Saturday 17 April 2010

क़ुर आन - सूरह यूनुस -१०

आम मुसलमान मुहम्मद कालीन युग में इस्लाम पर ईमान लाने वाले मुसलामानों को जिन्हें सहाबी ए कराम कहा जाता है, पवित्र कल्पनाओं के धागों में पिरो कर उनके नामों की तस्बीह पढ़ा करते हैं, जब कि वह लोग ज़्यादः तर गलत थे, वह मजबूर, लाखैरे, बेकार और खासकर जाहिल लोग हुवा करते थे. क़ुरआन और हदीसें खुद इन बातों के गवाह हैं. अगर अक़ीदत का चश्मा उतार के तलाशे हक़ की ऐनक लगा कर इसका मुतालिआ किया जाए तो सब कुछ कुरआन और हदीसों में ही न अयाँ और निहाँ है . आम मुसलमान मज़हबी नशा फरोशों की दूकानों से और इस्लामी मदारियों से जो पाते है वही जानते हैं, इसी को सच मानते हैं. क़ुरआन में मुहम्मद का ईजाद करदा भारी आसमान वाला अल्लाह अपनी जेहालत, अपनी हठ धर्मी, अपनी अय्यारियाँ, अपनी चालबाजियाँ, अपनी दगाबज़ियाँ, अपने दारोग (मिथ्य), अपने शर और साथ साथ अपनी बेवकूफ़ियाँ खोल खोल कर बयान करता है. मैं तो क़ुरआनी फिल्म का ट्रेलर भर आप के सामने अपनी तहरीरों में पेश कर रहा हूँ. मेरा दावा है कि मुसलामानों को अँधेरे से बाहर निकालने के लिए एक ही इलाज है कि इनको नमाज़ें इनकी मादरी ज़ुबान में तर्जुमें की शक्ल में पढाई जाएँ . मुसलमान हैं तो इन पर लाजिम कर दिया जाए क़ुरआनी तर्जुमा बगैर तफसीर निगारों की राय के इन्हें बिल्जब्र सुनाया जाए. जदीद क़दरों के मुकाबिले में क़ुरआनी दलीलें रुसवा की जाएँ जोकि इनका अंजाम बनता है तब जाकर मुसलमान इंसान बन सकता है।
आइए चलें बे कद्र और अदना तरीन कुरानी आयतों पर - - -

''अलरा''
यह भी अल्लाह की एक आयत है, उसकी कही हुई कोई बात है जिसके मानी बन्दे नहीं जानते। मुहम्मद और मुल्ले कहते हैं इसका मतलब अल्लाह ही बेहतर जानता है. यह वैसे ही है जैसे किसी करतब से पहले मदारी कोई मोहमिल मन्त्र की ललकार भरता है। इसको क़ुरआनी इस्तेलाह में हुरूफे मुक़त्तेआत कहते हैं. मुहम्मद ने मदारियों की नकल में सूरह शुरू करने से पहले अक्सर ऐसा किया है.

''यह पुर हिकमत किताब की आयतें हैं.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (१)
पूरे क़ुरआन में इस जुमले को बार बार दोहराया गया है और इस बेढंगी किताब को कुराने-हकीम कहा गया है। मगर इसमें हिकमत के नाम पर एक सूई की ईजाद भी नहीं है बखान है तो कुदरत के उन कारगुजारियों की जिसको दुन्या रोज़े अव्वल से जानती है। बहुत सी गलत और फूहड़ जानकारियां अल्लाह ने क़ुरआनमें गुमराह कुन ज़रूर पेश की हैं।

