़ौज के सामने जवाब देह होना पड़े कि इन सर्व हारा की हत्याएं हमारे जवानों से क्यूं कराइ गईं? और हमारे जवानों का खून इन मजलूमों से क्यूं कराया गया?

चौदह सौ साल पहले ऐसे ही धांधली के पोषक मुहम्मद हुए और बरबरियत के क़ुरआनी कानून बनाए जिसका हश्र आज यह है कि करोड़ों इंसान वक्त की धार से पीछे, खाड़ियों, खंदकों, पोखरों और गड्ढों में रुके पानी की तरह सड़ रहे हैं। वह जिन अण्डों में हैं उनके दरकने के आसार भी ख़त्म हो चुके हैं. कोई चमत्कार ही उनको बचा सकता है. देखिए किउनका अल्लाह क्या क्या कहता है - - -
''और उन देहातियों में बअज़ बअज़ ऐसा है जो कुछ वह खर्च करता है, उसको जुर्माना समझता है और तुम मुसलामानों के लिए गर्दिशों का मुंतज़िर रहता है, बुरावक्त उन्हीं पर है और वह अल्लाह सुनते और जानते हैं.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (९८ )
तो ये रही मुहम्मद के देहाती अल्लाह की देहातियों पर पकड़. जिन देहातियों और अन्सरियों ने खुद को अल्लाह और उसके रसूल के के हवाले बमय लाल और माल अवाले करदिया है उसके लिए जन्नत में महेल हंगे जिनके नीचे नहरन बह रही होंगी.
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (१००)
मुहम्मद मक्का से बद हाली में फरार होकर जब अपने साथी अबू बक्र के हमराह मदीने आए और जिस घर में पनाह लिया उस घर क०को बाद में वहाँ के लोगों ने मस्जिद बनवा दिया, जब कि मुहम्मद ने उसी घर से लगी ज़मीन खरीद कर मस्जिद बनवाई जिसका नाम आज तक मस्जिदे नबवी है. मुहम्मद मक्के से मदीने जब आए तो वहां के लोग बहुत खुश गवारी में थे कि मक्के का बाग़ी आ रहा है, दूसरे यह कि यहूदी और ईसाई के योरो सलम वाले मदीने में बुत परस्तों की मुखालफत करने वाला एक बुत परस्त कुरैश उनका हम नवा बन कर पैदा हुवा है. तीसरी बात ये कि मक्का हमेशा शर पसंद रहा है, मदनियों ने ख्याल किया कि दुश्मन का दुश्मन हमारा दोस्त बनेगा. इन्हीं तमाम जज़्बात को मद्दे नज़र रखतेहुए लोगों ने उस घर को भी मस्जिद बना दिया था जिस में मुहम्मद ने पहली बार क़दम रखा था, कामयाबी मिलने के बाद मुहम्मद का इस्लाम शैतानी शक्ल अख्तियार करने लगा तो तो यहाँ के मुसलमानों ने मुहम्मद का साथ उनके अल्लाह के मनमानी फरमान में उसकी बात की मुखालिफत की. बस मुहम्मद ने इनको कुफ्र का लक़ब दे दिया और मस्जिद को नाम दिया '' मस्जिदे ज़र्रार'' यानी ज़रर पहुँचाने वाली मस्जिद. मुहम्मद और नुकसान उठाएं? ना मुमकिन.
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (१०१-११०)
मुहम्मद क़ीमती इंसानी ज़िन्दगी को अपने मुफ़ाद के लिए जेहाद के नज़र यूँ करते हैं - - -
'' बिला शुबहा अल्लाह तअला ने मुसलमानों से उनके जानों और उनके मालों को इस बात के एवज़वाज़ ख़रीद लिया है कि उनको जन्नत मिलेगी, वह लोग अल्लाह की राह में लड़ते हैं , क़त्ल करते हैं, क़त्ल किए जाते हैं, इस पर सच्चा वादा है तौरेत में, इन्जील में, और कुरआन में और अल्लाह से ज्यादा अपना वादा कौन पूरा करने वाला है? तो तुम लोग अपने बयनामे पर जिसका तुम ने अल्लाह के साथ मुआमला ठहराया है ,ख़ुशी मनाओ.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (१११)
यही कुरानी आयतें तालिबानी ज़ेहनों को आत्म घाती हमलों पर आमादः करती हैं और मुसलामानों को इस तरक्क्की याफ़्ता दुन्या के सामने ज़लील करती हैं. इनपर तमाम दुन्या केशरीफ़ और समझदार कयादत को एक राय होकर पाबंदी आयद करना चाहिए.
''पैगम्बर और दूसरे मुसलामानों को जायज़ नहीं कि मुशरिकीन की मगफेरत की दुआ मांगे, चाहे वह रिश्तेदार ही क्यूं न हो, इस अम्र के ज़ाहिर हो जाने के बाद कि वह दोजखी है.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (११२-१३)
मुहम्मद की क़ल्ब सियाही इन बातों से देखी जा सकती है मगर उनका दोहरा मेयार भी याद रहे कि जब अपने मोहसिन चचा अबू तालिब तालिब की अयादत में गए तो उनसे पहले अपने हक में कालिमा मुहम्मदुर रसूलल्लाह पढ़ लेने की बात की, वह नहीं माने तो उठते उठते कहा खैर, मैं आपकी मगफिरत की दुआ करूंगा.
