Sunday, 31 January 2010

क़ुरअन - सूरह - एराफ -७


सूरह अलएराफ़ ७ -आठवाँ पारा
The Elevated Places7-
E

''ऐ मिटटी के जन्मो! तुम से यकीनी तौर पर कह रहा हूँ - - तमाम इंसानों में सब से ज़्यादः फसादी वह शख्स है जो बैठे बैठे झगडे क़ायम करता रहता है और अपने भाई बंधुओं से आगे बढ़ जाने की तमन्नाएं रखता है. कह दो कि तुम्हारे अल्फ़ाज़ नहीं, तुम्हारे कर्म ही तुम्हारे मोक्ष करते हैं।''

बहा उल्लाह (बहाई धर्म)
इस्लाम से निष्काषित बागी बहाउल्लाह का मुहम्मद के पैगम्बरी और मुहम्मदी अल्लाह के क़ुरआन पर एक करारा तमाचा यह आयत है। जिसने दुन्या को बगैर किसी जेहाद और खून खराबे के, नई राह दी और सौ साल में ही अपना परचम नई दुन्या पर गाड़ दिया. यह संसार का आधुनिक तम धर्म है. दिल्ली का लोटस मंदिर इसी की निशान दही करता है.
चलिए क़ुरआन की अदभुत दुन्या की सैर करें. - - -

''और जब आप के रब ने बतला दी कि वह उन पर क़यामत तक ऐसे शख्स को ज़रूर मुसल्लत करता रहेगा जो उनको सज़ा ए शदीद की तकलीफ पहुंचता रहेगा. बिला शुबहा आप का रब वाकई जल्द ही सजा दे देता है और बिला शुबहा वह बड़ी मग्फेरात और बड़ी रहमत वाला है.''
सूरह अलेराफ ७ - ९वाँ आयत (१६७)
मुहम्मदी अल्लाह के परदे में खुद मुहम्मद है. वह लोगों को आगाह कर रहे हैं कि इस्लाम कुबूल करो वर्ना मैं तुमको सख्त सजा दूंगा. तलवार के जोर पर पैगम्बर बन जाने के बाद उन्हों ऐसा किया भी.
'' हमने दुनया में इसकी मुतफ़र्रिक जमाअतें कर दीं. बअज़े उनमें नेक और बअज़े और तरह के थे और हम उन को खुश हालियों और बद हालियों से आजमाते रहे कि शायद बअज़ आ जाएँगे. फिर उस के बाद ऐसे लोग उसके जानशीन रहे कि किताब को उन से हासिल किया. इस दुन्याए अदना का माल ओ मता हासिल कर लेते है और कहते हैं हमारी ज़रूर मग्फेरत हो जाएगी, हालांकि उनके पास ऐसा ही माल ओ माता आने लगे तो इस को ले लेते हैं. क्या उन से किताब का अहेद नहीं लिया गया कि अल्लाह की तरफ बजुज़ हक बात के और किसी बात की निस्बत न करें और उन्हों ने इस में जो कुछ था इसे पढ़ लिया और आखीर वाला घर इन लोगों के लिए बेहतर है जो परहेज़ रखते हैं, तो फिर क्या नहीं समझते. और जो लोग किताब के पाबन्द हैं और नमाज़ की पाबन्दी करते हैं, हम ऐसे लोगों का को जो अपनी इस्लाह खुद करें तो सवाब जाया न करेंगे. और जब पहाड़ को उठा कर छत की तरह इन के ऊपर कर दिया और इन को यकीन हो गया की अब उन पर गिरा , कुबूल करो जो किताब हमने उन को दी है और याद रखो जो एहकाम इस में हैं, जिस से तवक्को है कि तुम मुत्तकी बन जाओ,''
सूरह अलेराफ ७ - ९वाँ आयत (१७१-१६८
एक थे हादी बाबा, मैं जब भी क़ुरआन का तर्जुमा पढता हूँ तो ऐसी आयातों पर उनकी तस्वीर मेरे आँखों में तैर जाती है. वह सीधे सादे थे, क़लम किताब से उनको कभी वास्ता न रहा, खेत खलियान और मवेश्यों की देख भाल में उनकी ज़िन्दगी की कायनात महदूद थी. इन में कुछ ज़ेहनी खलल था. रात को हम लोग इनको लेकर कुछ मशगला किया करते, इनके ऊपर बाबा आया करते थे, जैसे कि लोगों पर शैतान, भूत और जिन्नात आते हैं. बस इन्हें पानी पर चढाने भर कि देर होती कि हादी बाबा हो जाते शुरू . उनके मुंह में जो भी आता बकते रहते मगर गाली गलौज नहीं न ही किसी को बुरा भला. उनकी धारा प्रवाह बक बक उस वक़्त तक ख़त्म न होती जब तक हम लोग उनको वापस पानी से उतार न लेते. इसी तरह पनयाने पर वह लम्बी लम्बी दौड़ भी लगा कर वापस आते. भरम था कि थकते नहीं. इसी भरम ने हादी बाबा की जान ले ली.
क़ुरआन में मुहम्मद की वज्दानी कैफियत में बकी गई बक बक हादी बाबा की बक बक जैसी ही होती है. जिन आयातों को मैं ने हाथ नहीं लगाया वह कुछ ऊपर जैसी ही होंगी. क़ुरआन की यह बक बक सियासत के दांव पेंच में आकर इबादत बन गईं हैं.
''क्या उनके पाँव हैं जिन से वह चलते हैं? या उनकी आँखें हैं जिन से वह देखते है? या उनके कान हैं जन से वह सुनते हों? आप कह दीजिए कि तुम अपने सब शुरका (सम्लितों) को बुला लो फिर मेरी ज़रर रेसनी (नुकसान पहुंचाने) की तदबीर करो, फिर मुझको ज़रा मोहलत मत दो. यकीनन मेरा मदद गार अल्लाह है जिस ने यह किताब नाज़िल फ़रमाई है. वह नेक बन्दों कि मदद करता है.''
सूरह अलेराफ ७ - ९वाँ आयत (195-९६)
यह जुमले मुहम्मद के निजी दावे हैं तो अल्लाह का कलम कैसे हो सकत है? खैर अभी तो अरबी बोलने वाले अल्लाह का ही पता नहीं। वैसे मुहम्मद का ये दावा खोखला है। अगर इनकी बातों में दम है तो रातों रात मक्का से मदीना चोरों कि तरह अपने साथी अबू बकर के साथ क्यूं भागे> गारे हरा में दिन भर डर के मारे क्यूं दुबके पड़े रहे? जंगे उहद में सिकश्ते फ़ाश के बाद नाम पुकारने पर पिछली कतार में खामोश बे ईमान फौजी सिपाही बने खड़े रहे. कहीं पर अल्लाह की मदद इनको मयस्सर क्यूं न थी?

निसार ''निसार-उल-ईमान''






Friday, 29 January 2010

क़ुरआन - सूरह एराफ - ७


सूरह अलएराफ़ ७ -आठवाँ पारा

The Elevated Places7-

C

धर्मो की स्थापना बहुधा दो अवस्था में होती है, या तो इसका नियुकता इसकी अलामतों से बे खबर स्वर्ग सिधार जाए, संसार बाद में उसके महत्त्व को समझ कर उसको यादगार बना सके. दुसरे वह जो अपनी ज़िन्दगी में ही अपने को पैगम्बर या भगवान आदि स्थापित करने के लिए पापड़ बेलते हैं. इसकी दो मिसालें हैं, गांधी जी जो कहते थे कि लोग मुझे महात्मा क्यूँ कहते हैं? दूसरे मुहम्मद जो मुहम्मदुर रसूल अल्लाह ''यानी मुहम्मद अल्लाह के दूत'' हैं, कहलाते थे. मुहम्मदुर रसूल अल्लाह कहला कर ही लोगों को वह मुसलमान बनाते थे. मुहम्मदुर रसूल अल्लाह न कहने वाले पर जज्या का जुर्माना वसूलते थे या फिर उसका सर कलम करते थे.
अब देखिए क़ुरआन में मुहम्मद का गढ़ा हुआ अल्लाह क्या कहता है - - -

