Monday, 15 March 2010

क़ुर आन -- सूरह तौबः - ९


सूरह ए तौबः ९
Repentance-(9)

C

मुहम्मद पहले कुंद ज़हनों, लाखैरों और नादारों को मुसलमान बनाते हैं और उसके बाद मुसलमानों को जेहादी ज़रीआ मुआश फराहम करके उस पर कायम रहने पर आमादा किए रहते हैं. माले गनीमत को मुसलमानों को चार दिन सुकून से खाने पीने भी नहीं देते कि अगली जेहाद की तय्यारी का हुक्म हो जाता है. अल्लाह अम्न पसंदों को कैसे कैसे ताने देता है मुलाहिजा हो - - - ''जेहाद से जान चुराने वालों को अल्लाह भी नहीं चाहता कि वह शरीक हों, वह अपाहिजों के साथ यहीं धरे रहें '' किसी फर्द की उभरती हैसियत मुहम्मद को क़तई नहीं भाती, किसी की इन्फ़िरादियत की खूबी उनसे फूटी आँख नहीं देखी जाती, न ही किसी की भारी जेब उनको हजम होती है. ऐसे लोगों के खिलाफ धडाधड आयतें उतरने लगती हैं. आययतें खुद गवाह हैं कि इस्लाम क़ुबूल किए हुए मुसलामानों के दरमियाँ अल्लाह, उसका खुद साख्ता रसूल, और उसके कुरानी फ़रमूदात तमस्खुर(मजाक) का बाईस है, जिस पर अलाह बरहम होता है.
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (२५)
आखिर तंग आकर नव मुस्लिम, झक्की और बक्की मुहम्मद से एहतेजाज करते हैं कि आप तो हमारी ज़रा ज़रा सी बातों पर कान लगाए रहते हैं? जिसे मुहम्मद उनको बेवकूफ़ बनाते कि '' यह बात मुझे बज़रिए वहिय अल्लाह ने बतलाई'' दर असल यह बाते बज़रिए चुगलखोराने रसूल से उनको मालूम पड़तीं. अपने नव मुस्लिम साथियों को डराना धमकाना, जहन्नमी क़रार दे देना, मुनाफ़िक़ या काफ़िर कह देना, मुहम्मद के लिए कोई ख़ास बात न थी, जोकि मुसलामानों में आज भी चला आ रहा है, अल्लाह कहता है - - -
''ऐ ईमान वालो! मुशरिक लोग निरा नापाक होते हैं,सो इस साल के बाद यह लोग मस्जिद हराम के पास न आने पाएं। अगर तुम्हें मुफलिसी का अंदेशा हो तो अल्लाह तुम को अपने फज़ल से अगर चाहेगा तो मोहताज नहीं रखेगा. बेशक अल्लाह खूब जानने वाला और रहमत वाला है.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (२८
मनु महाराज अपनी स्मृति में लिखते हैं कि शूद्रों का साया भी अगर किसी बरहमन पर पड़ जाए तो वह अपित्र हो जाता है और उसको स्नान करना चाहिए, इस क़िस्म की बहुत सी बाते. जैसे इनको जीने का हक बरहमन की सेवा के बदले ही है - - - इसी तरह यहूदियों को उनके खुदा यहवाह ने नबी मूसा को ख्वाब दिखलाया कि तुम दुन्या की बरतर कौम हो और एक दिन आएगा जब तुम्हारी कौम दुन्या के हर कौम पर शाशन करेगी, कोशिश जरी रहे - - - मेरा अनुमान है कि बरहमन जो बुनयादी तौर पर आर्यन हैं, के पूर्वज मनु मूसा वंशज एक ही