मगर ठहरिए, लोगों की याद दहानी पर मुहम्मद इसे अपनी भूल मानने लगे हैं और ऐसी भूल सय्यदना इब्राहीम अलैहिस सलाम से भी हुई, गढ़ी हुई आयत मुलाहिज़ा हो - - -
''और इब्राहीम ने दुआए मगफिरत अपने बाप के लिए माँगा और वह srif वादा के सबब था जो इन्हों ने इस से वादा लिया था, फिर जब उन पर यह बात ज़ाहिर हो गई की वह खुदा का दुश्मन है तो वह उस से महज़ बे ताल्लुक हो गए.
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (११४)
पिछले बाब में मैं लिख चुका हूँ, फिर दोहरा रहा हूँ कि बाबा इब्राहीम इंसानी तवारीख के पहले नामवर इंसान हैं जिनका ज़िक्र आलमी इतिहास में सब को मान्य है.पाषाण युग था वह पत्थर तराश के बेटे थे, बाप के साथ संग तराशी में बमुश्किल गुज़रा होता tha. बाबा इब्राहीम की वजेह से उनके बाप नाम भी जिंदा-ए-जावेद हो गया.यहूदी तौरेत उनको तेराह बतलाती है अरबी आजार कहते हैं. उन्हों ने अपने बेटे अब्राहाम और भतीजे लूत को ग़ुरबत से नजात पाने के लिए ठेल ढकेल के परदेस भेजा यह सपना दिखला कर कि तुम को दूध और शहद की नादियों वाला देश मिलेगा. इब्राहीम, लूट न पैगम्बर थे और न आजार काफ़िर. वह लोग पाषाण युग के अविकसित सभ्यता के पथिक मात्र थे. कुरान में जो आप पढ़ रहे है वहझूटी पैगम्बरी के गढ़े हुए मकर हैं.
बे ज़मीर पैगम्बरी तमाम हदें पार करती हुई अल्लाह यानी खुदाए बरतर को यूं रुसवा करती है - - -
''और अल्लाह तआला ऐसा नहीं करता कि किसी क़ौम को हिदायत किए पीछे गुमराह करदे जब तक कि उन चीज़ों को साफ़ साफ़ न बतला दे जिन से व बचते रहें.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (११५)
देहातियों की तादाद बहुत बढ़ गई है, मुहम्मद को एक राह सूझी है कि इनके बड़े बड़े इलाक़ाई गिरोह बना दिए जाएँ उनमें से चुने हुए नव जवानों की टुकडियाँ बना दी जाएँ जो अतराफ़ की काफिरों की बस्तियों पर हमला करके अपने कबीले को माले-गनीमत से खुद कफ़ील बनाएँ.'' ए ईमान वालो! इन कुफ्फ़रो से लड़ो जो तुम्हारे आस पास रहते हैं और इनको तुम्हारे अन्दर सख्ती पाना चाहिए.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (१२२-२३)
मुहम्मद की इस नुज़ूली क़लाबाज़ी में लोग उनकी नबूवत की दावत पर दाखिल होते हैं और उसे परख कर ख़ारिज हो जाते हैं.साथ साथ अल्लाह भी क़ला बाज़ियां खाता रहता है - - -
''और क्या उनको नहीं दिखाई देता कि यह लोग हर साल में एक बार या दो बार किसी न किसी आफ़त में फंसे रहते हैं, फिर भी बअज़ नहीं आते और न कुछ समझते हैं और जब कोई सूरह नाज़िल की जाती है तो एक दूसरे का मुंह देखने लगते हैं कि तुम को कोई देखता तो नहीं , फिर चल देते हैं, अल्लाह तअला ने इनका दिल फेर दिया है इस वजेह से कि वह महेज़ बे समझ लोग हैं. तुम्हारे पास एक ऐसे पैगम्बर तशरीफ़ लाए हैं जो तुम्हारे जिन्स से हैं जिनको तुम्हारी मुज़िररत की बातें निहायत गराँ गुज़रती हैं जो तुम्हारे मुन्फेअत के बड़े खाहिश मंद रहते हैं. ईमान दारों के साथ निहायत शफीक़ और मेहरबान है. फिर अगर यह रू गरदनी करें तो आप कह दीजिए मेरे लिए अल्लाह तअलाकाफ़ी है और वह बड़े भारी अर्श का मालिक है.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (१२६-१२९)
कुदरती आफतों को भी मुहम्मद भुनाना नहीं भूलते, लोग इनकी फित्तीनी आयतों से नालां होकर दूर भागने लगे हैं, अब इन को वह काफ़िर भी नहीं कहते महेज़ बे समझ लोग कहते हैं.उनके लिए ज़बरदस्ती शफीक़ और मेहरबान बने रहते हैं. रू गर्दानी करने वालों को आगाह करते हैं कि उनका कुछ नहीं बिगड़ता है क्यूँ कि उनके साथ उनका तलाश किया हुवा अल्लाह जो है जिसके सिवा कोई मअबूद नहीं और वह बहुत भारी आसमान का मालिक जो है एक टुकड़ा मुहम्मद के नाम करदेगा.