''क्या मक्का के लोगों को इस बात से तअज्जुब है कि हम ने उन लोगों में से एक के पास वही भेज दी कि सब लोगों को डराए और जो ईमान लाएँ उन को खुश खबरी सुनाएँ कि उन के रब के पास उन को पूरा मर्तबा मिलेगा. काफ़िर कहते हैं कि वह शख्स बिला शुबहा सरीह जादूगर है,''
बिला शुबहा तुम्हारा रब अल्लाह ही है जिसने आसमानों और ज़मीन को चार को दिनों में पैदा कर दिया और फिर अर्श पर कायम हुवा.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (२-३)
फिर इसके बाद अल्लाह को आसमान से उतरने की फुर्सत न रही न ताक़त न ज़रुरत. वह मुहम्मद और मूसा जैसे लोगों को अपना पयम्बर बना बना कर भेजता रहा कि जाओ और हमारी ज़मीन पर मन मानी करो. मेरे नाम पर अपने गढ़े हुए झूटों की बुन्यादे रक्खो और ज़मीन पर फ़साद के बीज बोते रहो. मक्का के लोगों को इस बात पर न कभी तअज्जुब हुवा न यक़ीन कि उनमे से ही जाना बूझा एक अनपढ़ अल्लाह का नबी बन गया है, हाँ! इन के लिए मुहम्मद कुछ दिनों के लिए मशगला ज़रूर बन गए थे बाद में एक बड़ी बद अमनी बन करअज़ाब बने.
मक्का के लोगों ने मुहम्मद को कभी भी जादूगर नहीं कहा न ही इनके कलाम में जादूइ असर की बात की, यह तो खुद मुहम्मद अपनी तारीफ में बार बार यह बात कहते हैंकि क़ुरआनी बातें जादूई असर रखती हैं जो कि उल्टा उनके खिलाफ जाती हैं. तर्जुमानों के लिए बड़ी मुश्किल पैदा होती है वह इस तरह बात को इस तरह
रफू करते हैं ---''नौज बिल्लाह जादू चूंकि झूट होता है यहाँ अल्लाह के कहने का मतलब है कि - - -''इस के बाद वह अपना झूट लिखते हैं.
मक्का के लोग मुहम्मद को दीवाना समझते थे और इनके कुरआन को दीवानगी. दीवानगी के आलम में अगलों से चली आ रही सुनी सुनाई बातें. यही सच है कुरआन में इस केअलावः अगर कुछ है तो जेहादी लूट मार.

''जिन लोगों को हमारे पास आने का खटका बिलकुल नहीं और वह दुनयावी ज़िन्दगी पर राज़ी हो गए हैं और जो लोग हमारी आयातों से बिलकुल गाफिल हैं, ऐसे लोगों का ठिकाना उनके आमाल की वजेह से दोज़ख है. जो शख्स अल्लाह और रसूल की पूरी इताअत करेगा, अल्लाह तअला उसको ऐसी बहिश्तों में दाखिल kar देंगे जिसके नीचे नहरें जारी होंगी, हमेशा हमेशा इन में रहेंगे. यह बड़ी कामयाबी है.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (७-९ )
दुन्या की बुलंद और बाला तर हस्तियों के आगे अवाम उनकी रूहानियत के कायल हो कर हाथ जोड़े दर्शन के लिए खड़े रहते हैं और मुहम्मद अवाम के आगे बेरूह कुरानी आयतें लिए पैगम्बरी की फेरी लगाते फिरते हैं कि मैं बक़लम खुद पैगम्बर हूँ और वह हर जगह से मारे भगाए जाते हैं. देखिए कि उनके दावत में कोई दम है? कुंद जेहन अकीदत मंद और अय्यार आलिमान ए दीन कहेंगे क़ि'' फिर इस्लाम इतना क्यूँ और कैसे फ़ैल गया ?'' जवाब है '' बाजोर तलवार और बाजारी ए माले-गनीमत

''और
अगर अल्लाह तअला इन लोगों पर इन के जल्दी मचाने के मुवाफ़िक, जल्दी नुकसान वाक़े कर दिया करता जिस तरह वह फायदे के लिए जल्दी मचाते हैं, तो इसका वादा ए अज़ाब कभी का पूरा हो गया होता - - - इस लिए हम इन लोगों को जिनको हमारे पास आने का खटका नहीं है , बिना अज़ाब चन्द रोज़ छोड़े रहते हैं क़ि वह अपनी सर कशी में चन्द रोज़ भटकते फिरेंगे ।''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (11)
मुसलमान कौम फटीचरों का गिरोह थी जब वजूद में आई इस के हाथ में कुछ न था यह भूखे नंगों की अक्सरीयत थी. इसकी पैदाशी फितरत थी खुश हालों की मुखालफत, गो कि दूसरों को लूट के खुश हाली की चाहत. अंजाम कार दूसरों का बद ख्वाह खुद अपनी कब्र खोदता है, यह कौम हमेशा बद हाल रही और दूसरों के निशाने पर रही.खुद मुसलमानो का खुश हाल हो जाना बड़ी मुसीबत है, हर घडी दीनी हराम खोर दामन फैलाए उसके दर पर खड़े रहते हैं।

