Sunday, 28 March 2010

कुरआन - सूरह तौबः -९


सूरह ए तौबः ९
Repentance-(9)
D


अव्वल दर्जा लोग
मैं दर्जाए-अव्वल में उस इंसान को शुमार करता हूँ जो सच बोलने में ज़रा भी देर न करता हो, उसका मुतालिआ अश्याए कुदरत के बारे में फितरी हो जिसमें खुद इंसान भी एक अश्या है. वह ग़ैर जानिबदार हो, अक़ीदा, आस्था और मज़हबी उसूलों से बाला तर हो, जो जल्द बाज़ी में किए गए हाँ को सोच समझ कर न कहने पर एकदम न शर्माए और मुआमला साज़ हो. जो सब का ख़ैर ख्वाह हो, दूसरों को माली, जिस्मानी या जेहनी नुकसान, अपने नफ़ा के लिए भी न पहुंचाए, जिसके हर अमल में इस धरती और इस पर बसने वाली मखलूक का खैर वाबिस्ता हो, जो बेख़ौफ़ और बहादर हो और इतना बहादर कि उसे दोज़ख में जलाने वाला नाइंसाफ अल्लाह भी अगर उसके सामने आ जाए तो उस से भी दस्तो गरीबानी के लिए तैयार रहे. ऐसे लोगों को मैं दर्जाए अव्वल का इंसान, मेयारी हस्ती शुमार करता हूँ. ऐसे लोग ही हुवा करते हैं साहिबे ईमान यानी ''मरदे मोमिन''.


दोयम दर्जा लोग
मैं दोयम दर्जा उन लोगों को देता हूँ जो उसूल ज़दा यानी नियमों के मारे होते हैं. यह सीधे सादे अपने पुरखों कि लीक पर चलने वाले लोग होते हैं. पक्के धार्मिक मगर अच्छे इन्सान भी यही लोग हैं. इनको इस बात से कोई मतलब नहीं कि इनकी धार्मिकता समाज के लिए अब ज़हर बन गई है, इनकी आस्था कहती है कि इनकी मुक्ति नमाज़ और पूजा पाठ से है. अरबी और संसकृति में इन से क्या पढाया जाता है, इस से इनका कोई लेना देना नहीं। ये बहुधा ईमानदार और नेक लोग होते हैं. भोली भली अवाम इस दर्जे की ही शिकार है धर्म गुरुओं, ओलिमाओं और पूँजी पतियों की अगले सोयम नंबर में आने वाले - - -. हमारे देश की जम्हूरियत की बुनियाद इसी दोयम दर्जे के कन्धों पर राखी हुई है.


सोयम दर्जा लोग
हर कदम में इंसानियत का खून करने वाले, तलवार की नोक पर खुद को मोह्सिने इंसानियत कहलाने वाले, दूसरों की मेहनत पर तकिया धरने वाले, लफ़फ़ाज़ी और ज़ोर-ए-क़लम से गलाज़त से पेट भरने वाले, इंसानी सरों के सियासी सौदागर, धार्मिक चोले धारण किए हुए स्वामी, गुरू, बाबा और साहिबे रीश ऑ दुस्तार ओलिमा, सब के सब तीसरे और गिरे दर्जे के लोग हैं. इन्हीं की सरपरस्ती में देश के मुट्ठी भर सरमाया दार भी हैं जो देश को लूट कर पैसे को विदेशों में छिपाते हैं.यही लोग जिसका कोई प्रति शत भी नहीं बनता, दोयम दर्जे को ब्लेक मेल किए हुए है और अव्वल दर्जा का मजाक हर मोड़ पर उडाने पर आमादा रहते है. सदियों से यह गलीज़ लोग इंसान और इंसानियत को पामाल किए हुए हैं।


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आइए कुरआन के अन्दर पेवस्त होकर इंसानियत की आला क़दरों को पहचाने। इसके बारे में जो कुछ भी आप ने सुन रखा है वह लाखों बार बोला हुआ बद ज़मीर आलिमों का झूट है. आप खुद कुरआनी फरमान को पढ़ें और उस पर सदाक़त से गौर करें, हक की बात करें, मुस्लिम से ईमान दार मोमिन बनें और दूसरों को भी मोमिनबनाएँ. आप मोमिन बने तो ज़माना आपके पीछे होगा.