खुद को जिन्स ए इंसानी या लोगों का हम जिन्स बतला कर मुहम्मद जिन्स के बारे में महज़ जेहालत की बातें करते हैं, जिसे हर बार मुतराज्जिम मुश्किल में पड कर ब्रेकेट लगा कर मुहम्मद की रफ्फु गरी करता है।


निसार '' निसार-उल-ईमान''

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ऐतिहासिक सत्य में क़ुरआन की हक़ीक़त
Good Muslims are bad people. Islam makes them that way. Qur'an 9:88 "The Messenger and those who believe with him, strive hard and fight [jihad] with their wealth and lives (in Allah's Cause)." All Muslims aren't terrorists - just the good ones are.
The Bedouins were peace loving before Islam corrupted them. Qur'an 9:90 "And there were among the wandering desert Arabs men who made excuses and came to claim exemption (from the battle). Those who lied to Allah and His Messenger sat at home. Soon will a grievous torment seize the Unbelievers." There are Muslims who are excused from fighting. Qur'an 9:91 "There is no blame on those who are old, weak, ill, or who find no resources to spend (on Jihad, holy fighting), if they are sincere (in duty) to Allah and His Messenger. No ground (of complaint) can there be against them." The only Muslims who don't fight are lame.
Islam isn't complicated. Believe in Allah and become a Jihadist. Bukhari:V1B2N25 "Allah's Apostle was asked, 'What is the best deed.' He replied, 'To believe in Allah and His Apostle Muhammad.' The questioner then asked, 'What is the next best in goodness.' He replied, 'To participate in Jihad, religious fighting in Allah's Cause.'"
Islam's condemnation of peace marched on: Qur'an 9:93 "The (complaint) is against those who claim exemption [from fighting] while they are rich. They prefer to stay with the (women) who remain behind (at home). Allah has sealed their hearts. They are content to be useless. Say: 'Present no excuses: we shall not believe you.' It is your actions that Allah and His Messenger will observe. They will swear to you by Allah, when you return hoping that you might leave them alone. So turn away from them, for they are unclean, an abomination, and Hell is their dwelling-place, a fitting recompense for them." This couldn't be any clearer. Allah hates peaceful Muslims. They are called "unclean," an "abomination," and "hell-dwellers."
While Allah hates Arabs and peaceful Muslims, we must love them enough to free them from his perverse doctrine, Allah hates them, especially Arabs. Qur'an 9:97 "The Arabs of the desert are the worst in unbelief and hypocrisy, and most fitted to be in ignorance of the command which Allah hath sent down to His Messenger. Some of the Bedouins look upon their payments (for Allah's Cause) as a fine and wish disasters to fall on you (so that they might not have to pay). Yet on them be the disaster of evil." The evil disaster that fell upon the Arabs was Islam. The free, productive, and peace-loving Bedouins of Arabia were forced into submission, taxed, and then coerced into fighting.
Qur'an 9:101 "Among the desert Arabs are hypocrites. They, like the people of Medina are obstinate in hypocrisy. We know them. Twice shall We punish them, and in addition they shall be brought back to a horrible torment." While I love Arabs, as does Yahweh, Allah hates them so much he will punish them twice and then torment them.
Continuing to berate those who do not perform, pay, obey, and fight, Allah contradicts himself and tells Muhammad to take their money anyway. Qur'an 9:103 "Take alms out of their property in order to cleanse and purify them, and invoke Allah for them; surely this is a relief for them." Religion is a wonderful thing if you are a cleric or king. Stealing is good. It "cleanses and purifies" your victims.
If you're a Muslim, you'd better die fighting because: Qur'an 9:106 "There are (yet) others, held in suspense for the command of Allah, whether He will punish them, or turn in mercy to them." Even the builders of mosques are going to hell. Qur'an 9:107 "And there are those who put up a mosque by way of mischief to disunite the Believers and in preparation for an ambush of him who made war against Allah and His Messenger. They will swear that their intention is good; But Allah declares that they are liars." Their mosque "crumbles to pieces with them in the fire of Hell."
According to the Qur'an, Allah has purchased the believers (bribed them with booty), and all "good" Muslims are killers: Qur'an 9:111 "Allah has purchased the believers, their lives and their goods. For them (in return) is the Garden (of Paradise). They fight in Allah's Cause, and slay others and are slain, they kill and are killed. It is a promise binding on Him in the Taurat (Torah), the Injeel (Gospel), and the Qur'an. And who is more faithful to his covenant than Allah? Then rejoice in the bargain which you have concluded. It is the achievement supreme." There are no such bargains in the Bible. And that would make Allah a liar. Yahshua never asked men to "slay others." In the Torah, Yahweh only asked Moses and Joshua to remove those poisoned by the Canaanite religion [the worship of the sun god Baal] from the Israel. They, like Muhammad's Muslims, were immoral, terrorizing, plundering, enslaving, murdering, worshippers of a false god. Yahweh knew that it was compassionate to exterminate the few who would seduce the many into a doctrine corrosive enough to destroy mankind.
Yes, there are doctrines corrupt enough to deceive and damn all human kind. Such dogmas say: the Garden of Bliss (a.k.a. Allah's Whorehouse) awaits those who "fight in Allah's Cause, slay others and are slain, kill and are killed."