''और ज़मीन में बाद इसके कि कुछ दुरुस्ती कर दी गई , फसाद मत फैलाओ. ये तुम्हारे लिए नाफे है.''
अलएराफ़ ७ -आठवाँ पारा आयत (८५)
मज़हबी फसाद फ़ैलाने वाला मुहम्मदी अल्लाह बन्दों से कह रहा है कि फसाद मत फैलाओ, है न जबरा मारे रोवे न देय.
नावें पारे में अल्लाह शोएब का बाब खोलता है. बागी शोएब को बस्ती वाले अपने आबाई मज़हब पर वापस आने के लिए ज़ोर डालते हैं और शोएब इन लोगों से अल्लाह की पनाह में आने की दावत देते हैं(जैसे मुहम्मद की आप बीती है) बस्ती के काफिरों के सरदार सरकशी करते हैं तो एक ज़लज़ला आ जाता है और सब अपने अपने घरों में औंधे मुंह गिर पड़ते हैं. पैगम्बर शोएब नाराज़ होकर बस्ती से मुंह मोड़ कर चले जाते हैं कि काफिरों के लिए मैं क्यूं रंज करून. फिर अल्लाह ने वहां किसी नबी को नहीं भेजा. सब तकज़ीब करने वाले मुहताजी और बदहाली में पड़ गए और ढीले हो गए.
मुहम्मद क़ुरान में इस किस्म की कई कहानियां मक्का के कबीलाई सरदारों के लिए गढ़े हुए हैं.
''हाँ! तो क्या अल्लाह की इस पकड़ से बे फ़िक्र हो गए? अल्लाह की पकड़ बजुज़ इसके जिसकी शामत आ गई हो कोई बे फ़िक्र नहीं सकता और इन रहने वालों के बाद ज़मीन पर, बजाए इन के ज़मीन पर रहते हैं, क्या इन को ये बात नहीं बतलाई कि अगर हम चाहते तो इनको इनके जरायम के सबब हलाक कर डालते और हम इन के दिलों पर बंद लगाए हुए हैं, इस से वह सुनते नहीं.''
अलएराफ़ ७ -नवाँ पारा आयत (८८-१००)
इन १३ आयातों में ऐसी ही बहकी बहकी बातें हैं जिसे मुहम्मद ने न जाने नशे (जब कि शराब हलाल थी) में,वज्द, या दीवानगी के आलम में बकी है. हराम जादे ओलिमा ने इनमें ब्रेकेट लगा लगा कर अपने हिसाब से मानी और मतलब भरा है. मुहम्मद ने ऐसे बे वकूफ अल्लाह का खाका पेश कर के उस नामालूम हस्ती कि मिटटी पिलीद की है.
*अल्लाह, फिरौन और मूसा की कहानी एक बार फिर दोहराता है.( इन्हीं बातों के अलावा कुरआन में कुछ है भी नहीं.) जो कि किसी तौरेत के जानकार के मशविरे से मुहम्मद ने गाढ़ी है. कभी कभी जानकारी देने वाले मुहम्मद को चूतिया बना देते है और नाज़िल शुदा आयत मौक़ूफ हो जाया करती है. मुहम्मद अपनी तमाम सीमा पार करते हुए अल्लाह से कलाम कराते हैं कि मूसा और फिरौन के जादू गरों में जब मुकाबला होता है तो फिरौन के हारे हुए जादूगर इस्लाम कुबूल कर लेते हैं. खुराफाती आयातों में पकड़ने कि ज़लील तरीन बात यही है कि फिरौन के दरबार में यहूदी मूसा का मुकाबिला और हज़ारों साल बाद पैदा होने वाले मुहम्मद की दीवानगी की फतह.
अलएराफ़ ७ -नवाँ पारा आयत (१०२-१५६)
''जो लोग ऐसे रसूल उम्मी की पैरवी करते हैं जिन को कि वह अपने पास तौरेत , इंजील में लिखा पते हैं कि वह उनको नेक बातों का हुक्म फ़रमाते हैं और बुरी बातों से मना फरमाते हैं और पाकीज़ा चीजों को हलाल फ़रमाते हैं और गन्दी चीजों को उन पर हराम फरमाते हैं - - - सो जो लोग उन पर ईमान लाते हैं और उनकी हिमायत करते हैं और उनकी मदद करते हैं और उस नूर की पैरवी करते हैं जो उनके साथ भेजा गया है , ऐसे लोग पूरी फलाह पाने वाले हैं''
अलएराफ़ ७ -नवाँ पारा आयत (१५७)
मुहम्मद खुद बतला रहे हैं कि जो लोग ऐसे अनपढ़ पैगम्बर कि बात मानते है जो बातें बतला न रहा हो बल्कि ''फरमा'' रहा हो। जो अपने जैसे अनपढ़ों को समझा रहा है कि उसका ज़िक्र तौरेत आर इंजील में है और उसके ज़ालिम जेहादी तलवार से समझा रहे हों कि पैगाबर सच बोल रहा है और अय्यार ओलिमा क़तार दर क़तार इसकी सदाक़त की तस्दीक कर रहे हों तो आज कौन उसको झुटला सकता है। हालाँकि झूट उनके सामने खुला रखा हुवा है। कितना बड़ा सनेहा है कि झूट पर ईमान लाया जाए.
*मुहम्मदी अल्लाह नबियों के किस्से कहानियों मेंफंसे हुए लोगों को बतलाता है कि उसने क़दीम क़बीलों पर कैसे कैसे ज़ुल्म ढाए.
मुहम्मद जैसा ज़ालिम पैगम्बर बना मुखिया अगर नाकाम होता तो बद दुआ देने की धमकी देता. खुद मुहम्मद ने कई बार इसका सहारा लिया.. कहते है - - - ''शोएब अलैहिस सलाम की उम्मत पर तीन मर्तबा अल्लाह ने कहर ढाया'' गोया मुहम्मद धमकाते हैं सुधर जाओ वर्ना तुम्हारा भी यही हाल होगा। चालाक. मुहम्मद ने जिस तरह खुद को अल्लाह का रसूल बना लिया था उसी तरह पहले अपने क़बीले को अपनी उम्मत बनाया और कामयाब होने के बाद पूरे अरब को अपनी उम्मत बना लिया. उनके बाद माले गनीमत के घिनाओने हरबे से दुन्या के तमाम आबादी का एक हिस्सा उम्मते मोहम्मदी बन गई जो झूटे पैगम्बर के झूट के चलते आज रुस्वाए ज़माना है.
*सूरह बहुत देर तक मुहम्मद साख्ता पैगम्बर शोएब के कन्धों पर चलती है. जिसमें न तो उनकी जीवनी है न ही उनकी जीवन की कोई घटना. बस मुहम्मद ने जिस किसी का नाम समाजी पासे मंज़र में सुन रख था, उसको लेकर कहानी गढ़ दी. उनकी तवारीख जानना हो तो अंग्रेजी हिस्टिरी को खंगालना पड़ेगा. मगर मुसलामानों को तो क़ुरानी तवारीख ही काफी है जिसकी गवाही अल्लाह दे रहा है.
तमाम क़ुरआन की कहानियां, वाकेआत, मुअज्ज़े मुहम्मद की वक्फा ए पयंबरी की कोशिशों के हिसाब से गढ़े हुए हैं. खुद क़ुरआन हदीस, तारीख ए इस्लाम को गहराई से मुतलेआ किया जाए तो यह नतीजा सामने आ जाता है.
आखीर में मूसा के मार्फ़त क़ुरआन चलता है. मुहम्मद पर लगा इलज़ाम बतलाता है कि मुहम्मद के पास कोई यहूदी मुखबिर था जो यहूदयत और मूसा की टूटी फूटी मालूमात उन्हें देता था वह जगह जगह क़ुरआन में इसे जड़ देते थे और अल्लाह को इसका गवाह अना देते.
* मेरी तहरीर में तौरेत और यहूदयत का बार बार हवाला शायद कुछ लोगों को खटक रहा हो, मालूम होना चाहिए कि अगर क़ुरआन से इसे ख़ारिज कर दिया जाए तो इसकी बुन्याद खिसक जाए. क़ुरआन खुद तस्लीम करता है, इस्लाम को दीन ए इब्राहिमी कह के, जब कि अब्राहम ही यहूदयों के के आबा ओ अजदाद की पहली कड़ी हैं. यहूदी इस्माइलियों को (जिस में मुहम्मद हैं) इस लिए अपने से कम तर मानते हैं कि वह अब्राहम की मिसरी लौंडी हाजरा की औलाद हैं, जिसे सारा के कहने पर अपनी रखैल तो बना लिय था मगर बाद में बीवी सारा के कहने ही उसे पर घर से निकल दिया था.
यह दुन्या के तमाम मुसलमानों के साथ गायबाना सानेहा है कि इन की जड़ें जुगराफियाई एतबार से अपने ही चमनों से कटी हुई हैं. वह न इधर के रहे न उधर के. मियाम्नार ने जो की बुद्धिष्ट हैं, अपने यहाँ से मुसलामानों को निकाल बाहर किया है क्यूँ कि वह बर्मी होते हुए भी कौमी धारे में शामिल न रह कर अलग थलग कनारे गढ़े में रुके हुए पानी की तरह थे जो कि तअफ्फुन पैदा कर रहे थे. तरक्की पज़ीर बर्मियों में धर्म दाल में नमक की तरह बचा है और मुसलामानों में इस्लाम दाल की जगह नमक की तरह है, वह कहीं भी क्यों न हों.वह पहले मुसलमान होते हैं उसके बाद बर्मी,हिदुस्तानी या चीनी. यही वजह है कि इन को हर गैर मुस्लिम मुल्क में शक की निगाह से देखा जाता है जो हक बजानिब है.
''आप कह दीजिए - - - लोगो! मैं तुम सब की तरफ उस अल्लाह का भेजा हुवा हूँ जिसकी बादशाही है तमाम आसमानों और ज़मीन पर है - - - अल्लाह पर ईमान लाओ और नबी उम्मी पर जो अल्लाह और उसके एह्कम पर ईमान रखते हैं''
अलएराफ़ ७ -नवाँ पारा आयत (१५८)
लोगों को अल्लाह का इल्म भली भांत था जिसे वह मानते थे मगर जनाब उसकी तरफ से नकली दूत बन कर सवार हो, वह भी उम्मी. तायाफ़ के हुक्मरां ने ठीक ही कहा थ कि क्या अल्लाह को मक्का में कोई पढ़ा लिखा ढंग का आदमी नहीं मिला था जिसे अपना रसूल बनता और रुसवा करके उसके दरबार से निकले. अल्लाह ने तुम्हारी कोई खबर न ली. जाहिलों को लूट मार का सबक सिखला कर कामयाब हुए तो किया हुए.
'' - - - औरिन लोगों को जो ज्यादती करते थे एक सख्त अज़ाब में पकड़ लिया बवाजेह इसके कि वह बे हुकमी किया करते थे यानी जब उनको जिस काम से मना किया जाता थ तो उस में वह हद से निकल गए तो हम ने उन को कह दिया की तुम बन्दर ज़लील बन जाओ.''
अलएराफ़ ७ -नवाँ पारा आयत (१६६)
ऐ अल्लाह के बन्दों ! ऐ भोले भाले मुसलमानों ! अगर तुम इस पैगम्बरी जेहालत से बागी होकर इल्म जदीद की तरफ रागिब हो जाओ तो बेहतर होगा कि यह तुम को ज़लील बन्दर बना दे. तुमहारे लिए दावते फ़िक्र यह है कि समझो, अपने फेल से सिर्फ इंसान ही ज़लील और अज़ीम होता है, बाक़ी तमाम मखलूक अपनी फितरत और अपनी खसलत के एतबार से हुआ करती हुआ करती हैं. इंसान को इंसानियत की राह से हटा कर दुश्मने इंसानियात बनाने वाला खुद ज़लील बंदर हो सकता है.

निसार ''निसार-उल-ईमान''
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ऐतिहासिक सत्य में क़ुरआन की हक़ीक़त
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It's stunning to the point of agony that a billion people, through seduction, indoctrination, and compulsion, have been led to believe that these hateful words are God's. Yet while stunning, it's not baffling. All Muhammad had to do was to convince fifty well-armed fools. While it took him ten years, it shouldn't have been hard. Mecca was a town of five thousand. All but a handful were illiterate. Steeped in pagan superstition, already believing in the pagan idol of the Ka'aba, the young and the rebellious, the poor and the destitute, were ripe for the picking.
The seventh surah is one of many that ties Islam to terror. It began, as you may recall, with Allah launching a blitzkrieg attack on some unsuspecting townsfolk. His line, "Our terror came unto them while they slept," was chilling. We covered the first half of this revelation in the third chapter as it devolved into a disturbing conversation between Allah, Satan, and Adam. Now it's time to jump back in where we left off. Qur'an 7:39 "The first will say to the last: 'See there! No advantage have you over us; so taste the torment you have earned.' To those who reject Our signs and deny Our revelations, treating them with arrogance, no opening will there be of the gates of the Garden of Bliss, until the camel can pass through the eye of the needle. Such is our reward for the guilty. They shall have a bed on the floor of Hell and coverings of fire; this is how We reward them." The Qur'an may be the only book that is more racist, hateful, and violent than Mein Kampf. Hitler gave six million Jews a bed of fire. Muhammad's dark spirit could have been his inspiration.
To help us understand these verses, the Noble Qur'an adds: "The Jews were ordered in the Torah to follow Prophet Muhammad." It references Qur'an 7:157: "Those who follow the Messenger (Muhammad), the Prophet who can neither read nor write whom they find written in the Torah (Deuteronomy 18:15) and the Gospel (John 14:16); he commands them to Islam." We've been through this drill before. While Team Islam couldn't read, I can. And I assure you that no Arab was called a prophet, and no man was called a messenger. But he was right in a way. When the Bible spoke of Satan, it said that he would use prostration, taxation, terror, a new gospel, and a boastful false prophet to deceive mankind.
Prophet of Doom

Tuesday, 26 January 2010

क़ुरआन -सूरह एराफ -७


सूरह अलएराफ़ ७ -आठवाँ पारा
The Elevated Places
7-B

मैं एक नास्तिक हूँ . दर असल नास्तिकता संसार का सब से बड़ा धर्म होता है और धर्म की बात ये है कि यह बहुत ही कठोर होता है, क्यूंकि यह उरियाँ सदाक़त अर्थात नग्न सत्य होता है. आम तौर पर नग्नता सब को बुरी लगती है मगर परिधान बहर हाल दिखावा है, असत्य है. अगरपरिधान सर्दी गर्मी से बचने के लिए हो तो ठीक है अन्यथा झूट को छुपाने के सिवा कुछ भी नहीं.. श्रृंगार कुछ भी हो बहर हाल वास्तविकता की पर्दा पोशी मात्र है. शरीर की हद तक - - इसके विरोध में आपत्तियाँ गवारा हैं मगर विचारों का श्रृगार बहार सूरत अधर्म है। यह तथा कथित धर्म एवं मज़हब विचारों की सच्ची उड़ान में टोटका के रूप में बाधा बन जाते हैं और मानव को मानवीय मंजिल तक पहुँचने ही नहीं देते, कुरआन इस वैचारिक परवाज़ को शैतानी वुस्वुसा कहता है। अगर मुहम्मद के गढे अल्लाह पर विचार उसकी कारगुजारी के बाबत की जाए तो उस वक़्त यह बात पाप हो जाती है , इस स्टेज तक विचार के परवाज़ को शैतान का अमल गुमराह करना और गुमराह होना बतलाया जाता है और इस के बाद पराश्चित करनी पड़ती है. इसके लिए किसी मोलवी, मुल्ला के पास जाना पड़ता है जिनके हाथों में मुसलामानों की लगाम है. जहाँ विचार की सीमा को लांघने पर ही पाबंदी हो वहां किसी विषय में शिखर छूना संभव ही नहीं. परिणाम स्वरूप कोई मुसलमान आज तक डेढ़ हज़ार साल होने को है किसी नए ईजाद का आविष्कारक नहीं किया. ईमान दार बुद्धि जीवी तक नहीं हो पाते। जब आप अपने लिए या अपने परिवार, अपने वर्ग, अपने कौम या यहाँ तक कि अपने देश के लिए ही क्यों न हो असत्य को श्रृंगारित करते हैं, तो ये पाप जैसा है..
मैं इस्लाम की ज़्यादः हिस्सा बातों का विरोध करता हूँ, इसका मतलब यह नहीं कि बाक़ी धर्मों में बुराइयाँ नहीं. एक हिदू मित्र की बात मुझे साल गई कि '' आप मुसलामानों के लिए जो कर रहे हैं, सराहनीय है परन्तु अपने सीमा में ही रहें , हमारे यहाँ समाज सुधारक बहुतेरे हो चुके है.'' ठीक ही कहा उन्हों ने. वह हिन्दू है, अगर जबरन मुझे भी मुसलमान समझें तो आश्चर्य की बात नहीं क्यूंकि वह हिन्दू हैं. मैं सीमित हो गया क्यूंकि मुसलमानों में पैदा होना मेरी बे बसी थी ,एक तरह से अच्छा ही हुआ कि मुसलामानों की अनचाही सेवा कर रहा हूँ। वह कुछ फ़ायदा उठा सके तो हमारे दुसरे मानव भाई भी लाभान्वितहोंगे .
आइए चलें कुरआनी आयतों में जो मानव जाति के लिए अभिशोप बनी हुई हैं - - -

अल्लाह बार बार आदम की औलादों को तालीम देता है कि हमने तुम्हारे लिए ज़मीन पर तन ढकने के लिए लिबास पैदा किया, शैतान के बहकाने में कभी मत आना जिसने तुम्हारे दादी दादा को बहका कर उरियाँ कर दिया था। उस वक़्त के आदम के नाती पोतों को मुहम्मद अपनी रिसालत पर ईमान लाने का प्रचार करते हैं जब न करघा न रूई सिवाए जन्नत के पत्तों के। कहते हैं कि
''ऐ आदम की औलादों! तुम मस्जिद की हर हाज़री के वक़्त अपना लिबास पहेन कर जाया करो'' गोया ज़मीन पर आते ही आदम की औलादों ने कपडा बुनना, सीना पिरोना शुरू कर दिया था.

