Monday 28 June 2010

क़ुरआन -सूरह कुहफ़ १८

सूरह कुहफ़ १८


18The Cave



मेरी तहरीर में - - -



क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी(बमय अलक़ाब)


'' हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी'' का है,


हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,


तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।


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यह जहन्नुमी आलिमाने-दीन



क़यामत के दिन तमाम इस्लामी ओलिमा और आइमा को चुन चुन कर अल्लाह जब जहन्नम रसीदा कर चुकेगा तो ही उसके बाद दूसरे बड़े गुनाहगारों की सूची-तालिका अपनी हाथ में उठाएगा. यह (तथा कथित धार्मिक विद्वान) टके पर मस्जिद और कौडियों में मन्दिर ढ़ा सकते हैं। ये दरोग़, क़िज़्ब, मिथ्य और झूट के यह मतलाशी, शर और पाखंड के खोजी हुवा करते हैं। इनकी बिरादरी में इनके गढे झूट का जो काट न कर पाए वही सब से बड़ा आलिम होता है। यह इस्लाम के अंतर गत तस्लीम शुदा इल्म के आलिम होते हैं यथार्थ से अपरिचित यानी कूप मंडूक जिसका ईमान से कोई संबंध नहीं होता। लफ्ज़ ईमान पर तो इस्लाम ने कब्जा कर रखा है, ईमान का इस्लामी-करण कर लिया गया है, वगरना इस्लाम का ईमान से दूर दूर तक कोई रिश्ता नहीं है। ईमान धर्म-कांटे का निकला हुवा सच है, इस्लाम किसी अल्प-बुद्धि की बतलाई हुई ऊल-जुलूल बातें हैं, जिसको आँख मूँद कर तस्लीम कर लेना इस्लाम है।
अमरीकी प्रोफेसर सय्यद वकार अहमद हुसैनी कहते हैं "कुरान की 6226 आयातों में से 941 पानी के विज्ञानं और इंजीनयरिंग से संबध हैं, 1400 अर्थ शास्त्र से, जब कि केवल 6 रोजे से हैं और 8 हज से।"
प्रोफेसर हुसैनी का ये सफेद झूट है, या प्रोफ़सर हुसैनी ही फर्ज़ी अमरीकी प्रोफ़सर हैं, जैसा कि ये धूर्त इस्लामी विद्वान् अक्सर ऐसे शिगूफे छोड़ा करते हैं । कुरआन कहता है
"आसमान ज़मीन की ऐसी छत है जो बगैर खंभे के टिका हुआ है. ज़मीन ऐसी है कि जिस में पहाडों के खूटे ठुके हुए हैं ताकि यह अपनी जगह से हिले-डुले नहीं" और "इंसान उछलते हुए पानी से पैदा हुवा है" क़ुरआन में यह है इंजीनयरिंग और पानी का विज्ञान जैसी बातें। इसी किस्म के ज्ञान (दर अस्ल अज्ञान) से क़ुरआन अटा पडा है जिस पर विश्वास के कारण ही मुस्लिम समाज पिछड़ा हुवा है. मलऊन ओलिमा इन जेहाल्तो में मानेयो-मतलब पिरो रहे हैं. हकीक़त ये है की क़ुरआन और हदीस में इंसानी समाज के लिए बेहद हानि कारक, अंधविश्वास पूर्ण और एक गैरत मंद इंसान के लिए अपमान जनक बातें हैं, जिन्हें यही आलिम उल्टा समझा समझा कर मुस्लिम अवाम को गुमराह किया करते है। अभी पिछले दिनों एन डी टी वी के प्रोग्राम में हिदुस्तान की एक बड़ी इस्लामी जमाअत के दिग्गज और ज़िम्मेदर आलिम महमूद मदनी, जमाअत का प्रतिनिधित्व करते हुए भरी महफ़िल में अवाम की आंखों में धूल झोंक गए। बहस का विषय तसलीमा नसरीन थी। मौलाना तसलीमा की किताब को हवा में लहराते हुए बोले,"तसलीमा लिखती है 'उसने अपने बहू से शादी की " गुस्ताख को देखो हुज़ूर की शान में कैसी बे अदबी कर रही है।" ( मदनी को मालूम नहीं कि अंग्रेज़ी से हिन्दी तर्जुमा में यही भाषा होती है।) आगे कहते है "हुज़ूर की (पैगम्बर मुहम्मद की ) कोई औलादे-नरीना (लड़का) थी ही नही तो बहू कैसे हो सकती है ?" बात टेकनिकल तौर पर सच है मगर पहाड़ से बड़ा