As we wind our way to the bitter end of the Qur'an's 113th recital, we find Team Islam spiteful to the last. Muhammad cries in the name of his god: Qur'an 9:113 "It is not fitting for the Prophet and those who believe, that they should pray for the forgiveness for disbelievers, even though they be close relatives, after it is clear to them that they are the inmates of the Flaming Hell Fire." Don't pray to save your family. Allah wants you to kill them so that he can roast them in hell.
Looking for a way to justify his lack of compassion, or at least make it seem holy, Muhammad conjured up a lie about Abraham. Qur'an 9:114 "Abraham prayed for his father's forgiveness only because of a promise he had made to him. But when it became clear to him that he was an enemy to Allah, he dissociated himself from him."
Der prophet proclaimed: Qur'an 9:120 "It is not fitting for the people of Medina and the Bedouin Arabs to refuse to follow Allah's Messenger (Muhammad when fighting in Allah's Cause), nor to prefer their own lives to his life. They suffer neither thirst nor fatigue in Allah's Cause, nor do they go without reward. They do not take steps to raise the anger of disbelievers, nor inflict any injury upon an enemy without it being written to their credit as a deed of righteousness." For those who may have been skeptics as to whether Muhammad created Islam to serve his personal agenda, this verse is reasonably convincing. "Muslims must prefer Muhammad's life to their own." And for any who have mistakenly believed "righteous deeds" were good , you now know that Muslims are given "credit" for "inciting anger and inflicting injury."
Continuing to reinforce the sad reality that Islam was Muhammad's quest to line his pockets, the Qur'an says: Qur'an 9:121 "Nor do they spend anything (in Allah's Cause), small or great, but the deed is inscribed to their credit that Allah may repay their deed with the best." The Profit gets his in this life; his stooges get theirs in the next. How convenient.
Allah ordered Muslims to evangelize with the sword. Evidently, his words weren't compelling. Qur'an 9:122 "It is not proper for the Believers to all go forth together to fight (Jihad). A troop from every expedition should remain behind when others go to war. They should give instruction on the law and religion and warn the folk when they return, so that they may beware." This, of course, gave the prophet a convenient excuse for staying home and playing house two raids out of every three.
The god of Islam commanded Muslims to fight one last time in the 9th surah, one that should be renamed: "Legacy of Terror." Qur'an 9:123 "Believers, fight the unbelievers around you, and let them find harshness in you: and know that Allah is with those who fear Him." Shame on those in politics and the media who say Islam is a peaceful religion. By doing so, they aid and abet an enemy that grows more numerous, more committed, and more callous everyday. They are accomplices to murder.
Prophet of Doom

क़ुरआन -- सूरह तौबः ९



सूरह तौबह --९
Repentance --9
E


इस्लाम के दूत मुहम्मद को जब पहली आकाश वाणी (वही या निदा) आई तो वह गारे-हिरा में मसरूफे-इबादत थे. वह कहते हैं कि जिब्रील फ़रिश्ता आया और उसने उनको दबोच लिया, फिर छोड़ कर बोला ''पढ़'' (न उसके हाथ में कोई तख्ती थीं, न किताब, न कापी, न कोई तहरीर, अजीब जंगली जीव था फ़रिश्ता, बगैर लिखा दिखलाए पढने को कह रहा था.)
''मुहम्मद बिना तहरीर देखे ही दुहाई देने लगे कि ''मैं अनपढ़ हूँ.''
असभ्य और घामड़ फ़रिश्ते ने फिर मुहम्मद को दबोच लिया और छोड़ते हुए कहा ''पढ़''
''अजीब अहमक मखलूक आसमान से नाज़िल हुए है आप, हवा में क्या लिखा है जिसे देख कर मैं बतलाऊँ 'बे से बकरी होगी.' अरे पहेलवान ज़मीन पर ही कुछ लिखो तो मुझ से पढने को कहो '' ऐसा मुहम्मद ने नहीं कहा, उनको ऐसा कहना चाहिए था. उन्हों ने फिर कहा ''मैं अनपढ़ हूँ.''
फ़रिश्ते ने फिर मुहम्मद को दबोचा, छोड़ा, अपनी ग़ैर इंसानी हरकत दोहराया, आखिर इंसानी क़दरों से वाक़िफ जो न था, मुहम्मद के साथ गुस्ताखाना रवय्या अख्तियार किए था जिनको अल्लाह तअला भी ''जनाब फरमा दीजिए - - - करके बात करता है ... खैर तीन बार बगैर किसी लिखी इबारत के दबोच दबोच कर वह मुहम्मद को पढ़ाता रहा.
चौथी बार ईश वाणी जो उसने मुहम्मद को पहुंचाई उसकी हकीकत को देखिए - - -
''पढो अपने रब के नाम से जिसने पैदा किया इंसान को. इंसान को लोथड़े से पैदा किया. पढो और तुम्हारा रब निहायत करीम है.''
ईश्वर की इस वाणी में खुद ईश्वर अपनी कुदरत का ज्ञान नहीं रखता. मुहम्मद ने क़ब्ल अज़ वक़्त गिरे हमल को कहीं देखा या सुन रखा होगा और उस लोथड़े को इन्सान के तामीर की बुनियाद बना दिया है, जैसे आगे कुरान में कहेंगे कि आदमी उछालते हुए पानी से पैदा हुवा है.