''निकल पड़ो थोड़े से सामान से या ज़्यादः सामान से और अल्लाह की राह में अपने माल और जान से जेहाद करो, यह तुम्हारे लिए बेहतर है अगर तुम यक़ीन करते हो.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (४१)
मुहम्मद इज्तेमाई डकैती के लिए नव मुस्लिमों को वर्गाला रहे हैं अडोस पड़ोस की बस्तियों पर डाका डालने के लिए, अपनी ताक़त बढ़ाने के लिए, पुर अम्न आबादियों में बद अमनी फैलाने के लिए. मुहम्मद के दिमाग में एक अल्लाह का भूत सवार हो चुका था, अल्लाह एक हो या अनेक, भूके, नंगे, ग़रीब अवाम को इस से क्या लेना देना?
''जो लोग अल्लाह और कयामत के दिन पर ईमान रखते हैं वह अपने माल ओ जान से जेहाद करने के बारे में आप से रुखसत न मांगेंगे अलबत्ता वह लोग आप से रुखसत मांगते हैं जो अल्लाह और क़यामत के दिन पर ईमान नहीं रखते और इन के दिल शक में पड़े हैरान हैं.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (४५)
ज़रा डूब कर सोचें, अपने भरे पुरे परिवार के साथ उस दौर में खुद को ले जाएँ और उस बस्ती के बाशिंदे बन जाएँ फिर मुहम्मद के फर्मूदाद सुनें जिसे वह अल्लाह का कलाम बतलाते हैं,. आप महसूस करें कि अपने बाल बच्चों को छोड़ कर और अपने जानो-माल के साथ किसी अनजान आबादी पर बिला वजेह हमला करने पर आमादः को जाएँ, वह भी इस बात पर कि इस का मुआवजा बाद मरने के क़यामत के रोज़ मिलेगा. याद रखें कि इसी धोखा धडी और खूँ-रेज़ी की बुनियादों पर मुहम्मद ने इस्लाम की झूटी इमारत खड़ी की थी जो हमेशा ही खोखली रही है आज रुसवाए ज़माना है.
''इन में से बअजा शख्स वह है जो कहता है मुझको इजाज़त दे दीजिए और मुझको ख़राबी में मत डालिए. खूब समझ लो कि यह लोग तो ख़राबी में पड़ ही चुके हैं और यक़ीनन दोज़ख इन काफ़िरों को घेर लेगी.''

सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (४७-४९)
मुहम्मद इन बेवकूफों की बेवकूफी का खुला मजाक उड़ा रहे हैं जो इस्लाम कुबूल करने की हिमाक़त कर चुके हैं
वाकई इस्लाम का यकीन हयातुद्दुन्या के लिए एक ख़राबी ही है जब कि दीन की दुन्या मुहम्मद का गढ़ा हुवा फरेब है.
''आप फर्म फ़रमा दीजिए कि हम पर कोई हादसा पड़ नहीं सकता मगर वही जो अल्लाह ने हमारे लिए मुक़द्दर फ़रमाया है, वह हमारा मालिक है. और अल्लाह के तो सब मुसलमानों के अपने सब काम सुपुर्द रखने चाहिए.
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (५१)
मुहम्मद तकब्बुर की बातें करते हैं कि ''हम पर कोई हादसा पड़ नहीं सकता'' अगर कोई टोके तो जवाब होगा यह तो अल्लाह का कलाम है जब कि अगले जुमले में ही वह अल्लाह को अलग कर के कहते हैं- - '' मगर वही जो अल्लाह ने हमारे लिए मुक़द्दर फ़रमाया है, वह हमारा मालिक है.'' मुसलमान कल भी अहमक था और चौदा सौ साल गुज़र जाने के बाद आज भी अहमक ही है जो बार बार साबित होने के बाद भी नहीं मानता कि क़ुरआन एक इंसानी दिमाग की उपज है, इसमें कुछ नहीं रक्खा, अलावा गुमराही के..
''आप फरमा दीजिए तुम तो हमारे हक में दो बेहतरीयों में से एक बेहतरी के हक में ही के मुताज़िर रहते हो और हम तुम्हारे हक में इसके मुन्तजिर रहा करते हैं कि अल्लाह तअला तुम पर कोई अज़ाब नाज़िल करेगा, अपनी तरफ से या हमारे हाथों से.सो तुम इंतज़ार करो, हम तुम्हारे साथ इंतज़ार में हैं.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (५२)
यह आयत मुहम्मद की फितरते बद का खुला आइना है, कोई आलिम आए और इसकी रफूगरी करके दिखलाए. ऐसी आयतों को ओलिमा अवाम से ऐसा छिपाते हैं जैसे कोई औरत बद ज़ात अपने नाजायज़ हमल को ढकती फिर रही हो. आयत गवाह है कि मुहम्मद इंसानों पर अपने मिशन के लिए अज़ाब बन जाने पर आमादा थे. इस में साफ़ साफ मुहम्मद खुद को अल्लाह से अलग करके निजी चैलेन्ज कर रहे हैं, क़ुरआन अल्लाह का कलाम को दर गुज़र करते हुए अपने हाथों का मुजाहिरा कर रहे हैं. अवाम की शराफत को ५०% तस्लीम करते हुए अपनी हठ धर्मी पर १००% भरोसा करते हैं. तो ऐसे शर्री कूढ़ मग्ज़ और जेहनी अपाहिज हैं मुसलामानों! आप के सल लल्लाहो अलैहे वालेही वसल्लम.
''और इनकी खैरात क़ुबूल होने में बजुज़ इसके कोई चीज़ मानअ नहीं कि उन्हों ने अल्लाह के साथ और उसके रसूल के साथ कुफ़्र किया और नमाज़ नहीं पढ़ते मगर हारे जी से और ख़र्च नहीं करते मगर नागवारी के साथ. सो इनके अमवाल और औलाद आप को तअज्जुब में न डालें. अल्लाह को सिर्फ़ यह मंज़ूर है कि इन चीज़ों की वजेह से दुनयावी ज़िन्दगी में इन्हें गिरफ़्तार-ए-अज़ाब रखे और इनकी जानकुफ़्र के आलम में निकल जाए.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (५४-५५
.बुग्ज़ी मुहम्मद का बुग्ज़ी अल्लाह और उसके, उसकी खसलत रखने वाले मुस्लमान बुग्ज़ी बन्दे. आंवां का आंवां खंजर. गौर करें बन्दों का वह कैसा बदख्वाह अल्लाह है? जो चाहता है कि उसके बन्दे इस आलम में मरें कि दोज़ख के नवाले बनें. औलादों से महरूम मुहम्मद को दूसरों की औलादें नज़रों में कांटे की तरह खटकती है. दोस्तों का माल भी उनसे देखा नहीं जाता. किसी की आराम दह ज़िन्दगी भी उन्हें गवारा नहीं, कुछ नहीं तो नमाज़ों में ही मुब्तिला रहो. कितना खुद पसंद और ज़ुल्म शुआर शख्स रहा होगा वह जो बन्दों का छोटा खुदा बन बैठा था. जिसकी महिमा मंडन करके ओलिमा और नेता आज भी दुन्या की एक बड़ी आबादी पर राज कर रहे हैं.