झूट, जिसे लाखों दर्शकों के सामने एक शातिर और अय्यार मौलाना बोलकर चला गया और अज्ञात क़ौम ने तालियाँ बजाईं। उसकी हकीक़त का खुलासा देखिए----- किस्से की सच्चाई ये है कि ज़ैद बिन हारसा एक मासूम गोद में उठा लेने के लायक बच्चा हुवा करता था। उस लड़के को बुर्दा फरोश (बच्चे चुराने वाले) पकड़ कर ले गए और मुहम्मद के हाथों बेच दिया। ज़ैद का बाप हारसा बेटे के ग़म में परेशान ज़ारों-क़तार रोता फिरता। एक दिन उसे पता चला कि उसका बेटा मदीने में मुहम्मद के पास है, वह फिरोती की रक़म जिस कदर उससे बन सकी लेकर अपने भाई के साथ,मुहम्मद के पास गया। ज़ैद बाप और चचा को देख कर उनसे लिपट गया। हारसा की दरखास्त पर मोहम्मद ने कहा पहले ज़ैद से तो पूछो कि वह किया चाहता है ? पूछने पर ज़ैद ने बाप के साथ जाने से इनकार कर दिया, तभी बढ़ कर मुहम्मद ने उसे अपनी गोद में उठा लिया और सब के सामने अल्लाह को गवाह बनाते हुए ज़ैद को अपनी औलाद और ख़ुद को उसका बाप घोषित किया। ज़ैद बड़ा हुवा तो उसकी शादी अपनी कनीज़ ऐमन से कर दी। बाद में दूसरी शादी अपनी फूफी ज़ाद बहन ज़ैनब से की। ज़ैनब से शादी करने पर कुरैशियों ने एतराज़ भी खड़ा किया कि ज़ैद गुलाम ज़ादा है, इस पर मुहम्मद ने कहा ज़ैद गुलाम ज़ादा नहीं, ज़ैद, ज़ैद बिन मुहम्मद है। मशहूर सहाबी ओसामा ज़ैद का बेटा है जो मुहम्मद का बहुत प्यारा था. गोद में लिए हुए उम्र के ज़ैद वल्द मुहम्मद एक अदद ओसामा का बाप भी बन गया और मुहम्मद के साथ अपनी बीवी ज़ैनब को लेकर रहता रहा, बहुत से मुहम्मद कालीन सहाबी उसको बिन मुहम्मद मरते दम तक कहते रहे और आज के टिकिया चोर ओलिमा कहते हैं मुहम्मद की कोई औलादे-नरीना ही नहीं थी. सच्चाई इनको अच्छी तरह मालूम है कि वह किस बात की परदा पोशी कर रहे हैं. दर अस्ल गुलाम ज़ैद की पहली पत्नी ऐमन मुहम्मद की उम्र दराज़ सेविका थी ओलिमा उसको पैगम्बर की माँ की तरह बतला कर मसलेहत से काम लेते है. खदीजा मुहम्मद की पहली पत्नी भी ऐमन की हम उम्र मुहम्मद से पन्द्रह साल बड़ी थीं. ज़ैद की जब शादी ऐमन से हुई, वह जिंस लतीफ़ से वाकिफ भी न था. नाम ज़ैद का था काम मुहम्मद का, चलता रहा. इसी रिआयत को लेकर मुहम्मद ने जैनब, अपनी पुरानी आशना के साथ फर्माबरदार पुत्र ज़ैद की शादी कर दी, मगर ज़ैद तब तक बालिग़ हो चुका था . एक दिन, दिन दहाड़े ज़ैद ने देखा कि उसका बाप मुहम्मद उसकी बीवी जैनब के साथ मुंह काला कर रहा है, रंगे हाथों पकड़ जाने के बाद मुहम्मद ने लाख लाख ज़ैद को पटाया कि ऐमन की तरह दोनों का काम चलता रहे मगर ज़ैद नहीं पटा. कुरआन में सूरह अहज़ाब में इस तूफ़ान बद तमीजी की पूरी तफ़सील है मगर आलिमाने-दीन हर ऐब में खूबी गढ़ते नज़र आएंगे. इसके बाद इसी बहू ज़ैनब को मुहम्मद ने बगैर निकाह किए हुए अपनी दुल्हन होने का एलान किया और कहा कि "ज़ैनब का मेरे साथ निकाह सातवें आसमान पर हुवा, अल्लाह ने निकाह पढ़ाया था और फ़रिश्ता जिब्रील ने गवाही दी।" इस दूषित और घृणित घटना में लंबा विस्तार है जिसकी परदा पोशी ओलिमा पूर्व चौदह सौ सालों से कर रहे हैं। इनके पीछे अल्कएदा, जैश, हिजबुल्ला और तालिबान की फोजें हर जगह फैली हुई हैं। "मुहम्मद की कोई औलादे-नारीना नहीं थी" इस झूट का खंडन करने की हिंदो-पाक और बांगला देश के पचास करोड़ आबादी में सिर्फ़ एक औरत तसलीमा नसरीन ने किया जिसका जीना हराम हो गया है।