फरमाते हैं - - - '' ऐ औलादे आदम ! अगर तुम्हारे पास पैगम्बर आवें जो तुम में से ही होंगे, जो मेरे ही एह्काम तुम से बयान करेंगे, सो जो शख्स परहेज़ और दोस्ती करे सो इन लोगों पर कुछ अंदेशा नहीं. हम इसी तरह तमाम आयात को समझदारों के लिए साफ़ साफ़ बयान करते हैं.''
सो मुहम्मद आदम के औलादों के अव्वलीन मोलवी बन्ने में कोई शरम महसूस नहीं करते न ही मुसलामानों को घास चराने में. वह आदम की औलाद हबील काबील को समझाते हैं कि हमारी इन मकर आलूद आयातों को झुटलाओगे तो जहन्नम रसीदा हो जाओगे. बच्चों का अंध विशवास जवान होते होते टूट जाता है मगर जवान जब आस्था का घुट पी लेता है तो उसका अंध विशवास तभी टूटता है जब सदाक़त मौत बन कर सामने कड़ी होती है.
अलएराफ़ ७ -आठवाँ पारा आयत (२५-३९)
''अल्लाह की आयातों को झुटलाने वाले लोग कभी भी जन्नत में न जावेंगे जब तक कि ऊँट सूई के नाके से न निकल जाए.''
अलएराफ़ ७ -आठवाँ पारा आयत (४०)
''ऊँट सूई के नाके से निकल सकता है मगर दौलत मंद जन्नत में कभी दाखिल नहीं हो सकता'' ईसा की नकल में मुहम्मद की कितनी फूहड़ मिसाल है जहाँ अक्ल का कोई नामो निशान नहीं है.शर्म तुम को मगर नहीं आती. मुसलमानों तुम ही अपने अन्दर थोड़ी गैरत लाओ.
ईसा कहता है - - - ''ऐ अंधे दीनी रहनुमाओं! तुम ढोंगी हो, मच्छर को तो छान कर पीते हो और ऊँट को निगल जाते हो.'' मुवाज़ना करें मुस्लिम अपने कठमुल्ल्ले सललललाहो अलैहे वसल्लम को शराब में तुन रहने वाले ईसा से.
तौरेत की भोंडी पैरवी करते हुए मुहम्मदी अल्लाह बतलाता है कि उसने दुन्या छ दिन में बनाई और सातवें रोज़ आसमान पर जा बैठा. दूसरी तरफ वह कहता है कि वह बड़े से बड़े काम के लिए 'कुन' भर कहता है और काम हो जाता है, छ दिन दुन्या में झक मरने की क्या ज़रुरत थी या तो यह 'कुन फयकून' मुहम्मद की गढ़ंत. है ये अकली तज़ाद है
''और इन के लिए दोज़ख का बिछौना होगा और उसके ऊपर ओढना होगा और हम ऐसे जालिमों को ऐसी सज़ा देते हैं.''
सूरह अलएराफ़ ७ -आठवाँ पारा आयत (४१)
वाह अल्लाह मियाँ ! ज़ुल्म खुद करते हो और मजलूम को ज़ालिम कहते हो?
''सब दीनी कामों में मसरूफ है, अल्लाह भारी भारी बादलों को हवाओं के हवाले करता है जो इन्हीं लुड्कती हुई खुश्क बस्तियों तक ले जाती हैं''
अलएराफ़ ७ -आठवाँ पारा आयत (४२)
हवाओं और बादलों का दीनी काम मुलाहिजा हो. जब यही हवाएं और बादल तूफ़ान और तबाही की शक्ल अख्तियार कर लेते है तो इन को कैसा काम कहा जाए? मुहम्मद फितरत के राज़ से गाफ़िल और हवा में तीर चलाने में माहिर, मोलवियों को निशाना दिया है कि नादान मुसलामानों का शिकार करो.
* मुहम्मदी अल्लाह अपने लाल बुझक्कड़ी दिमाग की परवाज़ भरते हुए औलादे नूह, आद, हूद, सालेह वागैरा की इबरत नाक कहानी छेड़ देता हैजो कि पैगम्बर के हक में हो और साथ साथ इस किस्म की बातें - - -
''गरज कि उन्हों ने उस ऊट्नी को मार डाला और अपने परवर दिगार के हुक्म से सरकशी कीऔर कहने लगे की ऐ सालेह ! जैसा कि आप हम को धमकी देते थे इसको मंगवाएं अगर पैगम्बर हों. पस आ पकड़ा इनको ज़लज़ले ने, सो अपने घरों में औंधे के औंधे पड़े रह गए. उस वक़्त वह उन से मुंह मोड़ कर चले कि ऐ मेरी कौम ! मैं ने तो तुम को अपने परवर दिगार का हुक्मपहुँचा दिया था.''
अलएराफ़ ७ -आठवाँ पारा आयत (८८-८९)
गौर तलब है कि कैसा चरवाहा नुमा अल्लाह रहा होगा जिसने किसी ऊंटनी को आवारह बना कर छोड़ दिया होगा और इंसानों को इसे पकड़ने से मना कर दिया होगा. मगर उस ज़माने के गिद्ध नुमा इंसानों ने उसे दबोच कर खा लिया होगा. इस किस्से के पसे मंज़र में कोई पौराणिक कथा या वाकआ होग़ जो मुहम्मद के कानों में पड़ा होगा और वह कुरआनी आयत बन गया . qur आन ऐ हकीम यानी हिकमत वाला कुरआन . मुसलमान आँख खोल कर अल्लाह की हिकमत को देखें.
अल्लाह की छोड़ी हुई ऊंटनी को कौम के सरकश लोग मार डालते हैं और मुन्ताकिम मुहम्मदी अल्लाह खित्ते में ज़लज़ला बरपा कर देता है जिसके अज़ाब से सारी कौम तबाह हो जाती है जिसमें साहिबे ईमान भी होते है और बे इमान भी.. मुहम्मद की कुरआनी चूल कहीं से भी तो फिट बैठे.
''और हम ने लूत को भेजा जब उन्हों ने अपने कौम से फरमाया क्या तुम ऐसा फहश काम करते हो कि जिसको तुम से पहले किसी ने दुन्या जहान वालों ने न किया हो? तुम मर्दों के साथ शहवत रानी करते हो, औरतों को छोड़ कर, बल्कि तुम हद से ही गुज़र गए हो.''
अलएराफ़ ७ -आठवाँ पारा आयत (८१)
बाबा इब्राहिम के भतीजे लूत (लोट) के इतिहास में मुहम्मद को सिर्फ यही गलत वाकेआ मालूम है जब कि इंजील कहती है कि लूत एक ऐसी बस्ती में रात भर के लिए मेहमान हुए थे जहां लोग समलैंगिक थे और लूत को भी शिकार बनाने के लिए बज़िद थे. मुहम्मद ने चरवाहे लूतकी उम्मत भी गढ़ दी और उम्मत को समलैंगिक करार दे दिया.
मुसलामानों! इस तरह से तारीखी वाकेआत को एक अनपढ़ ने तोड़ मरोड़ कर अपनी पैगम्बरी के लिए कुरआन को गढ़ा है।

निसार ''निसार-उल-ईमान''
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ऐतिहासिक सत्य में क़ुरआन की हक़ीक़त

Allah continued: "'On earth will be your dwelling place and your means of livelihood for a time.' He [third person, singular] said: "Therein shall you live, and therein shall you die, and from it shall you be raised. O children of Adam. [How did they get kids so fast?] We [first person plural] have sent clothing down to you to cover your shame, and for beauty and clothing that guards against evil. This is of the communications of Allah [now third person singular].'" Why did they need clothes to guard against evil? If their lusts carried them away - with whom were they going to be adulterous?
An interesting sidebar on the first kids comes to us in this Tradition: Tabari I:321 "When Eve became heavy with her first pregnancy, Satan came to her before she gave birth and said, 'Eve, what is that in your womb.' She said, 'I do not know.' He asked, 'Where will it come out from - your nose, your eye, or your ear.' She replied, 'I do not know.' He said, 'Don't you think, if it comes out healthy, you should obey me in whatever I command you?' When she said, 'Yes.' he said: 'Name him Abd al-Harith Iblis - Slave to the cursed.' She agreed." Believable dialog, don't you think? Just the kind of foundation you'd expect to underpin a great religion. "Adam said to him [Iblis/Lucifer], 'I obeyed you once before and you caused me to be driven out of Paradise.' So he refused to obey him and called the child Abd Ar-Rahman."
Ar-Rahman was the name of Muhammad's first "god." The 55th surah, named in Ar-Rahman's honor, begins: "Ar-Rahman bestowed the Qur'an, created man, and taught him to express clearly. The sun and moon revolve to his computation and the grasses and the trees bow to Him in adoration.... He created man." With multiple gods, Islam became pagan monotheism.
And with multiple truths, Islam is flawed revelation: Tabari I:275 "They ate from it and as a result their secret part that had been concealed became apparent." It hadn't been much of a marriage up to that point. But if that's true, how did they get kids? And why does the Islamic Tradition say: Tabari I:299 "It was the cover of fingernails that had kept their secret parts concealed."
Qur'an 7:27 "O you Children of Adam, let not Satan seduce you, in the same manner as he got your parents out of the Garden, making them disrobe, stripping them of their clothing, to expose their shame." Just six verses earlier, Adam was nude, sinned, and thus felt the need for clothing. He made his own, sewing together leaves. Then Allah sent down supernatural clothes from AlMart. Now we're told that Satan stripped them? "For he [Satan/Lucifer] and his tribe [of demons/jinn] watch you from a position where you cannot see them. We made the jinn friends of the unbelievers." So there you have it. Satan, Iblis, and jinn are all cut from the same cloth - all made of fire, all from the same tribe. These invisible evil spirits, or demons, lurk in the shadows ready to ambush men, deceiving them. Yet, as you shall discover in one of the most bizarre Qur'anic passages, these pesky demons think Muhammad and Allah are swell, calling them "Prophet" and "Lord." They are employed to authenticate the Qur'an.
Qur'an 7:30 "Some He has guided: as for others, error is their due. They deserve loss in that they took the devils instead of Allah for their friends and think that they are rightly guided." Qur'an 7:35 "Children of Adam, whenever messengers come from amongst you, rehearsing My [singular] signs and revelations to you, act rightly so that you have no fear, nor reason to grieve. But those who reject Our [plural] signs and scorn them with arrogance, they are inmates of the Fire forever." What messengers, what revelations? Allah is allegedly talking to Adam's kids. The first prophet and scripture wouldn't arrive for over two thousand years. The Islamic god had no concept of time. Worse, he couldn't even keep himself together, talking in first person singular and plural in the same verse. Somebody was very confused.
The second part of this passage is revealing. As we dig deeper into the Qur'an you'll find that the most repeated theme is: "reject Muhammad and you're toast." Although he tries a number of variants, his favorites twist Bible stories, as he has done here. Muhammad was referring to himself when he warned Adam's kids not to reject the "messenger among them."
Qur'an 7:37 "Who is more unjust: one who invents a lie against Allah or one who rejects His Signs? For such, their appointed destiny must reach them from when Our messengers of death arrive and take their souls. [These guys sound a little like Hitler's S.S.] They say: 'Now where is that to which you cried to beside Allah.' They will reply, 'They have left us in the lurch.'" There were no signs, no miracles, no proofs of any kind to confirm Muhammad's claim to being a prophet or the Qur'an's claim to being divinely inspired. The repetition of lies like this was just part of Muhammad's warped game. It's standard megalomaniac behavior. Tell a big enough lie, say it often enough, and enough will believe it for you to prevail.
Qur'an 7:38 "Allah's messengers of death will say: 'Enter the fire, join the company of men and jinn who passed away before you.' Every time a fresh group of people or nation enters, they curse those that went into the Fire before them. The most recent entrants into Hell ask: 'Lord, they led us astray, so give them a double torment in the Fire.' He will say: 'For each there is already a double dose of torment.... So taste the punishment.'"
Prophet of Doom