खून हैं यहूदी और ब्राह्मणों का जेहनी मीलान बहुत कुछ यकसाँ है. दोनों के मूल पुरुष इब्राहीम, अब्राहाम, अब्राहम, बराहम, ब्रह्मा एक ही लगते हैं. अब यह बात अलग है कि अतिशियोक्ति पसंद पंडितों ने ब्रह्मा का रूप तिल का ताड़ नहीं बल्कि तिल का पहाड़ बना दिया. मुहम्मद मूसा और मनु से भी चार क़दम आगे हैं, इन दोनों ने विदेशियों से नफ़रत सिखलाया और यह जनाब अपने भाई बन्धुओं को ही अछूत बना रहे है
'' अहले किताब जो कि न अल्लाह पर ईमान रखते है न क़यामत के दिन पर और न उन चीज़ों को हराम समझते हैं जिनको अल्लाह और उसके रसूल ने हराम फ़रमाया और न सच्चे दीन को क़ुबूल करते हैं, इनसे यहाँ तक लड़ो की यह मातहत हो कर जज़िया देना मंज़ूर कर लें.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (२९)
शर पसंद मुहम्मद, उनसे सदियों पहले आए आए ईसाई और मूसाई कौमों से जेहाद के बहाने तलाश कर रहे हैं, वह भी जज़िया वसूलने के लिए. . कितने बेशर्म इस्लमी ओलिमा हैं जो कहते हुए नहीं थकते कि इस्लाम अमन पसंद है. इस्लाम का अंजाम यही खुद सोज़ बम रख कर एक मुस्लिम नव जवान अपने साथ ५० मुसलामानों को पाकिस्तान जैसे मुस्लिम मुल्क में हर हफ्ते ५१ मुसलामानों को मौत के घाट उतरता है. भारत में हर रोज़ सैकड़ों बे कुसूर मुसलामानों को खुद अपनी नज़रों में ज़लील ओ ख्वार करता है. शाह रुख खान जैसे फ़नकार को दुन्या के सामने गाना पड़ता है ''माय नेम इज खान बट आइ एम नाट टेरेरिस्ट.'' मुहम्मद की कबीलाई दहशत पसंदी की वक्ती आलमी कामयाबी ने आज दुन्या की एक अरब आबादी को शर्मसार किए हुए है मगर ओलिमा रोटियों पर रोटियाँ सेके चले जा रहे हैं.
आजके मुस्लिम ओलिमा और दानिश्वर जिस की पर्दा दारी करते फिर रहे हैं वह कलमुही डायन इन आयातों के परदे में अयाँ है जो दुन्या की हर खास जुबान में तर्जुमा हो चुकी है. इस्लाम के चेहरे पर कला धब्बा है यह माले गनीमत और जज़िया जो मौक़ा मिलते ही आज भी इस्लाम के ना इंसाफी पाकिस्तान में दो सिक्खों का सर कलम करके अपनी वहशत का मुज़ाहिरा करते हैं. क्या वह वक़्त आने वाला है कि मुसलमानों से दुन्या की मुतासिर कौमें माले गनीमत और जज़िया वापस तलब करें, मुसलामानों पर हर गैर मुस्लिम मुल्क में जज़िया लगा करे?
''और यहूद ने कहा अज़ीज़ अल्लाह के बेटे हैं और नसारा ने कहा मसीह अल्लाह के बेटे हैं. यह इनका कौल है मुँह से कहने का - - - अल्लाह इनको गारत करे यह उलटे जा रहे हैं.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (३०)