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आज मैं आप के सामने मुहम्मद द्वारा गढ़ी एक कहानी को पेश कर रहा हूँ जिस में मुहम्मद की हकीकत है कि वह और उनका अल्लाह कितने अधकचरे थे। इसमें देखने क़ि बात ये है क़ि इसके तर्जुमान ने अल्लाह और मुहम्मद क़ि कितनी मदद की है, कहानी को एक बार ब्रेकट में दिए गए लाल रंग को छोड़ कर पढ़िए, दूसरी बार इस के साथ पढ़िए।आप को अंदाज़ा हो जायगा कि इन ओलिमा ने झूट को सच का रूप देने में इस्लाम की कितनी सहायता क़ि है।
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''और(वह वक़्त याद करो) जब मूसा ने अपने नौकर से फ़रमाया कि मैं(इस सफ़र में) बराबर चला जाऊँगा, यहाँ तक कि इस मौके पर पहुँच जाऊँ जहाँ दो दरया आपस में मिले हैं, या(यूं ही) ज़माना-ए दराज़ तक चलता रहूँगा. पास जब (चलते चलते) दोनों के जमा होने के मौके पर पहुँचे, अपनी मछली को दोनों भूल गए और उस (मछली) ने अपनी राह ली और चल दी। फिर जब दोनों (वहां से) आगे बढ़ गए (तो मूसा ने), अपने नौकर से फ़रमाया कि हमारा नाश्ता लाओ हमको तो इस सफ़र में( यानी आज की मंज़िल में) बड़ी तकलीफ पहुंची. (नौकर ने) कहा कि (लीजिए) देखिए (अजीब बात हुई) जब हम उस पत्थर के करीब ठहरे थे सो मैं (उस) मछली (के तज़करे) को भूल गया और मुझको शैतान ही ने भुला दिया, कि मैं इसका ज़िक्र करता और (वह किस्सा ये हुवा कि) उस (मछली)ने (ज़िदा होने के बाद) दरया में अजीब तौर पर अपनी राह ली. (मूसा ने हिकायत सुन कर) फ़रमाया यही वह मौक़ा है जिसकी हम को तलाश थी. सो दोनों अपने क़दमों के निशान देखते हुए उलटे लौटे. सो(वहां पहुँच कर) उन्हों ने हमारे बन्दों में से एक बन्दे (यानी खिज़िर) को पाया जिनको हमने अपनी(ख़ास) रहमत (यानी मक़बूलियत) दी थी और उनको हमने अपने पास से (एक ख़ास तौर का) इल्म सिखलाया था. मूसा ने (उनको सलाम किया और) उन से फ़रमाया कि क्या मैं आप के साथ रह सकता हूँ? इस शर्त से कि जो इल्मे-मुफ़ीद को (मिन जानिब अल्लाह) आप को सिखलाया गया है, इस में से आप मुझको भी सिखला दें.(इन बुज़ुर्ग ने)जवाब दिया आप को मेरे साथ (रह कर मेरे अफाल पर) सब्र न होगा. और (भला) ऐसे उमूर पर कैसे सब्र करेगे जो आप के अहाते-वाकिफ़यत से बाहर हो. (मूसा ने) फ़रमाया आप इंशा अल्लाह हम को साबिर (यानी ज़ाबित) पाएँगे. और मैं किसी बात में आप के खिलाफ हुक्म नहीं करूँगा, (इन बुज़ुर्ग ने) फ़रमाया (कि अच्छा) अगर आप मेरे साथ रहना चाहते हैं तो (इतना ख़याल रहे कि) फिर मुझ से किसी बात के निसबत कुछ पूछना नहीं, जब तक कि उसके मुतालिक मैं खुद ही इब्तेदाए ज़िक्र न कर दूं . फिर दोनों (किसी तरह) चले, यहाँ तक कि जब कश्ती में सवार हुए तो (इन बुज़ुर्ग ने) इस कश्ती में छेद कर दिया. (मूसा ने) फ़रमाया कि क्या आप ने इस कश्ती में इस लिए छेद किया (होगा) है कि इसके बैठने वालों को गर्क़ करदें? आप ने बड़ी भारी (यानी खतरा की) बात की. (इन बुज़ुर्ग ने) कहा क्या मैं ने कहा नहीं था कि आप को मेरे साथ सब्र न हो सकेगा. (मूसा ने) फ़रमाया (मुझको याद न रहा था सो) आप मेरी भूल (चूक)पर गिरफ़्त न कीजिए और मेरे इस मुआमले में कुछ ज़्यादा तंगी न डालिए. फिर दोनों (कश्ती से उतर कर आगे) चले, यहाँ तक कि जब एक (कमसिन) लड़के से मिले तो (इन बुज़ुर्ग ने) उसको मर डाला . मूसा (घबरा कर) कहने लगे कि आपने एक बेगुनाह को जान कर मार डाला (और वह भी) बे बदले किसी जान के, बे शक आप ने (ये तो) बड़ी बेजा हरकत की. (उन बुज़ुर्ग ने)फ़रमाया क्या मैं ने कहा नहीं था कि आप को मेरे साथ से सब्र न हो सकेगा. (मूसा ने) फ़रमाया कि ( खैर अब के और जाने दीजिए) अगर इस (मर्तबा) आप से किसी अम्र के मुतालिक कुछ पूछूं तो आप मुझको अपने साथ न राखिए. बेशक आप मेरी तरफ से उज़र (की इन्तहा) को पहुँच चुके हैं. फिर दोनों (आगे) चले फिर जब एक गाँव वालों पर गुज़र हुवा तो वहां वालों से खाने को माँगा कि (हम मेहमान है) सो उन्हों ने उनकी मेहमानी से इंकार कर दिया. इतने में इनको वहाँ पर एक दीवार मिली जो गिरा ही चाहती थी कि फिर उन बुज़ुर्ग ने उसको (हाथ के इशारे से) सीधा कर दिया. (मूसा ने) फ़रमाया अगर आप चाहते तो इस (काम)पर कुछ उजरत ही ले लेते.(उन बुज़ुर्ग ने) फ़रमाय कि अब ये वक़्त हमारे और आप के अलहदगी का है ( जैसा कि आपने खुद शर्त की थी) मैं उन चीज़ों की हकीकत आप को बतलाए देता हूँ जिन पर आप से सब्र न हुवा. जो कश्ती थी वह चन्द आदमियों की थी जो (इसके ज़रीए) इस दरया में मेहनत (मजदूरी) करते थे सो मैं ने चाहा कि इसमें ऐब डाल दूं और (वजेह इसकी ये थी कि) इन लोगों के आगे की तरफ़ एक (ज़लिम) बादशाह था जो हर (अच्छी) कश्ती को ज़बरदस्ती पकड़ रहा है. और रहा वह लड़का तो उसके माँ बाप ईमान दार थे सो हमको अंदेशा (यानी तहकीक) हुवा कि ये इन दोनों पर सर कशी और कुफ्र का असर न डाल दे. पस हम को ये मंज़ूर हुवा कि बजाए इसके कि इनका परवर दिगार इनको ऐसी औलाद दे जो पाकीज़गी (यानी दीन) में इस से बेहतर हो और( माँ बाप के साथ) मुहब्बत करने में इस से बेहतर हो. और रही दीवार, सो वह दो यतीम बच्चों की थी जो इस शहर में (रहते) हैं और उस (दीवार) के नीचे उन का कुछ माल मदफून था (जो उनके बाप से मीरास में पहूंचा है) और उनका बाप (जो मर गया) एक नेक आदमी था. सो आप के रब ने अपनी मेहरबानी से चाहा कि वह दोनों अपने जवानी (की उम्र) को पहुँचें और अपना दफीना निकल लें. आपके रब की रहमत से और (ये सारे काम मैं ने ब-अल्हाम इलाही किए हैं इन में से) कोई काम मैं ने अपनी राय से नहीं किया. लीजिए ये है हक़ीक़त इन (बातों) की जिन पर आप से सब्र न हो सका। ''