Sunday, 17 January 2010

क़ुरआन - सूरह - एराफ़ -७


सूरह अलएराफ़ ७ -आठवाँ पारा
The Elevated Places
7
मिन जुमला काफिर

''सअब इब्ने जुसामा कहते हैं कि एक बार मुहम्मद से पूछा गया कि शब खून (रात के हमलों) में अगर कुफ्फर के बच्चे या औरतें क़त्ल हो जाएँ तो हम पर इसका कोई गुनाह होगा या नहीं? (मुहम्मद ने) फ़रमाया काफ़िरों के बच्चे और औरतें मिन जुमला काफ़िर ही शुमार किए जाएंगे और फ़रमाया कि अहाता सिवाय अल्लाह और उसके रसूल के किसी दूसरे का नहीं''
(बुखारी १२४३)
इस्लामी बरबरियत का नमूना आज जो तालिबानी दुन्या के सामने पेश कर रहे हैं वह चौदह सौ साल पहले से जारी है जिसको इसके ज़ालिम पैगम्बर मुहम्मद ने ईजाद किया था. किसी भी धर्म, धर्म क्या अधर्म में भी जंग के ऐसे घिनाओने कानून क़ायदे नहीं होंगे. ऐसे काबिले नफरत हस्ती को पूजने वाले दुन्या की २०% आबादी अपने को मुसलमान कहलाने पर नाज़ करती है ।

मुसलमानों ! इस्लाम से तौबा करके इंसानियत की राह को अपनाओ , बड़ी ही आसान राह है जिस पर हमेशा बे खौफ़ ख़तर चला जा सकता है।
***


अब आइए मुहम्मदी अल्लाह की उम्मियत और इंसानियत सोज़ आयातों पर - - -
'अल्लमस''
सूरह अलएराफ़ ७ -आठवाँ पारा आयत (१)
यह एक अर्थ हीन शब्द है. मुहम्मद ने मदारियों और जोगियों की नकल में इस तरह के बहुत से शब्द कुरआन में गढ़े हैं. सूरह शुरू करने से पहले वह मंतर की तरह इन्हें पढ़ते हैं. मुल्लाओं ने इसको '' हुरूफे मुक़त्तेआत '' नाम दिया है. यह भी कोई एक आयत है, अल्लाह की कही हुई एक बात है, अल्लाह का पैगाम है।जिस का मतलब अल्लाह ही जनता है.
''यह एक किताब है जो आप के पास इस लिए भेजी गई है कि आप इस के ज़रिए से डराएँ, सो आप के दिल में इस से बिलकुल तंगी न होना चाहिए और यह नसीहत है ईमान वालों के वास्ते.''
''सूरह अलएराफ़ ७ -आठवाँ पारा आयत (२)
मुहम्मद का अभियान सब से बड़ा यह है कि लोगों को किताब में बखानी गई दोज़ख से डराओ, लोग डरने लगें तो उन पर क़ाबू पाकर, उनको मनमानी ढंग से इशारे पर नचाओ। डरपोकों को जन्नत की लालच भी दी गई है. इन्हीं दो मंत्रो से क़ाबू पाकर मुसलामानों को जंगी भट्टियों में झोका गया है.''आप के दिल में इस से बिलकुल तंगी न होना चाहिए'' ऐसे जुमले जो इजहारे ख़याल न कर पा रहे हों जाहिल मुहम्मद की मजबूरी थी जिसको ओलिमा ने '' अल्लाह के कहने का मतलब ये है '' लिख कर मुहम्मद की मदद की है।
'' और बहुत सी बस्तियों को हमने तबाह कर दिया है. और उन पर हमारा अज़ाब रात के वक़्त पहुंचा, या ऐसी हालत में दोपहर को जब वह आराम में थे. सो जिस वक़्त उन के ऊपर अज़ाब आया , उस वक़्त उन के मुंह से बजुज़ इस के कुछ भी न निकला कि वाकई हम ही ज़ालिम थे.''
''सूरह अलएराफ़ ७ -आठवाँ पारा आयत (४-५)
मुहम्मदी अल्लाह कैसा है? इंसानी बस्तियों का और इंसानों का मश्शाक शिकारी ? मुहम्मद अपनी हिकमते अमली अल्लाह के जुबानी कुरआन में बतला रहे हैं. वह खुद हमेशा सुब्ह तडके बस्तियों पर हमला करते थे जब लोग गहरी नींद में हों या सो कर उठ रहे हों, इसको उस अल्लाह का तरीका बतला रहे हैं जो बन्दों का खालिक और बाप की तरह है. मुहम्मद के लुटेरे हत्यारों के ज़ुल्म ढाने पर मुसलामानों की नादान नस्लें कहने लगी हैं कि वाकई हमारे पूर्वज ही ज़ालिम और काफ़िर थे।
*इस सूरह में मुहम्मद आदम, हव्वा और शैतान की मशहूर बाइबिल की कल्पना को अपने ढंग से पेश करते हैं. फारसी कहावत है कि झूटे की याद दाश्त बहुत कमज़ोर होती है, गरज मुहम्मद इन्जीली बातों को जितनी बार गढ़ते है, वह बदल जाती है, यहाँ मुहम्मद गढ़ते हैं कि शैतान को मरदूद और मातूब करके जन्नत से निकाल दिया जाता है, इस जुर्म पर कि वह माटी के माधव आदम को सजदा नहीं करता. इन्तेकामन वह आदम और हव्वा को जन्नत में भड़काने लगता है. सवाल यह उठता है कि जब अल्लाह ने उसको जन्नत से निकल दिया तो वह जन्नत में दाखिल कैसे हो पाता था?क्या मुहम्मदी अल्लाह के निज़ाम में इंसानी गफ़लत हुआ करती है? ऐसे सवाल जब अहले मक्का मुहम्मद के सामने उठाते तो वह इसे कुरान की सर्ताबी क़रार देते ।बहुत ही ढीट तबा थे मुहम्मद. अल्लाह से ज़बान दराज़ी करते हुए इब्लीस (बड़ा शैतान) कहता है - - -
'' मुझको मोहलत दीजिए क़यामत के दिन तक. फरमाया कि तुझ को मोहलत दी गई. वह कहने लगा बसबब इसके कि आप ने मुझ को गुमराह किया , मैं क़सम खाता हूँ कि मैं उनके लिए सीधी राह पर बैठूंगा, फिर उन पर हमला करूंगा, उनके आगे से भी, उनके पीछे से भी, उनके दाहिने से भी, उनके बाएँ जानिब से भी और आप उनमें से अक्सर एहसान मानने वाला न पाएँगे.''
''सूरह अलएराफ़ ७ -आठवाँ पारा आयत (१५-१६-१७)
अल्लाह की बातों में बे वज़नी मुलाहिज़ा हो. अपनी मादरी ज़बान में तर्जुमा करके इसे अपनी नमाज़ों में पढ़ कर देखिए. कुछ ही दिनों में खुद को पागल महसूस करने लगेंगे. या कम से कम परले दर्जे का बेवकूफ.
''अल्लाह ने फरमाया यहाँ से ज़लील ख्वार हो कर निकल. जो इन में से तेरा कहना मानेगा, मैं ज़रूर तुम सब को जहन्नम में भर दूंगा और ऐ आदम ! तुम और तुम्हारी बीवी जन्नत में रहो, फिर जिस जगह से चाहो दोनों आदमी खाओ और उस दरख्त के पास मत जाओ कभी कि उन लोगों में शुमार हो जाओगे कि जिंससे ना मुनासिब काम हो जाया करता है.''
''सूरह अलएराफ़ ७ -आठवाँ पारा आयत (१८-१९)
सृष्ट का रचैता अपने बनाए पहले आदमी से इस तरह बातें करता है, जब तक यह बाते यकीन और इबादत बनी रहेगी आदमी आदमी ही रहेगा, इंसान कभी नहीं बन सकता. यहूदी और ईसाई की अक्सरियत जाग चुकी है जो कि मुसलमान जैसी ही थी मगर मुसलमान इन बातों की अफीम पिए अभी भी ख़्वाबों कि जन्नत में सो रहा है जिसे कि मुहम्मद ने कस के घोट रखा है .
''फिर शैतान ने उन दोनों के दिलों में वुस्वुसा डाल दिया ताकि परदे का बदन जो एक दूसरे से पोशीदा था, दोनों के रूबरू बे पर्दा कर दे और कहने लगा तुम्हारे रब ने तुम दोनों को इस दरख़्त से और किसी सबब से मना नहीं फ़रमाया, मगर महेज़ इस वजेह से कि तुम दोनों कहीं फ़रिश्ते न हो जाओ या कहीं हमेशा जिंदा रहने वालों में न हो जाओ और इन दोनों के रूबरू क़सम खाई कि यकीन जानिए कि मैं आप दोनों का खैर ख्वाह हूँ. सो इन दोनों को फ़रेब के नीचे ले आया. पस जब इन दोनों ने दरख़्त को चखा तो दोनों का परदे का बदन एकदूसरे के सामने बे पर्दा हो गए, दोनों अपने ऊपर जन्नत के पत्ते जोड़ जोड़ कर रखने लगे और इनके रब ने इन को पुकारा ; - क्या तुम दोनों को इस दरख़्त से मुमानेअत न थी.''
'' - - - हक ताला ने फ़रमाया नीचे इसी हालत में उतर जाओ कि तुम बाहम बअज़े दूसरे बाहम बअजों के दुश्मन रहोगेऔर तुम्हारे वास्ते वहां ज़मीन में रहने की जगह है और नफ़ा हासिल करना एक वक्त तक - - -
'''सूरह अलएराफ़ ७ -आठवाँ पारा आयत (२०-२४)

हर नमाज़ी मुसलमान दिन में लगभग ४४ रेकअत नमाज पढता है, इनका सच्चा रहनुमा वह है जो इनको इनकी मादरी ज़बान में नमाज़ें पढवाए। एक रेकअत में तीन आयत पढ़ी जाती हैं, यह सब अगर वह अपनी मादरी ज़बान में पढ़े तो हमें यकीन हैकि एह दिन वह खुद सच्चाई की राह पर आ जाएगा.