''और उनमें बअज़ लोग हैं सदक़ात के बारे में आप पर तअन करते हैं, उनमें से अगर उनको मिल जाता है तो राज़ी हो जाते हैं और अगर उन में से उनको नहीं मिलता तो वह नाराज़ हो जाते हैं.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (५८)
खुदाए बरतर, किर्दगारे कायनात, इन चिकुट खैरात खोर बन्दों की मुहम्मद से चुगली कर रहा है? मुसलमानों! सोचो?? क्या तुम्हारे अल्लाह के पास यही काम रह गया है?
'' और उन में से कुछ ऐसे हैं जो नबी को ईजाएँ पहुंचाते हैं और कहते हैं आप हर बात कान दे कर सुन लेते हैं. आप कह दीजिए कि हम कान दे कर वही बात सुनते हैं जो तुम्हारे हक में ख़ैर हों - - - जो लोग रसूल को ईज़ाएं पहुंचाते हैं उनके लिए दर्द नाक सज़ा है.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (६१)
मुसलमानों! मुहम्मद ने लात, मनात और उज़ज़ा जैसे पूजे जाने वाले मिटटी और पत्थर के बुत की तरह ही एक हवा का बुत आसमान में यहूदयों और ईसाइयों की तर्ज़ पर बना कर सातवें आसमान पर मुअल्लक कर दिया था और इनके ही नामों से मिलता जुलता नाम रखा '' अल्लाह '' और खुद को इसका मुअज़ज़िज़ रसूल बना लिया तभी तो गौर करें कि अल्लाह रब्बुल आलमीन यानी सारे आलम का मालिक मुहम्मद को बसद एहतराम कहता है ''आप फ़रमा दीजिए '' और मुहम्मद की ज़री ज़री सी बातों को सर आँखों पर लिए उनके कान में फुसकी मारता रहता है। इस मसनवी अल्लाह की फुसकी को सूँघते सूँघते, सुनते सुनते, अरबी में रटते रटते मुसलामानों का भेजा सड़ गया है. मुहम्मद कहते हैं अज़ान की आवाज़ सुनते ही शैतान गूज मारता हुवा (पाद्ता हुवा) भागता है. मुसलमान शैतान की गूज मारी जगह पर ही सदियों से सजदा मार रहा है. कौम को तरके-इस्लाम की फहम बचा सकती है वर्ना फ़ना इसकीबद नसीबी होगी.
'' मुनाफ़िक़ लोग इस इस से अंदेशा करते हैं कि मुसलमानों पर कोई ऐसी सूरह या आयत नाजिल हो जाए जो उनको उनके माफ़ी-उज़-ज़मीर पर इत्तला देदे, आप फ़रमा दीजिए अच्छा तुम मज़ाक करते रहो, अल्लाह तअला इस चीज़ को ज़ाहिर करके रहेगा जिसका तुम अंदेशा रखते हो.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (६४)
इस दौर के मुस्लिम ओलिमा जिस दौर को के ''दौरे जिहालत'' कहते नहीं थकते, उसी दौर के एक मुनाफ़िक का कितना बलीग़ और सटीक मुतालबा मुहम्मदी अल्लाह से है कि क़ुरआनी आयतें या कोई सूरह ऐसी क्यूँ नहीं होती कि जेहन इंसानी को अपील कर जाएँ, दिलो दिमाग को झिंझोड़ कर रख दे, ज़मीर का दर ओ दरीचा रौशन हो जाए। अल्लाह तो कुरआन में जाहलों जैसी गैर फ़ितरी बातें करता है, लाल बुझक्कड़ की कहानिया गढ़ता है, पागलों की तरह आएँ, बाएँ, शाएँ बकता है.अफ़सोस कि मुस्लिम समाज में आज सिर्फ तसलीमा नसरीन जैसी एक औरत पैदा हो सकी है और दूर दूर तक किसी मर्द बच्चे का नाम निशान नहीं है॥