सूरह कुहफ १८ - पारा १५ आयत (५९-८२)



इस क़िस्से पर गौर करें ? ? ?मछली गोया परिंदा थी बगैर पर पैर की कहानी - - -


''अपनी मछली को दोनों भूल गए और उस (मछली) ने अपनी राह ली और चल दी''इस्लामी शैतान ने अपना काम गुमराह करने का मछली गुमा कर, कर दिया।''


ब्रेकेट में तर्जुमा निगार मौलाना शौकत अली थानवी द्वारा भरे अलफ़ाज़ हैं जो मुहम्मद की ज़ुबान दानी को मुकम्मल करते है.मुहम्मद के पास इतना भी सलीक़ा न था के ढंग से बात कर पाते, यह तहरीर गवाह है.चोर डाकू नहीं बल्कि - - -


'' आगे की तरफ़ एक (ज़लिम) बादशाह था जो हर (अच्छी) कश्ती को ज़बरदस्ती पकड़ रहा है।


कहानी में उस शख्स का नाम भी नहीं है जो मूसा की रहनुमाई करता है, थानवी ने अपनी तरफ से (यानी खिज़िर) जोड़ कर अल्लाह की मदद कर दिया है।


मूसा की रहनुमाई करने वाले की हरकत गौर तलब है कि अंदेशा के तहत लड़के का खून कर दिया, थानवी को इसे ईश वाणी कर देने में कोई परहेज़ नहीं, अल्लाह के गुरू जो ठहरे. अंदेशा - - -


(यानी तहकीक) इस तरह अल्लाह की इस्लाह किया है.चोर डाकू नहीं बल्कि - - - '' आगे की तरफ़ एक (ज़लिम) बादशाह था जो हर (अच्छी) कश्ती को ज़बरदस्ती पकड़ रहा है।


बोसीदा दीवार जो गिर रही है को हाथ से रोक दिया और वह रुक भी गई, यही नहीं बच्चों के बड़े होंने तक रुकी रहेगी और गड़े दाफीने का पता भी बतलाएगी। मुहम्मद की अक़ली उड़ान कितनी सतही थी।


मुसालमानों! बूढी दादी की कहानियों में तो कुछ दम होता था कि बच्चे कान लगा कर सुनते थे, मुहम्मद के क़िस्से गोई में तो इतना भी दम नहीं जो तुम अपनी इबादत में भुनभुनाते हो।


जागो मोमिन जगा रहा है जिसे तुम्हारी फ़िक्र है कि तुम्हारे ऊपर इस्लामी अज़ाब के बादल मंडरा रहे हैं. काल कोठरी से बहार निकलो नई फ़िज़ा तुम्हारा इंतज़ार कर रही है, तुम्हारे भीतर जो अल्लाह का खौफ है वैसा कोई अल्लाल नहीं है, वह मुहम्मदी शैतान है. अल्लाह अगर है तो तुम्हारे बाप की तरह होगा, जो चाहता है कि उसकी औलादें इल्म जदीद को हासिल करके डाक्टर, इंजीनियर और साइंटिस्ट बनें और उसकीराह में इस्लाम बाधक है।



जीम 'मोमिन' निसरुल-ईमान


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ज़माना गवाह है - - -



The fabricated Alexander the Great said, Qur'an 18:96 "'Bring me (blocks) of iron.' then, when he had filled up the gap between the two mountainsides, he said, 'Blow.' Then when he had made them (red) as fire [by blowing on an iron wall], he said: 'Bring me molten lead-copper-brass to pour over them. Thus Gog and Magog were made powerless to scale it or dig a hole in it. (Dhu'l-Qarnain) said: 'This is a mercy from my Lord. But when the promise of my Lord comes to pass, He will make it into dust; and the promise of my Lord is ever true.' On that day (the day of Gog and Magog will come out) We shall leave them to surge like waves on one another: the trumpet will be blown, and We shall collect them (the creatures) all together in one gathering in conflict. And We shall present Hell that day for disbelievers to see, all spread out in plain view.... Verily We have prepared Hell for the hospitality of the Infidels; Hell is for the disbeliever's entertainment." At least Allah hasn't lost his touch. He remains the most devilishly demonic deity ever devised. But then I suppose a god who would call hell "entertainment," is a perfect match for a warlord who entertains himself torturing men and raping women.Qur'an 18:103 "Say: 'Shall we inform you of who will be the greatest losers? ...Those who reject my Revelations... Hell is their reward, because they rejected Islam, and took My proofs, verses, and lessons, and those of My Messengers by way of jest in mockery.'" In all fairness, it's pretty hard not to mock such foolishness.There is a Magog Hadith, too: Bukhari:V9B88N249 "One day Allah's Apostle entered upon her in a state of fear and said, 'None has the right to be worshipped but Allah! Woe to the Arabs from the Great evil that has approached (them). Today a hole has been opened in the dam [Alexander's iron barrier between the mountains] of Gog and Magog like this.' The Prophet made a circle with his index finger and thumb. Zainab added: I said, 'O Allah's Apostle! Shall we be destroyed though there will be righteous people among us.' The Prophet said, 'Yes, if the (number) of evil (persons) increases.'" Somebody had a very rich imagination - one might even call it hallucinogenic.Enough with the fairytale. According to the Bible, Islam will lead to the destruction of much of the world. I share this with you so that you might appreciate the cost of tolerating the terrorist dogma rather than freeing Muslims from it. And equally important, I want you to be prepared for what is to come, because while it will happen, millions can be saved from it.I know the future because - unlike Muhammad - Isaiah, Daniel, Ezekiel, and John were real prophets. By putting their predictions together, one can reasonably deduce that six thousand years after Adam and Eve made the wrong choice, Yahweh will put an end to man's destructive deceptions, false prophets, ignorance, and sin. He wants to establish a new world order, one without deceit, disease, death, or damnation.Yet, true to his character and purpose, he wants the final choice to remain ours, not his. Yahweh simply removes his spirit from the earth, enabling those who remain to plot their own course. Totally separated from God, the prophets predict, humanity will choose poorly. The world will plummet into chaos.The story of Islam's ultimate demise is but one of many tragic tales that collectively make up what the Bible calls the "Tribulation" - the last seven years of man's rule on planet earth। Isaiah, in addition to writing about the arrival and nature of the Messiah, was inspired by Yahweh to foretell how Lucifer would form Islam. Then he predicted the events that would lead the Nation of Islam to attack Israel, engulfing the world in war. Daniel explains that it will begin, as did World War II, with a "peace treaty." Foolishly, the world trusts nations whose official god and prophet order them to disavow such oaths. As a result, a third of the earth's surface is scorched (Revelation 8:7), a quarter of its people die (Revelation 6:8) - including the annihilation of five out of every six Muslims (Ezekiel 39:2). I want to provide you with an overview of this battle so that you might be saved from its devastation.
Prophet of Doom



