Wednesday, 7 April 2010

क़ुरआन सूरह तौबः ९



सूरह तौबह --९
Repentance --9
F
अंडे में इनक़्लाब



इंसानीजेहन जग चुका है और बालिग़ हो चुका है. इस सिने बलूगत की हवा शायद ही आज किसी टापू तक न पहुँची हो, वगरना रौशनी तो पहुँच ही चुकी है, यह बात दीगर है कि नसले-इंसानी चूजे की शक्ल बनी हुई अन्डे के भीतर बेचैन कुलबुलाते हुए अंडे के दरकने का इन्तेज़ार कर रही है. मुल्कों के हुक्मरानों ने हुक्मरानी के लिए सत्ता के नए नए चोले गढ़ लिए हैं. कहीं पर दुन्या पर एकाधिकार के लिए सिकंदारी चोला है तो कहीं पर मसावात का छलावा. धरती के पसमांदा टुकड़े बड़ों केपिछ लग्गू बने हुए है. हमारे मुल्क भारत में तो कहना ही क्या है! कानूनी किताबें, जम्हूरी हुकूक, मज़हबी जूनून, धार्मिक आस्थाएँ , आर्थिक लूट की छूट एक दूसरे को मुँह बिरा रही हैं. ९०% अन्याय का शिकार जनता अन्डे में क़ैद बाहर निकलने को बेकरार है, १०% मुर्गियां इसको सेते रहने का आडम्बर करने से अघा ही नहीं रही हैं. गरीबों की मशक्क़त ज़हीन बनियों के ऐश आराम के काम आ रही है, भूखे नंगे आदि वासियों के पुरखों के लाशों के साथ दफन दौलत बड़ी बड़ी कंपनियों के जेब में भरी जा रही है और अंततः ब्लेक मनी होकर स्विज़र लैंड के हवाले हो रही है. हजारों डमी कंपनियाँ जनता का पैसा बटोर कर चम्पत हो जाती हैं. किसी का कुछ नहीं बिगड़ता. लुटी हुई जनता की आवाज़ हमें गैर कानूनी लग रही हैं और मुट्ठी भर सियासत दानों , पूँजी पतियों, धार्मिक धंधे बाजों और समाज दुश्मनों की बातें विधिवत बन चुकीहैं. कुछ लोगों का मानना है कि आज़ादी हमें नपुंसक संसाधनों से मिली, जिसका नाम अहिंसा है.सच पूछिए तो आज़ादी भारत भूमि को मिली, भारत वासियों को नहीं. कुछ सांडों को आज़ादी मिली है और गऊ माता नहीं. जनता जनार्दन को इससे बहलाया गया है. इनक़्लाब तो बंदूक की नोक से ही आता है, अब मानना ही पड़ेगा, वर्ना यह सांड फूलते फलते रहेंगे. स्वामी अग्निवेश कहते हैं कि वह चीन गए थे वहां उन्हों ने देखा कि हर बच्चा गुलाब के फूल जैसा सुर्ख और चुस्त है. जहाँ बच्चे ऐसे हो रहे हों वहां जवान ठीक ही होंगे.कहते है चीन में रिश्वत लेने वाले को, रिश्वत देने वाले को और बिचौलिए को गोली मारदी जाती है. भारत में गोली किसी को नहीं मरी जाती चाहे वह रिश्वत में भारत को ही लगादे. दलितों, आदि वासियों, पिछड़ों, गरीबों और सर्व हारा से अब सेना निपटेगी. नक्सलाईट का नाम देकर ९०% भारत वासियों का सामना भारतीय फ़ौज करेगी, कहीं ऐसा न हो कि इन १०% लोगों को फ़ौज के सामने जवाब देह होना पड़े कि इन सर्व हारा की हत्याएं हमारे जवानों से क्यूं कराइ गईं? और हमारे जवानों का खून इन मजलूमों से क्यूं कराया गया?

