Sunday, 7 March 2010

क़ुरआन - सूरह तौबह - ९


सूरह ए तौबः 9



Repentance-९




ये नर्म नर्म हवाएँ हैं किसके दामन की ,
चराग़ दैरो-हरम के हैं झिलमिलाए हुए।

'फ़िराक़' गोरखपूरी


एक बार उर्दू के महान शायर 'फ़िराक़' गोरखपूरी के पास संबंधित विभाग से लोग आए कि सरकार ने आप का बुत गोल घर चौराहे पर आप के मृत्यु बाद स्थापित करने की मंज़ूरी दी है, आप से गुजारिश है कि इस सिलसिले में आप विभाग का मूर्ति रचना में सहयोग दें. 'फ़िराक़' साहब इंजीनियर पर उखड गए कि आप चौराहे पर मेरा बुत खड़ा कर देंगे और चील कौवे मेरे सर पर बैठ कर बीट करेंगे ? मुझे यह अपनी तौहीन मनजूर नहीं. सरकार से कह दो कि वह अगर बुत की लागत का पैसा मुझे बतौर मदद देदे तो मैं जिंदगी भर गोल घर चौराहे पर मूर्ति बना खड़ा रह सकता हूँ.
रघुपति सहाय 'फ़िराक़' गोरखपूरी उर्दू के अज़ीम शायर के साथ साथ सत्य वाद्यता के लिए भी प्रसिद्ध हैं कटु सत्य बोलने में ज़रा भी न झिझकते. गाँधी जी ने उन्हें स्पोइल जीनियस कहा था. क्यूंकि उनमें बहुत सी व्यक्तिगत खामियाँ थीं जिसमें एक सम लैगिकता - - - इस संबंध में कटु संवाद ने 'फ़िराक़' साहब के बेटे की जान लेली.
'फ़िराक़' साहब ने अपना बुत न लगवा कर सच्चाई का मीनार कायम किया है, भविष्य के सस्ती शोहरत में गुम हो जाने के लिए, उन्हों ने इंसानियत के दामन से नर्म नर्म हवाएँ बिखेरी हैं और उसमें मग्न हो रहा कई इंसानी समाज जिस को यह हवाएं पनाह दे रही हैं. इन हवाओं से मंदिरों-मस्जिद के ज़हरीले चिराग झिलमिला गए हैं और बुझने वाले ही हैं.
झूट के अलम बरदार, हवा का बुत कायम करने वाले मुहम्मद जिसको (हवा के बुत को )आधा मिनट से ज्यादह ध्यान में रखना मुहाल है कि उसके बाद खुद मुहम्मद का बुत दिलो-दिमाग पर नक्श हो जाता है, इसके लिए उन्होंने इंसानियत का खून किया और ढूंढ ढूढ़ कर उन इंसानी जमाअतों का खून किया जो ''मुहम्मादुर्रसूलिल्लाह'' (अर्थात मुहम्मद अल्लाह के दूत) कहने से इंकार करता था. मुहम्मद ने अपनी ज़िन्दगी में ही अपना बुत दुन्या के चौराहे पर कायम कर के दम तोडा. आज दुन्या का हर शिक्छित समाज, हर बुद्धि जीवी, हर दानिश्वर, यहाँ तक कि हर ईमान दार आदमी उनके कायम किए हुए जेहालत के बुत पर परिंदा बन कर बीट करना पसंद करता है।



अब देखिए कि क़ुरआन में मुहम्मद कल्पित साज़िशी अल्लाह क्या कहता है - - -



''यह लोग मुसलामानों के बारे में न कुर्बत का पास करें न कौलो-करार का और यह लोग बहुत ही ज़्यादती कर रहे हैं, सो यह लोग अगर तौबा कर लें और नमाज़ पढने लगें और ज़कात देने लगें तो तुम्हारे दीनी भाई होंगे और हम समझदार लोगों के लिए एहकाम को खूब तफ़सील से बयान करते हैं''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (११-१२)
यह क़ुरआन का अनुवाद ईश-वाणी है, वह ईश जिसने इस ब्रह्माण्ड की रचना की है, हर आयत के बाद मेरी इस बात को सब से पहले ध्यान कर लिया करें.
सूरह तौबा की पहली किस्त में बयान है की बे ईमान अल्लाह अपने ग़ैर मुस्लिम बन्दों से किस बे शर्मी के साथ किए हुए समझौते तोड़ देता है. अब देखिए कि वह उल्टा उन पर कौल क़रार तोड़ने का इलज़ाम लगा रहा है, लड़ने के बहाने ढूढ़ रहा है, नमाज़ें पढवा कर अपनी उँगलियों पर नचाने का इन्तेज़ाम कर रहा है, उनसे टेक्स वसूलने के जतन कर रहा है।