Saturday 26 June 2010

क़ुरआन - सूरह कुहफ १८ - पारा



इंशा अल्लाह ताला



(दूसरी क़िस्त)



इंशा अल्लाह का मतलब है ''(अगर) अल्लाह ने चाहा तो।'' सवाल उठता है कि कोई नेक काम करने का इरादा अगर आप रखते हैं तो अल्लाह उसमे बाधक क्यूँ बनेगा? अल्लाह तो बार कहता है नेक काम करो. हाँ कोई बुरा काम करने जा रहो तो ज़रूर इंशा अल्लाह कहो, अगर वह राज़ी हो जाए? वह वाकई अगर अल्लाह है तो इसके लिए कभी राज़ी होगा. अगर वह शैतान है तो इस की इजाज़त दे देगा. अगर आप बुरी नियत से बात करते हैं तो मेरी राय ये है कि इसके लिए इंशा अल्लाह कहने की बजाए ''इंशा शैतानुर्रजीम'' कहना दुरुस्त होगा. इसबात का गवाह खुद अल्लाह है कि शैतान बुरे काम कराता है. आपने कोई क़र्ज़ लिया और वादा किया कि मैं फलाँ तारीख को लौटा दूंगा. आप के इस वादे में इंशा अल्लाह कहने की ज़रुरत नहीं, क्यूँ कि क़र्ज़ देने वाले के नेक काम में अल्लाह की मर्ज़ी यकीनी थी, तो वापसी के काम में क्यूँ होगी? चलो मान लेते है कि उस तारीख में अगर आप नहीं लौटा पाए तो कोई फाँसी नहीं, जाओ सुलूक करने वाले के पास, अपने आप को खता वार की तरह उसके सामने पेश करदो. वह बख्श दे या जुरमाना ले, उसे इसका हक होगा


रघु कुल रीति सदा चलि आई,


प्राण जाएँ पर वचन जाई


इसी सन्दर्भ में भारत सरकार का रिज़र्व बैंक गवर्नर भरतीय नोटों पर वचन देता है- - -


''मैं धारक को एक सौ रूपए अदा करने का वचन देता हूँ''


दुन्या के सभी मुमालिक का ये उसूल है, उसमें सभी इस्लामी मुल्क भी शामिल है. जहाँ लिखित मुआमला हो, चाहे इकरार नामें हों या फिर नोट कहीं, इंशा अल्लाह का दस्तूर नहीं है. इंशा अल्लाह आलमी सतेह पर बे ईमानी की अलामत है. मुहम्मद ने मुसलमानों के ईमान को पुख्ता नहीं, बल्कि कमज़ोर कर दिया है, खास कर लेन देन के मुआमलों में. क़ुरआनी आयतें उन पर वचन देने की जगह '' इंशा अल्लाह'' कहने की हिदायत देती हैं, इसके बगैर कोई वादा या अपने आइन्दा के अमल को करने की बात को गुनहगारी बतलाती हैं. आम मुसलमान इंशा अल्लाह कहने का आदी हो चुका है.उसके वादे, कौल,क़रार, इन सब मुआमलों में अल्लाह की मर्ज़ी पर मुनहसर करता है कि वह पूरा करे या करे. इस तरह मुसलमान इस गुंजाइश का नाजायज़ फ़ायदा ही उठाता है, नतीजतन पूरी कौम बदनाम हो चुकी है. मैंने कई मुसलामानों के सामने नोट दिखला कर पूछा कि अगर सरकारें इन नोटों में अगर इंशा अल्लाह बढ़ा दें और यूँ लिखें कि ''मैं धारक को एक सौ रूपए अदा करने का वचन देता हूँ , इंशा अल्लाह '' तो अवाम क्या इस वचन का एतबार करेगी?, उनमें कशमकश गई. उनका ईमान यूँ पुख्ता हुवा है कि अल्लाह उनकी बे ईमानी पर राज़ी है, गोया कोई गुनाह नहीं कि बे ईमानी कर लो. इस मुहम्मदी फार्मूले ने पूरी कौम की मुआशी हालत को बिगड़ रख्खा है. सरकारी अफ़सर मुस्लिम नाम सुनते ही एक बार उसको सर उठ कर देखता है, फिर उसको खँगालता है कि लोन देकर रक़म वापस भी मिलेगी ? मेरे लाखों रूपये इन चुक़त्ता मुक़त्ता दाढ़ी दार मुसलमानों में डूबा है


कौमी तौर पर मुसलमान पक्का तअस्सुबी (पक्षपाती) होता है. पक्षपात की वजेह से भी मुस्लमान संदेह की नज़र से देखा जाता है



मेरी तामीर में मुज़्मिर है इक सूरत ख़राबी की (ग़ालिब)



ग़ालिब का ये मिसरा मुसलमानों पर सादिक़ है कि इस्लामी तालीम ने उनको इंसानी तालीम से महरूम कर दिया है। मुसलमानों के लिए इससे नजात पाने का एक ही हल है कि वह तरके-इस्लाम करके दिलो--दिमाग़ से मोमिन बन जाएँ.



दीन दार मोमिन.दीन= दयानत (सत्यता) + मोमिन = ईमान दार (इस्लामी ईमान नहीं)

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अब चलते है इन के ईमान पर - - -



''और आप किसी काम के निसबत यूँ कहा कीजिए कि मैं इसको कल करूँगा, मगर खुदा के चाहने को मिला दिया कीजिए। और जब आप भूल जाएँ तो रब का ज़िक्र किया कीजिए। और कह दिया कीजिए कि मुझको उम्मीद है कि मेरा रब मुझ को दलील बनने के एतबार से इस से भी नज़दीक तर बात बतला दे।''
सूरह कुहफ १८ - पारा १५ आयत (२४)
मुलाहिज़ा फ़रमाइए,
है मुहम्मदी अल्लाह की तअलीम. इंशा अल्लाह?