पच्चीस साल की उम्र तक बकरियाँ चरा कर पेट पालने वाला गुमनाम गडरिया एक बार बारह साल की उम्र में चाचा के साथ तिजारत के सफ़र में गया जिसे बीच रस्ते से ही नाकारह जान कर वापस लौटा दिया गया, फिर मक्का वालों की बकरियाँ चराने लगा, मालदार खदीजा को सीधे सादे गुलाम नुमा शौहर की ज़रूरत थी और सललल्लाहोअलैहेवसल्लम को मुफ्त रोटी तोड़ने की. जब मुफ़्त रोटियों का इंतेज़ाम हो गया तो ग़ारे-हिरा में बैठ कर पैगम्बरी के ख्वाब देखने लगे. अल्लाह बन कर इन्सान कि ईजाद की खबर देने लगे.अल्लाह ने कैसी बेहूदा खबर दी है अपने प्यारे रसूल को. चौदह सौ सालों से लाखों ओलिमा इस पर सर धुनें जा रहे हैं, करोरों कुरान और हदीसें इस खबर पर छप चुकी होंगी।


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आइए अब चलें मैदाने-जेहाद में जहाँ मुहम्मदी अल्लाह तालिबानियों को ट्रेनिग दे रहा है और दुनिया खड़ी तमाशा देख रही है क्यूंकि दुन्या के हर धर्म इन्सान को इन्सान से नफ़रत सिखलाते है. मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना'' दुन्या का सबसे बड़ा झूट।



मुनाफ़िक़ वह लोग हुवा करते थे जो मुहम्मदी तहरीक में अपनी अक्ल का दख्ल भी रखते थे, आँख बंद कर के मुहम्मद की हाँ में हाँ नहीं मिलाया करते थे, मुहम्मद की जिहालत और ला इल्मी पर मुस्कुरा दिया करते थे और उनको टोक कर बात की इस्लाह कर दिया करते थे. बस ऐसे मुसलमान हुए लोगों से बजाए इसके कि खुदसर मुहम्मद उनके मशविरों का कुछ फ़ायदा उठाएँ, सीधे उनको जहन्नमी कह दिया करते थे. काफ़िर तो खुले मुखालिफ थे ही, उनसे जेहाद का एलान था मगर यह मुनाफ़िक़ जो छिपे हुए दुश्मन थे वह हमेशा मुहम्मद के लिए सर दर्द रहे. यह अक्सर समझदार, तालीम याफ्ता और साफिबे हैसियत हुवा करते थे. होशियार मुहम्मद को डर लगा रहता कि कही इन में से कोई इन से आगे न हो जाए और इनकी पयंबरी झटक न ले, इस लिए क़ुरआन में इन को कोसते काटते ही इन की कटी.
मुहम्मद का क़ुरआनी अंदाज़-ए-बयान एक यह भी है कि उनकी बात न मानने वाला सब से बड़ा ज़ालिम होता है, अक्सर क़ुरआन में यह जुमला आता है '' उससे बड़ा ज़ालिम कौन होगा जो अल्लाह पर झूट बांधता हो?'' किसी बात को न मानना ज़ुल्म कहाँ ठहरा बात को ज़बरदस्ती मनवाना ज़रूर ज़ुल्म है। जैसा कि इस्लाम जेहादी तशद्दुद से खुद को मनवाता है.

सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (६५-६९)
''क्या इन लोगों को इस उन की खबर नहीं पहुँची जो इन लोगों से पहले हुए जैसे कौम नूह, कौम आद, कौम समूद और कौम इब्राहीम और अहले मुदीन और उलटी हुई बस्तियाँ कि इन के पास इनके पयम्बर साफ़ निशानियाँ लेकर आए, सो अल्लाह तअला ने इन पर ज़ुल्म नहीं किया लेकिन वह खुद अपनी जानों पर ज़ुल्म करते थे.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (७०)
इन उलटी हुई बस्तियों की कहानियां तौरेत में ऐसी हुआ करती हैं कि ज़ालिम और जाबिर मूसा जब मिस्र से यहूदियों को लेकर एक फरेब के साथ मिस्रियों को लूट कर फरार हुवा तो बियाबान जंगल में पनाह गुज़ीन हुवा जहाँ मन्ना और बटेरों पर बीस साल तक गुज़ारा किया.बीस साल बाद जब नई नस्ल की फ़ौज तैयार करली तो इर्द गिर्द के मुकामी बाशिंदों पर जो कि उमूमन फ़िलिस्ती हुआ करते थे, हमला शुरू कर दिया. मूसा का तरीका होता कि बस्ती में जवान मर्द औरत ही नहीं बूढ़े और बच्चे भी तहे-तेग कर दिए जाते थे, हत्ता कि कोई जानवर भी जिंदा न बचता था. उसके बाद बस्ती को आग से तबाह करके उस पर दो यहूदी सिपाहियों का पहरा हमेशा हमेशा के लिए बिठा दिया जाता था कि बस्ती दोबारा आबाद न होने पाए..यह बातें तौरेत में (old testament ) में रोज़े रौशन की तरह देखी जा सकती हैं. उम्मी मुहम्मद अपने गढ़े हुए पयम्बरों की यही निशानियाँ क़ुरआन में बार बार गिनवा रहे हैं. इन्हीं बस्तियों में कौम नूह, कौम आद, कौम समूद और कौम इब्राहीम की नस्लें भी बसा करती थीं.