''क्या तुम ख़याल करते हो कि तुम यूँ ही छोड़ दिए जाओगे ? हालां कि अभी अल्लाह तअला ने उन लोगों को देखा ही नहीं जिन्हों ने तुम में से जेहाद की हो और अल्लाह तअला और रसूल और मोमनीन के सिवा किसी को खुसूसयत का दोस्त न बनाया हो''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (१६)
जंग, जेहाद से लौटे हुए लाखैरे, बे रोज़गार और बद हाल लोग लूट के माल में अपना हिस्सा मांगते हैं तो 'आलिमुल-ग़ैब'' मुहम्मदी अल्लाह बहाने बनाता है कि अभी तो मैं ने जंग की वह रील देखी ही नहीं जिसमें तुम शरीक होने का दावा करते हो. उसके बाद अभी अपने ग़ैबी ताक़त से यह भी मअलूम करना है कि तुम्हारे तअल्लुकात हमारे दुश्मनों से तो नहीं हैं या हमारे रसूल के दुश्मनों से तो नहीं है या कहीं मोमनीन के दुश्मनों से तो नहीं हैं, भले ही वह तुम्हारे भाई बाप ही क्यूँ न हों. अगर ऐसा है तो तुम क्या समझते हो तुम को कुछ मिलेगा ? बल्कि तुम गलत समझते हो कि तुम को यूं ही बख्श दिया जाएगा .
मुसलामानों! यही ईश वानियाँ तुम्हारी नमाज़ों के नजर हैं. जागो।


''और अल्लाह तअला को सब खबर है तुम्हारे सब कामों का''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (१७)
मुसलामानों को डेढ़ हज़ार साल तक अक्ल से पैदल तसव्वुर करने वाले खुद साख्ता रसूल शायद अपनी जगह पर ठीक ही थे कि अल्लाह के कलम में ताजाद पर ताजाद भरते रहे और उनकी उम्मत चूँ तक न करती. देखिए कि पिछली आयत में मुहम्मदी अल्लाह कहता है कि ''अभी अल्लाह तअला ने उन लोगों को देखा ही नहीं जिन्हों ने तुम में से जेहाद की हो और अल्लाह तअला और रसूल और मोमनीन के सिवा किसी को खुसूसयत का दोस्त न बनाया हो'' और अगली ही सांस में इसके बर अक्स बात करता है ''और अल्लाह त अला को सब खबर है तुम्हारे सब कामों का''
ऐसा नहीं कि उस वक़्त जब मुहम्मद लोगों को यह क़ुरआनी आयतें सुनाते थे तो लोग अक्ल से पैदल थे. मक्का में बारह सालों तक गलियों, सड़कों, मेलों, बाज़ारों और चौराहों पर जहाँ लोग मिलते यह शुरू हो जाते क़ुरआनी राग लेकर. लोग पागल, दीवाना, सनकी और ख़ब्ती समझ कर झेल जाते. कुछ तौहम परस्त और अंधविश्वासी इन्हें मान्यता भी देने लगे. कबीलाई सियासत ने इन्हें मदीना में शरन दे दिया, वहीँ पर यह दीवाना फरज़ाना बन गया. मुहम्मद को मदीने में ऐसी ताक़त मिली कि इनकी क़ुरआनी खुराफ़ात मुसलामानों की इबादत बन कर रह गई है. अल्लाह के रसूल शायद कामयाब ही हैं