हाँ सच है कि कोई अल्लाह का बेटा है नहीं है. न कोई अल्लाह का रसूल, न कोई अल्लाह न नबी, न कोई अल्लाह का अवतार न कोई अल्लाह का चेला और न कोई अल्लाह का दलाल. अभी तक यह साबित नहीं हो पाया है कि अल्लाह है भी या नहीं. अल्लाह अगर है भी तो ऐसा कोई नहीं जैसा इन अल्लाह के मुजरिमों ने अल्लाह का रूप गढ़ा है. मोह्सिने इंसानियत इंसानों को खुद बद दुआ दे रहे हैं कि उन्हें अल्लाह ग़ारत करे और मुसलमानों की आँखों में धूल झोंक रहे हैं कि यह मेरा नहीं अल्लाह का कलाम है, मुसलमानों काहाल यह है कि उनकी हाँ में हाँ मिला रहा है, हाँ में ना मिलाने कि हिम्मत ही नहीं है.
'' लोग चाहते हैं कि अल्लाह के नूर को अपने मुंह से फूँक मार के बुझा दें ,हालाँकि अल्लाह तआला बदून इसके अपने नूर को कमाल तक पहुँचा दे , मानेगा नहीं, गो काफ़िर लोग कैसे ही नाखुश हों.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (३२)
इस आयत में मुहम्मद ने लाशऊरी तौर पर खुद को अल्लाह तस्लीम कराने की कोशिश की है जो कि उनकी मुहीम की मरकजी नियत थी। लात, मनात, उज्ज़ा जैसे देवी देवता के क़तार में अल्लाह के बुत निराकार की स्थापना ही तो करते हैं और उन्हीं के दिए की तरह अल्लाह के बुत का भी एक दिया जलाते हैं, कल्पना करते हैं कि जैसे हम इरादा रखते हैं इन देवो पर जलने वाले चिरागों को बुझाने का, वैसे ही यह काफ़िर, मुशरिक और मुल्हिद भी हमारे वहदानियत के बुत का दिया मुँह से फूँक मार के बुझादेने का..कहते हैं - - ''अपने नूर को कमाल तक पहुँचा दे , हालाँकि अल्लाह तआला बदून इसके अपने नूर को कमाल तक पहुँचा दे , मानेगा नहीं, गो काफ़िर लोग कैसे ही नाखुश हों.'' अरे भाई उस खुदाए बरतर का कमाल तो रोज़े अव्वल से कायम है. तुम पिद्दी? क्या पिद्दी का शोरबा? उसे कमाल तक क्या पहुंचोगे? हाँ उसकी मिटटी ज़रूर पिलीद किए हुए हो . उसकी मिटटी क्या पिलीद कर पाओगे ? हाँ मुसलमानों को पामाल ज़रूर किए हुए हो.
'' वह ऐसा है कि उसने अपने रसूल को हिदायत और सच्चा दीन देकर भेजा है ताकि इसको तमाम दीनो पर ग़ालिब कर दे, गो कि मुशरिक कितने भी नाखुश हों.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (३३)
खुदाए
बरतर? खालिके कायनात? अगर कोई है तो निज़ाम ए कायनात की निजामत को छोड़ कर अरब के मुट्ठी भर कबीलाई बन्दों की नाराजी और रजामंदी को देख रहा है. अफ़सोस कि लाल बुझक्कड़ी माहौल में कोई चतुर मुखिया पैदा हुवा था और वह ऐसा चतुर था कि उसकी बोई हुई घास हम आज तक चर रहे हैं.