''जब इंसान को कोई तकलीफ पहुँचती है तो हम को पुकारने लगता है, लेटे भी, बैठे भी और खड़े भी, फिर जब हम इसकी तकलीफ हटा देते हैं तो फिर अपनी पहली हालत पर आ जाता है. जो शख्स अल्लाह और रसूल की पूरी इताअत करेगा, अल्लाह तअला उसको ऐसी बहिश्तें में दाखिल करेंगे जिसके नीचे नहरें जरी होंगी। हमेशा हमेशा इनमें रहेगे, यह बड़ी कामयाबी है.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (12)
ऐ मुहम्मदी अल्लाह! तू मुसलामानों को तकलीफ में मुब्तिला ही क्यूँ करता है? क्या इस लिए कि वह तुझ को पुकारें? तकलीफ दूर हो जाने के बाद भी क्या तू चाहता है कि वह अल्ला हू अल्ला हू करता रहे?
मुसलामानों! क़ुदरत ने अपने मख्लूक़ के लिए एक निज़ाम सादिक़ बना कर खुद को इसके इंतेज़ाम से अलग थलग कर रखा है जिसकी वज़ाहत तुलसी दास ने बहुत खूब की है - - -
धरा को प्रमाण यही तुलसी, जो फरा, सो झरा, जो बरा, सो बुताना.
जिसे फ़ारसी में कुछ यूँ कहा गया है- - -'' हर कमाले रा ज़वाल.''
मुहम्मद इस निज़ाम ए कुदरत में अपनी क़ुरआनी खिचड़ी उबाल कर दुन्या को गुमराह किए हुए हैं. जागो! बहुत पीछे हो चुके हो!! और पीछे हो जागो तुम्हारे लिए अल कायदा, तालिबानियों और जैश ए मुहम्मद ने जहन्नम तैयार कर रक्खी है।

''और हमने तुम से पहले बहुत से गिरोहों को हालाक कर दिया, जबकि उन्हों ने ज़ुल्म किया (यानी कुफ़्र और शिर्क) हालाँकि इनके पैगम्बर दलायल लेकर आए. वह ऐसे लोग कब थे कि ईमान ले आते. हम मुजरिम लोगों को ऐसी ही सजा दिया करते हैं, फिर दुन्या में बजाए उनके तुम को आबाद किया कि ज़ाहिरी तौर पर हम देख लें कि तुम कैसा काम करते हो. जो शख्स अल्लाह और उसके रसूल की पूरी इताअत करेगा, अल्लाह तअला उसको ऐसी बहिश्तों में दाख़िल कर देंगे जिसके नीचे नहरें जारी होंगी, हमेशा हमेशा इसमें रहेंगे, ये बड़ी कामयाबी है.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (१३-१४)
इंसानी गिरोह के नादान और इस सदी के मासूम, सीधे सादे मुसलामानों! क्या तुम्हारा अल्लाह ऐसा ज़ालिम होना चाहिए जो कह रहा है कि उसने इंसानी गिरोहों को हलाक कर दिया है, सोचिए कि उसने ऐसे इंसानी गिरोह पैदा ही क्यों किया? उनको ऐसी नाकिस अक्ल ही क्यूं दी? जो इतना बेवकूफ कि इंसानों के ज़ाहिर को देखना चाहता है, उसका बातिन कैसा भी हो? जो धमकी दे रहा हो कि ईमान न लाए तो तुहारे मादरे वतन हिंद पर तुम को मिटा कर चीनियों और जापानियों को आबाद कर देगा. जो मुहम्मद की पुर जेहल बातों को दलायल भरी बातें मानता हो? वह कोई अल्लाह हो सकता है? सोचो कि तुम अल्लाह के धोखे में किसी फ्रोड की इबादत तो नहीं कर रहे हो. कुरान में बार बार दोहराता है ''जो शख्स अल्लाह और उसके रसूल की पूरी इताअत करेगा, अल्लाह तअला उसको ऐसी बहिश्तों में दाख़िल कर देंगे जिसके नीचे नहरें जारी होंगी, हमेशा हमेशा इसमें रहेंगे, ये बड़ी कामयाबी है.'' अगर सर्द मुल्कों में ऐसे नहरों वाले घर मिल जाएं तो अजाब ही होंगे मगर कुवें के मेंढक मुहम्मद को अरब के सिवा इल्म कि क्या था।

