Sunday, 28 March 2010

कुरआन - सूरह तौबः -९


सूरह ए तौबः ९
Repentance-(9)
D


अव्वल दर्जा लोग
मैं दर्जाए-अव्वल में उस इंसान को शुमार करता हूँ जो सच बोलने में ज़रा भी देर न करता हो, उसका मुतालिआ अश्याए कुदरत के बारे में फितरी हो जिसमें खुद इंसान भी एक अश्या है. वह ग़ैर जानिबदार हो, अक़ीदा, आस्था और मज़हबी उसूलों से बाला तर हो, जो जल्द बाज़ी में किए गए हाँ को सोच समझ कर न कहने पर एकदम न शर्माए और मुआमला साज़ हो. जो सब का ख़ैर ख्वाह हो, दूसरों को माली, जिस्मानी या जेहनी नुकसान, अपने नफ़ा के लिए भी न पहुंचाए, जिसके हर अमल में इस धरती और इस पर बसने वाली मखलूक का खैर वाबिस्ता हो, जो बेख़ौफ़ और बहादर हो और इतना बहादर कि उसे दोज़ख में जलाने वाला नाइंसाफ अल्लाह भी अगर उसके सामने आ जाए तो उस से भी दस्तो गरीबानी के लिए तैयार रहे. ऐसे लोगों को मैं दर्जाए अव्वल का इंसान, मेयारी हस्ती शुमार करता हूँ. ऐसे लोग ही हुवा करते हैं साहिबे ईमान यानी ''मरदे मोमिन''.


दोयम दर्जा लोग
मैं दोयम दर्जा उन लोगों को देता हूँ जो उसूल ज़दा यानी नियमों के मारे होते हैं. यह सीधे सादे अपने पुरखों कि लीक पर चलने वाले लोग होते हैं. पक्के धार्मिक मगर अच्छे इन्सान भी यही लोग हैं. इनको इस बात से कोई मतलब नहीं कि इनकी धार्मिकता समाज के लिए अब ज़हर बन गई है, इनकी आस्था कहती है कि इनकी मुक्ति नमाज़ और पूजा पाठ से है. अरबी और संसकृति में इन से क्या पढाया जाता है, इस से इनका कोई लेना देना नहीं। ये बहुधा ईमानदार और नेक लोग होते हैं. भोली भली अवाम इस दर्जे की ही शिकार है धर्म गुरुओं, ओलिमाओं और पूँजी पतियों की अगले सोयम नंबर में आने वाले - - -. हमारे देश की जम्हूरियत की बुनियाद इसी दोयम दर्जे के कन्धों पर राखी हुई है.


सोयम दर्जा लोग
हर कदम में इंसानियत का खून करने वाले, तलवार की नोक पर खुद को मोह्सिने इंसानियत कहलाने वाले, दूसरों की मेहनत पर तकिया धरने वाले, लफ़फ़ाज़ी और ज़ोर-ए-क़लम से गलाज़त से पेट भरने वाले, इंसानी सरों के सियासी सौदागर, धार्मिक चोले धारण किए हुए स्वामी, गुरू, बाबा और साहिबे रीश ऑ दुस्तार ओलिमा, सब के सब तीसरे और गिरे दर्जे के लोग हैं. इन्हीं की सरपरस्ती में देश के मुट्ठी भर सरमाया दार भी हैं जो देश को लूट कर पैसे को विदेशों में छिपाते हैं.यही लोग जिसका कोई प्रति शत भी नहीं बनता, दोयम दर्जे को ब्लेक मेल किए हुए है और अव्वल दर्जा का मजाक हर मोड़ पर उडाने पर आमादा रहते है. सदियों से यह गलीज़ लोग इंसान और इंसानियत को पामाल किए हुए हैं।


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आइए कुरआन के अन्दर पेवस्त होकर इंसानियत की आला क़दरों को पहचाने। इसके बारे में जो कुछ भी आप ने सुन रखा है वह लाखों बार बोला हुआ बद ज़मीर आलिमों का झूट है. आप खुद कुरआनी फरमान को पढ़ें और उस पर सदाक़त से गौर करें, हक की बात करें, मुस्लिम से ईमान दार मोमिन बनें और दूसरों को भी मोमिनबनाएँ. आप मोमिन बने तो ज़माना आपके पीछे होगा.


''निकल पड़ो थोड़े से सामान से या ज़्यादः सामान से और अल्लाह की राह में अपने माल और जान से जेहाद करो, यह तुम्हारे लिए बेहतर है अगर तुम यक़ीन करते हो.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (४१)
मुहम्मद इज्तेमाई डकैती के लिए नव मुस्लिमों को वर्गाला रहे हैं अडोस पड़ोस की बस्तियों पर डाका डालने के लिए, अपनी ताक़त बढ़ाने के लिए, पुर अम्न आबादियों में बद अमनी फैलाने के लिए. मुहम्मद के दिमाग में एक अल्लाह का भूत सवार हो चुका था, अल्लाह एक हो या अनेक, भूके, नंगे, ग़रीब अवाम को इस से क्या लेना देना?
''जो लोग अल्लाह और कयामत के दिन पर ईमान रखते हैं वह अपने माल ओ जान से जेहाद करने के बारे में आप से रुखसत न मांगेंगे अलबत्ता वह लोग आप से रुखसत मांगते हैं जो अल्लाह और क़यामत के दिन पर ईमान नहीं रखते और इन के दिल शक में पड़े हैरान हैं.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (४५)
ज़रा डूब कर सोचें, अपने भरे पुरे परिवार के साथ उस दौर में खुद को ले जाएँ और उस बस्ती के बाशिंदे बन जाएँ फिर मुहम्मद के फर्मूदाद सुनें जिसे वह अल्लाह का कलाम बतलाते हैं,. आप महसूस करें कि अपने बाल बच्चों को छोड़ कर और अपने जानो-माल के साथ किसी अनजान आबादी पर बिला वजेह हमला करने पर आमादः को जाएँ, वह भी इस बात पर कि इस का मुआवजा बाद मरने के क़यामत के रोज़ मिलेगा. याद रखें कि इसी धोखा धडी और खूँ-रेज़ी की बुनियादों पर मुहम्मद ने इस्लाम की झूटी इमारत खड़ी की थी जो हमेशा ही खोखली रही है आज रुसवाए ज़माना है.
''इन में से बअजा शख्स वह है जो कहता है मुझको इजाज़त दे दीजिए और मुझको ख़राबी में मत डालिए. खूब समझ लो कि यह लोग तो ख़राबी में पड़ ही चुके हैं और यक़ीनन दोज़ख इन काफ़िरों को घेर लेगी.''

सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (४७-४९)
मुहम्मद इन बेवकूफों की बेवकूफी का खुला मजाक उड़ा रहे हैं जो इस्लाम कुबूल करने की हिमाक़त कर चुके हैं
वाकई इस्लाम का यकीन हयातुद्दुन्या के लिए एक ख़राबी ही है जब कि दीन की दुन्या मुहम्मद का गढ़ा हुवा फरेब है.
''आप फर्म फ़रमा दीजिए कि हम पर कोई हादसा पड़ नहीं सकता मगर वही जो अल्लाह ने हमारे लिए मुक़द्दर फ़रमाया है, वह हमारा मालिक है. और अल्लाह के तो सब मुसलमानों के अपने सब काम सुपुर्द रखने चाहिए.
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (५१)
मुहम्मद तकब्बुर की बातें करते हैं कि ''हम पर कोई हादसा पड़ नहीं सकता'' अगर कोई टोके तो जवाब होगा यह तो अल्लाह का कलाम है जब कि अगले जुमले में ही वह अल्लाह को अलग कर के कहते हैं- - '' मगर वही जो अल्लाह ने हमारे लिए मुक़द्दर फ़रमाया है, वह हमारा मालिक है.'' मुसलमान कल भी अहमक था और चौदा सौ साल गुज़र जाने के बाद आज भी अहमक ही है जो बार बार साबित होने के बाद भी नहीं मानता कि क़ुरआन एक इंसानी दिमाग की उपज है, इसमें कुछ नहीं रक्खा, अलावा गुमराही के..
''आप फरमा दीजिए तुम तो हमारे हक में दो बेहतरीयों में से एक बेहतरी के हक में ही के मुताज़िर रहते हो और हम तुम्हारे हक में इसके मुन्तजिर रहा करते हैं कि अल्लाह तअला तुम पर कोई अज़ाब नाज़िल करेगा, अपनी तरफ से या हमारे हाथों से.सो तुम इंतज़ार करो, हम तुम्हारे साथ इंतज़ार में हैं.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (५२)
यह आयत मुहम्मद की फितरते बद का खुला आइना है, कोई आलिम आए और इसकी रफूगरी करके दिखलाए. ऐसी आयतों को ओलिमा अवाम से ऐसा छिपाते हैं जैसे कोई औरत बद ज़ात अपने नाजायज़ हमल को ढकती फिर रही हो. आयत गवाह है कि मुहम्मद इंसानों पर अपने मिशन के लिए अज़ाब बन जाने पर आमादा थे. इस में साफ़ साफ मुहम्मद खुद को अल्लाह से अलग करके निजी चैलेन्ज कर रहे हैं, क़ुरआन अल्लाह का कलाम को दर गुज़र करते हुए अपने हाथों का मुजाहिरा कर रहे हैं. अवाम की शराफत को ५०% तस्लीम करते हुए अपनी हठ धर्मी पर १००% भरोसा करते हैं. तो ऐसे शर्री कूढ़ मग्ज़ और जेहनी अपाहिज हैं मुसलामानों! आप के सल लल्लाहो अलैहे वालेही वसल्लम.
''और इनकी खैरात क़ुबूल होने में बजुज़ इसके कोई चीज़ मानअ नहीं कि उन्हों ने अल्लाह के साथ और उसके रसूल के साथ कुफ़्र किया और नमाज़ नहीं पढ़ते मगर हारे जी से और ख़र्च नहीं करते मगर नागवारी के साथ. सो इनके अमवाल और औलाद आप को तअज्जुब में न डालें. अल्लाह को सिर्फ़ यह मंज़ूर है कि इन चीज़ों की वजेह से दुनयावी ज़िन्दगी में इन्हें गिरफ़्तार-ए-अज़ाब रखे और इनकी जानकुफ़्र के आलम में निकल जाए.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (५४-५५
.बुग्ज़ी मुहम्मद का बुग्ज़ी अल्लाह और उसके, उसकी खसलत रखने वाले मुस्लमान बुग्ज़ी बन्दे. आंवां का आंवां खंजर. गौर करें बन्दों का वह कैसा बदख्वाह अल्लाह है? जो चाहता है कि उसके बन्दे इस आलम में मरें कि दोज़ख के नवाले बनें. औलादों से महरूम मुहम्मद को दूसरों की औलादें नज़रों में कांटे की तरह खटकती है. दोस्तों का माल भी उनसे देखा नहीं जाता. किसी की आराम दह ज़िन्दगी भी उन्हें गवारा नहीं, कुछ नहीं तो नमाज़ों में ही मुब्तिला रहो. कितना खुद पसंद और ज़ुल्म शुआर शख्स रहा होगा वह जो बन्दों का छोटा खुदा बन बैठा था. जिसकी महिमा मंडन करके ओलिमा और नेता आज भी दुन्या की एक बड़ी आबादी पर राज कर रहे हैं.
''और उनमें बअज़ लोग हैं सदक़ात के बारे में आप पर तअन करते हैं, उनमें से अगर उनको मिल जाता है तो राज़ी हो जाते हैं और अगर उन में से उनको नहीं मिलता तो वह नाराज़ हो जाते हैं.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (५८)
खुदाए बरतर, किर्दगारे कायनात, इन चिकुट खैरात खोर बन्दों की मुहम्मद से चुगली कर रहा है? मुसलमानों! सोचो?? क्या तुम्हारे अल्लाह के पास यही काम रह गया है?
'' और उन में से कुछ ऐसे हैं जो नबी को ईजाएँ पहुंचाते हैं और कहते हैं आप हर बात कान दे कर सुन लेते हैं. आप कह दीजिए कि हम कान दे कर वही बात सुनते हैं जो तुम्हारे हक में ख़ैर हों - - - जो लोग रसूल को ईज़ाएं पहुंचाते हैं उनके लिए दर्द नाक सज़ा है.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (६१)
मुसलमानों! मुहम्मद ने लात, मनात और उज़ज़ा जैसे पूजे जाने वाले मिटटी और पत्थर के बुत की तरह ही एक हवा का बुत आसमान में यहूदयों और ईसाइयों की तर्ज़ पर बना कर सातवें आसमान पर मुअल्लक कर दिया था और इनके ही नामों से मिलता जुलता नाम रखा '' अल्लाह '' और खुद को इसका मुअज़ज़िज़ रसूल बना लिया तभी तो गौर करें कि अल्लाह रब्बुल आलमीन यानी सारे आलम का मालिक मुहम्मद को बसद एहतराम कहता है ''आप फ़रमा दीजिए '' और मुहम्मद की ज़री ज़री सी बातों को सर आँखों पर लिए उनके कान में फुसकी मारता रहता है। इस मसनवी अल्लाह की फुसकी को सूँघते सूँघते, सुनते सुनते, अरबी में रटते रटते मुसलामानों का भेजा सड़ गया है. मुहम्मद कहते हैं अज़ान की आवाज़ सुनते ही शैतान गूज मारता हुवा (पाद्ता हुवा) भागता है. मुसलमान शैतान की गूज मारी जगह पर ही सदियों से सजदा मार रहा है. कौम को तरके-इस्लाम की फहम बचा सकती है वर्ना फ़ना इसकीबद नसीबी होगी.
'' मुनाफ़िक़ लोग इस इस से अंदेशा करते हैं कि मुसलमानों पर कोई ऐसी सूरह या आयत नाजिल हो जाए जो उनको उनके माफ़ी-उज़-ज़मीर पर इत्तला देदे, आप फ़रमा दीजिए अच्छा तुम मज़ाक करते रहो, अल्लाह तअला इस चीज़ को ज़ाहिर करके रहेगा जिसका तुम अंदेशा रखते हो.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (६४)
इस दौर के मुस्लिम ओलिमा जिस दौर को के ''दौरे जिहालत'' कहते नहीं थकते, उसी दौर के एक मुनाफ़िक का कितना बलीग़ और सटीक मुतालबा मुहम्मदी अल्लाह से है कि क़ुरआनी आयतें या कोई सूरह ऐसी क्यूँ नहीं होती कि जेहन इंसानी को अपील कर जाएँ, दिलो दिमाग को झिंझोड़ कर रख दे, ज़मीर का दर ओ दरीचा रौशन हो जाए। अल्लाह तो कुरआन में जाहलों जैसी गैर फ़ितरी बातें करता है, लाल बुझक्कड़ की कहानिया गढ़ता है, पागलों की तरह आएँ, बाएँ, शाएँ बकता है.अफ़सोस कि मुस्लिम समाज में आज सिर्फ तसलीमा नसरीन जैसी एक औरत पैदा हो सकी है और दूर दूर तक किसी मर्द बच्चे का नाम निशान नहीं है॥