''ऐ ईमान वालो! अपने बापों को, अपने भाइयों को अपना रफ़ीक़ मत बनाओ अगर वह कुफ़्र को बमुक़बिला ईमान अज़ीज़ रखें और तुम में से जो शख्स इनके साथ रफ़ाक़त रखेगा, सो ऐसे लोग बड़े नाफ़रमान हैं''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (२३)
खून के रिश्तों में निफ़ाक़ डालने वाला यह मुहम्मद का पैगाम दुन्या का बद तरीन कारे-बद है. इन रिश्तों से महरूम हो जाने के बाद क्या रह जाती है इंसानी ज़िन्दगी? मार कट, जंगो जद्दल, लूट पाट , की यह दुनयावी ज़िन्दगी या फिर उस दुन्या की उन बड़ी बड़ी आँखों वाली खयाली जन्नत की हूरें? मोती जैसे सजे हुए बहिश्ती लौंडे? शराब कबाब, खजूर अंगूर? इसके लिए भूल जाएँ अपने शफीक बाप को जिसके हम जुजव हैं? अपने रफ़ीक़ भाई को जिसके हम हमखून हैं? वह भी उस ईमान के एवज़ जो एक अकीदत है, एक खयाली तस्कीन. लअनत है ऐसे ईमान पर जो ऐसी कीमत का तलबगार हो. अफ़सोस है उन चूतियों पर जो बाप और भाई की क़ीमत पर मिटटी के बुत को छोड़ कर हवा के बुत पर ईमान बदला हो।



''आप कह दीजिए तुम्हारे बाप, तुम्हारे बेटे, तुम्हारे भाई और तुम्हारी बीवियां और तुम्हारा कुनबा और तुम्हारा माल जो तुमने कमाया और वह तिजारत जिस में से निकासी करने का तुम को अंदेशा हो और वह घर जिसको तुम पसंद करते हो, तुमको अल्लाह और उसके रसूल से और उसकी राह में जेहाद करने से ज़्यादः प्यारे हों तो मुन्तज़िर रहो, यहाँ तक की अल्लाह अपना हुक्म भेज दे. और बे हुकमी करने वाले को अल्लाह मक़सूद तक नहीं पहुंचता''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (२४)
उफ़ ! इन्तहा पसंद मुहम्मद, ताजदारे मदीना, सरवरे कायनात, न खुद चैन से बैठते कभी न इस्लाम के जाल में फंसने वाली रिआया को कभी चैन से बैठने दिया. अगर कायनात की मख्लूक़ पर क़ाबू पा जाते तो जेहाद के लिए दीगर कायनातों की तलाश में निकल पड़ते. अल्लाह से धमकी दिलाते हैं कि तुम मेरे रसूल पर अपने अज़ीज़ तर औलाद, भाई, शरीके-हयात और पूरे कुनबे को कुर्बान करने के लिए तैयार रहो, वह भी बमय अपने तमाम असासे के साथ जिसे तिनका तिनका जोड़ कर आप ने अपनी घर बार की खुशियों के लिए तैयार किया हो. इंसानी नफ्सियात से नावाकिफ पत्थर दिल मुहम्मद क़ह्हार अल्लाह के जीते जागते रसूल थे.
मुसलमानो! एक बार फिर तुम से गुज़ारिश है कि तुम मुस्लिम से मोमिन बन जाओ. मुस्लिम और मोमिन के फ़र्क़ को समझने कि कोशिश करो. मुहम्मद ने दोनों लफ़्ज़ों को खलत मलत कर दिया है और तुम को गुमराह किया है कि मुस्लिम ही असल मोमिन होता है जिसका ईमान अल्लाह और उसके रसूल पर हो. यह किज़्ब है, दरोग़ है, झूट है, सच यह है कि आप के किसी अमल में बे ईमानी न हो यही ईमान है, इसकी राह पर चलने वाला ही मोमिन कहलाता है. जो कुछ अभी तक इंसानी ज़ेहन साबित कर चुका है वही अब तक का सच है, वही इंसानी ईमान है. अकीदतें और आस्थाएँ कमज़ोर और बीमार ज़ेहनों की पैदावार हैं जिनका नाजायज़ फ़ायदा खुद साखता अल्लाह के पयम्बर, भगवन रूपी अवतार , गुरु, महात्मा उठाते हैं.
तुम समझने की कोशिश करो. मैं तुम्हारा सच्चा ख़ैर ख्वाह हूँ. ख़बरदार ! कहीं मुस्लिम से हिन्दू न बन जाना वर्ना सब गुड गोबर हो जायगा, क्रिश्चेन न बन जाना, बौद्ध न बन जाना वर्ना मोमिन बन्ने के लिए फिर एक सदी दरकार होगी. धर्मांतरण बक़ौल जोश मलीहाबादी एक चूहेदान से निकल कर दूसरे चूहेदान में जाना है. बनना ही है तो मुकम्मल इन्सान बनो, इंसानियत ही दुन्या का आख़िरी मज़हब होगा. मुस्लिम जब मोमिन हो जायगा तो इसकी पैरवी में ५१% भारत मोमिन हो जायगा।