मुहम्मद ने बनी नुज़ैर की बस्ती को मूसा की तर्ज़ पर ही बर्बाद करने की कोशश की थी जिस पर खुद उनके खिलाफ उनके खेमे से ही आवाज़ बुलंद हुई और उनको अल्लाह की वही के नुजूल का सहारा लेना पड़ा. कि बनी नुज़ैर के बागात को जड़ से कटवा देना और उनके घरों में आग खुद उनके हाथों से लगवाना अल्लाह का हुक्म था.
''ए नबी! कुफ्फर और मुनाफिकीन से जेहाद कीजिए और उन पर सख्ती कीजिए, उनका ठिकाना दोज़ख है और वह बुरी जगह है. वह लोग कसमें खा जाते हैं कि हम ने नहीं कही हाँला की उन्हों ने कुफ्र की बात कही थी और अपने इस्लाम के बाद काफ़िर हो गए.- - -सो अगर तौबा करले तो बेहतर होगा और अगर रू गरदनी की तो अल्लाह तअला उनको दुन्या और आखरत में दर्द नाक सजा देगा और इनका दुन्या में कौई यार होगा न मददगार.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (७२-७४)
मुहम्मद का अल्लाह डरा रहा है, धमका रहा है, फुसला रहा है और बहला रहा है हालाँकि वह चाहे तो दम भर में लोगों के दिलों को मोम करके अपने इस्लाम कि बाती जला दे मगर मुहम्मद के साथ रिआयत है कि उनकी पैगम्बरी का सवाल है और कुरैशियों की रोज़ी रोटी का।



शर्री मुहम्मद के सर में शर अल्लाह के नाम पर जेहाद बन कर समा गया था. आगे क़ुरआनी आयतें इन्हीं शर्री बहसों को लिए हुए चलती हैं, जेहाद मस्जिद में बैठे हुए समझदार मुनाफ़िक़ से, जेहाद पड़ोस में रहने वाले ग़ैरत मंद मुनकिर से, जेहाद, मोहल्ले में रहने वाले ज़हीन काफ़िर से, जेहाद बस्ती के क़दीमी बाशिंदे मुशरिक से, जेहाद साहबे किताब ईसाइयों से, जेहाद साहिबे ईमान और साहिबे रसूल मूसाइयों से। इतना ही नहीं जो मुसलमान गलती से इस्लाम कुबूल कर चुका है उसकी मुसीबत दोगुनी हो गई थी. अपनी मेहनत और मशक्क़त से अगर उसने अपनी कुछ हैसियत बनाई है तो वह भी मुहम्मद की आँखों में चुभती है, वस चाहते हैं कि वह अपना माल अल्लाह के हवाले करे और गायबाना अल्लाह बने बैठे हैं जनाब खुद.
मुहम्मद कुरआन में मुसलमानों को समझाते हैं कि बद अह्द लोग अल्लाह से दुआ करते हैं कि वह अगर उन्हें माल ओ मतअ से नवाज़े तो बदले में वह अल्लाह के नाम पर खूब खर्च करेंगे और जब भोंदू अल्लाह उनके झाँसे में आ जाता है और उनको माल,टाल से भर देता है तो वह अल्लाह को ठेंगा दिखला देते हैं. मुहम्मद कहते हैं हालाँकि अल्लाह गैब दान है और ऐसे लोग ही जहन्नम रसीदा होंगे.
२५ साल तक बकरियाँ चराने वाला और उसके बाद जोरू माता की गुलामी में रह कर मुफ्त रोटी तोड़ने वाला कठ मुल्ला मुसलामानों को ऐसी तिकड़म भरी कुरआन के सिवा और क्या दे सकता है?

सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (७५ -८१)
''और इनमें (जेहाद से गुरेज़ करने वालों) से अगर कोई मर जाए तो उस पर कभी नमाज़ मत पढ़ें, न उसके कब्र पर कभी खड़े होएँ क्यूं कि उसने अल्लाह और उसके रसूल के साथ कुफ्र किया और यह हालाते कुफ्र में मरे. हैं''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (८४)
इब्नुल वक़्त (समय के संतान) ओलिमा और नेता यह कहते हुए नहीं थकते कि इस्लाम मेल मोहब्बत, अख्वत और सद भाव सिखलता है, आप देख रहे हैं कि इस्लाम जिन्दा तो जिन्दा मुर्दे से भी नफरत सिखलाता है. कम लोगों को मालूम है कि चौथे खलीफा उस्मान गनी मरने के बाद इसी नफ़रत के शिकार हो गए थे, उनकी लाश तीन दिनों तक सडती रही, बाद में यहूदियों ने अज़ राहे इंसानियत उसको अपने कब्रिस्तान में दफ़न किया।


'' और जब कोई टुकड़ा कुरआन का नाजिल किया जाता है कि तुम अल्लाह पर ईमान लाओ और इस के रसूल के हमराह होकर जेहाद करो तो इनमें से मकदूर वाले आप से रुखसतमाँगते हैं और कहते हैं हमको इजाज़त दीजिए कि हम भी यहाँ ठहेरने वालों के साथ हो जाएँ.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (८६)
सूरह तौबह में अल्लाह ने इंसानी खून ख़राबे से तौबः किया है तभी तो अपने नाम से सूरह को शुरू करने की इजाज़त नहीं दी. मुहम्मद कहते हैं '' और जब कोई टुकड़ा कुरआन का नाज़िल किया जाता है कि - - - '' बाकी सब कुरआन तो मुहम्मद की बकवास है. मुसलमानों को कैसे समझाया जाए कि कुरआन उनको गुमराह किए हुए है.