'' और वह लोग अपने ग़ार में तीन सौ बरस तक रहे और नौ बरस ऊपर और है। आप कह दीजिए कि खुदा तअला इनके रहने को ज्यादा जानता है तमाम आसमानों और ज़मीन का ग़ैब उसको है. वह कैसा कुछ देखने वाला और कैसा कुछ सुनने वाला है. इनका खुदा के सिवा कोई मददगार नहीं और अल्लाह तअला अपने हुक्म में किसी को शरीक करता है.''
''सूरह कुहफ १८ - पारा १५ आयत (२५-२६)
मुहम्मद एक तरफ़ अपनी भाषा उम्मियत में वक्फ़े का एलान भी करते हैं, फिर लगता है इसका खंडन भी कर रहे हैं कि ''आप कह दीजिए कि खुदा तअला इनके रहने को ज्यादा जानता है।'' वह खुद सर थे किसी की दख्ल अनदाज़ी उनको गवारा थी , इसका एलान वह खुदाए तअला बनकर करते हैं कि ''अपने हुक्म में किसी को शरीक करता है।''

''और जो आप के रब की किताब वह्यी के ज़रीए आई है उसको पढ़ दिया कीजिए, इसकी बातों को कोई बदल नहीं सकता। और आप खुदा के सिवा कोई और जाए पनाह नहीं पाएँगे''
सूरह कुहफ १८ - पारा १५ आयत (27)
मुसलमानों! मुहम्मदी अल्लाह अगर वाक़ई अल्लाह होता तो क्या इस किस्म की बातें करता? जागो कि तुम को सदियों के वक्फ़े में कूट कूट कर इस अक़ीदे का ग़ुलाम बनाया गया है।



''और आप अपने को उन लोगों के साथ मुक़य्यद रखा कीजिए जो सुब्ह शाम अपने रब की इबादत महज़ उसकी रज़ा जोई के लिए करते हैं और दुन्यावी ज़िन्दगी की रौनक के ख़याल से आप की आँखें उन से हटने पाएँ और ऐसे लोगों का कहना मानिए जिन के दिलों को हम ने अपनी याद से गाफ़िल कर रखा है, वह अपनी नफ़सानी ख्वाहिश पर चलता है - - -''
सूरह कुहफ १८ - पारा १५ आयत (२८)
''और आप कह दीजिए कि हक़ तुम्हारे रब की तरफ़ से है सो जिसका जी चाहे ईमान ले आवे और जिस का जी चाहे काफ़िर बना रहे. बेशक हमने ऐसे जालिमों के लिए आग तैयार कर रखी है कि इनकी क़नातें उनको घेरे होंगी और अगर फ़रयाद करेंगे तो ऐसे पानी से उनकी फ़रयाद पूरी की जाएगी जो तेल की तलछट की तरह होगा, मुँहों को भून डालेगा. क्या ही बुरा पानी होगा, और क्या ही बुरी जगह होगी.''
'सूरह कुहफ १८ - पारा १५ आयत (२९)
यह मुहम्मदी आयतें इस बात का सुबूत हैं कि तुम को मुहम्मद अपने पयम्बरी के क़ैद खाने में मुक़य्यद करने में कामयाब हैं। अब वक़्त की आवाज़ सुनो, जो तुम्हें इस से आज़ाद करना चाहता है। बस मुसलमान से मोमिन बन जाओ और इस गाफ़िल करने वाले शैतान मानिंद अल्लाह से नजात पाओ, कि जो खुद अपनी कमज़ोरियों का शिकार है. आज़ाद होकर अपनी नफ़सानी ज़िन्दगी जियो. तुम से तुम्हारी नफ्स इल्तेजा कर रही है कि अपनी नस्लों को मुकम्मल इन्सान बनाओ. नफ्स क्या है ? सिर्फ ऐश और अय्याशी को नफ्स नहीं कहते, ज़मीर की आवाज़ भी नफ्स है, इन्सान की जेहनी आज़ादी भी नफ्स है, मोहम्मद तो ऐश अय्याशी को ही नफ्स जानते हैं, अंतर आत्मा जिसको पाने को तड़पती हो वह नफ्स है. तुम्हारी अंतर आत्मा की आवाज़ इस वक़्त क्या है? ऊपर अल्लाह की बख्शी हुई हूरें या अपने बच्चों का रौशन मुस्तक़बिल? ईमान की गहराइयों को गवाह कर के बतलाओ.
यह कुरान की साफ़ साफ़ आवाज़ है जिसको बड़े मौलाना शौकत अली थानवी ने उर्दू में अनुवाद किया है, किसी हदीसे-ज़ईफ़ की नक्ल नहीं। देखो कि कितना बुरा अल्लाह है, कितना नाइंसाफ़ है कि ऐसे खौफों से डरता है कि अगर तुम ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' कह कर मरते तो क्या से क्या हो सकता था, क्या तुम क़नातों में घिरी दोज़ख में जलना पसंद करोगे और तेल की तलछट की तरह पानी पीना, जो मुँहों को भून डाले. बस बहुत हो गया, इस अक़ीदे को सर से झटक कर ज़मीन पर रख्खे कूड़ेदान में डाल दोयाद रख्खो अल्लाह अगर है तो तुम्हारे बाप कि तरह शफीक़ होगा, कुरआन में बके हुए मुहम्मदी अल्लाह की मानिंद नहीं. इस ज़िन्दगी को बेख़ौफ़ होकर जीना सीखो।