''ऐ इमान वालो! तुम लोगो को क्या हुवा? जब तुम से कहा जाता है अल्लाह की राह में (जेहाद के लिए) निकलो, तो तुम ज़मीन को लगे हो जाते हो. क्या तुम ने आख़िरत की एवज़ दुनयावी ज़िन्दगी पर किनाअत कर ली है? सो दुनयावी ज़िन्दगी का फ़ायदा बहुत क़लील है, अगर तुम न निकले तो वह तुम को बहुत सख्त सज़ा देगा और तुम्हारे बदले दूसरी क़ौम को पैदा कर देगा.और तुम अल्लाह को कुछ ज़रर नहीं पहूंचा सकते और अल्लाह को हर चीज़ पर पूरी पूरी कुदरत है.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (३८-३९)
मुहम्मद कुरआनी अल्लाह बन कर अपने पर ईमान लाए मुसलमान बन्दों को पैगामे तशद्दुद दे रहे हैं. इन्हीं के एहकामात भारतीय मदरसों में आज भी पढाए जाते हैं वह भी सरकारी मदद से. जब बच्चा जिज्ञासु होकर मोलवी साहब से पूछता है कि हमारे सल्लल्लाहो अलैहे वालेही वसल्लम किस के साथ जंग करने के लिए फरमा रहे हैं? तो जवाब होता है काफिरों के साथ. बच्चा पूछता है यह काफ़िर कौन लोग होते हैं तो मोलवी शरारत से मुस्कुरा कर कहता है बड़े होकर सब समझ जाओगे. बच्चा इसी तलब में बड़ा होता है कि काफ़िर कौन होते हैं? कुफ्र क्या है? बड़ा होते होते पूरी तरह से उस पर जब यह भावुक ईमान ग़ालिब हो लाता है तो उसकी तलब उसे तालिबान बना देती है. अफ़सोस का मुकाम यह है कि देश में तालिबानी मदरसे खुद हमारी सरकारें कायम करके चला रही हैं. हर एक को अल्प संख्यक वोट चाहिए क्यूंकि इसके दम से ही बहु सख्यक वोट का दारो मदार है, अल्प संख्यक मुस्लिम समाज पर सिर्फ मज़हबी जूनून का भूत ग़ालिब है जिसके चलते वह पीछे हैं, अनपढ़ हैं, गरीब है, बस. मगर बहु संख्यक हिदू समाज पर धार्मिक नशे का भूत ऐसा सवार है कि शराब, जुवा, अफीम. भाँग, चरस, गाँजा, कई अमानवीय, असभ्य नागा साधू जैसी नग्नता उसकी सभ्यता और धर्म का अंग बन चुके हैं. समाज सुधार का ढोल पीटने वाले मीडिया के नए अवतार केवल नाम नमूद की चाह रखते हैं अन्दर से पैसे की भूख उनको भी है. जम्हूरियत भारत के लिए इक्कीसवीं सदी में भी अभिशोप है. ज़मीर फरोश हर पार्टी के नेता किसी इनक्लाबी तलवार के इंतज़ार में हैं. जाने कब कोई माओ ज़े तुंग भारत में अवतरित होगा.
अल्लाह बने मुहम्मद कहते हैं ऐ ईमान वाले गधो! मैंने हुक्म दिया कि जेहाद के लिए खड़े हो जाओ , तुन ने सुना नहीं? अभी भी ज़मीन से पीठ लगाए लेटे हुए हो? क्या तुम्हें मेरे कबीले कुरैश के मुस्तक़बिल की कोई परवाह नहीं? गोकि मेरी नस्ल चुन चुन कर मार दी जायगी , मेरा तुख्म भी बाकी नहीं बचेगा, मैं जनता हूँ कि मेरी बद आमालियों की सज़ा कुदरत मुझे देगी मगर मैं क्या करून अपनी फितरत का गुलाम हूँ। मैं फिर भी कहता हूँ कुरैशयों के भले के लिए लड़ो वर्ना अल्लाह कोई कबीला ,कोई क़ौम ए दीगर उन पर मुसल्लत कर देगा क्यूंकि वह बड़ी कुदरत वाला है।