चौदह सौ साल पहले ऐसे ही धांधली के पोषक मुहम्मद हुए और बरबरियत के क़ुरआनी कानून बनाए जिसका हश्र आज यह है कि करोड़ों इंसान वक्त की धार से पीछे, खाड़ियों, खंदकों, पोखरों और गड्ढों में रुके पानी की तरह सड़ रहे हैं। वह जिन अण्डों में हैं उनके दरकने के आसार भी ख़त्म हो चुके हैं. कोई चमत्कार ही उनको बचा सकता है. देखिए किउनका अल्लाह क्या क्या कहता है - - -
''और उन देहातियों में बअज़ बअज़ ऐसा है जो कुछ वह खर्च करता है, उसको जुर्माना समझता है और तुम मुसलामानों के लिए गर्दिशों का मुंतज़िर रहता है, बुरावक्त उन्हीं पर है और वह अल्लाह सुनते और जानते हैं.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (९८ )
तो ये रही मुहम्मद के देहाती अल्लाह की देहातियों पर पकड़. जिन देहातियों और अन्सरियों ने खुद को अल्लाह और उसके रसूल के के हवाले बमय लाल और माल अवाले करदिया है उसके लिए जन्नत में महेल हंगे जिनके नीचे नहरन बह रही होंगी.
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (१००)
मुहम्मद मक्का से बद हाली में फरार होकर जब अपने साथी अबू बक्र के हमराह मदीने आए और जिस घर में पनाह लिया उस घर क०को बाद में वहाँ के लोगों ने मस्जिद बनवा दिया, जब कि मुहम्मद ने उसी घर से लगी ज़मीन खरीद कर मस्जिद बनवाई जिसका नाम आज तक मस्जिदे नबवी है. मुहम्मद मक्के से मदीने जब आए तो वहां के लोग बहुत खुश गवारी में थे कि मक्के का बाग़ी आ रहा है, दूसरे यह कि यहूदी और ईसाई के योरो सलम वाले मदीने में बुत परस्तों की मुखालफत करने वाला एक बुत परस्त कुरैश उनका हम नवा बन कर पैदा हुवा है. तीसरी बात ये कि मक्का हमेशा शर पसंद रहा है, मदनियों ने ख्याल किया कि दुश्मन का दुश्मन हमारा दोस्त बनेगा. इन्हीं तमाम जज़्बात को मद्दे नज़र रखतेहुए लोगों ने उस घर को भी मस्जिद बना दिया था जिस में मुहम्मद ने पहली बार क़दम रखा था, कामयाबी मिलने के बाद मुहम्मद का इस्लाम शैतानी शक्ल अख्तियार करने लगा तो तो यहाँ के मुसलमानों ने मुहम्मद का साथ उनके अल्लाह के मनमानी फरमान में उसकी बात की मुखालिफत की. बस मुहम्मद ने इनको कुफ्र का लक़ब दे दिया और मस्जिद को नाम दिया '' मस्जिदे ज़र्रार'' यानी ज़रर पहुँचाने वाली मस्जिद. मुहम्मद और नुकसान उठाएं? ना मुमकिन.
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (१०१-११०)
मुहम्मद क़ीमती इंसानी ज़िन्दगी को अपने मुफ़ाद के लिए जेहाद के नज़र यूँ करते हैं - - -
'' बिला शुबहा अल्लाह तअला ने मुसलमानों से उनके जानों और उनके मालों को इस बात के एवज़वाज़ ख़रीद लिया है कि उनको जन्नत मिलेगी, वह लोग अल्लाह की राह में लड़ते हैं , क़त्ल करते हैं, क़त्ल किए जाते हैं, इस पर सच्चा वादा है तौरेत में, इन्जील में, और कुरआन में और अल्लाह से ज्यादा अपना वादा कौन पूरा करने वाला है? तो तुम लोग अपने बयनामे पर जिसका तुम ने अल्लाह के साथ मुआमला ठहराया है ,ख़ुशी मनाओ.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (१११)
यही कुरानी आयतें तालिबानी ज़ेहनों को आत्म घाती हमलों पर आमादः करती हैं और मुसलामानों को इस तरक्क्की याफ़्ता दुन्या के सामने ज़लील करती हैं. इनपर तमाम दुन्या केशरीफ़ और समझदार कयादत को एक राय होकर पाबंदी आयद करना चाहिए.
''पैगम्बर और दूसरे मुसलामानों को जायज़ नहीं कि मुशरिकीन की मगफेरत की दुआ मांगे, चाहे वह रिश्तेदार ही क्यूं न हो, इस अम्र के ज़ाहिर हो जाने के बाद कि वह दोजखी है.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (११२-१३)
मुहम्मद की क़ल्ब सियाही इन बातों से देखी जा सकती है मगर उनका दोहरा मेयार भी याद रहे कि जब अपने मोहसिन चचा अबू तालिब तालिब की अयादत में गए तो उनसे पहले अपने हक में कालिमा मुहम्मदुर रसूलल्लाह पढ़ लेने की बात की, वह नहीं माने तो उठते उठते कहा खैर, मैं आपकी मगफिरत की दुआ करूंगा.