निसार ''निसार-उल-ईमान''


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ऐतिहासिक सत्य में क़ुरआन की हक़ीक़त
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Muhammad, like his religion, was fixated on the flesh. According to the Qur'an, bodies were reassembled so that skin could be singed in hell and teased in paradise. Man's spirit was incidental. I believe this is because the religion was made in the prophet's image. It reflected his character and desires.
To appreciate Islam's elevation of body over soul, we must look at the source of his inspiration. Muhammad was right when he described the angel that visited him as a slave. Bukhari:V4B54N455 "So (Allah) conveyed the Inspiration to His slave (Gabriel) and then he (Gabriel) conveyed (it to Muhammad)." Angels, fallen or heavenly, demonic or godly, have no choice. To borrow another line from Islam, "They must submit and obey." Islam's dark spirit knew all about angelic submission, because he once was one: Qur'an 7:11 "It is We who created you and gave you shape; then We ordered the angels to fall and prostrate themselves to Adam."
The same passage goes on to correctly implicate Satan and suggest angels are eternal. Qur'an 7:19 "Satan...said: 'Your Lord only forbid you this tree, lest you should become angels, immortal, living forever.'"
We pick up the story of Islam's creation account where we left off, with Iblis, better known as Lucifer. I'm going to work the narrative through the Qur'an. In the 7th surah, called "The Wall Between Heaven and Hell," Allah, or I should say, Muhammad, corrupts one of the earliest Genesis stories. But he gets sidetracked with intolerance and terrorism before he dives into his version. So in deference to the Islamic apologists, I'll keep the whole passage in context, starting at the beginning.
Before we start, however, you should know that the only reason we can read this or any surah is because an "angel" or a "clanging bell" dictated it (or gonged it) to Muhammad directly from the "Memorial Tablets" written at Allah's command by the "Pen" before the universe was created. Qur'an 7:1 "This Book [the Qur'an] has been sent down to you." The opening verse is not accurate. The Qur'an wasn't a book. Based upon the historical record, nothing would be committed to writing or compiled into a book for another century. "Do not hesitate to warn the unbelievers through it." This "warning" was not for the unbeliever.' benefit or for their salvation. All non-Muslims are predestined to hell. So the threat of impending punishments which could not be averted strongly suggests that the author was either demented or a sadist.
Muhammad's schizophrenic spirit said: Qur'an 7:3 "Follow the Revelation given to you from your Lord and follow not as protectors other than Him [third person]. Little do you remember My [first person, singular] warning. How many towns have We [plural] destroyed as a raid by night? Our punishment took them suddenly while they slept for their afternoon rest. Our terror came to them; Our punishment overtook them. No cry did they utter but: 'We were wrong-doers.'" The Islamic god's taste for terror is shocking. It's hard to fathom scripture bragging, "How many towns have We destroyed?" or, "Our punishment took them suddenly while they slept." What would possess someone to claim this was godly? The Islamic "god," by his own admission, is a terrorist.
Before we move on, I want to bring your attention to the motivation behind this opening salvo. Muhammad wanted his detractors to know that his god would terrorize anyone who rejected "those to whom Our Message was sent [Muslims] or those by whom We sent it [Muhammad]." It's a warning: "If you deny Muhammad, his followers will terrorize you."
Qur'an 7:7 "Verily, We shall recount their whole story with knowledge, for We were never absent at any time or place." Muhammad, speaking on behalf of his spirit, is acknowledging that the stories in the Qur'an appear plagiarized. But they are not, he protests, because his "god" was omnipresent. He is preparing us for an onslaught of bastardized Hebrew scripture.
"Those whose scale of good will be heavy will prosper. Those whose scale will be light will find their souls in perdition [hell], for they wrongfully treated Our Signs." That's the basis of the religion of Islam. Good works. The more you do the heavier the "good" side of your scale becomes. Unfortunately, all the good deeds in the world can't outweigh predestination. And the best "good deed" according to Muhammad is to die a jihadist terrorizing infidels.
Want proof? From Bukhari's, Book of Jihad, Chapter 1, number 1204: "A man came to Allah's Messenger and said, 'Guide me to such a deed as equals Jihad in reward. ' He said, 'I do not find such a deed.'" Bukhari:V4B52N50 "The Prophet said, 'A single endeavor of fighting in Allah's Cause is better than the world and whatever is in it.'" As we move into the Medina war surahs I will share scores of these with you.
Returning to the 7th surah, Allah's miffed men aren't thankful. Qur'an 7:10 "It is We who have placed you [Adam] with authority on earth, and provided you with means for the fulfillment of your life: small are the thanks that you give! Little give you thanks!"
"It is We who created you and gave you shape; then We ordered the angels to fall and prostrate themselves to Adam. And they fell prostrate, all save Iblis, who was not of those who made prostration." Iblis was Lucifer, a fallen angel better known as Satan. The Qur'an says that he was a jinn, or demonic spirit. Both the Qur'an and Bible agree that Lucifer rebelled against God.
According to the Bible, as an angel, Lucifer was merely a tool. His relationship with Yahweh was like that of a private to a general. Without choice angels cannot love. And they are incapable of creativity, which may explain why so much of the Qur'an was plagiarized. Lucifer's existence was defined by the same terms that gave Islam its name and authority: "submit and obey." The Bible says, when Lucifer rebelled, a third of the angels were cast out of heaven and became demons. They lashed out at Yahweh by deceiving man, separating us from God, just as they had been.
This all led to the most infamous meal in human history. I share this Biblical perspective because once again, Muhammad, lacking imagination, plagiarized it, albeit with his own unique embellishments. Qur'an 7:12 "'What prevented you [Iblis/Lucifer] from prostrating when I commanded you?' He said: 'I am better than Adam: You created me from fire and him from clay.' So Allah said: 'Get down from this place: it is not for you to be arrogant here: get out, you are degraded, for you are of the meanest of creatures.'" The request is odd, yet the Qur'an never explains why Allah wanted his angels to humble themselves before man.
In the Qur'an, Satan protests. Qur'an 7:14 "'Give me a reprieve until the time they are raised.' Allah said: 'You have your reprieve.' He said: 'Because you have thrown me out, I will lie in wait, lurking in ambush for them on Your Right Path. I will assault them from behind, from their right and left. You will find them ungrateful.' Allah said: 'Get out of here. You are disgraced and expelled. If any follow, I will fill Hell with all of you.'" The Qur'an has clearly said that Satan is deceptive, and that he's going to hell. This is important because, from this point on, Allah will claim to be deceitful and we will find him in hell, tormenting men.
Continuing to steal from Genesis, the Islamic scriptures say: Qur'an 7:19 "We said: 'Adam, dwell with your wife in the Garden and enjoy: but approach not this tree or you will run into harm and become wrong-doers.' Then Satan began to whisper suggestions to them, bringing openly before their minds all their shame that was hidden from them. He said: 'Your Lord only forbid you this tree, lest you should become angels, immortal, living forever.'" In the Garden, Adam was immortal. Seducing Adam with a promise of immortality would be like seducing Arabs with a promise of more sand. Besides, why would Adam want to become an angel if the angels were bowing to him?
Qur'an 7:21 "He swore to them that he was their sincere adviser. So by deceit he brought about their fall." This is interesting. Muslims claim that there was no fall of man, thus no reason for the Messiah to come and reconcile fallen man back into fellowship with God. Further, Satan is mimicking Muhammad. The prophet incessantly claimed to be the "sincere adviser," yet through deceit, he brought men to their knees.
"When they tasted of the tree, their shame became manifest to them, and they began to sew together leaves, covering their bodies. Allah called: 'Did I not forbid you that tree and tell you that Satan was an avowed enemy?'" For those who are curious: Tabari I:299 "Scholars of the nation of our Prophet say, 'The tree which Allah forbade Adam and his spouse to eat was wheat.'" Yes, a wheat tree.
Qur'an 7:23 "They said: 'Allah, we have wronged our own souls: If you do not forgive us, we shall be of the lost losers.' Allah said: 'Go down from here as enemies of each other.'" Allah seems to think that the Garden of Eden, a.k.a. the Garden of Bliss, is in heaven. Thus when Adam rejected Allah, he was sent down, not cast out. Also, did you notice the line: "you will be enemies of each other?" He was speaking to Adam and Eve, foreshadowing the Islamic view of women.
Allah continued: "'On earth will be your dwelling place and your means of livelihood for a time.' He [third person, singular] said: "Therein shall you live, and therein shall you die, and from it shall you be raised. O children of Adam. [How did they get kids so fast?] We [first person plural] have sent clothing down to you to cover your shame, and for beauty and clothing that guards against evil. This is of the communications of Allah [now third person singular].'" Why did they need clothes to guard against evil? If their lusts carried them away - with whom were they going to be adulterous?
An interesting sidebar on the first kids comes to us in this Tradition: Tabari I:321 "When Eve became heavy with her first pregnancy, Satan came to her before she gave birth and said, 'Eve, what is that in your womb.' She said, 'I do not know.' He asked, 'Where will it come out from - your nose, your eye, or your ear.' She replied, 'I do not know.' He said, 'Don't you think, if it comes out healthy, you should obey me in whatever I command you?' When she said, 'Yes.' he said: 'Name him Abd al-Harith Iblis - Slave to the cursed.' She agreed." Believable dialog, don't you think? Just the kind of foundation you'd expect to underpin a great religion. "Adam said to him [Iblis/Lucifer], 'I obeyed you once before and you caused me to be driven out of Paradise.' So he refused to obey him and called the child Abd Ar-Rahman."
Ar-Rahman was the name of Muhammad's first "god." The 55th surah, named in Ar-Rahman's honor, begins: "Ar-Rahman bestowed the Qur'an, created man, and taught him to express clearly. The sun and moon revolve to his computation and the grasses and the trees bow to Him in adoration.... He created man." With multiple gods, Islam became pagan monotheism.
And with multiple truths, Islam is flawed revelation: Tabari I:275 "They ate from it and as a result their secret part that had been concealed became apparent।" It hadn't been much of a marriage up to that point. But if that's true, how did they get kids? And why does the Islamic Tradition say: Tabari I:299 "It was the cover of fingernails that had kept their secret parts concealed."
Prophet of Doom

Monday, 11 January 2010

क़ुरआन सूरह अनआम ६

(6 The Cattle)
I
हदीसी हादसे

'' अली ने एक कौम को आग से जला डाला'' यह खबर इब्न ए अब्बास को भी मालूम हुई तो फ़रमाया - - - अगर मैं होता तो इस कौम को अल्लाह की मानिंद (आग से जला कर) अज़ाब न देता जिस तरह कि हुज़ूर ( मुहम्मद) का हुक्म है किसी को अल्लाह के खास अज़ाब से अज़ाब न दिया जाए बल्कि जो शख्स अपना दीन बदल दे , उसको क़त्ल कर दिया जाए.''
(बुखारी १२४५)
मुसलमानों में दो वर्ग हैं शिया (मोहम्मद के रिश्तेदारों के समर्थक) सुन्नी - - कालिमा गो आम मुसलमान. शियों का कहना है कि पैगम्बरी अली के लिए आई थी फ़रिश्ते जिब्रील ने गलती की कि बड़े भाई मोहम्मद को थमा दी. शियों ने अली की शान में किताबों से लाइब्रेरियाँ भर दीं, वह इबारतें लिख और पढ़ लेते थे बस, कर्म उनके थे जो हदीस बतला रही है. मोहम्मद के ले पालक, हमेशा इक्तेदार के भूखे, एक अदना और मामूली इंसान, उजड, मौक़ा मिला तो बस्ती में एक कबीले को ज़िदा जला दिया, आज वह छोटे मोहम्मद बने मुसलामानों के लिए ''या अली'' बने हुए हैं. यह कौम है दमा दम मस्त कलंदर - -गाती है अली दा पहला नम्बर.