'' बेशक जो लोग ईमान लाए और उन्हों ने अच्छे काम किए तो हम ऐसों का उज्र ज़ाया करेंगे ऐसे लोगों के लिए हमेशा रहने के बाग़ हैं, इनके नीचे नहरें बहती होंगी और इनको वहाँ सोने के कँगन पहनाए जाएँगे और सब्ज़ रंग के कपडे बारीक और दबीज़ रेशम पहनेंगे और वहाँ मसेहरियों पर टेक लगाए होंगे क्या ही अच्छा सिला है और क्या ही अच्छी जगह है। और आप उन में से दो लोगों का हाल बयान कीजिए ( बे सर पर की कहानी - - -आप पढना पसंद करेगे और मुझे लिखने में कराहियत होती है. जिसका इख्तेसर है कि अल्लाह के मानने वाले की कमाई जल कर साफ मदन हो गया और उसे मानने वाला सुखरू रहा.
सूरह कुहफ १८ - पारा १५ आयत (३० -४४)
लोगो! खुदा खास्ता अगर मुहम्मदी ईमान को लेकर ही उठे तो तुम्हारी ऊपर बड़ी ख़राबी होगी। सब्ज़ रंग के बारीक और दबीज़ रेशम के कपडे पहने पहने तमाम उम्रे-लामतनाही लिए बैठे रहोगे कि कोई काम काज होगा, कोई ज़मीन होगी जिसको उपजाऊ बनाने के लिए अपनी ज़िन्दगी वक्फ करो, कोई चैलेज होगा, कोई आगे की मंजिल, नफ्स की कोई माँग होगी, सब कुछ बे माँगे मिलता रहेगा। अंगूर और खजूर खाने की तलब भर हुई कि उसकी शाखें तुम्हारे होटों के सामने होंगी। सोने का कंगन होगा उसकी कीमत तो इसी दुन्या में है जिसे तुम खो रहे हो, वहाँ सोने के मकान होंगे जिसमें सोने का कमोड होगा, फिर सोना लादना हिमाक़त ही लगेगा. आखिर ऐसी बे मकसद ज़िन्दगी का अंजाम क्या होगा? फिर याद आएगी तुम्हें अपनी यह दुन्या जिसको तुम गँवा रहे हो, मोहम्मदी झांसों में आकर


''अल्लाह ज़मीन से पहाड़ों को हटा कर ज़मीन पर रोज़े-महशर सजाता है, ईमान का बदला देता है और फिर ईमान लाने वाले मातम करते हैं, ये मुख़्तसर है इन आयतों का. ये नौटंकी कुरआन में बार बार देखने को मिलेगी.
''सूरह कुहफ १८ - पारा १५ आयत (४५-४९)



''मैंने उनको आसमान और ज़मीन को पैदा करने के वक़्त बुलाया, और खुद उनके पैदा होने के वक़्त और मैं ऐसा था कि गुमराह करने वालों को अपना दोस्त बनाता। और उस दिन हक़ तअल्ला फ़रमाएगा जिन को तुम हमारा शरीक समझते थे उनको पुकारो, वह उनको पुकारेंगे सो वह उनको जवाब ही देंगे और हम उनके दरमियान में एक आड़ कर देंगे और मुजरिम लोग दोज़ख को देखेंगे कि वह उस में गिरने वाले हैं और इससे कोई बचने की राह पाएगा।
''सूरह कुहफ १८ - पारा १५ आयत (५१ ५३)
मतलब ये कि अल्लाह ने तुमको बड़ी आसानी से अकेले ही जन दिया, उसको किसी दाई, आया, नर्स या डाक्टर की ज़रूरत नहीं थी। मुसलमानों ! क्यूँ अपनी रुवाई ज़माने भर में करवाने पर आमादः हो, सारा ज़माना इन आयातों को पढ़ रहा है और तुम पर थूक रहा है। क्या सदियों से इस्लामी बेड़ियों में जकड़े जकड़े तुम को इन बेड़ियों से प्यार हो गया है, चलो ठीक है ! मगर क्या ये जेहालत की बेड़ियाँ अपने बच्चों के पैरों में भी पहनने का इरादा है? दुन्या के करोरो इंसानों को जगाने का वक़्त, इक्कीसवीं सदी तुम को आगाह कर रही है कि '' तुम्हारी दास्ताँ रह जाएगी बस दस्तानोंमें।''



''और हम ने इस कुरआन में लोगों की हिदायत के वास्ते हर किस्म के उम्दा मज़ामीन तरह तरह से बयान फ़रमाए हैं और आदमी झगडे में सब से बढ़ कर है।''


सूरह कुहफ १८ - पारा १५ आयत (५४)


दुश्मने-इंसानियत मुहम्मदी अल्लाह ! तूने शर, बोग्ज़, नफ़रत, जेहालत, बे ईमानी और हिमाक़त ही बका है, इस कुरआन में. अपनी खूबियाँ बखानने वाले! क्यूँ आदमी को शरीफ़ तबअ मख्लूक़ बनाया, अपने पैगम्बर को पहले तालीम दी होती कि बातें करना सीखे, फिर सच बोलना सीखे, उसके बाद इंसानों की ज़िन्दगी की क़ीमत आँके कि जिसने लाखों सदियों से तेरी आपदाओं से बच बचा कर मानव जति को यहाँ तक ले आई है. वह तो इसे काफ़िर, मुशरिक, मुनकिर, मुल्हिद, यहाँ तक कि ईसाइयों और मूसाइयों को जानवरों की तरह मार देने की तअलीम दे रहा है. और मुसलमानों कब तक ऐसे अल्लाह और उसके ऐसे रसूल के आगे सजदा करते रहोगे?''



''और उन्हों ने मेरी आयातों को और जिस से उनको डराया गया था, उसको दिललगी बनाए रक्खा- - -''
सूरह कुहफ १८ - पारा १५ आयत (५७)
मुहम्मदी अल्लाह! तेरी आयतें तो हैं ही ऐसी कि दुन्या भर में मज़ाक बनी हुई हैं। बस मुसलमानों की आँखें ही नहीं खुल रहीं। अपना मज़ाक उड़ते देख कर उनको शर्म नहीं आती क्यूँ कि वह जन्नत के फरेब में मुब्तिला हैं, हालांकि उसमें भी अंततः दुर्गन्ध है



'' - - -और बस्तियां जब उन्हों ने शरारत की तो हमने उनको हलाक कर दिया।
''सूरह कुहफ १८ - पारा १५ आयत (५९)
और तू इंसानी बस्तियों के साथ कर भी क्या सकता है? तेरे डाकिए मुहम्मद ने इंसानों को हैवान बना दिया, वह उसकी पैरवी में लग कर २०% इंसानी आबादी के पैरों में बेड़ियाँ डाले हुए हैं। इस वक़्त पूरी दुन्या मिल कर उनको फ़ना करने पर आमादा है.