मगर ठहरिए, लोगों की याद दहानी पर मुहम्मद इसे अपनी भूल मानने लगे हैं और ऐसी भूल सय्यदना इब्राहीम अलैहिस सलाम से भी हुई, गढ़ी हुई आयत मुलाहिज़ा हो - - -
''और इब्राहीम ने दुआए मगफिरत अपने बाप के लिए माँगा और वह srif वादा के सबब था जो इन्हों ने इस से वादा लिया था, फिर जब उन पर यह बात ज़ाहिर हो गई की वह खुदा का दुश्मन है तो वह उस से महज़ बे ताल्लुक हो गए.
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (११४)
पिछले बाब में मैं लिख चुका हूँ, फिर दोहरा रहा हूँ कि बाबा इब्राहीम इंसानी तवारीख के पहले नामवर इंसान हैं जिनका ज़िक्र आलमी इतिहास में सब को मान्य है.पाषाण युग था वह पत्थर तराश के बेटे थे, बाप के साथ संग तराशी में बमुश्किल गुज़रा होता tha. बाबा इब्राहीम की वजेह से उनके बाप नाम भी जिंदा-ए-जावेद हो गया.यहूदी तौरेत उनको तेराह बतलाती है अरबी आजार कहते हैं. उन्हों ने अपने बेटे अब्राहाम और भतीजे लूत को ग़ुरबत से नजात पाने के लिए ठेल ढकेल के परदेस भेजा यह सपना दिखला कर कि तुम को दूध और शहद की नादियों वाला देश मिलेगा. इब्राहीम, लूट न पैगम्बर थे और न आजार काफ़िर. वह लोग पाषाण युग के अविकसित सभ्यता के पथिक मात्र थे. कुरान में जो आप पढ़ रहे है वहझूटी पैगम्बरी के गढ़े हुए मकर हैं.
बे ज़मीर पैगम्बरी तमाम हदें पार करती हुई अल्लाह यानी खुदाए बरतर को यूं रुसवा करती है - - -
''और अल्लाह तआला ऐसा नहीं करता कि किसी क़ौम को हिदायत किए पीछे गुमराह करदे जब तक कि उन चीज़ों को साफ़ साफ़ न बतला दे जिन से व बचते रहें.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (११५)
देहातियों की तादाद बहुत बढ़ गई है, मुहम्मद को एक राह सूझी है कि इनके बड़े बड़े इलाक़ाई गिरोह बना दिए जाएँ उनमें से चुने हुए नव जवानों की टुकडियाँ बना दी जाएँ जो अतराफ़ की काफिरों की बस्तियों पर हमला करके अपने कबीले को माले-गनीमत से खुद कफ़ील बनाएँ.'' ए ईमान वालो! इन कुफ्फ़रो से लड़ो जो तुम्हारे आस पास रहते हैं और इनको तुम्हारे अन्दर सख्ती पाना चाहिए.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (१२२-२३)
मुहम्मद की इस नुज़ूली क़लाबाज़ी में लोग उनकी नबूवत की दावत पर दाखिल होते हैं और उसे परख कर ख़ारिज हो जाते हैं.साथ साथ अल्लाह भी क़ला बाज़ियां खाता रहता है - - -
''और क्या उनको नहीं दिखाई देता कि यह लोग हर साल में एक बार या दो बार किसी न किसी आफ़त में फंसे रहते हैं, फिर भी बअज़ नहीं आते और न कुछ समझते हैं और जब कोई सूरह नाज़िल की जाती है तो एक दूसरे का मुंह देखने लगते हैं कि तुम को कोई देखता तो नहीं , फिर चल देते हैं, अल्लाह तअला ने इनका दिल फेर दिया है इस वजेह से कि वह महेज़ बे समझ लोग हैं. तुम्हारे पास एक ऐसे पैगम्बर तशरीफ़ लाए हैं जो तुम्हारे जिन्स से हैं जिनको तुम्हारी मुज़िररत की बातें निहायत गराँ गुज़रती हैं जो तुम्हारे मुन्फेअत के बड़े खाहिश मंद रहते हैं. ईमान दारों के साथ निहायत शफीक़ और मेहरबान है. फिर अगर यह रू गरदनी करें तो आप कह दीजिए मेरे लिए अल्लाह तअलाकाफ़ी है और वह बड़े भारी अर्श का मालिक है.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (१२६-१२९)
कुदरती आफतों को भी मुहम्मद भुनाना नहीं भूलते, लोग इनकी फित्तीनी आयतों से नालां होकर दूर भागने लगे हैं, अब इन को वह काफ़िर भी नहीं कहते महेज़ बे समझ लोग कहते हैं.उनके लिए ज़बरदस्ती शफीक़ और मेहरबान बने रहते हैं. रू गर्दानी करने वालों को आगाह करते हैं कि उनका कुछ नहीं बिगड़ता है क्यूँ कि उनके साथ उनका तलाश किया हुवा अल्लाह जो है जिसके सिवा कोई मअबूद नहीं और वह बहुत भारी आसमान का मालिक जो है एक टुकड़ा मुहम्मद के नाम करदेगा.
खुद को जिन्स ए इंसानी या लोगों का हम जिन्स बतला कर मुहम्मद जिन्स के बारे में महज़ जेहालत की बातें करते हैं, जिसे हर बार मुतराज्जिम मुश्किल में पड कर ब्रेकेट लगा कर मुहम्मद की रफ्फु गरी करता है।