निसार '' निसार-उल-ईमान''


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ऐतिहासिक सत्य में क़ुरआन की हक़ीक़त


Speaking on behalf of his dark spirit, Muhammad recited: Qur'an 9:25 "Assuredly, Allah did give you victory on many battlefields and on the day of (the battle of) Hunayn: Behold, your great numbers elated you, but they availed you naught, and you turned back in retreat. But Allah did send down his Sakinah on the Messenger and Believers, and sent down forces (angels) which you saw not. He punished the Infidels. Such is their reward." This "battle" (actually terrorist raid) had not been fought when this surah was allegedly revealed. We will cover Hunayn in the last chapter. The reason it's tossed in here is because the 9th surah has been devoted to Jihad.
Unable to contain his hatred, Muhammad says on behalf of his personal deity: Qur'an 9:28 "Believers, truly the pagan disbelievers are unclean; so let them not, after this year of theirs, approach the Sacred Mosque [that they built, promoted, and maintained]. And if you fear poverty (from the loss of their merchandise), soon will Allah enrich you, if He wills, out of His bounty [spoils of war]." By booting the Meccans out of Mecca the Muslims knew that they would kill their Golden Goose - their favorite source of booty. Robbing Quraysh caravans had funded the rise of Islam. As parasites, they'd die along with their host.
By calling non-Muslims "unclean," Muhammad confirmed he was a racist. A Hadith in the Noble Qur'an explains: "Their impurity is physical because they lack personal hygiene (filthy as regards urine, stools and blood.)" For Muhammad, cleanliness was next to godliness, so Bukhari devoted an entire book to potty talk. Here are some "inspired scriptures" from his Book of Wudu: Bukhari:V1B4N137 "Allah's Apostle said, 'The prayer of a person who does Hadath (passes urine, stool or wind) is not accepted till he performs ablution.'" Bukhari:V1B4N139 "I asked Allah's Apostle about a person who imagined they passed wind during prayer. He replied: 'He should not leave his prayer unless he hears sound or smells something.'" Bukhari:V1B4N154 "Whenever Allah's Apostle went to answer the call of nature, I along with another boy used to go behind him carrying a tumbler of water for cleaning the private parts and a spear-headed stick." Bukhari:V1B4N156 "The Prophet said, 'Whenever anyone makes water he should not hold his penis or clean his private parts with his right hand. While drinking, one should not breathe in the utensil.'" Bukhari:V1B4N158 "The Prophet went out to answer the call of nature and asked me to bring three stones. I found two stones and searched for the third but could not find it. So I took a dried piece of dung and brought it to him. He took the stones and threw away the dung, saying, 'This is a filthy thing." Bukhari:V1B4N163 "The Prophet said, 'Whoever cleans his private parts with stones should do it with an odd number of stones. And whoever wakes up should wash his hands before putting them in the water for ablution. Nobody knows where his hands were during sleep.'" Bukhari:V1B4N174 "During the lifetime of Allah's Apostle dogs used to urinate and pass through the mosque. Nevertheless they never used to sprinkle water on it." Bukhari:V1B4N1229-33 "Aisha said, 'I used to wash the semen off the clothes of the Prophet. When he went for prayers I used to notice one or more spots on them.'" Muslims assure us that these words were inspired by Allah.
Returning to the Qur'an, the peaceful god of the peace-loving religion said: Qur'an 9:29 "Fight those who do not believe in Allah nor the Last Day, who do not forbid that which has been forbidden by Allah and His Messenger, nor acknowledge the Religion of Truth (Islam), (even if they are) of the People of the Book (Christians and Jews), until they pay the Jizyah tribute tax in submission, feeling themselves subdued and brought low." Everything you need to know about Islam is contained in this one verse. Muslims are ordered to fight Christians and Jews until they either surrender and become Muslims or they commit financial suicide by paying the Jizyah tribute tax in submission. (Paying Muslims the "Jizyah" is not unlike giving the godfather's goons a bribe to keep the mafia from killing you and your family.)
Confirming that Allah is too dumb to be god and that Islam's enemies are Christians and Jews: Qur'an 9:30 "The Jews call Uzair (Ezra) the son of Allah, and the Christians say that the Messiah is the son of Allah. That is their saying from their mouths; they but imitate what the unbelievers of old used to say. Allah's (Himself) fights against them, cursing them, damning and destroying them. How perverse are they!" God ought to be smarter than this. Ezra was but one of many Hebrew priests. He was neither a prophet nor divine. The Messiah is Yahweh's Anointed and has nothing to do with Allah. No one mouthed these delusional thoughts save Muhammad. But he has revealed the source of his rage. Jews and Christians did not accept his preposterous claim of being a prophet, so his insecurity caused him to hate them, to call them perverse, to curse them, and then to kill them. He was even willing to contradict his scriptures to do it. Remember: Qur'an 2:286 "We make no distinction between His Messengers." And: Qur'an 2:285 "Surely those who believe and Jews, and Nazareans [Christians], and the Sabaeans [Zoroastrians], whoever believes in Allah and in the Last Day shall have his reward with his Lord and will not have fear or regret."