निसार '' निसार-उल-ईमान''



______________________________________________________________ऐतिहासिक सत्य में क़ुरआन की हक़ीक़त



Then in direct conflict with its doctrine of predestination, the Qur'an says: Qur'an 9:6 "If a disbeliever seeks protection, grant him asylum so that he may hear the word of Allah; and then escort him to where he can be secure. That is because they are ignorant."
Those who are embarrassed by history rewrite it. This is Islam's feeble yet desperate attempt to justify lying at Hudaybiyah: Qur'an 9:7 "How can there be a covenant between Allah and His Messenger and the disbelievers with whom you made a treaty near the sacred Mosque? As long as these stand true to you, stand you true to them: for Allah does love those who keep their duty to Him." More directly stated: "Our word only stands if it's in our interest, and if you surrender to and obey us." Moreover, why is Allah griping about forming a "covenant" with "disbelievers" when he, his Ka'aba, and religion were created by them?
Revealing why the surah was named "Repentance" we find Muhammad regretting that he had been out-negotiated at Hudaybiyah. Qur'an 9:8 "How (can there be such a treaty), seeing that they get an advantage, the upper hand over you? They do not pay you respect, or honor you or the ties of kinship or covenant. With (good words from) their mouths they entice you [out negotiate you], but their hearts are averse to you; and most of them are rebellious and wicked." Another translation assumes that the words Allah left out, and thus words which had to be inserted by the translator, were "How (can they be trusted)?" Ironic, since Muslims, not Meccans, breached the treaty and then disavowed it. The word "hypocrite" comes to mind.
As with most of what flows from Muhammad's mouth, this next verse is a lie. The prophet continues to project his failings onto his foes. He is invariably guilty of what he condemns. Qur'an 9:10 "They have no regard to ties of kinship or honor for the covenant with the believers. It is they who have transgressed the bounds and gone beyond the limits."
As I write these words there is a rumor spreading around the world that the Qur'an is prophetic because verse 9:11 predicts an Arab will destroy an Eagle. It's not true. Qur'an 9:11 "But if they repent, establish devotional obligations and pay the zakat, they are your brethren in Religion: (thus) do We explain the Signs in detail for those who understand." These are the "details" of Islam directly from Allah: repent by confessing that Muhammad's message and example are right, perform mindless ritual, and pay a tax. If you do, you get to live (under their tyranny).
Again projecting their faults on others, the Team that dissolved their vows cries: Qur'an 9:12 "If they violate their oaths and break treaties, taunting you for your Religion, then fight these specimens of faithlessness, for their vows are nothing to them, that they may be restrained." Do you suppose "fighting specimens of faithlessness" is religious? Yet there are lessons here. Muhammad is a hypocrite (the behavior of a liar) as he does what he condemns. And treaties with Muslims are useless. Trying to motivate peaceful Muslims to fight for his personal quest - the acquisition of the Ka'aba Inc. - Muhammad tells them that they have a choice: face his enemy or face his terrorist god. Qur'an 9:13 "Will you not fight people who violated their oaths, plotted to expel the Messenger, and became the aggressors by being the first (to assault) you? Do you fear them? Nay, it is Allah Whom you should fear more!" Not that it's unusual for Allah to lie, but the Muslims were the aggressors. They drew first blood, by their own admission. Tabari VII:19 "They plucked up courage and agreed to kill as many as they could and to seize what they had with them. Waqid shot an arrow at Amr and killed him. Then Abd Allah and his companions took the caravan and the captives back to Allah's Apostle in Medina. This was the first booty taken by the Companions of Muhammad." Ishaq:289 "Our lances drank of Amr's blood and lit the flame of war." Ishaq:288 "The Quraysh said, 'Muhammad and his Companions have violated the sacred month, shed blood, seized property, and taken men captive. Muhammad claims that he is following obedience to Allah, yet he is the first to violate the holy month and to kill.'"
Fanning the flames of jihad, the Qur'an bellows: Qur'an 9:14 "Fight them and Allah will punish them by your hands, lay them low, and cover them with shame. He will help you over them and heal the breasts of Believers." Since neither Allah nor Muhammad ever healed anyone, the promise was as hollow as the pledge of paradise. Qur'an 9:16 "Do you think you will get away before Allah knows who among you have striven hard and fought?" Islam has but one test to sift the good Muslims from bad ones.
The terrorist dogma masquerading as a tolerant religion says: Qur'an 9:17 "The disbelievers have no right to visit the mosques of Allah while bearing witness against their own souls to infidelity. These it is whose doings are in vain, and in the fire shall they abide. Only he shall visit the mosques of Allah who believes in Allah and the latter day, and keeps up devotional obligations, pays the zakat, and fears none but Allah." What's particularly intolerant about this is the fact that the Ka'aba had been a pagan mosque, one open for all peace-loving people to visit. Muslims waged an unceasing terrorist campaign against the Meccans because they claimed that they had been prevented from visiting their god's house. So egregious was this crime, Allah said that it was worse than human slaughter. But now that Muslims are on the verge of conquering Mecca, their god does a one-eighty and approves what he once condemned - a lock-out of all non-Muslims.
Muhammad recognized the hypocritical position he had just placed his god in, so he attempted to belittle the services the Quraysh had provided Allah and his pilgrims for centuries. Qur'an 9:19 "Do you make the giving of drink to pilgrims, or the maintenance of the Sacred Mosque, equal to those who believe in Allah and the Last Day, and fight in the Cause of Allah? They are not comparable in the sight of Allah. Those who believe, and left their homes and strive with might fighting in Allah's Cause [Jihad] with their goods and their lives, have the highest rank in the sight of Allah." The highest ranking Muslims are those who fight fiercely. Faith is for fools.
The more virgins Muhammad added to his harem, the less he spoke about them in paradise. Qur'an 9:21 "Their Lord does give them glad tidings of a mercy from Him, of His pleasure, and of gardens for them, wherein are delights that endure."
Then the god who rebuked the Quraysh for breaking family ties, severed them on behalf of Islam. Qur'an 9:23 "Believers, take not for friends your fathers and your brothers if they love disbelief above belief. If you do, you do wrong. Say: If your fathers, your sons, your families, your wives, relatives and property which you have acquired, and the slackness of trade which you fear and dwellings which you like, are dearer to you than Allah and His Messenger and striving hard and fighting in His Cause, then wait till Allah brings about His decision (torment)." We have been given another insight into Muhammad's insecurity. He craved praise. These Bukhari Hadiths are even more desperate. Bukhari:V1B2N13 "Allah's Apostle said, 'By Him in Whose Hands my life is, none of you will have faith till he loves me more than his father and his children.'" And: Bukhari:V1B2N14 "The Prophet said, 'None of you will have faith till he loves me more than his father, his children and all mankind.'" Imagine loving a sexual pervert, a money-grubbing pirate and terrorist, more than your parents and children.
Prophet of Doom