आइए कुरआनी ख़ुराफ़ात पर - - -
'' आप के रब का कलाम वाक़एअय्यत और एतदाल के एतबार से कामिल है. इसके कलाम का कोई बदलने वाला नहीं और वह खूब सुन रहे हैं, खूब जान रहे हैं.''
सूरह अनआम छताँ+सातवाँ परा (आयत ११६)
जिन खुसूसयात का कुरआन से कोई वास्ता नहीं, उसका वह दावा कर रहा है. तमाम वाक़िए सुने सुनाए और बेशतर मुहम्मद के गढ़े हुए हें. जिनमें न सर न पैर. एतदाल का यह आलम है कि अभी अल्लाह जंग और जेहाद की बातें कर रह है, दूसरे लम्हे ही आ जाता है औरत को मर्द से कम तर बतलाने में ,तीसरे लम्हे दोज़ख की आग भडकाने लगता है. उसके कलाम को मुसलामानों की जेहालत और इनके साजिशी ओलिमा की चालें बदलनेनहीं देतीं वर्ना इनमें रक्खा क्या है.
'' सो जिस शख्स को अल्लाह ताला रस्ते पर डालना चाहते हैं उसके सीने को इस्लाम से कुशादा कर देते हैं और जिस को बे राह रखना चाहते हैं उसके सीने को तंग कर देते हैं जैसे कोई आसमान पर चढ़ना चाहता हो. इसी तरह अल्लाह ईमान न लाने वाले वाले परफिटकार डालता है.''
सूरह अनआम छताँ+सातवाँ परा (आयत १२६)
सच यह है कि जिनको मुहम्मदी अल्लाह ने गुम राह कर दिया है वह राहे रास्त नहीं पा रहे हैं और जो इसके फंदे में नहीं आए वह चाँद तारों पर सीढियाँ लगा रहे हैं. मुहम्मदी अल्लाह इन पर अपनी ज़हरीली कुल्लियाँ कर रहा है जो कि नीचे गिर कर बिल आखीर मुसलामानों को पामाल कर रही हैं.
'' ऐ जमाअत जिन्नात और इंसानों की ! क्या तुम्हारे पास तुम ही में से पैगम्बर नहीं आए थे ? जो तुम को मेरे एह्काम बयान किया करते थे और तुम को इस आज के दिन की खबर दिया करते थे, वह सब अर्ज़ करेंगे क़ि हम अपने ऊपर इकरार करते है और लोगों को दुनयावी ज़िन्दगी ने भूल मेंडाल रखा है और यह लोग मुकिर होंगे की वह लोग काफ़िर हैं''
सूरह अनआम आठवाँ पारा (आयत १३१)
मुहम्मद की कल्पित क़यामत का एक सीन ये आयत है जन्नत में दाखिल होने वाली इंसानी टोली जहन्नम रसीदे जिन्नातों और इंसानों की टोलियों से पूछेगी क़ि ऐ लोगो ! क्या तुम्हारे पास मुहम्मद नाम के पैगम्बर नहीं आए थे जो अल्लाह की राहें बतला रहे थे - - - मुहम्मद के इन्तेहाई दर्जा मक्र की ये आयतें थीं क़ि जिसको बज़ोर तलवार मजबूरों को मनवाया गया और इन मजबूरों की नस्लें जब इस में पलती रहीं तो आज वह मक्र कापुतला सललललाहे अलैहे वसल्लम बन गया.
''तुम पर हराम किए गए हैं मुरदार, खून और खंजीर का गोश्त और जो गैर अल्लाह के नाम से ज़द कर दिया गया हो, जो गला घुटने से मर जावे, जो किसी ज़र्ब से मर जावे, या गिर कर मर जावे, जिसको कोई दरिंदा खाने लगे, लेकिन जिसको ज़बह कर डालो - - -.''
सूरह अनआम आठवाँ पारा (आयत १४६)
और हलाल किया जाता है माले ग़नीमत जो लूट मार और शबखून के ज़रिए हासिल किया गया हो, जिसमें बे कुसूर लोगों को क़त्ल कर गिया गया हो, औरतों को लौंडियाँ बना कर आपस में बाँट लिया गया हो, बच्चों और बूढों को इनके हल पर छोड़ दिया गे हो.
''सो इस शख्स से ज्यादह ज़ालिम कौन होगा जो हमारी इन आयतों को झूठा बतलाए और इस से रोके. हम अभी इन लोगों को जो कि इन से रोकते हैं, इनको रोकने के सबब सख्त सजा देंगे. यह लोग सिर्फ इस अम्र के मुन्तजिर है कि इन के पास फ़रिश्ते आवें या इन के पास इन का रब आवे या आप के रब कि कोई निशानी आवे. जिस रोज़ आप के रब कि बड़ी निशानी आ पहुंचेगी, किसी ऐसे शख्स का ईमान इस के काम न आएगा, जो पहले स ईमान नहीं रखता या अपने आमाल में उसने कोई नेक अमल न किया हो. आप फरमा दीजिए कि तुम मुन्तजिर रहो और हम भी मुन्तजिर हैं.''
मुहम्मद के मज़ालिम की दास्तानें हैं जो आगे आप सिलसिलेवार देखते रहेंगे. ऐसे ज़ालिम इन्सान की बात देखिए कि कहता है ''इस से बड़ा ज़ालिम कौन होगा जो इसकी चाल घात और मक्र की बात को न माने. इसकी बात मानने से लोगों को रोके,'' यह मुहम्मद का बनाया हुआ सांचा आज तक ज़ालिम मुसलामानों के काम आ रहा है. यह तालिबानी क्या हैं ? चौदह सौ साल पुराना मुहम्मदी साँचा ही तो उनके काम आ रहा है. यह आप को समझाएं बुझाएँगे,डराएँगे और बाद में सबक सिख्लएंगे.
मुसलामानों अल्लाह अगर है तो ऐसा घटिया हो ही नहीं सकता क्या आप ऐसे अल्लाह की इबादत करते हैं? इस पर तो लानत भेजा करिए।

नोट :-- आयातों में लम्बे लम्बे फासले देखे जा सकते हैं जिनको कि मानी, मतलब और तबसरे के शुमार में नहीं लिया गया है क्यों कि यह इस लायक भी नहीं इन का ज़िक्र या इन पर तबसरा किया जाए। इन पर कलम उठाना भी कलम की पामाली है. इस क़दर बकवास है कि आप पढ़ कर बेज़ार हो जाएँ. अफ़सोस सद अफ़सोस कि कौम इसख़ुराफ़ात को सरों पर उठाए घूमती है.

निसार ''निसार-उल-ईमान''
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ऐतिहासिक सत्य में क़ुरआन की हक़ीक़त

"Do you reject my gods, Abraham? If you do not cease this, I shall stone you।" As sick as this sounds, it depicts Muslim behavior. If a son renounces Islam, his father will kill him. One of my friends, a former Muslim, had this very thing happen to him. Hearing the news, his loving father reached for his gun and fired it at his son, narrowly missing him. Mark Gabriel, who holds a Ph.D. in Islamic History, wrote a book about his experience called: Islam and Terror.
Qur'an 6:83 "And this was Our argument which we gave to Abraham against his people. And We gave him Ishaq (Isaac) and Yah'qub (Jacob) [Oops. Abraham was given Isaac and Ishmael. Jacob came later]; each did We guide, and Nuh (Noah) did We guide before, and of his descendants, David and Solomon, and Job and Joseph and Moses and Aaron; and thus do We reward those who do good (following Muhammad's example in the Sunnah). And Zachariah and Yahya (John), Isa (Jesus) and Elias; every one was of the good [i.e. Muslims]; And Ishmael and Elisha and Jonah and Lot and every one We preferred above men and jinn." One of the many problems with the Qur'an is that Allah was no brighter than Muhammad. Job was a gentile and a contemporary of Abraham. As such he could neither be Abe's descendant nor follow Solomon.
I am reasonably certain that the Yathrib Jews read their scriptures correctly to Muhammad. But having a poor memory, and a heinous agenda, he got them all fouled up. I don't say that to be mean-spirited, just informative. Muhammad will convict himself of having a heinous agenda a thousand times over before we are through. As prophets go, he was pretty pathetic.
Returning to the Islamicized Abraham, Ibn Ishaq tells us: Tabari II:52 "Then Abraham returned to his father Azar, having seen the right course. He had recognized his Lord." Actually, all he had done was recognize who his Lord wasn't And while that may sound picky, that's all Muhammad really did. Ultimately, he promoted the largest of the Meccan rock idols, Allah, and denounced the rest. "He was free of the religion of his people, but he did not tell them that." This, too, is revisionism for the sake of Muhammad. Allah's Messenger kept quiet about his first "revelation" for several years.
One of the most repetitive and damning indictments in the Qur'an comes from the Meccans. They recognized that Muhammad's notion of casting the smaller Ka'aba idols aside so that the largest idol could be feared as the one true god was lunacy. A big stone was no more god than a bunch of little ones. Ishaq:38 "Every house had an idol. When Allah sent Muhammad with the message of monotheism, the Quraysh said: 'Would he make many gods into one god? This is a strange thing.'" So Muhammad, ever in character, changed the story of the great Hebrew patriarch Abraham to make his behavior seem inspired.
This sorry tale is chronicled in both the Hadith and Qur'an. Tabari II:55 "His father told him, 'Abraham, we have a festival. If you go to it you will learn to like our religion.' The festival came and they went to it. On the way Abraham threw himself down and said, 'I am sick. My foot hurts.' When they went away he called to the last of them. 'I shall deal with your idols after you have gone away and turned your backs.' Abraham went to the house of the gods which was in a great hall. Opposite the entrance was a great idol, and at his side a smaller one, and next to him a smaller one, and so on." Too bad Allah didn't get out more. He would have known that in Abraham's day the Temple of Ur housed just one god - Sin - a masculine moon deity like himself. Unlike the Ka'aba, there weren't a bunch of rock idols lying around.
"Azar made a living making the idols which his people worshipped, and he employed Abraham to sell them. Abraham would call out, 'Who will buy what will be of no use to him.' So they became unsellable. He would take them to the river and point their heads at it and say, 'Drink.' mocking his people. At length his mocking spread about among the inhabitants of his town, although Nimrod did not hear of it. Then when the time seemed right to Abraham to reveal to his people the error of what they were doing, and to tell them of Allah's command and of how to pray, he glanced up at the stars and said, 'I feel sick.' They fled from him when they heard it, but Abraham had only said it to make them go away so that he could do what he wanted with their idols. When they left he went to the idols and brought them food. He said, 'Will you not eat? What is the matter? Why do you not speak.' reproaching their falsely elevated position and mocking them."

Prophet of Doom

Wednesday, 6 January 2010

क़ुरआन - सूरह अनआम - ६


सूरह अनआम ६-
(6 The Cattle)
G

जेहनी ग़ुस्ल

ज़िन्दगी एक दूभर सफ़र है, यह तन इसका मुसाफ़िर है. आसमान के नीचे धूप, धूल और थकान के साथ साथ सफ़र करके हम बेहाल हो जाते हैं। मुसाफ़िर पसीने पसीने हो जाता है, लिबास से बदबू आने लगती है, तबीअत में बेज़ारी होने लगती है, ऐसे में किसी साएदार पेड़ को पाकर हम राहत महसूस करते है. कुछ देर के लिए इस मरहले पर सुस्ताते हैं, पानी मिलगया तो हाथ मुंह भी धो लेते हैं मगर यह पेड़ का साया सफ़र का मरहला होता है, हमें पूरी सेरी नहीं देता। हमें एक भरपूर स्नान कि ज़रुरत महसूस होती है। इस सफ़र में अगर कोई साफ़ सफ़फ़ाफ़ और महफूज़ गुस्ल खाना हमको मिल जाए तो हम अन्दर से सिटकिनी लगा कर, सारे कपडे उतार के फेंक देते हैं और मादर ज़ाद नंगे हो जाते हैं, फिर जिस्म को शावर के हवाले कर देते हैं. अन्दर से सिटकिनी लगी हुई है कोई खटका नहीं है. सामने कद्दे आदम आईना लगा हुआ है. इसमें बगैर किसी लिहाज़ के अपने पूरे जिस्म का जायज़ा लेते है, आखिर यह अपना ही तो है. बड़े प्यार से मल मल कर अपने बदन के हर हिस्से से गलाज़त छुडाते हैं. जब बिलकुल पवित्र हो जाते हैं तो खुश्क तौलिए से शारीर को हल्का करते हैं, इसके बाद धुले जोड़े पहेन कर संवारते हैं. इस तरह सफ़र के तकान से ताज़ा दम होकर हम अगली मंजिल की तरफ क़दम बढ़ाते हैं.
ठीक इसी तरह हमारा दिमाग भी सफ़र में है, सफ़र के तकान से बोझिल है। सफ़र के थकान ने इसे चूर चूर कर रखा है. जिस्म की तरह ही ज़ेहन को भी एक हम्माम की ज़रुरत है मगर इसके तकाज़े से आप बेखबर हैं जिसकी वजेह से ग़ुस्ल करने का एहसास आप नहीं कर पा रहे हैं। नमाज़ रोज़े पूजा पाठ और इबादत को ही हम ग़ुस्ल समझ बैठे हैं। यह तो सफ़र में मिलने वाले पेड़ नुमा मरहले जैसे हैं, हम्मामी मंज़िल की नई राह नहीं. जेहनी ग़ुस्ल है इल्हाद, नास्तिकता जिसे की धर्म और मज़हब के सौदागरों ने गलत माने पहना रखा है, गालियों जैसा घिनावना. बड़ी हिम्मत की ज़रुरत है कि आप अपने ज़ेहन को जो भी लिबास पहनाए हुए हैं, महसूस करें कि वह सदियों के सफ़र में मैले, गंदे और बदबूदार हो चुके हैं. इसको नए, फितरी, लौकिक ग़ुस्ल खाने में इन मज़हबी कपट के बोसीदा लिबास को उतार फेंकिए और एक दम उरियाँ हो जाइए, वैसे ही जैसे आपने अपने शारीर को प्यार और जतन से साफ़ किया थ, अपने जेहन को नास्तिकता और नए मानव मूल्यों के साबुन से मल मल क्र धोइए. जदीद तरीन इंसानी क़दरों की सुगंध में नहाइए, जब आप तबदीली का ग़ुस्ल कर रहे होंगे कोई आप को देख नहीं रहा होगा, अन्दर से सिटकिनी लगी हुई होगी. शुरू कीजिए दिमागी ग़ुस्ल. धर्मो मज़हब, ज़ात पात की मैल को खूब रगड़ रगड़ कर साफ़ कीजिए, हाथ में सिर्फ इंसानियत का कीम्याई साबुन हो. इस ग़ुस्ल से आप के दिमाग का एक एक गोशा पाक और साफ़ हो जाएगा. धुले जोड़ों को पहन कर बाहर निकलिए. अपनी शख्सियत को बैलौस, बे खौफ जसारत के जेवरात से सजाइए, इस तरह आप वह बन जाएँगे जो बनने का हक कुदरत ने आप को अता किया है.
याद रखें जिस्म की तरह ज़ेहन को भी ग़ुस्ल की ज़रुरत हुवा करती है। सदियों से आप धर्म ओ मज़हब का लिबास अपने ज़ेहन को पहनाए हुए हैं जो कि गूदड़ हो चुके हैं. इसे उतार के आग या फिर क़ब्र के हवाले कर दें ताकि इसके जरासीम किसी दूसरे को असर अंदाज़ न कर सकें. नए हौसले के साथ खुद को सिर्फ एक इंसान होने का एलान कर दें.