निसार '' निसार-उल-ईमान''
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ऐतिहासिक सत्य में क़ुरआन की हक़ीक़त
Speaking of killers... Qur'an 9:41 "March forth, (equipped) with light or heavy arms, and strive with your goods and your lives in the Cause of Allah. That is best for you, if you knew."
But there were too many "bad" Muslims in the prophet's company who were unwilling to kill for him - unless, of course, it was an easy kill and the booty was plentiful. They were mercenaries, after all. Qur'an 9:42 "(O Prophet) had there been immediate gain (in sight with booty in front of them), and the journey easy - a near adventure - they would (all) without doubt have followed you, but the distance was long on them. They would indeed swear, 'If we only could, we would have come out with you.' They cause their own souls to perish; for Allah knows they are liars." According to Allah, peaceful Muslims lie.
In this series of verses, Allah is speaking about the terrorist raid Muhammad led against the Byzantine Christians at Tabuk. Unfortunately for Islam's credibility, the surah preceded the raid by more than a year and Hadith are required to unravel the Qur'an. Qur'an 9:43 "May Allah forgive you (O Muhammad). Why did you grant them leave (for remaining behind; you should have persisted as regards to your order to them to proceed on Jihad), until those who told the truth were seen by you in a clear light, and you had known the liars." Speaking of liars, we've just caught Muhammad in the act. If Allah were God and dictating the Qur'an, he would not say "May Allah forgive you."
Qur'an 9:44 "Those who believe in Allah and the Last Day do not ask for an exemption from fighting with your goods and persons. And Allah knows well those who do their duty." All good Muslims are terrorists. Allah said so. Bad Muslims, on the other hand, just make excuses: Qur'an 9:45 "Only those ask for exemption (from Jihad) who believe not in Allah and whose hearts are in doubt, so that they are tossed to and fro. If they had intended to march out to fight, they would certainly have made some preparation and readied their equipment; but Allah was averse to their being sent forth; so He made them lag behind. 'Sit you among those who sit.' If they had marched with you, they would not have added to your (strength) but only (made for) discord, spying and sowing sedition. There would have been some in your midst who would have listened to them. But Allah knows well those [peace-loving Muslims] who do wrong and are wicked." More than anything, Allah hated peace.
Still rebuking pacifist Muslims... Qur'an 9:48 "They had plotted sedition before, and upset matters for you until the Decree of Allah [to fight] became manifest, much to their disgust. Among them are many who say: 'Grant me exemption to stay back at home (exempted from Jihad). And do not tempt me [with promises of booty].' Have they not fallen into temptation already? Indeed, Hell surrounds them." Muhammad was "tempting" Muslims to fight for him. Those he couldn't seduce, Allah condemned.
Desperate to beguile his troops: Qur'an 9:52 "Say: 'Can you expect for us (any fate) other than one of two glorious things (martyrdom or victory)? But we can expect for you that Allah will send his punishment of doom from Himself, or by our hands.' Say: 'Pay your contribution for the Cause willingly or unwillingly: for you are indeed rebellious and wicked.'" "Fight or I will kill you myself," is the message. But since Allah couldn't kill, he opted to have good Muslims kill the bad ones.
After saying that he was going to take their money "willingly or unwillingly," Islam's deceitful spirit claims: Qur'an 9:54 "The only reasons why their contributions are not accepted are: that they reject Allah and His Messenger; that they come to prayer sluggishly; and that they offer contributions unwillingly." Here's the bottom line: the peaceful Muslims were unwilling to fund Jihad so rather than admit defeat, Muhammad said: "I didn't want their money anyway." But he couldn't help himself. He had to lash out at those who withheld the funds he needed to perpetuate his reign of terror. As we have learned, terrorism isn't cheap. It's no coincidence that the richest Islamic regimes manufacture the most terrorists.
Next we learn that Muhammad was "dazzled by wealth" and "Allah's plan is to punish." Qur'an 9:55 "Let not their wealth nor their (following in) sons dazzle you or excite your admiration (Muhammad). In reality Allah's plan is to punish them with these things in this life, and make certain that their souls perish in their denial of Allah. They swear that they are indeed with you; but they are not. They do not want (to appear in their true colors) because they are afraid of you." They were "afraid" of their prophet because he was a terrorist. The bad, peace-loving Muslims knew that Muhammad's militants would attack them as they had the Jews, stealing their property, torturing them, raping them, enslaving them, and killing them. It's stunning that the Qur'an would admit that Muslims were afraid of Muhammad. But then again, tyrants the world over are always the same. "He who fears will obey."
If you think this interpretation is too harsh, consider the following Hadith: Bukhari:V1B11N626 "The Prophet said, 'No prayer is harder for the hypocrites than the Fajr. If they knew the reward they would come to (the mosque) even if they had to crawl. Certainly I decided to order a man to lead the prayer and then take a flame to burn all those who had not left their houses for the prayer, burning them alive inside their homes.'"
The Profit's message was: "Obey and pay or you'll burn." Bukhari:V8B76N548 "The Prophet said, 'Protect yourself from the Fire.' He turned his face aside as if he were looking at it and said, 'Protect yourself from the Fire.' and turned his face aside as if he were looking at it, and he said for the third time till we thought he was actually looking at it: 'Protect yourselves from the Fire.'" Bukhari:V8B76N547 "The Prophet said, 'All of you will be questioned by Allah on the Day of Doom. There will be no interpreter between you and Allah. And the Hell Fire will confront you. So, whoever among you can, save yourself from the Fire.'" Muhammad has once again put Allah in hell.
Slandering and threatening his own, Allah says: Qur'an 9:57 "If they could find a place to flee to, a cave or hole to hide, they would run away with an obstinate rush. And some slander you, blaming you (of partiality) in the matter of (the distribution of) the offerings [stolen spoils]. If they are given part of these, they are pleased, but if not they are indignant and enraged!" The first Muslims were bickering over the booty.
According to the Hadith, the founders of Islam made nothing and stole everything. As such, these Muslims were squabbling over looted loot. Qur'an 9:59 "(How much more seemly) if only they had been content with what Allah and His Messenger gave them, and said, 'Sufficient is Allah! His Messenger will soon give us His bounty. We implore Allah to enrich us.'" When you are a miserly pirate, things can get prickly.
Many said Muhammad was too easily swayed, evidenced by the Quraysh Bargain and the Satanic Verses. So the book that claims that it was written before time began, abruptly changes subject and presents a temporal defense of its lone voice: Qur'an 9:61 "Among them are men who vex, annoy, and molest the Prophet, saying, 'He is (all) ear and believes every thing that he hears.' Say, 'He listens to what is best for you: he believes in Allah, has faith in the Believers, and is a Mercy to those of you who believe.' But those who offend the Messenger will have a grievous torment, a painful doom." It's another insight into the troubled soul of this chronically insecure man. The molested has become a molester.
I'm not sure that this makes any sense, but it does reveal that Islam was perpetrated to please Muhammad. Qur'an 9:62 "To you they swear in order to please you: but it is more fitting that they should please Allah and His Messenger (Muhammad)."
When there wasn't enough dough to bribe the bullies, Muhammad just threatened them. Qur'an 9:63 "Know they not that for those who oppose Allah and His Messenger is the Fire of Hell wherein they shall dwell? That is the supreme disgrace."
But the "peaceful Muslim hypocrites" recognized that Muhammad was the biggest Muslim Hypocrite of all. They had observed his willingness to falsify scripture to satiate his desire for money, power, or sex. Acknowledging this problem, his dark spirit says: Qur'an 9:64 "The Hypocrites are afraid that a surah will be sent down about them, showing them what is (really) in their hearts. Say: 'Go ahead, scoff and mock, will you! Lo, Allah is disclosing what you fear.' If you question them (Muhammad about this), they declare: 'We were only talking idly, jesting in play.' Say: 'Was it at Allah and His proofs, signs, verses, lessons, and Messenger that you were mocking?'" It is as if we have returned to Mecca. Muhammad is being mocked. Those who knew him best were scoffing at his demonic scripture, example, and god.Muhammad, like all insecure men, was obsessed with rejection. Even after eliminating the Jews, his only literate foe, Arabs continued to be repulsed. Twenty years after the first cave-vision, Muhammad couldn't sell Islam on its merits. Qur'an 9:66 "Make no excuses: you have rejected Faith after you had accepted it. If We pardon some of you, We will punish others amongst you, for they are disbelievers." Any free and enlightened man or woman exposed to Islam will reject it as did most of those who lived in the prophet's presence. That is why Muhammad had to make rejecting Islam a capital offense.
And it remains so to this day। This news report from WorldNetDaily confirms what happens to Muslims who reject Islam. "Dateline Jerusalem, 2003: After slaughtering a Muslim-turned-Christian, Islamic extremists returned the man's body to his Palestinian family in four pieces. The newly converted man left his friends and family earlier this month bound for a mountainous region of the Palestinian Authority. He took Christian material with him - tapes and a Bible. Ten days later, the body of the man, who left behind a wife and two small children, was returned to his home, having been cut into four pieces. The family believes the act was meant a warning to other Muslims who might consider becoming Christians. Under Muslim Sharia law, any male who leaves Islam faces the death penalty. The terror group Hamas receives funding from Iran specifically for this purpose."

Prophet of Doom

Monday, 15 March 2010

क़ुर आन -- सूरह तौबः - ९


सूरह ए तौबः ९
Repentance-(9)