निसार '' निसार-उल-ईमान''

************************************


ऐतिहासिक सत्य में क़ुरआन की हक़ीक़त
Good Muslims are bad people. Islam makes them that way. Qur'an 9:88 "The Messenger and those who believe with him, strive hard and fight [jihad] with their wealth and lives (in Allah's Cause)." All Muslims aren't terrorists - just the good ones are.
The Bedouins were peace loving before Islam corrupted them. Qur'an 9:90 "And there were among the wandering desert Arabs men who made excuses and came to claim exemption (from the battle). Those who lied to Allah and His Messenger sat at home. Soon will a grievous torment seize the Unbelievers." There are Muslims who are excused from fighting. Qur'an 9:91 "There is no blame on those who are old, weak, ill, or who find no resources to spend (on Jihad, holy fighting), if they are sincere (in duty) to Allah and His Messenger. No ground (of complaint) can there be against them." The only Muslims who don't fight are lame.
Islam isn't complicated. Believe in Allah and become a Jihadist. Bukhari:V1B2N25 "Allah's Apostle was asked, 'What is the best deed.' He replied, 'To believe in Allah and His Apostle Muhammad.' The questioner then asked, 'What is the next best in goodness.' He replied, 'To participate in Jihad, religious fighting in Allah's Cause.'"
Islam's condemnation of peace marched on: Qur'an 9:93 "The (complaint) is against those who claim exemption [from fighting] while they are rich. They prefer to stay with the (women) who remain behind (at home). Allah has sealed their hearts. They are content to be useless. Say: 'Present no excuses: we shall not believe you.' It is your actions that Allah and His Messenger will observe. They will swear to you by Allah, when you return hoping that you might leave them alone. So turn away from them, for they are unclean, an abomination, and Hell is their dwelling-place, a fitting recompense for them." This couldn't be any clearer. Allah hates peaceful Muslims. They are called "unclean," an "abomination," and "hell-dwellers."
While Allah hates Arabs and peaceful Muslims, we must love them enough to free them from his perverse doctrine, Allah hates them, especially Arabs. Qur'an 9:97 "The Arabs of the desert are the worst in unbelief and hypocrisy, and most fitted to be in ignorance of the command which Allah hath sent down to His Messenger. Some of the Bedouins look upon their payments (for Allah's Cause) as a fine and wish disasters to fall on you (so that they might not have to pay). Yet on them be the disaster of evil." The evil disaster that fell upon the Arabs was Islam. The free, productive, and peace-loving Bedouins of Arabia were forced into submission, taxed, and then coerced into fighting.
Qur'an 9:101 "Among the desert Arabs are hypocrites. They, like the people of Medina are obstinate in hypocrisy. We know them. Twice shall We punish them, and in addition they shall be brought back to a horrible torment." While I love Arabs, as does Yahweh, Allah hates them so much he will punish them twice and then torment them.
Continuing to berate those who do not perform, pay, obey, and fight, Allah contradicts himself and tells Muhammad to take their money anyway. Qur'an 9:103 "Take alms out of their property in order to cleanse and purify them, and invoke Allah for them; surely this is a relief for them." Religion is a wonderful thing if you are a cleric or king. Stealing is good. It "cleanses and purifies" your victims.
If you're a Muslim, you'd better die fighting because: Qur'an 9:106 "There are (yet) others, held in suspense for the command of Allah, whether He will punish them, or turn in mercy to them." Even the builders of mosques are going to hell. Qur'an 9:107 "And there are those who put up a mosque by way of mischief to disunite the Believers and in preparation for an ambush of him who made war against Allah and His Messenger. They will swear that their intention is good; But Allah declares that they are liars." Their mosque "crumbles to pieces with them in the fire of Hell."