अब मुहम्मदी अल्लाह की गैर फ़ितरी और इंसानियत सोज़ बाते सुनें - - -

''आप जानदार चीज़ों को बेजान से निकल लेते हैं (बैज़े से चूजा) और बेजान चीज़ों को जानदार से निकल लरते है (परिदे से बैजा)''
सूरह अन आम छताँ+सातवाँ परा (आयत ९६)
(जी हाँ ! यह बात मुहम्मद अल्लाह से कह रहे हैं और एलान है कि कुरआन मुहम्मद से अल्लाह की कही हुई बात है. मुहम्मद के कलाम को अल्लाह का कलाम माना जाता है . क्याखुदाए बरतर ऐसी नादानी कि बातें कर सकता है?)
अण्डों में जान होती है, इतनी सी बात को खुद को पुर हिकमत अल्लाह के पयंबर कहलाने वाले मुहम्मद नहीं जानते. उनका गाउदी अल्लाह कुरआन में बार बार इस बात को दोहराता है. इस्लामी ओलिमा ऐसी आयतों को मुस्लिम अवाम से पर्दा पोशी करते हैं और उनको अंध विशवास का ज़हर पिलाते रहते हैं.
''वह आसमानों और ज़मीन का मूजिद है, इसके औलाद कहाँ हो सकती है? हालाँकि इसकी कोई बीवी तो है नहीं. और अल्लाह ने हर चीज़ को पैदा किया है और हर चीज़ को जानता है.''
सूरह अन आम छताँ+सातवाँ परा (आयत १०२)
ईसाई, ईसा को खुदा का बेटा कहते हैं, उसकी मुखालिफ़त में तर्क हीन बाते करते हैं। मुहम्मद के मुताबिक कोई आविष्कारक बाप कैसे हो सकता है? फिर खुद ही कहते हैं- - - उसके पास कोई बीवी भी तो नहीं है, यह दूसरी जेहालत की दलील है. अव्वल तो यह कि ब्रह्मांड का रचैता उसका आविष्कारक कैसे हुआ? यह एक जाहिल जपट की बातें हैं. जब अल्लाह ने हर चीज़ को पैदा किया तो एक अदद बच्चा पैदा करना उसके लिए क्या मुश्किल था या उसकी जोरू नहीं है इसका इल्म मुहम्मद को कैसे है. मुहम्मद कुरआन में ही एक जगह अल्लाह से क़सम खिलवाते हैं '' कसम है बाप की और औलाद की - - -'' गोया अल्लाह के बीवी बच्चे ही नहीं बाप भी है.
''और अगर अल्लाह को मंज़ूर होता तो ये शिर्क न करते, और हम ने आप को इनका निगरान नहीं बनाया और न आप इन पर मुख़्तार हैं और गाली मत दो उनको जिनकी यह लोग अल्लाह को छोड़ कर इबादत करते हैं, फिर वह बराए जमल हद से गुज़र कर अल्लाह को गाली देंगे.''
सूरह अन आम छताँ+सातवाँ परा (आयत १०८+९)
अल्लाह को मंज़ूर है कि वह शिर्क करें, फिर आप अल्लाह की रज़ा में बाधा क्यूं बन रहे हैं ?आप कितने किस्म की बातें करते हैं? आप निगरान ही नहीं मुख़्तार ही नहीं बल्कि मौक़ा मिलते ही तलवार लेकर उनके सरों पर खड़े हो जाते हैं, घिज़वा (जंग) करते हैं और इंसानी खून बहाते हैं. अबू बकर आप के ससुर जब काफ़िर इरवा से कहते हैं ''भाग जा अपने माबूद लात की शर्मगाह (लिंग) चूस'' (बुखारी ११४४)जवाब सुन कर आपको होश आता है.
''और लोगों ने बड़ा ज़ोर लगा कर अल्लाह की क़सम खाई थी कि इन के पास कोई निशानी आ जाए तो वह ज़रूर ही इस पर ईमान लाएँगे. आप कह दीजिए निशानियाँ सब अल्लाह के कब्जे में हैं और तुम को क्या खबर कि वह निशानियाँ जिस वक़्त आ जाएंगी, यह लोग तब भी ईमान न लाएँगे और हम भी उनके दिलों को और निगाहों को फेर देंगे जैसाकि ये लोग इस पर पहली बार ईमान नहीं लाए और हम इनको इनकी सरकशी में हैरान रहने देंगे''
सूरह अन आम छताँ+सातवाँ परा (आयत १११०+११)
बाबा इब्राहीम के दो बेटे इसहाक और इस्माईल थे. इसहाक ब्याहता सारा से और इस्माईल सेविका हाजरा से. इसहाक का वंश यहूदी हैं जो कि श्रेष्ट माने जाते है और तमाम जाने माने कथित पैगम्बर इसी में हुए. लौड़ी जादे इस्माईलिए रश्क किया करते कि मेरे वंस में कोई पैगम्बर होता तो क्या बात थी, यह बात इस्माईलिए मुहम्मद का सपना बन गया और उन्होंने पुख्ता इरादा किया कि उनको इस्माईलियों का ईसा, मूसा की तरह ही बनना है. यहाँ इसी बात का इस्माईलियों को यह ताना दे रहे हैं. ईसा मूसा की तरह ही जब लोगों ने इनसे चमत्कार दिखलाने की बात करते हैं तो मियां कैसी कैसी कन्नी कटते नज़र आते हैं.
'' और अगर हम इन पर फ़रिश्ते भी उतर देते और मुर्दे भी इनसे गुफ्तुगू करने लगते और हर चीज़ को उनके सामने पेश कर देते तो भी ये ईमान लाने वाले न थे लेकिन अक्सर इनमें से लोग जेहालत की बातें करते हैं.''
सूरह अन आम छताँ+सातवाँ परा (आयत ११२)
जनाबे आली! अगर आप उनके सामने यह मुअज्ज़े पेश कर देते तो वह न सिर्फ ईमान लाते बल्कि ईमान के दरिया में बह जाते। यह जाहिल न थे बल्कि मुस्तनद जाहिल तो आप थे जो ऐसी गैर फितरी बातें उनको समझाते थे. मुस्लिम अवाम की बद किस्मती यह है कि वह आप के बके हुए कलाम में मानी, मतलब और मकसद ढूंढने के बजाए सवाब ढूंढ रही है, नतीजतन वह अज़ाब में मुब्तिला है. मेरी बेदार लोगों से गुजारिश है कि उन भेड़ बकरियों को फिलहाल सवाब की घास चरने दें मगर आप हज़रात मेरी तहरीकमें शामिल हों.
निसार ''निसार-उल-ईमान''

Saturday, 2 January 2010

क़ुरआन - सूरह अनआम


सूरह अनआम ६-
(6 The Cattle)
E

अल्लाह के मुँह से कहलाई गई मुहम्मद की बातें कुरआन जानी जाती हैं और मुहम्मद के कौल और कथन हदीसें कहलाती हैं. मुहम्मद की ज़िन्दगी में ही हदीसें इतनी हो गई थीं कि उनको मुसलसल बोलते रहने के लिए हुज़ूर को सैकड़ों सालों की ज़िन्दगी चाहिए थी, गरज उनकी मौत के बाद हदीसों पर पाबन्दी लगा दी गई थी, उनके हवाले से बात करने वालों की खातिर कोड़ों से होती थी. दो सौ साल बाद बुखारा में एक मूर्ति पूजक यहूदियत से मुतासिर बुड्ढा ''शरीफ मुहम्मद इब्ने इब्राहीम मुगीरा जअफ़ी बुखारी'' जो कि उर्फे आम में इमाम बुखारी के नाम से इस्लामी दुन्या में जाना जाता है, साठ साल की उम्र में इस्लाम कुबूल किया और दर पर्दा इस्लाम की चूलें हिला कर रख दिया. उसने मुहम्मद की तमाम ख़सलतें, झूट, मक्र, ज़ुल्म, ना इंसाफी, बे ईमानी और अय्याशियाँ खोल खोल कर बयान कीं हैं. इमाम बुखारी ने किया है बहुत अज़ीम काम जिसे इस्लाम के ज़ुल्म के खिलाफ ''इंतकाम -ऐ-जारिया'' कहा जा सकता है. अंधे, बहरे और गूंगे मुसलमान उसकी हिकमत-ए-अमली को नहीं समझ पाएँगे, वह तो ख़त्म कुरआन की तर्ज़ पर ख़त्म बुखारी शरीफ के कोर्स बच्चों को करा के इंसानी जिंदगियों से खिलवाड़ कर रहेहैं.
इस्लामी कुत्ते, ओलिमा लिखते हैं कि इमाम बुखारी ने छ लाख हदीसों पर शोध किया और तीन लाख हदीसें कंठस्त कीं, इतना ही नहीं तीन तहज्जुद की रातों में एक कुरआन ख़त्म कर लिया करते थे और इफ्तार से पहले एक कुरआन. हर हदीस लिखने से पहले दो रेकत नमाज़ पढ़ते. इस्लाम कुबूल करने के बाद पाई सिर्फ सोलह साल की उम्र, वह भी जईफी की. तीन लाख सही हदीसों के दावेदार लिखने पर आए तो सिर्फ २१५५ हदीसें लिखीं.
बुखारी लिखता है मुहम्मद के पास कुछ देहाती आए और पेट की बीमारी की शिकायत की. हुक्म हुआ कि इनको हमारे के ऊंटों के बाड़े में छोड़ दो, वहां यह ऊंटों का दूध और मूत पीकर ठीक हो जाएँगे.(गौर करें कि बुखारी मुहम्मदी हुक्म से पेशाब पीना जायज़ करार देने का इशारा किया है) कुछ दिनों बाद देहाती बाड़े के रखवाले को क़त्ल करके ऊंटों को लेकर फरार हो गए जिनको कि इस्लामी सिपाहियों ने जा घेरा. उनको सज़ा मुहम्मद ने इस तरह दी कि सब से पहले उनके बाजू कटवाए, फिर टागें कटवाई, उसके बाद आँखों में गर्म शीशा पिलवाया बाद में गारे हरा में फिकवा दिया जहाँ प्यास कीशिद्दत लिए वह तड़प तड़प कर मर गए.
(बुखरि१७०) (सही मुस्लिम - - - किताबुल क़सामत)
तो इस क़दर ज़ालिम थे मुहम्मद.
*अब देखिए मुहम्मद कि मक्र कुरआन के सफ़हात में - - -