निसार '' निसार-उल-ईमान''
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ऐतिहासिक सत्य में क़ुरआन की हक़ीक़त
Speaking of killers... Qur'an 9:41 "March forth, (equipped) with light or heavy arms, and strive with your goods and your lives in the Cause of Allah. That is best for you, if you knew."
But there were too many "bad" Muslims in the prophet's company who were unwilling to kill for him - unless, of course, it was an easy kill and the booty was plentiful. They were mercenaries, after all. Qur'an 9:42 "(O Prophet) had there been immediate gain (in sight with booty in front of them), and the journey easy - a near adventure - they would (all) without doubt have followed you, but the distance was long on them. They would indeed swear, 'If we only could, we would have come out with you.' They cause their own souls to perish; for Allah knows they are liars." According to Allah, peaceful Muslims lie.
In this series of verses, Allah is speaking about the terrorist raid Muhammad led against the Byzantine Christians at Tabuk. Unfortunately for Islam's credibility, the surah preceded the raid by more than a year and Hadith are required to unravel the Qur'an. Qur'an 9:43 "May Allah forgive you (O Muhammad). Why did you grant them leave (for remaining behind; you should have persisted as regards to your order to them to proceed on Jihad), until those who told the truth were seen by you in a clear light, and you had known the liars." Speaking of liars, we've just caught Muhammad in the act. If Allah were God and dictating the Qur'an, he would not say "May Allah forgive you."
Qur'an 9:44 "Those who believe in Allah and the Last Day do not ask for an exemption from fighting with your goods and persons. And Allah knows well those who do their duty." All good Muslims are terrorists. Allah said so. Bad Muslims, on the other hand, just make excuses: Qur'an 9:45 "Only those ask for exemption (from Jihad) who believe not in Allah and whose hearts are in doubt, so that they are tossed to and fro. If they had intended to march out to fight, they would certainly have made some preparation and readied their equipment; but Allah was averse to their being sent forth; so He made them lag behind. 'Sit you among those who sit.' If they had marched with you, they would not have added to your (strength) but only (made for) discord, spying and sowing sedition. There would have been some in your midst who would have listened to them. But Allah knows well those [peace-loving Muslims] who do wrong and are wicked." More than anything, Allah hated peace.
Still rebuking pacifist Muslims... Qur'an 9:48 "They had plotted sedition before, and upset matters for you until the Decree of Allah [to fight] became manifest, much to their disgust. Among them are many who say: 'Grant me exemption to stay back at home (exempted from Jihad). And do not tempt me [with promises of booty].' Have they not fallen into temptation already? Indeed, Hell surrounds them." Muhammad was "tempting" Muslims to fight for him. Those he couldn't seduce, Allah condemned.
Desperate to beguile his troops: Qur'an 9:52 "Say: 'Can you expect for us (any fate) other than one of two glorious things (martyrdom or victory)? But we can expect for you that Allah will send his punishment of doom from Himself, or by our hands.' Say: 'Pay your contribution for the Cause willingly or unwillingly: for you are indeed rebellious and wicked.'" "Fight or I will kill you myself," is the message. But since Allah couldn't kill, he opted to have good Muslims kill the bad ones.
After saying that he was going to take their money "willingly or unwillingly," Islam's deceitful spirit claims: Qur'an 9:54 "The only reasons why their contributions are not accepted are: that they reject Allah and His Messenger; that they come to prayer sluggishly; and that they offer contributions unwillingly." Here's the bottom line: the peaceful Muslims were unwilling to fund Jihad so rather than admit defeat, Muhammad said: "I didn't want their money anyway." But he couldn't help himself. He had to lash out at those who withheld the funds he needed to perpetuate his reign of terror. As we have learned, terrorism isn't cheap. It's no coincidence that the richest Islamic regimes manufacture the most terrorists.
Next we learn that Muhammad was "dazzled by wealth" and "Allah's plan is to punish." Qur'an 9:55 "Let not their wealth nor their (following in) sons dazzle you or excite your admiration (Muhammad). In reality Allah's plan is to punish them with these things in this life, and make certain that their souls perish in their denial of Allah. They swear that they are indeed with you; but they are not. They do not want (to appear in their true colors) because they are afraid of you." They were "afraid" of their prophet because he was a terrorist. The bad, peace-loving Muslims knew that Muhammad's militants would attack them as they had the Jews, stealing their property, torturing them, raping them, enslaving them, and killing them. It's stunning that the Qur'an would admit that Muslims were afraid of Muhammad. But then again, tyrants the world over are always the same. "He who fears will obey."
If you think this interpretation is too harsh, consider the following Hadith: Bukhari:V1B11N626 "The Prophet said, 'No prayer is harder for the hypocrites than the Fajr. If they knew the reward they would come to (the mosque) even if they had to crawl. Certainly I decided to order a man to lead the prayer and then take a flame to burn all those who had not left their houses for the prayer, burning them alive inside their homes.'"