According to the Qur'an, Allah has purchased the believers (bribed them with booty), and all "good" Muslims are killers: Qur'an 9:111 "Allah has purchased the believers, their lives and their goods. For them (in return) is the Garden (of Paradise). They fight in Allah's Cause, and slay others and are slain, they kill and are killed. It is a promise binding on Him in the Taurat (Torah), the Injeel (Gospel), and the Qur'an. And who is more faithful to his covenant than Allah? Then rejoice in the bargain which you have concluded. It is the achievement supreme." There are no such bargains in the Bible. And that would make Allah a liar. Yahshua never asked men to "slay others." In the Torah, Yahweh only asked Moses and Joshua to remove those poisoned by the Canaanite religion [the worship of the sun god Baal] from the Israel. They, like Muhammad's Muslims, were immoral, terrorizing, plundering, enslaving, murdering, worshippers of a false god. Yahweh knew that it was compassionate to exterminate the few who would seduce the many into a doctrine corrosive enough to destroy mankind.
Yes, there are doctrines corrupt enough to deceive and damn all human kind. Such dogmas say: the Garden of Bliss (a.k.a. Allah's Whorehouse) awaits those who "fight in Allah's Cause, slay others and are slain, kill and are killed."
As we wind our way to the bitter end of the Qur'an's 113th recital, we find Team Islam spiteful to the last. Muhammad cries in the name of his god: Qur'an 9:113 "It is not fitting for the Prophet and those who believe, that they should pray for the forgiveness for disbelievers, even though they be close relatives, after it is clear to them that they are the inmates of the Flaming Hell Fire." Don't pray to save your family. Allah wants you to kill them so that he can roast them in hell.
Looking for a way to justify his lack of compassion, or at least make it seem holy, Muhammad conjured up a lie about Abraham. Qur'an 9:114 "Abraham prayed for his father's forgiveness only because of a promise he had made to him. But when it became clear to him that he was an enemy to Allah, he dissociated himself from him."
Der prophet proclaimed: Qur'an 9:120 "It is not fitting for the people of Medina and the Bedouin Arabs to refuse to follow Allah's Messenger (Muhammad when fighting in Allah's Cause), nor to prefer their own lives to his life. They suffer neither thirst nor fatigue in Allah's Cause, nor do they go without reward. They do not take steps to raise the anger of disbelievers, nor inflict any injury upon an enemy without it being written to their credit as a deed of righteousness." For those who may have been skeptics as to whether Muhammad created Islam to serve his personal agenda, this verse is reasonably convincing. "Muslims must prefer Muhammad's life to their own." And for any who have mistakenly believed "righteous deeds" were good , you now know that Muslims are given "credit" for "inciting anger and inflicting injury."
Continuing to reinforce the sad reality that Islam was Muhammad's quest to line his pockets, the Qur'an says: Qur'an 9:121 "Nor do they spend anything (in Allah's Cause), small or great, but the deed is inscribed to their credit that Allah may repay their deed with the best." The Profit gets his in this life; his stooges get theirs in the next. How convenient.
Allah ordered Muslims to evangelize with the sword. Evidently, his words weren't compelling. Qur'an 9:122 "It is not proper for the Believers to all go forth together to fight (Jihad). A troop from every expedition should remain behind when others go to war. They should give instruction on the law and religion and warn the folk when they return, so that they may beware." This, of course, gave the prophet a convenient excuse for staying home and playing house two raids out of every three.
The god of Islam commanded Muslims to fight one last time in the 9th surah, one that should be renamed: "Legacy of Terror." Qur'an 9:123 "Believers, fight the unbelievers around you, and let them find harshness in you: and know that Allah is with those who fear Him." Shame on those in politics and the media who say Islam is a peaceful religion. By doing so, they aid and abet an enemy that grows more numerous, more committed, and more callous everyday. They are accomplices to murder.
Prophet of Doom