C

मुहम्मद पहले कुंद ज़हनों, लाखैरों और नादारों को मुसलमान बनाते हैं और उसके बाद मुसलमानों को जेहादी ज़रीआ मुआश फराहम करके उस पर कायम रहने पर आमादा किए रहते हैं. माले गनीमत को मुसलमानों को चार दिन सुकून से खाने पीने भी नहीं देते कि अगली जेहाद की तय्यारी का हुक्म हो जाता है. अल्लाह अम्न पसंदों को कैसे कैसे ताने देता है मुलाहिजा हो - - - ''जेहाद से जान चुराने वालों को अल्लाह भी नहीं चाहता कि वह शरीक हों, वह अपाहिजों के साथ यहीं धरे रहें '' किसी फर्द की उभरती हैसियत मुहम्मद को क़तई नहीं भाती, किसी की इन्फ़िरादियत की खूबी उनसे फूटी आँख नहीं देखी जाती, न ही किसी की भारी जेब उनको हजम होती है. ऐसे लोगों के खिलाफ धडाधड आयतें उतरने लगती हैं. आययतें खुद गवाह हैं कि इस्लाम क़ुबूल किए हुए मुसलामानों के दरमियाँ अल्लाह, उसका खुद साख्ता रसूल, और उसके कुरानी फ़रमूदात तमस्खुर(मजाक) का बाईस है, जिस पर अलाह बरहम होता है.
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (२५)
आखिर तंग आकर नव मुस्लिम, झक्की और बक्की मुहम्मद से एहतेजाज करते हैं कि आप तो हमारी ज़रा ज़रा सी बातों पर कान लगाए रहते हैं? जिसे मुहम्मद उनको बेवकूफ़ बनाते कि '' यह बात मुझे बज़रिए वहिय अल्लाह ने बतलाई'' दर असल यह बाते बज़रिए चुगलखोराने रसूल से उनको मालूम पड़तीं. अपने नव मुस्लिम साथियों को डराना धमकाना, जहन्नमी क़रार दे देना, मुनाफ़िक़ या काफ़िर कह देना, मुहम्मद के लिए कोई ख़ास बात न थी, जोकि मुसलामानों में आज भी चला आ रहा है, अल्लाह कहता है - - -
''ऐ ईमान वालो! मुशरिक लोग निरा नापाक होते हैं,सो इस साल के बाद यह लोग मस्जिद हराम के पास न आने पाएं। अगर तुम्हें मुफलिसी का अंदेशा हो तो अल्लाह तुम को अपने फज़ल से अगर चाहेगा तो मोहताज नहीं रखेगा. बेशक अल्लाह खूब जानने वाला और रहमत वाला है.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (२८
मनु महाराज अपनी स्मृति में लिखते हैं कि शूद्रों का साया भी अगर किसी बरहमन पर पड़ जाए तो वह अपित्र हो जाता है और उसको स्नान करना चाहिए, इस क़िस्म की बहुत सी बाते. जैसे इनको जीने का हक बरहमन की सेवा के बदले ही है - - - इसी तरह यहूदियों को उनके खुदा यहवाह ने नबी मूसा को ख्वाब दिखलाया कि तुम दुन्या की बरतर कौम हो और एक दिन आएगा जब तुम्हारी कौम दुन्या के हर कौम पर शाशन करेगी, कोशिश जरी रहे - - - मेरा अनुमान है कि बरहमन जो बुनयादी तौर पर आर्यन हैं, के पूर्वज मनु मूसा वंशज एक ही खून हैं यहूदी और ब्राह्मणों का जेहनी मीलान बहुत कुछ यकसाँ है. दोनों के मूल पुरुष इब्राहीम, अब्राहाम, अब्राहम, बराहम, ब्रह्मा एक ही लगते हैं. अब यह बात अलग है कि अतिशियोक्ति पसंद पंडितों ने ब्रह्मा का रूप तिल का ताड़ नहीं बल्कि तिल का पहाड़ बना दिया. मुहम्मद मूसा और मनु से भी चार क़दम आगे हैं, इन दोनों ने विदेशियों से नफ़रत सिखलाया और यह जनाब अपने भाई बन्धुओं को ही अछूत बना रहे है
'' अहले किताब जो कि न अल्लाह पर ईमान रखते है न क़यामत के दिन पर और न उन चीज़ों को हराम समझते हैं जिनको अल्लाह और उसके रसूल ने हराम फ़रमाया और न सच्चे दीन को क़ुबूल करते हैं, इनसे यहाँ तक लड़ो की यह मातहत हो कर जज़िया देना मंज़ूर कर लें.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (२९)
शर पसंद मुहम्मद, उनसे सदियों पहले आए आए ईसाई और मूसाई कौमों से जेहाद के बहाने तलाश कर रहे हैं, वह भी जज़िया वसूलने के लिए. . कितने बेशर्म इस्लमी ओलिमा हैं जो कहते हुए नहीं थकते कि इस्लाम अमन पसंद है. इस्लाम का अंजाम यही खुद सोज़ बम रख कर एक मुस्लिम नव जवान अपने साथ ५० मुसलामानों को पाकिस्तान जैसे मुस्लिम मुल्क में हर हफ्ते ५१ मुसलामानों को मौत के घाट उतरता है. भारत में हर रोज़ सैकड़ों बे कुसूर मुसलामानों को खुद अपनी नज़रों में ज़लील ओ ख्वार करता है. शाह रुख खान जैसे फ़नकार को दुन्या के सामने गाना पड़ता है ''माय नेम इज खान बट आइ एम नाट टेरेरिस्ट.'' मुहम्मद की कबीलाई दहशत पसंदी की वक्ती आलमी कामयाबी ने आज दुन्या की एक अरब आबादी को शर्मसार किए हुए है मगर ओलिमा रोटियों पर रोटियाँ सेके चले जा रहे हैं.
आजके मुस्लिम ओलिमा और दानिश्वर जिस की पर्दा दारी करते फिर रहे हैं वह कलमुही डायन इन आयातों के परदे में अयाँ है जो दुन्या की हर खास जुबान में तर्जुमा हो चुकी है. इस्लाम के चेहरे पर कला धब्बा है यह माले गनीमत और जज़िया जो मौक़ा मिलते ही आज भी इस्लाम के ना इंसाफी पाकिस्तान में दो सिक्खों का सर कलम करके अपनी वहशत का मुज़ाहिरा करते हैं. क्या वह वक़्त आने वाला है कि मुसलमानों से दुन्या की मुतासिर कौमें माले गनीमत और जज़िया वापस तलब करें, मुसलामानों पर हर गैर मुस्लिम मुल्क में जज़िया लगा करे?
''और यहूद ने कहा अज़ीज़ अल्लाह के बेटे हैं और नसारा ने कहा मसीह अल्लाह के बेटे हैं. यह इनका कौल है मुँह से कहने का - - - अल्लाह इनको गारत करे यह उलटे जा रहे हैं.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (३०)