मुसलमानों! जागो, आँखें खोलो। इक्कसवीं सदी की सुब्ह हुए देर हुई, देखो कि ज़माना चाँद सितारों पर सीढियां लगा रहा है. कल जब यह ज़मीन सूरज के गोद में चली जाएगी तो बाकी लोग अपनी अपनी नस्लों को लेकर उस पर बस जाएँगे और तुम्हारी नस्लें कहीं की होंगी. तुम समझते हो कि तुम हक़ बजानिब हो? तो तुम बहके हुए हो. तुमको बहकाए हुए हैं, इस्लामी ओलिमा, जिनका कि ज़रीआ मुआश ही इस्लाम है. इनका पूरा माफिया सकक्रीय है. इनका नेट वर्क ओबामा जैसे अच्छे लीडर को हिलाए हुए है. इनकी पकड़ सीधे सादे मुसलमानों को अपनी मुट्ठी में दबोचे हुए है. ज़रा सर उठा कर तो देखो, इनके एजेंट तुम को फ़तवा देना शुरू कर देंगे, समाज में इनके इस्लामी गुंडे तुम्हारे बगल में ही बैठे होंगे, तुम को अलावा समझाने बुझाने के ये और कोई राय नहीं देंगेहर एक का मुआमला पेट से जुड़ा हुवा है यह तो तुम मानते हो. वह भी मजबूर हैं कि उनकी रोज़ी रोटी है, गोरकुन की तरह. कोई मुक़र्रिर बना हुवा है, कोई मुफक्किर, कोई प्रेस चला कर, इस्लामी किताबों की इशाअत जो उसकी रोज़ी है, कोई नमाज़ पढ़ाने के काम पर, तो कोई अजान देने का मुलाजिम है, मीडिया वाले भी ओलिमा को बुला कर तुम्हें आकर्षित करते हैं कि चैनल के शाख का सवाल है. यहाँ तक कि इस ब्लाग की दुन्या में भी ऐसे लोगों ने अपने बच्चों के पोषण का ज़रीआ तलाश कर लिया है. यह सब मिल कर तुम्हें सुलाए हुए हैं. कोई जगाने वाला नहीं हैं. तुम खुद आँखें खोलनी होगी।



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जीम 'मोमिन' निसरुल-ईमान


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ज़माना गवाह है



Now that you know which "people" Alexander was visiting and that neither Allah nor Muhammad can be trusted, we'll return to their Qur'anic fairytale: "We (Allah) said (by inspiration): 'O Dhu'l-Qarnain, either you punish them or treat them with kindness.'" For a frame of reference: Allah is offering this capricious advice to Alexander the Great as he surveys beings living around the murky spring in which the sun goes to bed at night. Qur'an 18:87 "He said: 'Whoever does wrong (a disbeliever in Allah), as for him [the extraterrestrial] we [Alexander's Greek troops] shall punish; then shall he be sent back to his Lord and He will punish him with a terrible torture unheard of (before). But as for him who believes [in what, Alexander was a pagan] and works good, he shall have the best reward [from whom, Alexander worshiped the sun], and we (Dhu'l-Qarnain) shall speak mild words unto him." Since the Qur'an opens with a series of harsh rants followed by demented threats and concludes with orders to mutilate and murder all who resist, he couldn't have quoted from Allah's book. And since Alexander is famous for being history's greatest warrior, it's safe to say his words were no milder than: "punish him with a terrible torture unheard of (before)."Qur'an 18:89 "Then followed he (another) way until he came to the rising place of the sun. [And where might that be?] He found it rising on a people for whom We (Allah) had provided no covering protection against the sun. So (it was)! And We knew all about him (Dhu'l-Qarnain)," ...said Professor Allah, proving the Qur'an wasn't inspired by a rational being.But this brings us back to Islam's poison pill, albeit more colorfully this time. Qur'an 18:92 "Then he followed (another) course until, when he reached (a tract) between two mountains, he found beneath them a people who scarcely understood a word [Meccans, perhaps?]. They said: 'O Dhu'l-Qarnain, verily the Gog and Magog do great mischief on earth and they are spoiling our land.'" In the previous surah, Gog was not to arrive until the Last Day, now they are making mischief in a time long past. And by the way, the Qur'an doesn't describe these critters as people. Qur'an 21:92 said: "Gog and Magog are let loose (from their barrier) and they swoop down, swarming." And that may be why these mischief makers are associated with Alexander's extraterrestrial activities.The 94th verse continues with the "people who scarcely understood a word" saying "'Shall we then pay you tribute in order that thou might erect a barrier between us and them? He said: 'That (the wealth, authority, and power [a.k.a. Islam]) in which my Lord has established me is better (than your tribute). So help me therefore with strength (of men and labor); I will erect a strong barrier between you and them." As an interesting aside, The Jewish rabbis would have known that Arabia wouldn't join Magog's attack on Israel and that the mischief they unleashed would spoil the land. Further, the pagan Dhu'l-Qarnain/Alexander was being presented as an Islamic prophet to help validate Muhammad's claim that he, David, and Solomon were Muslims. But alas, history and archeology confirm that Alexander was a pagan, that David and Solomon were Jews, and that Alexander didn't build a "great barrier" anywhere. Thus Allah is lying...again. And these lies are not without consequence. Islam was based on the preposition that Abraham was a Muslim serving Allah, as were Moses and Christ. While Muhammad's case was never believable, we now have irrefutable proof that he and his dark spirit were willing to lie in their Qur'an.


Prophet of Doom