''और जब इनके सामने हमारी आयतें पढ़ी जाती हैं जो बिलकुल साफ़ साफ़ हैं तो यह लोग जिनको हमारे पास आने का बिलकुल खटका नहीं है, कहते है इसके अलावः कोई दूसरा कुरआन लाइए या कम अज़ कम इसमें कुछ तरमीम कर दीजिए. आप कह दीजिए कि मुझसे यह नहीं हो सकता कि मैं इस में अपनी तरफ़ से कुछ तरमीम कर दूं. बस मैं तो इसी की पैरवी करूँगा जो मेरे पास वहिय के ज़रिए भेजा गया है, अगर मैं इसमें अपने रब की ना फ़रमानी करूँगा तो मैं एक बड़े भारी दिन के अज़ाब का अंदेशा रखता हूँ.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (१५)
इस्लाम बुत परस्ती के खिलाफ़ मक़बूल हो रहा था। कुछ संजीदा और साहिबे इल्म लोग भी इसमें शामिल हो रहे थे जिनको कुरआन फ़ितरी तौर पर हज्म नहीं हो रहा था (जैसे कि आज तक इन मक्कार और खुद गरज़ ओलिमा के सिवा इसको समझने के बाद यह किसी को हज्म नहीं होता) लोग कुरआन को इस्लामी तहरीक से जुदा कर देना चाहते थे या फिर इसकी इस्लाह चाहते थे. चालाक मुहम्मद यह बात अच्छी तरह जानते थे कि अल्लाह से वहिय (ईश वाणी) का सिसिला ही उनकी पैगम्बरी की बुन्याद है. वह इससे एक सूत भी पीछे हटने को तैयार न थे. बिल आखीर उनको कहना पड़ा कि कुरआन तिलावत की चीज़ है ना कि समझने समझाने की. कुरआन का झूट ही मुसलामानों के दिलो-दिमाग और वजूद परग़ालिब है. इससे जिस दिन मुसलामानों को नजात मिल जाएगी उस दिन से उसका उद्धार शुरू हो जायगा,

''और यह लोग अल्लाह की तौहीद (एक ईश्वर वाद) को छोड़ कर ऐसी चीज़ों की इबादत करते हैं जो इन लोगों को ज़रर पहुँचा सकें न नफ़ा पहुंचा सकें और कहते हैं कि यह अल्लाह के पास हमारे सिफारशी हैं. आप कह दीजिए कि क्या तुम अल्लाह तअला को ऐसी चीज़ की खबर देते हो जो कि उसे मालूम नहीं?''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (१८)
इस्लाम के मुताबिक़ कुफ़्र वह है जो अल्लाह वाहिद लाशारीक को छोड़ कर किसी और को अल्लाह माने जो उमूमन हिन्दू बुद्ध और जैन वगैरह मानते हैं और शिर्क वह है जो अल्लाह वाहिद लाशारीक के साथ किसी को शरीक करे। इस सिलसिले में बावजूद इस्लाम के सब से ज़्यादः बर्रे सागीर का मुस्लमान शिर्क ज़दा है। कब्र पुज्जे सब से ज्यादह उप महाद्वीप में ही मिलेंगे. यह इंसानी फितरत है जहाँ हर अल्लाह फ़ेल है.
मुहम्मद को मालूम था कि इन मिनी अल्लाहों को अगर मिटा दिया जाए तो इस दुन्या में सिर्फ उनका नाम रह जायगा। जिसमे किसी हद तक वह कामयाब रहे मगर झूट केबद तरीन अंजाम के साथ.