The next time you hear a Muslim say that Islam is tolerant because Muslims believe that Jesus was a prophet, you'll know how they define tolerance: "fighting against them, cursing them, damning and destroying them: how perverse are they!" As with everything in Islam, good is bad; truth is deceit; peace is surrender; and tolerance is marked by hate and violence.
Ignorant, Muhammad claimed his idol said: Qur'an 9:31 "They (Jews and Christians) consider their rabbis and monks to be gods besides Allah. They also took their Lord Messiah to be a god but they were commanded (in the Taurat and Injeel) to worship only One Ilah (God). There is no ilah (god) but He. Too holy is He for the partners they associate (with Him)." Since God cannot be this poorly informed, Allah cannot be God. Neither rabbis nor monks have ever been considered divine by Jews or Christians. So by reciting these words, Muhammad revealed that the Qur'an wasn't inspired. And while I appreciate the confession, I continue to be skeptical that any thinking person actually believes this foolishness. How can Allah be depicted torturing men in hell, yet be "too holy" to be associated with the Messiah?
Based upon a Hadith footnoted in the Noble Qur'an, it's apparent the first Muslims were better informed than their prophet and god. "Once while Allah's Messenger was reciting this verse, Adi said, 'O Allah's Messenger, they do not worship rabbis and monks.' The Prophet said, 'They certainly do.'"
Qur'an 9:32 "Fain would they extinguish Allah's light with their mouths, but Allah disdaineth (aught) save that He shall perfect His light that His light should be perfected, even though the Unbelievers may detest (it)." ...as should everyone.
Anyone who says Islam is tolerant is a liar. Qur'an 9:33 "It is He Who has sent His Messenger (Muhammad) with guidance and the Religion of Truth (Islam) to make it superior over all religions, even though the disbelievers detest (it)."
In this next verse we learn that monks and rabbis, not Islamic pirates, are money grubbers. Qur'an 9:34 "Believers, there are many (Christian) monks and (Jewish) rabbis who in falsehood devour the wealth of mankind and hinder (men) from the way of Allah. And there are those who bury gold and silver and spend it not in Allah's Cause. (Muhammad) announce unto them tidings of a painful torture. On the Day [of Doom] heat will be produced out of that (wealth) in the Fire of Hell. It will be branded on their foreheads, their flanks, and their backs. 'This is the (treasure) which you hoarded for yourselves: now taste it!'" Just when you thought Allah couldn't get any nastier or more hypocritical...
The Qur'an and Hadith make it abundantly clear that Muhammad hated Jews with a passion, so much so that he became their most bloodthirsty predator. Yet neither explains why, or even how, Muhammad came to detest Christians. His misinformed attacks on their beliefs proved that he didn't know them very well.
This next transition is as flawed as the rest of the Qur'an. The logic of the verse is faulty as well. In reverence to Allah's moon-god heritage, Muhammad established a lunar year without the intercalary month every five years. As a result, the Islamic seasons float aimlessly around the calendar. Qur'an 9:36 "The number of months in the sight of Allah is twelve - so ordained by Him the day He created the heavens and the earth; of them four are sacred: that is the straight usage and the right religion. [Since Allah's "sacred" months were established by Qusayy, it would make his pagan scam the "right religion."] So wrong not yourselves therein, and wage war on the disbelievers all together as they fight you collectively. But know that Allah is with those who restrain themselves. Verily the transposing (of a prohibited month) is an addition to unbelief: the Unbelievers are led to wrong thereby: for they make it lawful one year, and forbidden another in order to adjust the number of months forbidden by Allah and make such forbidden ones lawful. The evil of their course seems pleasing to them." This is further proof that Allah was too dumb to be divine. For over three thousand years civilized societies had been better informed than he.
Lunacy aside, Muhammad took another swipe at peaceful Muslims who still had a conscience. Qur'an 9:38 "Believers, what is the matter with you, that when you are asked to march forth in the Cause of Allah (i.e., Jihad) you cling to the earth? Do you prefer the life of this world to the Hereafter? Unless you march, He will afflict and punish you with a painful torture, and put others in your place. But you cannot harm Him in the least." According to Allah, if Muslims aren't eager to fight he will replace them and then torture them. But with whom, may I ask? And can you imagine a god so feeble he needs to tell his faithful that they "cannot harm Him?"
This next passage, like so many in the Qur'an, makes no sense without the context of the Hadith। Qur'an 9:40 "If you help not him (your leader Muhammad), (it is no matter) for Allah did indeed help him, when the Unbelievers drove him out, the second of two when they were in the cave, and he said, 'Be not sad, for Allah is with us.' Then Allah sent down His Sakinah and strengthened him with (angelic) army forces which you saw not, and humbled to the depths the word of the Unbelievers." Following the Satanic Verse fiasco, Muhammad had to flee Mecca in shame. On the way out of town, he and Abu Bakr had to hide in a cave for fear the Meccans would find them. So Allah is saying that he protected them with an army of killer angels.