मुहम्मद अपनी जुबान को उस खुदाए बरतर के कन्धों पर रख कर कैसी ओछी ओछी बातें कर राहे हैं- - -
''वह लोग खाना नशीन औरतों के साथ रहने पर राज़ी हो गए. इनके दिलों पर मोहर लग गई जिसको वह समझते ही नहीं.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (८७)
समझने तो नहीं देते ये माहिरे कुरआन मुल्ला और मोलवी जो इसको वास्ते तिलावत ही महफूज़ किए हुए हैं, समझने समझाने को मन करते हैं.
मुहम्मद की जेहादी तिजारत और उसके फायदों की शोहरत देहातों में दूर दूर तक फ़ैल गई है. बेरोज़गार नवजवान में उनकी लूट में मिलने वाले माले ग़नीमत की बरकतें गाँव के फिजा को महका रही हैं, गंवार रालें टपकते हुए जूक दर जूक मदीने भागे चले आ राहे हैं.मुहम्मद को यह घाटे का सौदा गवारा नहीं हाँला कि देहाती पत्थर के बुतों को तर्क करके हवाई बुत अल्लाह वाहिद को पूजने पर राज़ी हैं मगर मुहम्मद को इन खाली हाथ आने वाले मुसलामानों की कोई ज़रुरत नहीं. मुहम्मद को जेहाद के लिए पहले माल चाहिए बाद में जान, अगर बच गए तो अल्लाह का मुक़द्दमा कि उसको देखना बाकी रह जायगा कि जेहादी ने दिल से जेहाद किया या बे दिली से. इन देहातियों को तो फ़ौज में भारती चाहिए वह भी गुज़ारा भत्ता एडवांस में.कहाँ तो अल्लाह ने एक नबीना से बे इल्तेफाती पर मुहम्मद को फटकार लगाई थी और आज जुज़ामियों को बाहर से ही कहला देते हैं कि वापस जाओ कि समझो तुमसे बैत (हाथ पर हाथ देकर दीक्षा लेना)कर लिया. यह पैगम्बर थे या छुवा छूतकी बीमारी।


'' निसार-उल-ईमान''

ऐतिहासिक सत्य में क़ुरआन की हक़ीक़त
Muhammad, like all insecure men, was obsessed with rejection. Even after eliminating the Jews, his only literate foe, Arabs continued to be repulsed. Twenty years after the first cave-vision, Muhammad couldn't sell Islam on its merits. Qur'an 9:66 "Make no excuses: you have rejected Faith after you had accepted it. If We pardon some of you, We will punish others amongst you, for they are disbelievers." Any free and enlightened man or woman exposed to Islam will reject it as did most of those who lived in the prophet's presence. That is why Muhammad had to make rejecting Islam a capital offense.
And it remains so to this day. This news report from WorldNetDaily confirms what happens to Muslims who reject Islam. "Dateline Jerusalem, 2003: After slaughtering a Muslim-turned-Christian, Islamic extremists returned the man's body to his Palestinian family in four pieces. The newly converted man left his friends and family earlier this month bound for a mountainous region of the Palestinian Authority. He took Christian material with him - tapes and a Bible. Ten days later, the body of the man, who left behind a wife and two small children, was returned to his home, having been cut into four pieces. The family believes the act was meant a warning to other Muslims who might consider becoming Christians. Under Muslim Sharia law, any male who leaves Islam faces the death penalty. The terror group Hamas receives funding from Iran specifically for this purpose."
Returning to the surah, we find Muhammad attacking his renegades just as today's Muslims are doing. It's hard to imagine the percentage who must have rejected Muhammad and Islam for the Qur'an to focus so intently on them. Qur'an 9:67 "The Hypocrites, men and women, (have an understanding) with each other. They enjoin what is forbidden, and forbid what Islam commands. They withhold their hands (from spending in Allah's Cause [Jihad]). They have forgotten Allah so He has forgotten them. Verily the Hypocrites are oblivious, rebellious and perverse." Allah is a very vindictive and nasty spirit. Peaceful Muslims who aren't willing to fund Jihad and terrorize infidels are called "perverse."
Again: Qur'an 9:68 "Allah has promised the Hypocrites, both men and women, and the disbelievers the Fire of Hell for their abode: Therein shall they dwell. It will suffice them. On them is the curse of Allah, and an enduring punishment, a lasting torment." Fair warning: if you are a peaceful Muslim, your god hates you.