''और यह लोग कहते हैं इन पर(मुहम्मद पर) इनकी रब की तरफ़ से कोई मुअज्ज़ा क्यूं नाज़िल नहीं हुवा? सो आप कह दीजिए को ग़ैब की खबर सिर्फ़ अल्लाह को है सो तुम भी मुन्तज़िर रहो, तुम्हारे साथ हम भी मुन्तज़िर हैं.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (२०)
मूसा और ईसा के बहुत से मुआज्ज़े(चमत्कार)थे जिनको देख कर लोग क़ायल हो जाया करते थे और उनकी हस्ती को तस्लीम करते थे. मूसा के करिश्मे कि पानी पर लाठी मारके उसे फाड़ देना, लाठी को ज़मीन पर डालकर उसे सांप बना देना, दरयाय नील को अपनी लाठी के लम्स से सुर्ख कर देना, नड सागर को दो हिस्सों में तक़सीम करके बीच से रास्ता बना देना वगैरह वगैरह. इसी तरह ईसा भी चलते फिरते करिश्में दिखलाते थे. बीमार को सेहत मंद कर देना, कोढियों को चंगा करदेना, सूखे दरख़्त को हरा भरा कर देना और बाँझ औरत की गोद भर देना वगैरह वगैरह. लोग मुहम्मद से पूछा करते कि आप बहैसियत पैगम्बर क्या मुअज्ज़े रखते हैं तो जवाब में मुहम्मद बजाय अपने करिश्मे दिखलाने के कुदरत के कारनामें गिनवाने लगते, जैसे रात के पीछे दिन और दिन के पीछे रात के आने का करिश्मा, मेह से पानी बरसने का करिश्मा, ज़मीन के मर जाने और पानी पाकर जी उठने का करिश्मा, अल्लाह को हर बात के इल्म होने का करिश्मा. किस कद्र ढीठ और बेशर्मी का पैकर थे वह करिश्मा साज़. बाद में रसूल के प्रोपेगंडा बाजों नें रसूली करिश्मों के अम्बार लगा दिए. पानी की कमयाबी अरब में मसला-ए-अज़ीम था, सफ़र में पानी की जहाँ कमी होती लोग प्यास से बिलबिला उठते, बस रसूल की उँगलियों से ठन्डे पानी के चश्में फूट निकलते. लोग सिर्फ प्यास ही न बुझाते, वजू भी करते बल्कि नहाते धोते भी. रसूल हांड़ी में थूक देते, बरकत ऐसी होती की दस लोगों की जगह सैकड़ों अफराद भर पेट खाते और हांड़ी भरी की भरी रहती. इस किस्म के दो सौ चमत्कार मुहम्मद के मदद गार उनके बाद उनके नाम से जोड़ते गए.
मुहम्मद जीते जी लोगों के तअनो से शर्मसार हुए तो दो मुअज्ज़े आख़िरकार गढ़ ही डाले जो मूसा और ईसा के मुअज्जों को ताक़ पर रख दें. पहला यह कि उंगली के इशारे से चाँद के दो टुकड़े कर दिए जिसे ''शक्कुल क़मर'' नाम दिया. दूसरा था पल भर में सातों आसमानॉ की सैर करके वापस आ जाना, इसको नाम दिया ''मेराज''। यह बात अलग है कि इसका कोई गवाह नहीं सिवाय अल्लाह के. अफ़सोस कि मुसलामानों का यह गैर फितरी सच ईमान बन गया है।

निसार '' निसार-उल-ईमान''

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ऐतिहासिक सत्य में क़ुरआन की हक़ीक़त