हाँ सच है कि कोई अल्लाह का बेटा है नहीं है. न कोई अल्लाह का रसूल, न कोई अल्लाह न नबी, न कोई अल्लाह का अवतार न कोई अल्लाह का चेला और न कोई अल्लाह का दलाल. अभी तक यह साबित नहीं हो पाया है कि अल्लाह है भी या नहीं. अल्लाह अगर है भी तो ऐसा कोई नहीं जैसा इन अल्लाह के मुजरिमों ने अल्लाह का रूप गढ़ा है. मोह्सिने इंसानियत इंसानों को खुद बद दुआ दे रहे हैं कि उन्हें अल्लाह ग़ारत करे और मुसलमानों की आँखों में धूल झोंक रहे हैं कि यह मेरा नहीं अल्लाह का कलाम है, मुसलमानों काहाल यह है कि उनकी हाँ में हाँ मिला रहा है, हाँ में ना मिलाने कि हिम्मत ही नहीं है.
'' लोग चाहते हैं कि अल्लाह के नूर को अपने मुंह से फूँक मार के बुझा दें ,हालाँकि अल्लाह तआला बदून इसके अपने नूर को कमाल तक पहुँचा दे , मानेगा नहीं, गो काफ़िर लोग कैसे ही नाखुश हों.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (३२)
इस आयत में मुहम्मद ने लाशऊरी तौर पर खुद को अल्लाह तस्लीम कराने की कोशिश की है जो कि उनकी मुहीम की मरकजी नियत थी। लात, मनात, उज्ज़ा जैसे देवी देवता के क़तार में अल्लाह के बुत निराकार की स्थापना ही तो करते हैं और उन्हीं के दिए की तरह अल्लाह के बुत का भी एक दिया जलाते हैं, कल्पना करते हैं कि जैसे हम इरादा रखते हैं इन देवो पर जलने वाले चिरागों को बुझाने का, वैसे ही यह काफ़िर, मुशरिक और मुल्हिद भी हमारे वहदानियत के बुत का दिया मुँह से फूँक मार के बुझादेने का..कहते हैं - - ''अपने नूर को कमाल तक पहुँचा दे , हालाँकि अल्लाह तआला बदून इसके अपने नूर को कमाल तक पहुँचा दे , मानेगा नहीं, गो काफ़िर लोग कैसे ही नाखुश हों.'' अरे भाई उस खुदाए बरतर का कमाल तो रोज़े अव्वल से कायम है. तुम पिद्दी? क्या पिद्दी का शोरबा? उसे कमाल तक क्या पहुंचोगे? हाँ उसकी मिटटी ज़रूर पिलीद किए हुए हो . उसकी मिटटी क्या पिलीद कर पाओगे ? हाँ मुसलमानों को पामाल ज़रूर किए हुए हो.
'' वह ऐसा है कि उसने अपने रसूल को हिदायत और सच्चा दीन देकर भेजा है ताकि इसको तमाम दीनो पर ग़ालिब कर दे, गो कि मुशरिक कितने भी नाखुश हों.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (३३)
खुदाए
बरतर? खालिके कायनात? अगर कोई है तो निज़ाम ए कायनात की निजामत को छोड़ कर अरब के मुट्ठी भर कबीलाई बन्दों की नाराजी और रजामंदी को देख रहा है. अफ़सोस कि लाल बुझक्कड़ी माहौल में कोई चतुर मुखिया पैदा हुवा था और वह ऐसा चतुर था कि उसकी बोई हुई घास हम आज तक चर रहे हैं.
''ऐ इमान वालो! तुम लोगो को क्या हुवा? जब तुम से कहा जाता है अल्लाह की राह में (जेहाद के लिए) निकलो, तो तुम ज़मीन को लगे हो जाते हो. क्या तुम ने आख़िरत की एवज़ दुनयावी ज़िन्दगी पर किनाअत कर ली है? सो दुनयावी ज़िन्दगी का फ़ायदा बहुत क़लील है, अगर तुम न निकले तो वह तुम को बहुत सख्त सज़ा देगा और तुम्हारे बदले दूसरी क़ौम को पैदा कर देगा.और तुम अल्लाह को कुछ ज़रर नहीं पहूंचा सकते और अल्लाह को हर चीज़ पर पूरी पूरी कुदरत है.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (३८-३९)
मुहम्मद कुरआनी अल्लाह बन कर अपने पर ईमान लाए मुसलमान बन्दों को पैगामे तशद्दुद दे रहे हैं. इन्हीं के एहकामात भारतीय मदरसों में आज भी पढाए जाते हैं वह भी सरकारी मदद से. जब बच्चा जिज्ञासु होकर मोलवी साहब से पूछता है कि हमारे सल्लल्लाहो अलैहे वालेही वसल्लम किस के साथ जंग करने के लिए फरमा रहे हैं? तो जवाब होता है काफिरों के साथ. बच्चा पूछता है यह काफ़िर कौन लोग होते हैं तो मोलवी शरारत से मुस्कुरा कर कहता है बड़े होकर सब समझ जाओगे. बच्चा इसी तलब में बड़ा होता है कि काफ़िर कौन होते हैं? कुफ्र क्या है? बड़ा होते होते पूरी तरह से उस पर जब यह भावुक ईमान ग़ालिब हो लाता है तो उसकी तलब उसे तालिबान बना देती है. अफ़सोस का मुकाम यह है कि देश में तालिबानी मदरसे खुद हमारी सरकारें कायम करके चला रही हैं. हर एक को अल्प संख्यक वोट चाहिए क्यूंकि इसके दम से ही बहु सख्यक वोट का दारो मदार है, अल्प संख्यक मुस्लिम समाज पर सिर्फ मज़हबी जूनून का भूत ग़ालिब है जिसके चलते वह पीछे हैं, अनपढ़ हैं, गरीब है, बस. मगर बहु संख्यक हिदू समाज पर धार्मिक नशे का भूत ऐसा सवार है कि शराब, जुवा, अफीम. भाँग, चरस, गाँजा, कई अमानवीय, असभ्य नागा साधू जैसी नग्नता उसकी सभ्यता और धर्म का अंग बन चुके हैं. समाज सुधार का ढोल पीटने वाले मीडिया के नए अवतार केवल नाम नमूद की चाह रखते हैं अन्दर से पैसे की भूख उनको भी है. जम्हूरियत भारत के लिए इक्कीसवीं सदी में भी अभिशोप है. ज़मीर फरोश हर पार्टी के नेता किसी इनक्लाबी तलवार के इंतज़ार में हैं. जाने कब कोई माओ ज़े तुंग भारत में अवतरित होगा.
अल्लाह बने मुहम्मद कहते हैं ऐ ईमान वाले गधो! मैंने हुक्म दिया कि जेहाद के लिए खड़े हो जाओ , तुन ने सुना नहीं? अभी भी ज़मीन से पीठ लगाए लेटे हुए हो? क्या तुम्हें मेरे कबीले कुरैश के मुस्तक़बिल की कोई परवाह नहीं? गोकि मेरी नस्ल चुन चुन कर मार दी जायगी , मेरा तुख्म भी बाकी नहीं बचेगा, मैं जनता हूँ कि मेरी बद आमालियों की सज़ा कुदरत मुझे देगी मगर मैं क्या करून अपनी फितरत का गुलाम हूँ। मैं फिर भी कहता हूँ कुरैशयों के भले के लिए लड़ो वर्ना अल्लाह कोई कबीला ,कोई क़ौम ए दीगर उन पर मुसल्लत कर देगा क्यूंकि वह बड़ी कुदरत वाला है।