The Profit's message was: "Obey and pay or you'll burn." Bukhari:V8B76N548 "The Prophet said, 'Protect yourself from the Fire.' He turned his face aside as if he were looking at it and said, 'Protect yourself from the Fire.' and turned his face aside as if he were looking at it, and he said for the third time till we thought he was actually looking at it: 'Protect yourselves from the Fire.'" Bukhari:V8B76N547 "The Prophet said, 'All of you will be questioned by Allah on the Day of Doom. There will be no interpreter between you and Allah. And the Hell Fire will confront you. So, whoever among you can, save yourself from the Fire.'" Muhammad has once again put Allah in hell.
Slandering and threatening his own, Allah says: Qur'an 9:57 "If they could find a place to flee to, a cave or hole to hide, they would run away with an obstinate rush. And some slander you, blaming you (of partiality) in the matter of (the distribution of) the offerings [stolen spoils]. If they are given part of these, they are pleased, but if not they are indignant and enraged!" The first Muslims were bickering over the booty.
According to the Hadith, the founders of Islam made nothing and stole everything. As such, these Muslims were squabbling over looted loot. Qur'an 9:59 "(How much more seemly) if only they had been content with what Allah and His Messenger gave them, and said, 'Sufficient is Allah! His Messenger will soon give us His bounty. We implore Allah to enrich us.'" When you are a miserly pirate, things can get prickly.
Many said Muhammad was too easily swayed, evidenced by the Quraysh Bargain and the Satanic Verses. So the book that claims that it was written before time began, abruptly changes subject and presents a temporal defense of its lone voice: Qur'an 9:61 "Among them are men who vex, annoy, and molest the Prophet, saying, 'He is (all) ear and believes every thing that he hears.' Say, 'He listens to what is best for you: he believes in Allah, has faith in the Believers, and is a Mercy to those of you who believe.' But those who offend the Messenger will have a grievous torment, a painful doom." It's another insight into the troubled soul of this chronically insecure man. The molested has become a molester.
I'm not sure that this makes any sense, but it does reveal that Islam was perpetrated to please Muhammad. Qur'an 9:62 "To you they swear in order to please you: but it is more fitting that they should please Allah and His Messenger (Muhammad)."
When there wasn't enough dough to bribe the bullies, Muhammad just threatened them. Qur'an 9:63 "Know they not that for those who oppose Allah and His Messenger is the Fire of Hell wherein they shall dwell? That is the supreme disgrace."
But the "peaceful Muslim hypocrites" recognized that Muhammad was the biggest Muslim Hypocrite of all. They had observed his willingness to falsify scripture to satiate his desire for money, power, or sex. Acknowledging this problem, his dark spirit says: Qur'an 9:64 "The Hypocrites are afraid that a surah will be sent down about them, showing them what is (really) in their hearts. Say: 'Go ahead, scoff and mock, will you! Lo, Allah is disclosing what you fear.' If you question them (Muhammad about this), they declare: 'We were only talking idly, jesting in play.' Say: 'Was it at Allah and His proofs, signs, verses, lessons, and Messenger that you were mocking?'" It is as if we have returned to Mecca. Muhammad is being mocked. Those who knew him best were scoffing at his demonic scripture, example, and god.Muhammad, like all insecure men, was obsessed with rejection. Even after eliminating the Jews, his only literate foe, Arabs continued to be repulsed. Twenty years after the first cave-vision, Muhammad couldn't sell Islam on its merits. Qur'an 9:66 "Make no excuses: you have rejected Faith after you had accepted it. If We pardon some of you, We will punish others amongst you, for they are disbelievers." Any free and enlightened man or woman exposed to Islam will reject it as did most of those who lived in the prophet's presence. That is why Muhammad had to make rejecting Islam a capital offense.
And it remains so to this day। This news report from WorldNetDaily confirms what happens to Muslims who reject Islam. "Dateline Jerusalem, 2003: After slaughtering a Muslim-turned-Christian, Islamic extremists returned the man's body to his Palestinian family in four pieces. The newly converted man left his friends and family earlier this month bound for a mountainous region of the Palestinian Authority. He took Christian material with him - tapes and a Bible. Ten days later, the body of the man, who left behind a wife and two small children, was returned to his home, having been cut into four pieces. The family believes the act was meant a warning to other Muslims who might consider becoming Christians. Under Muslim Sharia law, any male who leaves Islam faces the death penalty. The terror group Hamas receives funding from Iran specifically for this purpose."

Prophet of Doom

2 comments:

  1. inka allah hi inko jannat dilayega. kyonki maulano ne jnnat dekha hai.

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  2. आपका लेखन आंखे खोल देने वाला हैं

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