कहते हैं की गेहूं के साथ घुन भी पिस्ता है मुसीबते और बीमारियाँ नेको बद को देख कर नहीं आतीं. मगर अक्ल का दुश्मन मुहम्मदी अल्लाह ज़रा देखिए तो मुहम्मद से क्या कहता है- - -
''आप कहिए कि यह बतलाओ अगर तुम पर अल्लाह का अज़ाब आन पड़े, ख्वाह बे खबरी में ख्वाह खबरदारी में तो क्या बजुज़ ज़ालिम लोगों के और कोई हलाक किया जाएगा?''
सूरह अनआम ७वां पारा आयत (४७)
एक रत्ती भर अक्ल रखने वाले के लिए कुरआन की यह आयत ही काफ़ी है कि वह मुहम्मद को परले दर्जे का बे वकूफ आँख बंद कर के कह दे और इस्लाम से बाहर निकल आए मगर ये हरामी आलिमान दीन अपने अल्कायदी गुंडों के साथ उनकी गर्दनों पर सवार जो हैं. इस से ज्यादह मज़हकः खेज़ बात और क्या हो सकती है कि जब कोई कुदरती आफत ज़लज़ला या तूफ़ान आए तो इस में काफ़िर ही तबाह हों और मुसलमान बच जाएं.
''आप कहिए कि न मैं यह कहता हूँ कि मेरे पास अल्लाह के ख़ज़ाने हैं और न मैं तमाम गैबों को जनता हूँ और न तुम से यह कहता हूँ कि मैं फ़रिश्ता हूँ. मैं तो सिर्फ मेरे पास जो वही आती है उसकी पैरवी करता हूँ. आप कहिए कि कहीं अँधा और आखों वाला बराबर हो सकता है? सो क्या तुम गौर नहीं करते?''
सूरह अनआम ७वां पारा आयत (५०)
यहाँ मुहम्मद ने खुद को आँखों वाला और दीगरों को अँधा साबित किया है, साथ साथ यह भी बतलाया है कि वह भविष्य की बातों को नहीं जानते. उनकी सैकड़ों ऐसी हदीसें हैं जो इस के बार अक्स हैं और पेशीन गोइयाँ करती है. विरोधा भास कुरआन और मुहम्मद की तकदीर बना हुवा है.
''और जब तू इन लोगों को देखे जो हमारी आयातों में ऐब जोई कर रहे हैं तो इन लोगों से कनारा कश हो जा, यहाँ तक कि वह किसी और बात में लग जाएं और अगर तुझे शैतान भुला दे तो याद आने के बाद ऐसे ज़ालिम लोगों में मत बैठ.''
सूरह अनआम ७वां पारा आयत (६८)
मुहम्मद ने मुसलामानों पर किस ज़ोर की लगाम लगाईं है कि उनकी इस्लाह माहौल के ज़रिए करना भी बहुत मुश्किल है.उनको माहौल बदल नहीं सकता. मुल्ला जैसे कट्टर मुसलमान जब आधुनिकता कीबातों वाली महफ़िल में होते हैं तो वैज्ञानिक सच्चाइयों का ज़िक्र सुन कर बेजार होते हैं और दिल ही दिल में तौबा कर के महफ़िल से उठ जाते हैं.
''जब इब्राहीम ने अपने बाप आजार से फ़रमाया की क्या तू बुतों को माबूद करार देता है? बेशक मैं तुझको और तेरी सारी कौम को सरीह ग़लती में देखता हूँ.''
सूरह अनआम ७वां पारा आयत (७५)
इब्राहीम का बाप आजार एक मामूली और गरीब बुत तराश था, जो अपने बेटे को अक्सर समझाता रहता कि बेटे हिजरत कर, हिजरत में बरकत है . यहाँ कुछ न कर पाएगा. बाहर निकल तुझे दूध और शहेद की नदियों वाला देश मिलेगा. फ़रमा बरदार बेटे इब्राहीम ने अपनी जोरू सारा और भतीजे लूत को लेकर एक रोज़ बाहर की राह अख्तियार की जिसको मुहम्मदने गुस्ताखाना कहानी की शक्ल देकर अपना कुरआन बनाया है. मुहक्म्मद ने अब्राहम के बाप तेराह (आजार) को बिला वजेह कुरआन में बार बार रुसवा किया है, ये मुहम्मद की मन गढ़ंत है. सच पूछिए तो वह ही इंसानी इतिहास के शुरुआत हैं.
''हमने ऐसे ही तौर पर इब्राहीम को आसमानों और ज़मीन की मख्लूकात (जीव) दिखलाईं और ताकि वह कामिल यक़ीन करने वाले बन जाएं फिर जब रात को तारीकी उन पर छा गई तो उन्हों ने एक सितारा देखा तो फ़रमाया ये हमारा रब है, फिर जब वह ग़ुरूब हो गया तो फ़रमाया मैं ग़ुरूब हो जाने वालों से मुहब्बत नहीं करता. फिर जब चाँद को चमकता हुवा देखा तो फ़रमाया ये मेरा रब है. सो जब वह ग़ुरूब हो गया तो फ़रमाया कि मेरा रब मुझ को हिदायत न करता रहे तो मैं गुमराह लोगों में शामिल हो जाऊं - - -''
सूरह अनआम ७वां पारा आयत (७६-७७-७८)
इब्राहीम, इस्माईल वगैरा का नाम भर यहूदियों और ईसाइयों से उम्मी मुहमद ने सुन रखे थे. इन पर किस्से गढ़ना इनकी जहनी इख्तेरा है. मुहम्मद की मंजिले मक़सूद थी ईसा मूसा की तरह मुकाम पाना जिसमें वह कामयाब रहे मगर इंसानी क़दरों में दागदार उनके पोशीदा पहलू उनको कभी मुआफ नहीं कर सकते. मुहम्मद के अन्दर छुपा हुआ शैतान उन्हें इंसानियत का मुजरिम करारठहराएगा. जैसे जैसे इंसानियत बेदार होगी मुसलमानों के लिए बहुत बुरे दिन आने के इमकान है.
''और ये ऐसी किताब है जिसको हमने नाजिल किया है, जो बड़ी बरकत वाली है और पहले वाली किताबों की तस्दीक करने वाली है और ताकि आप मक्का वालों को और इस के आस पास रहने वालों को डरा सकें।''
सूरह अनआम ७वां पारा आयत (९३)
जो शै डराए वह बरकत वाली कैसे हो सकती है? शैतान, भूत, परेत, सांप, दरिन्दे गुंडे,सब डराते हैं, यह सब मुफ़ीद कैसे हो सकते हैं? मुहम्मद की जेहालत और उनका क़ुरआन दर असल कौम के लिए अज़ाब बन सकते हैं.
''और उस शख्स से ज़्यादः ज़ालिम कौन होगा जो अल्लाह पर झूट तोहमत लगाए या यूं कहे की मुझ पर वही (ईश वाणी) आती है, हालाँकि उस के पास किसी बात की वही नहीं आती. और जो कहे जैसा कलाम अल्लाह ने नाज़िल किया है , इसी तरह का मैं भी लाता हूँ और अगर आप उस वक़्त देखें जब ज़ालिम लोग मौत की सख्तियों में होंगे और फ़रिश्ते अपने हाथ बढ़ा रहे होंगे - - - हाँ ! अपनी जानें निकालो. आज तुमको ज़िल्लत की सज़ा दी जाएगी, इस लिए की तुम अल्लाह के बारे में झूटी बातें बकते थे और तुम इस की आयात से तकब्बुर करते थे.''
सूरह अनआम ७वां पारा आयत (९४)
मुहम्मद को पैगम्बरी का भूत सवार था वह गली कूचे सड़क खेत और खलियान में क़ुरआनी आयतें गाते फिरते और दावा करते कि अल्लाह की भेजी हुई इन वहियों के मुकाबिले में कोई एक आयत तो बना कर दिखलाए. लोग इनकी नकल में जब आयतें गढ़ते तो यह राहे फरार में इस किस्म की बकवास करते. इसे अपने अल्लाह की तरफ से नाज़िल बतलाते. मुहम्मद ऐसे लोगों को ज़ालिम कहते जो इनकी नक़ल करते जब कि बज़ात खुद वह ज़ालिम नंबर एक थे जैसा की ऊपर हदीस में एक नमूना पेश किया गया. कहते हैं ''और उस शख्स से ज़्यादः ज़ालिम कौन होगा जो अल्लाह पर झूट तोहमत लगाए'' कौन बेवकूफ रहा होगा जो खालिक़े कायनात पर बोहतान जड़ता रहा होगा? मुहम्मद अपनी इन मक्र और बे शर्मी की बातों से अवाम को गुम राह कर रहे हैं. मुहम्मद खुद उस पाक और बे नयाज़ जात को अपनी फूहड़ बातों से बदनाम कर रहे हैं. कैसी अहमकाना बातें हैंकि जालिमों को मौत से डराते हैं जैसे खुद मौज उड़ाते हुए मरेंगे.
''कहते न थे की मुसलमान हो जाओ - - -''
ऐसा होगा क़यामत के दिन का मुसलामानों का काफिरों पर ताना. जन्नत सिर्फ़ मुसलामानों को ही मिलेगी, वह भी जो नेक आमाल के होंगे, नेक आमाल नेक काम नहीं बल्कि मुहम्मद नमाज़ रोज़ा ज़कात और हज वगैरा में नेकी देखते हैं. ईसाई,यहूदी और सितारा परस्त के लिए तो जन्नत में जगह नहीं है, जिनकोकि मुहम्मद साहबे किताब मानते हैं, मगर काफिरों (मूर्ति-पूजक)के लिए तो दहेकती हुई दोज़ख धरी हुई है, भले ही खुद अनाथ मुहम्मद को पालने वाले दादा और चाचा ही क्यूं न हों. उम्मी मुहम्मद को इस दलील से कोई वास्ता नहीं कि जिसने इस्लामी पैगाम सुना ही न हो या जो इस्लाम से पहले हुआ हो वह भला दोजखी क्यूं होगा??
ऐसे हठ धर्म कुरआन को इस्लामी जंजूओं ने माले ग़नीमत को जायज़ करार देने के बाद चौथाई दुन्या को पीट पीट कर तस्लीम कराया है.

निसार ''निसार-उल-ईमान''
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ऐतिहासिक सत्य में क़ुरआन की हक़ीक़त
Like so many Islamic Traditions, these were written to provide the context the Qur'an lacks. Let's dive into the 6th surah to hear what Allah has to say: Qur'an 6:74 "When Abraham said to his sire, Azar: 'Why do you take idols for gods? I find you and your people in manifest error.' Thus We showed Abraham the visible and invisible kingdom of the heavens and earth that he might be of those who are sure and believe. So when night overshadowed him, he saw a star. Said he: 'This is my Lord.' When it set, he said: 'I do not love the setting ones.' When he saw the moon rising, he said: 'This is my Lord.' When it set, he said: 'If my Lord had not guided me I would be of the erring people who go astray.'" This is embarrassing. The conversation condemns the message. After Allah personally showed Abe his kingdom so that he might be sure, the Islamic babe turns to the sky, the source of idols, and says, "This is my Lord." What is it about Islam that turns everyone's brains to mush - Allah's included?
Qur'an 6:78 "Then when he saw the sun rising, he said: 'My Lord is surely this, the greatest of all.' So when it set, he said: 'O my people, I am through with those. Surely I have turned my face toward Him who originated the heavens and earth, and I am not a polytheist.'" The sun, the most popular pagan deity, is now god, never mind it was the moon in the preceding Tradition. After becoming an idolater, he magically turns and says he's through with idols. And after asking a star, the moon, and the sun if they were god, he says he's not a polytheist. All the context in the world, all the explanations ever written, can't undo the damage the Qur'an does to itself.
Tabari explains it this way: Tabari II:51 "When day came upon Abraham and the sun rose, he saw the greatness of the sun and saw that here was something with more light than he had ever seen before. He said, 'This is my Lord! This is greater.' And when it set he exclaimed, 'O my people, I am free from all the things which you associate with Him.'" Muhammad wants us to believe that all it took to "free" this fifteen-month old baby from pagan idolatry, worshiping the sun, moon, and stars, to become a Muslim in the oneness of Allah was for the sun to set.
Qur'an 6:80 "His people disputed with him." What people? Depending upon whether you believe Muhammad's Hadith or Allah's Qur'an, he's with his mom or dad. He's a toddler, having just emerged from a cave for the first time. "He said: 'Do you dispute with me respecting Allah? He has guided me. I do not fear those that you set up with Him, unless my Lord pleases; my Lord comprehends all things; will you not mind?'"
Let me see if I can decipher this. Over the course of one brief conversation, dishonest Abe tells his father that he and his people are in manifest error, and that idolatry is bad. After visiting heaven he says that big bright shiny things are gods, and that he is not a polytheist. Then he disputes with people he has never seen about their religion. He even says that he doesn't fear their gods, unless of course, his god wants him to fear them. And, wouldn't you know it, after such drivel, he tells them to mind him. This Qur'anic passage destroys the Islamic myth of divine inspiration, for this is not some minor event in the life of Islam. Abraham is purported to be the religion's founder, and this is his moment of awakening.
Qur'an 6:81 "Why should I fear what you have set up with Allah, that for which He has not sent down to you any authority." We can only assume that the Abe babe is speaking of idols his people have erected in shrines like the Ka'aba. "O my father! Why do you worship that which neither hears, nor sees, nor can in any way help you?" Even something as simple as this indicts Muhammad. It's a rip off. As we shall see in upcoming chapters, Arabian Hanifs (monotheists) during Muhammad's day had it figured out. They had said of the rock idols in the Ka'aba, "Why do you worship that which neither hears, nor sees, nor can help you in any way?"
"Do you reject my gods, Abraham? If you do not cease this, I shall stone you." As sick as this sounds, it depicts Muslim behavior. If a son renounces Islam, his father will kill him. One of my friends, a former Muslim, had this very thing happen to him. Hearing the news, his loving father reached for his gun and fired it at his son, narrowly missing him. Mark Gabriel, who holds a Ph.D. in Islamic History, wrote a book about his experience called: Islam and Terror

Prophet of Doom