निसार '' निसार-उल-ईमान''


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ऐतिहासिक सत्य में क़ुरआन की हक़ीक़त


Speaking on behalf of his dark spirit, Muhammad recited: Qur'an 9:25 "Assuredly, Allah did give you victory on many battlefields and on the day of (the battle of) Hunayn: Behold, your great numbers elated you, but they availed you naught, and you turned back in retreat. But Allah did send down his Sakinah on the Messenger and Believers, and sent down forces (angels) which you saw not. He punished the Infidels. Such is their reward." This "battle" (actually terrorist raid) had not been fought when this surah was allegedly revealed. We will cover Hunayn in the last chapter. The reason it's tossed in here is because the 9th surah has been devoted to Jihad.
Unable to contain his hatred, Muhammad says on behalf of his personal deity: Qur'an 9:28 "Believers, truly the pagan disbelievers are unclean; so let them not, after this year of theirs, approach the Sacred Mosque [that they built, promoted, and maintained]. And if you fear poverty (from the loss of their merchandise), soon will Allah enrich you, if He wills, out of His bounty [spoils of war]." By booting the Meccans out of Mecca the Muslims knew that they would kill their Golden Goose - their favorite source of booty. Robbing Quraysh caravans had funded the rise of Islam. As parasites, they'd die along with their host.
By calling non-Muslims "unclean," Muhammad confirmed he was a racist. A Hadith in the Noble Qur'an explains: "Their impurity is physical because they lack personal hygiene (filthy as regards urine, stools and blood.)" For Muhammad, cleanliness was next to godliness, so Bukhari devoted an entire book to potty talk. Here are some "inspired scriptures" from his Book of Wudu: Bukhari:V1B4N137 "Allah's Apostle said, 'The prayer of a person who does Hadath (passes urine, stool or wind) is not accepted till he performs ablution.'" Bukhari:V1B4N139 "I asked Allah's Apostle about a person who imagined they passed wind during prayer. He replied: 'He should not leave his prayer unless he hears sound or smells something.'" Bukhari:V1B4N154 "Whenever Allah's Apostle went to answer the call of nature, I along with another boy used to go behind him carrying a tumbler of water for cleaning the private parts and a spear-headed stick." Bukhari:V1B4N156 "The Prophet said, 'Whenever anyone makes water he should not hold his penis or clean his private parts with his right hand. While drinking, one should not breathe in the utensil.'" Bukhari:V1B4N158 "The Prophet went out to answer the call of nature and asked me to bring three stones. I found two stones and searched for the third but could not find it. So I took a dried piece of dung and brought it to him. He took the stones and threw away the dung, saying, 'This is a filthy thing." Bukhari:V1B4N163 "The Prophet said, 'Whoever cleans his private parts with stones should do it with an odd number of stones. And whoever wakes up should wash his hands before putting them in the water for ablution. Nobody knows where his hands were during sleep.'" Bukhari:V1B4N174 "During the lifetime of Allah's Apostle dogs used to urinate and pass through the mosque. Nevertheless they never used to sprinkle water on it." Bukhari:V1B4N1229-33 "Aisha said, 'I used to wash the semen off the clothes of the Prophet. When he went for prayers I used to notice one or more spots on them.'" Muslims assure us that these words were inspired by Allah.
Returning to the Qur'an, the peaceful god of the peace-loving religion said: Qur'an 9:29 "Fight those who do not believe in Allah nor the Last Day, who do not forbid that which has been forbidden by Allah and His Messenger, nor acknowledge the Religion of Truth (Islam), (even if they are) of the People of the Book (Christians and Jews), until they pay the Jizyah tribute tax in submission, feeling themselves subdued and brought low." Everything you need to know about Islam is contained in this one verse. Muslims are ordered to fight Christians and Jews until they either surrender and become Muslims or they commit financial suicide by paying the Jizyah tribute tax in submission. (Paying Muslims the "Jizyah" is not unlike giving the godfather's goons a bribe to keep the mafia from killing you and your family.)
Confirming that Allah is too dumb to be god and that Islam's enemies are Christians and Jews: Qur'an 9:30 "The Jews call Uzair (Ezra) the son of Allah, and the Christians say that the Messiah is the son of Allah. That is their saying from their mouths; they but imitate what the unbelievers of old used to say. Allah's (Himself) fights against them, cursing them, damning and destroying them. How perverse are they!" God ought to be smarter than this. Ezra was but one of many Hebrew priests. He was neither a prophet nor divine. The Messiah is Yahweh's Anointed and has nothing to do with Allah. No one mouthed these delusional thoughts save Muhammad. But he has revealed the source of his rage. Jews and Christians did not accept his preposterous claim of being a prophet, so his insecurity caused him to hate them, to call them perverse, to curse them, and then to kill them. He was even willing to contradict his scriptures to do it. Remember: Qur'an 2:286 "We make no distinction between His Messengers." And: Qur'an 2:285 "Surely those who believe and Jews, and Nazareans [Christians], and the Sabaeans [Zoroastrians], whoever believes in Allah and in the Last Day shall have his reward with his Lord and will not have fear or regret."
The next time you hear a Muslim say that Islam is tolerant because Muslims believe that Jesus was a prophet, you'll know how they define tolerance: "fighting against them, cursing them, damning and destroying them: how perverse are they!" As with everything in Islam, good is bad; truth is deceit; peace is surrender; and tolerance is marked by hate and violence.
Ignorant, Muhammad claimed his idol said: Qur'an 9:31 "They (Jews and Christians) consider their rabbis and monks to be gods besides Allah. They also took their Lord Messiah to be a god but they were commanded (in the Taurat and Injeel) to worship only One Ilah (God). There is no ilah (god) but He. Too holy is He for the partners they associate (with Him)." Since God cannot be this poorly informed, Allah cannot be God. Neither rabbis nor monks have ever been considered divine by Jews or Christians. So by reciting these words, Muhammad revealed that the Qur'an wasn't inspired. And while I appreciate the confession, I continue to be skeptical that any thinking person actually believes this foolishness. How can Allah be depicted torturing men in hell, yet be "too holy" to be associated with the Messiah?
Based upon a Hadith footnoted in the Noble Qur'an, it's apparent the first Muslims were better informed than their prophet and god. "Once while Allah's Messenger was reciting this verse, Adi said, 'O Allah's Messenger, they do not worship rabbis and monks.' The Prophet said, 'They certainly do.'"
Qur'an 9:32 "Fain would they extinguish Allah's light with their mouths, but Allah disdaineth (aught) save that He shall perfect His light that His light should be perfected, even though the Unbelievers may detest (it)." ...as should everyone.
Anyone who says Islam is tolerant is a liar. Qur'an 9:33 "It is He Who has sent His Messenger (Muhammad) with guidance and the Religion of Truth (Islam) to make it superior over all religions, even though the disbelievers detest (it)."
In this next verse we learn that monks and rabbis, not Islamic pirates, are money grubbers. Qur'an 9:34 "Believers, there are many (Christian) monks and (Jewish) rabbis who in falsehood devour the wealth of mankind and hinder (men) from the way of Allah. And there are those who bury gold and silver and spend it not in Allah's Cause. (Muhammad) announce unto them tidings of a painful torture. On the Day [of Doom] heat will be produced out of that (wealth) in the Fire of Hell. It will be branded on their foreheads, their flanks, and their backs. 'This is the (treasure) which you hoarded for yourselves: now taste it!'" Just when you thought Allah couldn't get any nastier or more hypocritical...
The Qur'an and Hadith make it abundantly clear that Muhammad hated Jews with a passion, so much so that he became their most bloodthirsty predator. Yet neither explains why, or even how, Muhammad came to detest Christians. His misinformed attacks on their beliefs proved that he didn't know them very well.
This next transition is as flawed as the rest of the Qur'an. The logic of the verse is faulty as well. In reverence to Allah's moon-god heritage, Muhammad established a lunar year without the intercalary month every five years. As a result, the Islamic seasons float aimlessly around the calendar. Qur'an 9:36 "The number of months in the sight of Allah is twelve - so ordained by Him the day He created the heavens and the earth; of them four are sacred: that is the straight usage and the right religion. [Since Allah's "sacred" months were established by Qusayy, it would make his pagan scam the "right religion."] So wrong not yourselves therein, and wage war on the disbelievers all together as they fight you collectively. But know that Allah is with those who restrain themselves. Verily the transposing (of a prohibited month) is an addition to unbelief: the Unbelievers are led to wrong thereby: for they make it lawful one year, and forbidden another in order to adjust the number of months forbidden by Allah and make such forbidden ones lawful. The evil of their course seems pleasing to them." This is further proof that Allah was too dumb to be divine. For over three thousand years civilized societies had been better informed than he.
Lunacy aside, Muhammad took another swipe at peaceful Muslims who still had a conscience. Qur'an 9:38 "Believers, what is the matter with you, that when you are asked to march forth in the Cause of Allah (i.e., Jihad) you cling to the earth? Do you prefer the life of this world to the Hereafter? Unless you march, He will afflict and punish you with a painful torture, and put others in your place. But you cannot harm Him in the least." According to Allah, if Muslims aren't eager to fight he will replace them and then torture them. But with whom, may I ask? And can you imagine a god so feeble he needs to tell his faithful that they "cannot harm Him?"
This next passage, like so many in the Qur'an, makes no sense without the context of the Hadith। Qur'an 9:40 "If you help not him (your leader Muhammad), (it is no matter) for Allah did indeed help him, when the Unbelievers drove him out, the second of two when they were in the cave, and he said, 'Be not sad, for Allah is with us.' Then Allah sent down His Sakinah and strengthened him with (angelic) army forces which you saw not, and humbled to the depths the word of the Unbelievers." Following the Satanic Verse fiasco, Muhammad had to flee Mecca in shame. On the way out of town, he and Abu Bakr had to hide in a cave for fear the Meccans would find them. So Allah is saying that he protected them with an army of killer angels.

Prophet of Doom

Sunday, 7 March 2010

क़ुरआन - सूरह तौबह - ९


सूरह ए तौबः 9



Repentance-९




ये नर्म नर्म हवाएँ हैं किसके दामन की ,
चराग़ दैरो-हरम के हैं झिलमिलाए हुए।

'फ़िराक़' गोरखपूरी


एक बार उर्दू के महान शायर 'फ़िराक़' गोरखपूरी के पास संबंधित विभाग से लोग आए कि सरकार ने आप का बुत गोल घर चौराहे पर आप के मृत्यु बाद स्थापित करने की मंज़ूरी दी है, आप से गुजारिश है कि इस सिलसिले में आप विभाग का मूर्ति रचना में सहयोग दें. 'फ़िराक़' साहब इंजीनियर पर उखड गए कि आप चौराहे पर मेरा बुत खड़ा कर देंगे और चील कौवे मेरे सर पर बैठ कर बीट करेंगे ? मुझे यह अपनी तौहीन मनजूर नहीं. सरकार से कह दो कि वह अगर बुत की लागत का पैसा मुझे बतौर मदद देदे तो मैं जिंदगी भर गोल घर चौराहे पर मूर्ति बना खड़ा रह सकता हूँ.
रघुपति सहाय 'फ़िराक़' गोरखपूरी उर्दू के अज़ीम शायर के साथ साथ सत्य वाद्यता के लिए भी प्रसिद्ध हैं कटु सत्य बोलने में ज़रा भी न झिझकते. गाँधी जी ने उन्हें स्पोइल जीनियस कहा था. क्यूंकि उनमें बहुत सी व्यक्तिगत खामियाँ थीं जिसमें एक सम लैगिकता - - - इस संबंध में कटु संवाद ने 'फ़िराक़' साहब के बेटे की जान लेली.
'फ़िराक़' साहब ने अपना बुत न लगवा कर सच्चाई का मीनार कायम किया है, भविष्य के सस्ती शोहरत में गुम हो जाने के लिए, उन्हों ने इंसानियत के दामन से नर्म नर्म हवाएँ बिखेरी हैं और उसमें मग्न हो रहा कई इंसानी समाज जिस को यह हवाएं पनाह दे रही हैं. इन हवाओं से मंदिरों-मस्जिद के ज़हरीले चिराग झिलमिला गए हैं और बुझने वाले ही हैं.
झूट के अलम बरदार, हवा का बुत कायम करने वाले मुहम्मद जिसको (हवा के बुत को )आधा मिनट से ज्यादह ध्यान में रखना मुहाल है कि उसके बाद खुद मुहम्मद का बुत दिलो-दिमाग पर नक्श हो जाता है, इसके लिए उन्होंने इंसानियत का खून किया और ढूंढ ढूढ़ कर उन इंसानी जमाअतों का खून किया जो ''मुहम्मादुर्रसूलिल्लाह'' (अर्थात मुहम्मद अल्लाह के दूत) कहने से इंकार करता था. मुहम्मद ने अपनी ज़िन्दगी में ही अपना बुत दुन्या के चौराहे पर कायम कर के दम तोडा. आज दुन्या का हर शिक्छित समाज, हर बुद्धि जीवी, हर दानिश्वर, यहाँ तक कि हर ईमान दार आदमी उनके कायम किए हुए जेहालत के बुत पर परिंदा बन कर बीट करना पसंद करता है।