After condemning the vain discourse of those who were not swallowing Muhammad's poison, Allah reprises a worn-out trick: Qur'an 9:70 "Has not the story reached them of those before them - the People of Noah, Ad, and Thamud; the folk of Abraham, the men of Midian, and the cities overthrown. To them came their messengers with signs of proof. It is not Allah Who wrongs them, but they wrong their own souls." It's been a long time since Muhammad has corrupted a Bible or Hanif story to scare the faithful, but he hasn't forgotten how.
Now that the Islamic god is in the mode of pulverizing "bad" Muslims into submission (a.k.a. Islam), it's time for him to define "good Muslim" and tell them how to behave. Qur'an 9:71 "The Believers, men and women, are guardians of one another: they enjoin what Islam (orders them to do) and forbid disbelief [confirming there was no choice]. They perform their devotional obligations [an oxymoron], pay the zakat, and obey Allah and His Messenger." Qur'an 9:71 "O Prophet, strive hard [fighting] against the unbelievers and the Hypocrites, and be harsh with them. Their abode is Hell, an evil refuge indeed." Islam can thus be defined as: perform, pay, obey, and fight.
Transfixed by the number of Muslims rejecting Muhammad, ritual, taxes, jihad, and piracy, Team Islam said. Qur'an 9:74 "They swear by Allah that they said nothing, but indeed they uttered blasphemy, and they disbelieved after Surrender (accepting Islam). They meditated a plot (to murder Prophet Muhammad) which they were unable to carry out. The reason for this revenge of theirs was the bounty [of booty] with which Allah and His Messenger had enriched them! If they repent, it will be best for them; but if they turn back, Allah will punish them with a grievous torment in this life and in the Hereafter." While the Hadith doesn't describe the Muslim plot to kill Muhammad, the Qur'an says the motive was money.
It got to the point Muhammad couldn't even bribe his mercenaries: Qur'an 9:75 "Amongst them are men who made a deal with Allah, that if He bestowed on them of His bounty [booty], they would pay (largely) in zakat tax (for Allah's Cause [Jihad]). But when He did bestow of His bounty, they became niggardly, and turned back (from their bargain), averse (refusing to pay)." All Muhammad really wanted was money. So long as he stole enough, he could buy sex, power, and praise.
But the Muslim militants were as miserly as the man who had beguiled them. So the warlord said that their hypocrisy was a miracle ordained by god: Qur'an 9:77 "He punished them by putting hypocrisy in their hearts until the Day whereon they shall meet Him, because they lied to Allah and failed to perform as promised [forking over the dough]. Allah knows their secrets. Those who slander and taunt the believers who pay the zakat (for Allah's Cause) voluntarily and throw ridicule on them, scoffing, Allah will throw back their taunts, and they shall have a painful doom. Whether you ask for their forgiveness or not, (their sin is unforgivable). If you ask seventy times for their forgiveness Allah will not forgive them because they have disbelieved Allah and His Messenger." Islam's "unforgivable" sin is: "Not paying Muhammad the money."
In another translation, Allah confirms that hypocrisy is his fault and that it's the result of a business deal gone bad: Qur'an 9:75 "Some of you made a deal with Allah, saying, 'If You give us booty we shall pay You the tax.' But when He gave them booty, they became greedy and refused to pay. As a consequence of breaking their promises, Allah filled their hearts with hypocrisy which will last forever." Lest we forget, the business of Allah was terrorism, piracy, and the slave trade.
The broken record that became the Qur'an screeches once again: peaceful Muslims go to hell because they are reluctant to fight. Qur'an 9:81 "Those who stayed behind (in the Tabuk expedition) rejoiced in their inaction behind the back of the Messenger. They hated to strive and fight with their goods and lives in the Cause of Allah. They said, 'Go not forth in the heat.' Say, 'The fire of Hell is fiercer in heat.' If only they could understand! So let them laugh a little, for they will weep much as a reward for what they did. If Allah brings you back (from the campaign) to a party of the hypocrites and they ask to go out to fight, say: 'You shall never go out to fight with me against a foe. You were content sitting inactive on the first occasion. So sit with the useless men who lag behind.' Do not pray for any of them (Muhammad) that die, nor stand at his grave. They rejected Allah and disbelieved His Messenger. They died in a state of perverse rebellion." Allah - Oft-Forgiving, Ever-Merciful - isn't being very nice to people.
Muhammad hated Christians and Jews less than he loathed peace-loving Muslims. He was so irritated that they were able to make more money than his militants were able to steal , he repeated the 55th verse.
Qur'an 9:85 "And let not their wealth or (following in) sons dazzle you or excite your admiration. Allah's plan is to punish them with these things in this world, and to make sure their souls perish while they are unbelievers. When a surah comes down enjoining them to believe in Allah and to strive hard and fight along with His Messenger, those with wealth and influence among them ask you for exemption from Jihad. They prefer to be with (their women), who remain behind (at home). Their hearts are sealed and so they understand not." Muhammad stayed behind at home with his harem on fifty of the seventy-five raids he initiated; so he, too, was a hypocrite - the biggest of them all.
Throughout this surah Allah, acting like Lucifer, has said that he wanted people to die as disbelievers so that he could torture them. He claimed to have sealed their hearts and caused their hypocrisy (unwillingness to perform, pay, obey, and fight). But if that's the case, why is the Qur'an so intent on threatening them? Why not just leave them alone and press on with the good militants?
Prophet of Doom