Prophet of Doom

6 comments:

  1. nice try with amajor mistake.
    even that i love u and appriciate you.
    you are doing a great job for us but how ? Don t know.

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  2. अल्प संख्यक मुस्लिम समाज पर सिर्फ मज़हबी जूनून का भूत ग़ालिब है जिसके चलते वह पीछे हैं, अनपढ़ हैं, गरीब है, बस. मगर बहु संख्यक हिदू समाज पर धार्मिक नशे का भूत ऐसा सवार है कि शराब, जुवा, अफीम. भाँग, चरस, गाँजा, कई अमानवीय, असभ्य नागा साधू जैसी नग्नता उसकी सभ्यता और धर्म का अंग बन चुके हैं. समाज सुधार का ढोल पीटने वाले मीडिया के नए अवतार केवल नाम नमूद की चाह रखते हैं अन्दर से पैसे की भूख उनको भी है. जम्हूरियत भारत के लिए इक्कीसवीं सदी में भी अभिशोप है. ज़मीर फरोश हर पार्टी के नेता किसी इनक्लाबी तलवार के इंतज़ार में हैं

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  3. आपके लेख बहुत अच्छे होते हैं. कुछ मुस्लिम भाइयों द्वारा उठाई गई आपत्तियों का भी निराकरण करें तो और भी अच्छा होगा.

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  4. आप की बेबाकी,औऱ विश्लेषण काबिले तारीफ....सदियों से इस्लाम के नाम पर जहालत की जो पैरवी की जा रही है....गरीब मजलूमों को धर्म और मजहब के नाम पर जिस अंधी गुफा मैं घुसा दिया गया है.उम्मीद है लोग इसे समझेंगें....बस थोङा वर्तनी मैं शु्द्धता की और जरूरत है.....आमीन

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  5. अगली कङी की प्रतिक्षा रहेगी

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  6. @ मिहिर साहब मामा के अनुवाद से खुश हो लिये तो यह लो अगली कडी, आओ

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    विचार करें कि मुहम्मद सल्ल. कल्कि व अंतिम अवतार और बैद्ध मैत्रे, अंतिम ऋषि
    (इसाई) यहूदीयों के भी आखरी संदेष्‍टा? हैं या यह big Game against Islam है?
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    अल्‍लाह का
    चैलेंज पूरी मानव-जाति को

    अल्‍लाह का
    चैलेंज है कि कुरआन में कोई रद्दोबदल नहीं कर सकता

    अल्‍लाह का
    चैलेंजः कुरआन में विरोधाभास नहीं

    अल्‍लाह का
    चैलेंजः आसमानी पुस्‍तक केवल चार

    अल्‍लाह का
    चैलेंज वैज्ञानिकों को सृष्टि रचना बारे में

    अल्‍लाह
    का चैलेंज: यहूदियों (इसराईलियों) को कभी शांति नहीं मिलेगी


    छ अल्लाह के चैलेंज सहित अनेक इस्‍लामिक पुस्‍तकें
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