अब देखिए कि क़ुरआन में मुहम्मद कल्पित साज़िशी अल्लाह क्या कहता है - - -



''यह लोग मुसलामानों के बारे में न कुर्बत का पास करें न कौलो-करार का और यह लोग बहुत ही ज़्यादती कर रहे हैं, सो यह लोग अगर तौबा कर लें और नमाज़ पढने लगें और ज़कात देने लगें तो तुम्हारे दीनी भाई होंगे और हम समझदार लोगों के लिए एहकाम को खूब तफ़सील से बयान करते हैं''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (११-१२)
यह क़ुरआन का अनुवाद ईश-वाणी है, वह ईश जिसने इस ब्रह्माण्ड की रचना की है, हर आयत के बाद मेरी इस बात को सब से पहले ध्यान कर लिया करें.
सूरह तौबा की पहली किस्त में बयान है की बे ईमान अल्लाह अपने ग़ैर मुस्लिम बन्दों से किस बे शर्मी के साथ किए हुए समझौते तोड़ देता है. अब देखिए कि वह उल्टा उन पर कौल क़रार तोड़ने का इलज़ाम लगा रहा है, लड़ने के बहाने ढूढ़ रहा है, नमाज़ें पढवा कर अपनी उँगलियों पर नचाने का इन्तेज़ाम कर रहा है, उनसे टेक्स वसूलने के जतन कर रहा है।



''क्या तुम ख़याल करते हो कि तुम यूँ ही छोड़ दिए जाओगे ? हालां कि अभी अल्लाह तअला ने उन लोगों को देखा ही नहीं जिन्हों ने तुम में से जेहाद की हो और अल्लाह तअला और रसूल और मोमनीन के सिवा किसी को खुसूसयत का दोस्त न बनाया हो''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (१६)
जंग, जेहाद से लौटे हुए लाखैरे, बे रोज़गार और बद हाल लोग लूट के माल में अपना हिस्सा मांगते हैं तो 'आलिमुल-ग़ैब'' मुहम्मदी अल्लाह बहाने बनाता है कि अभी तो मैं ने जंग की वह रील देखी ही नहीं जिसमें तुम शरीक होने का दावा करते हो. उसके बाद अभी अपने ग़ैबी ताक़त से यह भी मअलूम करना है कि तुम्हारे तअल्लुकात हमारे दुश्मनों से तो नहीं हैं या हमारे रसूल के दुश्मनों से तो नहीं है या कहीं मोमनीन के दुश्मनों से तो नहीं हैं, भले ही वह तुम्हारे भाई बाप ही क्यूँ न हों. अगर ऐसा है तो तुम क्या समझते हो तुम को कुछ मिलेगा ? बल्कि तुम गलत समझते हो कि तुम को यूं ही बख्श दिया जाएगा .
मुसलामानों! यही ईश वानियाँ तुम्हारी नमाज़ों के नजर हैं. जागो।


''और अल्लाह तअला को सब खबर है तुम्हारे सब कामों का''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (१७)
मुसलामानों को डेढ़ हज़ार साल तक अक्ल से पैदल तसव्वुर करने वाले खुद साख्ता रसूल शायद अपनी जगह पर ठीक ही थे कि अल्लाह के कलम में ताजाद पर ताजाद भरते रहे और उनकी उम्मत चूँ तक न करती. देखिए कि पिछली आयत में मुहम्मदी अल्लाह कहता है कि ''अभी अल्लाह तअला ने उन लोगों को देखा ही नहीं जिन्हों ने तुम में से जेहाद की हो और अल्लाह तअला और रसूल और मोमनीन के सिवा किसी को खुसूसयत का दोस्त न बनाया हो'' और अगली ही सांस में इसके बर अक्स बात करता है ''और अल्लाह त अला को सब खबर है तुम्हारे सब कामों का''
ऐसा नहीं कि उस वक़्त जब मुहम्मद लोगों को यह क़ुरआनी आयतें सुनाते थे तो लोग अक्ल से पैदल थे. मक्का में बारह सालों तक गलियों, सड़कों, मेलों, बाज़ारों और चौराहों पर जहाँ लोग मिलते यह शुरू हो जाते क़ुरआनी राग लेकर. लोग पागल, दीवाना, सनकी और ख़ब्ती समझ कर झेल जाते. कुछ तौहम परस्त और अंधविश्वासी इन्हें मान्यता भी देने लगे. कबीलाई सियासत ने इन्हें मदीना में शरन दे दिया, वहीँ पर यह दीवाना फरज़ाना बन गया. मुहम्मद को मदीने में ऐसी ताक़त मिली कि इनकी क़ुरआनी खुराफ़ात मुसलामानों की इबादत बन कर रह गई है. अल्लाह के रसूल शायद कामयाब ही हैं



''ऐ ईमान वालो! अपने बापों को, अपने भाइयों को अपना रफ़ीक़ मत बनाओ अगर वह कुफ़्र को बमुक़बिला ईमान अज़ीज़ रखें और तुम में से जो शख्स इनके साथ रफ़ाक़त रखेगा, सो ऐसे लोग बड़े नाफ़रमान हैं''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (२३)
खून के रिश्तों में निफ़ाक़ डालने वाला यह मुहम्मद का पैगाम दुन्या का बद तरीन कारे-बद है. इन रिश्तों से महरूम हो जाने के बाद क्या रह जाती है इंसानी ज़िन्दगी? मार कट, जंगो जद्दल, लूट पाट , की यह दुनयावी ज़िन्दगी या फिर उस दुन्या की उन बड़ी बड़ी आँखों वाली खयाली जन्नत की हूरें? मोती जैसे सजे हुए बहिश्ती लौंडे? शराब कबाब, खजूर अंगूर? इसके लिए भूल जाएँ अपने शफीक बाप को जिसके हम जुजव हैं? अपने रफ़ीक़ भाई को जिसके हम हमखून हैं? वह भी उस ईमान के एवज़ जो एक अकीदत है, एक खयाली तस्कीन. लअनत है ऐसे ईमान पर जो ऐसी कीमत का तलबगार हो. अफ़सोस है उन चूतियों पर जो बाप और भाई की क़ीमत पर मिटटी के बुत को छोड़ कर हवा के बुत पर ईमान बदला हो।