Moving from the Qur'an to the Hadith we find that one book was as violent as the other. Tabari VIII:139 "In this year the Messenger of Allah commanded Ghalib Abdallah to go on a raid to Kadid against the Mulawwih [a confederate of the Banu Bakr]. They traveled until they encountered Harith. Ghalib said, 'We captured Harith, but he said, 'I came only to become a Muslim. Ghalib replied, 'If you have come as a Muslim, it will not harm you to be bound for a day. If you have come for another purpose, we shall be safe from you.' So he secured him with rope and left a little black man in charge, saying, 'If he gives you any trouble, cut off his head.'"
Tabari VIII:140 "We continued on until we came to the bottomland of Kadid and halted toward evening, after the mid-afternoon prayer. My companions sent me out as a scout. I went to a hill that gave me a view of the settlement and lay face down on the ground. One of their men looked and saw others lying with me on the hill. He said to his wife, 'I see something. Let's see what the dogs have dragged away.' She wasn't missing anything so he asked her for his bow and arrows. He shot twice and hit my side and shoulder, but I did not move. He said, 'If it were a living thing it would have moved.'"
Proving that the religion corrupted the terrorists rather than the other way around: Tabari VIII:141 "We gave them some time until their herds had come back from pasture. After they had milked their camels and set them out to rest, we launched our raid. We killed some of them, drove away their camels, and set out to return. Meanwhile, the people appealed for aid from the rest of their tribe. But we moved quickly. When we passed Harith [the man they had bound on the way to the raid], we grabbed him. Reinforced, the villagers were too powerful for us. But Allah sent clouds from out of the blue, and there was a torrent that no one could cross so we eluded the tribesmen with what we had taken. The battle cry of the Companions of the Messenger of Allah that night was: 'Kill! Kill! Kill!'" If this were the only Hadith in all of Islam it would be sufficient to prove that Muhammad's scam was responsible for manufacturing terrorists. But it does not stand alone. It is but one of a thousand confirmations shouting out to all who will listen: Islam causes men to: "Kill! Kill! Kill!"
Moving to the next Hadith, we find Muhammad sending another letter. Tabari VIII:142 "Whoever prays our prayer, eats of our sacrifice, and turns to our Qiblah is a Muslim. Incumbent on whoever refuses is the payment of the jizyah tax." It was all about the money. If you surrender, you pay the zakat. If you don't submit you pay the jizyah. But either way you pay the piper.
Tabari VIII:142 "The Messenger made peace with them on condition that the Zoroastrians should be required to pay the jizyah tax [so onerous, it's akin to economic suicide] that one should not marry their women. The Prophet exacted the zakat tax on the wealth of the two men who [said that they] believed in him and collected the jizyah from all of the Zoroastrians." Khadija's Profitable Prophet Plan was paying dividends.
Tabari VIII:143 "In this year a twenty-four man raiding party led by Shuja went to the Banu Amir. He launched a raid on them and took camels and sheep. The shares of booty came to fifteen camels for each man. Also a raid led by Amr went to Dhat. He set out with fifteen men. He encountered a large force whom he summoned to Islam. They refused to respond so he killed all of them." I do believe that Allah lied in the 2nd surah when he said: Qur'an 2:256 "There is no compulsion in the matter of religion."
Consistent with the Qur'anic mantra, the Hadith confirms that Islam was about obedience to Muhammad. Tabari VIII:145 "The Prophet said, 'Amr, swear allegiance; for acceptance of Islam cuts off what went before.' So I swore allegiance to him."
Following this brief "religious" interlude, the Hadith returns to the never-ending saga of terrorist raids. Tabari VIII:146 "The Prophet sent Amr to Salasil with 300 men. The mother of As was a woman from Quda'ah. It has been reported that the Messenger wanted to win them over by that. Amr asked for reinforcements from the Ansar and Emigrants including Bakr and Umar with 200 more men." While it's not clear what happened in Salasil, we soon find the same gang heading for Khabat. Tabari VIII:147 "During the expedition they suffered such severe dearth and distress that they divided up the dates by number. For three months they ate leaves from trees."
Naturally, that leads us to another raid, this one for sex. Tabari VIII:149 "Abdallah married a woman but couldn't afford the nuptial gift. He came to the Prophet and asked for his assistance." But the miserly warlord said, "I have nothing with which to help you." So our love starved Muslim accepted a summons from his prophet: "'Go out and spy on the Jusham tribe.' he asked. He gave me an emaciated camel and a companion. We set out armed with arrows and swords. We approached the encampment and hid ourselves. I told my companion, 'If you hear me shout Allahu Akbar and see me attack, you should shout Allah is Greatest and join the fighting.'"
Prophet of Doom


2 comments:

  1. अगर तुम सही हो और इस्लाम गलत, तो जहां तुम जाओगे वहीं मुसलमान भी जाएगा. लेकिन अगर तुम गलत हुए और मुसलमान सही तो मरने के बाद अपना अंजाम सोच लो. हो सकता है इस्लाम के बारे में कुछ न कहने वाला नास्तिक नरक से जाने से बच जाए लेकिन तुम.....

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  2. मामा के अनुवाद को चाचा albedar के तरीके पे दे रहे हो, इस्‍लाम ऐसा होता तो आज 53 मुस्लिम देशों में इसके झण्‍डे और दुनिया का हर चौथा इन्सान- मुसलमान नहीं होता, आओ

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    विचार करें कि मुहम्मद सल्ल. कल्कि व अंतिम अवतार और बैद्ध मैत्रे, अंतिम ऋषि
    (इसाई) यहूदीयों के भी आखरी संदेष्‍टा? हैं या यह big Game against Islam है?
    antimawtar.blogspot.com (Rank-2 Blog) डायरेक्‍ट लिंक

    अल्‍लाह का चैलेंज पूरी मानव-जाति को

    अल्‍लाह का चैलेंज है कि कुरआन में कोई रद्दोबदल नहीं कर सकता

    अल्‍लाह का चैलेंजः कुरआन में विरोधाभास नहीं

    अल्‍लाह का चैलेंजः आसमानी पुस्‍तक केवल चार

    अल्‍लाह का चैलेंज वैज्ञानिकों को सृष्टि रचना बारे में

    अल्‍लाह का चैलेंज: यहूदियों (इसराईलियों) को कभी शांति नहीं मिलेगी

    छ अल्लाह के चैलेंज सहित अनेक इस्‍लामिक पुस्‍तकें
    islaminhindi.blogspot.com (Rank-2 Blog)
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