1 comment:

  1. मामा के अनुवाद से जबतक देते रहोगे कुछ नहीं बात बनेगी, मेरे गुरू को देखो vedquran.blogspot.com

    मामा के अनुवाद से कुछ समय मिले तो आओ

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    विचार करें कि मुहम्मद सल्ल. कल्कि व अंतिम अवतार और बैद्ध मैत्रे, अंतिम ऋषि
    (इसाई) यहूदीयों के भी आखरी संदेष्‍टा? हैं या यह big Game against Islam है?
    antimawtar.blogspot.com (Rank-1 Blog) डायरेक्‍ट लिंक

    अल्‍लाह का
    चैलेंज पूरी मानव-जाति को

    अल्‍लाह का
    चैलेंज है कि कुरआन में कोई रद्दोबदल नहीं कर सकता

    अल्‍लाह का
    चैलेंजः कुरआन में विरोधाभास नहीं

    अल्‍लाह का
    चैलेंजः आसमानी पुस्‍तक केवल चार

    अल्‍लाह का
    चैलेंज वैज्ञानिकों को सृष्टि रचना बारे में

    अल्‍लाह
    का चैलेंज: यहूदियों (इसराईलियों) को कभी शांति नहीं मिलेगी


    छ अल्लाह के चैलेंज सहित अनेक इस्‍लामिक पुस्‍तकें
    islaminhindi.blogspot.com (Rank-2 Blog)
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