''आप कह दीजिए तुम्हारे बाप, तुम्हारे बेटे, तुम्हारे भाई और तुम्हारी बीवियां और तुम्हारा कुनबा और तुम्हारा माल जो तुमने कमाया और वह तिजारत जिस में से निकासी करने का तुम को अंदेशा हो और वह घर जिसको तुम पसंद करते हो, तुमको अल्लाह और उसके रसूल से और उसकी राह में जेहाद करने से ज़्यादः प्यारे हों तो मुन्तज़िर रहो, यहाँ तक की अल्लाह अपना हुक्म भेज दे. और बे हुकमी करने वाले को अल्लाह मक़सूद तक नहीं पहुंचता''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (२४)
उफ़ ! इन्तहा पसंद मुहम्मद, ताजदारे मदीना, सरवरे कायनात, न खुद चैन से बैठते कभी न इस्लाम के जाल में फंसने वाली रिआया को कभी चैन से बैठने दिया. अगर कायनात की मख्लूक़ पर क़ाबू पा जाते तो जेहाद के लिए दीगर कायनातों की तलाश में निकल पड़ते. अल्लाह से धमकी दिलाते हैं कि तुम मेरे रसूल पर अपने अज़ीज़ तर औलाद, भाई, शरीके-हयात और पूरे कुनबे को कुर्बान करने के लिए तैयार रहो, वह भी बमय अपने तमाम असासे के साथ जिसे तिनका तिनका जोड़ कर आप ने अपनी घर बार की खुशियों के लिए तैयार किया हो. इंसानी नफ्सियात से नावाकिफ पत्थर दिल मुहम्मद क़ह्हार अल्लाह के जीते जागते रसूल थे.
मुसलमानो! एक बार फिर तुम से गुज़ारिश है कि तुम मुस्लिम से मोमिन बन जाओ. मुस्लिम और मोमिन के फ़र्क़ को समझने कि कोशिश करो. मुहम्मद ने दोनों लफ़्ज़ों को खलत मलत कर दिया है और तुम को गुमराह किया है कि मुस्लिम ही असल मोमिन होता है जिसका ईमान अल्लाह और उसके रसूल पर हो. यह किज़्ब है, दरोग़ है, झूट है, सच यह है कि आप के किसी अमल में बे ईमानी न हो यही ईमान है, इसकी राह पर चलने वाला ही मोमिन कहलाता है. जो कुछ अभी तक इंसानी ज़ेहन साबित कर चुका है वही अब तक का सच है, वही इंसानी ईमान है. अकीदतें और आस्थाएँ कमज़ोर और बीमार ज़ेहनों की पैदावार हैं जिनका नाजायज़ फ़ायदा खुद साखता अल्लाह के पयम्बर, भगवन रूपी अवतार , गुरु, महात्मा उठाते हैं.
तुम समझने की कोशिश करो. मैं तुम्हारा सच्चा ख़ैर ख्वाह हूँ. ख़बरदार ! कहीं मुस्लिम से हिन्दू न बन जाना वर्ना सब गुड गोबर हो जायगा, क्रिश्चेन न बन जाना, बौद्ध न बन जाना वर्ना मोमिन बन्ने के लिए फिर एक सदी दरकार होगी. धर्मांतरण बक़ौल जोश मलीहाबादी एक चूहेदान से निकल कर दूसरे चूहेदान में जाना है. बनना ही है तो मुकम्मल इन्सान बनो, इंसानियत ही दुन्या का आख़िरी मज़हब होगा. मुस्लिम जब मोमिन हो जायगा तो इसकी पैरवी में ५१% भारत मोमिन हो जायगा।



निसार '' निसार-उल-ईमान''



______________________________________________________________ऐतिहासिक सत्य में क़ुरआन की हक़ीक़त



Then in direct conflict with its doctrine of predestination, the Qur'an says: Qur'an 9:6 "If a disbeliever seeks protection, grant him asylum so that he may hear the word of Allah; and then escort him to where he can be secure. That is because they are ignorant."
Those who are embarrassed by history rewrite it. This is Islam's feeble yet desperate attempt to justify lying at Hudaybiyah: Qur'an 9:7 "How can there be a covenant between Allah and His Messenger and the disbelievers with whom you made a treaty near the sacred Mosque? As long as these stand true to you, stand you true to them: for Allah does love those who keep their duty to Him." More directly stated: "Our word only stands if it's in our interest, and if you surrender to and obey us." Moreover, why is Allah griping about forming a "covenant" with "disbelievers" when he, his Ka'aba, and religion were created by them?
Revealing why the surah was named "Repentance" we find Muhammad regretting that he had been out-negotiated at Hudaybiyah. Qur'an 9:8 "How (can there be such a treaty), seeing that they get an advantage, the upper hand over you? They do not pay you respect, or honor you or the ties of kinship or covenant. With (good words from) their mouths they entice you [out negotiate you], but their hearts are averse to you; and most of them are rebellious and wicked." Another translation assumes that the words Allah left out, and thus words which had to be inserted by the translator, were "How (can they be trusted)?" Ironic, since Muslims, not Meccans, breached the treaty and then disavowed it. The word "hypocrite" comes to mind.
As with most of what flows from Muhammad's mouth, this next verse is a lie. The prophet continues to project his failings onto his foes. He is invariably guilty of what he condemns. Qur'an 9:10 "They have no regard to ties of kinship or honor for the covenant with the believers. It is they who have transgressed the bounds and gone beyond the limits."
As I write these words there is a rumor spreading around the world that the Qur'an is prophetic because verse 9:11 predicts an Arab will destroy an Eagle. It's not true. Qur'an 9:11 "But if they repent, establish devotional obligations and pay the zakat, they are your brethren in Religion: (thus) do We explain the Signs in detail for those who understand." These are the "details" of Islam directly from Allah: repent by confessing that Muhammad's message and example are right, perform mindless ritual, and pay a tax. If you do, you get to live (under their tyranny).
Again projecting their faults on others, the Team that dissolved their vows cries: Qur'an 9:12 "If they violate their oaths and break treaties, taunting you for your Religion, then fight these specimens of faithlessness, for their vows are nothing to them, that they may be restrained." Do you suppose "fighting specimens of faithlessness" is religious? Yet there are lessons here. Muhammad is a hypocrite (the behavior of a liar) as he does what he condemns. And treaties with Muslims are useless. Trying to motivate peaceful Muslims to fight for his personal quest - the acquisition of the Ka'aba Inc. - Muhammad tells them that they have a choice: face his enemy or face his terrorist god. Qur'an 9:13 "Will you not fight people who violated their oaths, plotted to expel the Messenger, and became the aggressors by being the first (to assault) you? Do you fear them? Nay, it is Allah Whom you should fear more!" Not that it's unusual for Allah to lie, but the Muslims were the aggressors. They drew first blood, by their own admission. Tabari VII:19 "They plucked up courage and agreed to kill as many as they could and to seize what they had with them. Waqid shot an arrow at Amr and killed him. Then Abd Allah and his companions took the caravan and the captives back to Allah's Apostle in Medina. This was the first booty taken by the Companions of Muhammad." Ishaq:289 "Our lances drank of Amr's blood and lit the flame of war." Ishaq:288 "The Quraysh said, 'Muhammad and his Companions have violated the sacred month, shed blood, seized property, and taken men captive. Muhammad claims that he is following obedience to Allah, yet he is the first to violate the holy month and to kill.'"
Fanning the flames of jihad, the Qur'an bellows: Qur'an 9:14 "Fight them and Allah will punish them by your hands, lay them low, and cover them with shame. He will help you over them and heal the breasts of Believers." Since neither Allah nor Muhammad ever healed anyone, the promise was as hollow as the pledge of paradise. Qur'an 9:16 "Do you think you will get away before Allah knows who among you have striven hard and fought?" Islam has but one test to sift the good Muslims from bad ones.
The terrorist dogma masquerading as a tolerant religion says: Qur'an 9:17 "The disbelievers have no right to visit the mosques of Allah while bearing witness against their own souls to infidelity. These it is whose doings are in vain, and in the fire shall they abide. Only he shall visit the mosques of Allah who believes in Allah and the latter day, and keeps up devotional obligations, pays the zakat, and fears none but Allah." What's particularly intolerant about this is the fact that the Ka'aba had been a pagan mosque, one open for all peace-loving people to visit. Muslims waged an unceasing terrorist campaign against the Meccans because they claimed that they had been prevented from visiting their god's house. So egregious was this crime, Allah said that it was worse than human slaughter. But now that Muslims are on the verge of conquering Mecca, their god does a one-eighty and approves what he once condemned - a lock-out of all non-Muslims.
Muhammad recognized the hypocritical position he had just placed his god in, so he attempted to belittle the services the Quraysh had provided Allah and his pilgrims for centuries. Qur'an 9:19 "Do you make the giving of drink to pilgrims, or the maintenance of the Sacred Mosque, equal to those who believe in Allah and the Last Day, and fight in the Cause of Allah? They are not comparable in the sight of Allah. Those who believe, and left their homes and strive with might fighting in Allah's Cause [Jihad] with their goods and their lives, have the highest rank in the sight of Allah." The highest ranking Muslims are those who fight fiercely. Faith is for fools.
The more virgins Muhammad added to his harem, the less he spoke about them in paradise. Qur'an 9:21 "Their Lord does give them glad tidings of a mercy from Him, of His pleasure, and of gardens for them, wherein are delights that endure."
Then the god who rebuked the Quraysh for breaking family ties, severed them on behalf of Islam. Qur'an 9:23 "Believers, take not for friends your fathers and your brothers if they love disbelief above belief. If you do, you do wrong. Say: If your fathers, your sons, your families, your wives, relatives and property which you have acquired, and the slackness of trade which you fear and dwellings which you like, are dearer to you than Allah and His Messenger and striving hard and fighting in His Cause, then wait till Allah brings about His decision (torment)." We have been given another insight into Muhammad's insecurity. He craved praise. These Bukhari Hadiths are even more desperate. Bukhari:V1B2N13 "Allah's Apostle said, 'By Him in Whose Hands my life is, none of you will have faith till he loves me more than his father and his children.'" And: Bukhari:V1B2N14 "The Prophet said, 'None of you will have faith till he loves me more than his father, his children and all mankind.'" Imagine loving a sexual pervert, a money-grubbing pirate and terrorist, more than your parents and children.
Prophet of Doom