4 comments:

  1. मामा का अनुवाद लाते रहो तुम्‍हारा चाचा अल्‍बेदार भाग गया, तुम मत भागना बस मेरा निम्‍न ताबीज देखो फिर सबसे कहना आओ

    signature:
    विचार करें कि मुहम्मद सल्ल. कल्कि व अंतिम अवतार और बैद्ध मैत्रे, अंतिम ऋषि
    (इसाई) यहूदीयों के भी आखरी संदेष्‍टा? हैं या यह big Game against Islam है?
    antimawtar.blogspot.com (Rank-2 Blog) डायरेक्‍ट लिंक

    अल्‍लाह का
    चैलेंज पूरी मानव-जाति को


    अल्‍लाह का
    चैलेंज है कि कुरआन में कोई रद्दोबदल नहीं कर सकता


    अल्‍लाह का
    चैलेंजः कुरआन में विरोधाभास नहीं


    अल्‍लाह का
    चैलेंजः आसमानी पुस्‍तक केवल चार


    अल्‍लाह का
    चैलेंज वैज्ञानिकों को सृष्टि रचना बारे में


    अल्‍लाह
    का चैलेंज: यहूदियों (इसराईलियों) को कभी शांति नहीं मिलेगी


    छ अल्लाह के चैलेंज सहित अनेक इस्‍लामिक पुस्‍तकें
    islaminhindi.blogspot.com (Rank-2 Blog)
    डायरेक्‍ट लिंक

    ReplyDelete
  2. पढ़ रहा हूँ। हिज्जों की ग़लतियाँ दुरुस्त करें।
    word verification कायम रखने से कुछ हासिल है क्या?

    ReplyDelete
  3. कुत्ते भोकते रहते है .............हाथी चलता रहता है........आप भी बढ़ते रहे .....मंजिल अभी दूर है.
    अच्छा लिकते है.

    ReplyDelete
  4. ठीक कहते हो राजीव मेरे दोस्त. इस बहाई कुत्ते को भौंकने दो, इस्लाम की मजबूती पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला.

    ReplyDelete