सूरह इंफाल - ८
The Spoils of War-8
A
मुहम्मद के कथन को हदीस कहा जाता है और हदीसें मुस्लिम बच्चों को ग्रेजुएशन कोर्स की तरह पढाई जाती है, कई लोग हदीसी ज़िन्दगी जीने की हर लम्हा कोशिश करते हैं. कई दीवाने अरबी, फारसी लिपि में लिखी इबारत 'मुहम्मद' की तरह ही बैठते हैं. अपने नबी की पैरवी में सऊदी अरब के शेख चार बीवियों की पाबन्दी के तहत पुरानी को तलाक़ देकर नई कम उम्र लाकर बीवियाँ रिन्यू किया करते हैं. हदीसो में एक से एक गलीज़ बातें हैं. उम्मी यानी निरक्षर गँवार विरोधाभास को तो समझते ही नहीं थे. हज़रात की दो हदीसें मुलाहिजा हों.
(१) फ़रमाते हैं एक शख्स अपनी तहबंद ज़मीन पर लाथेर कर चलता था . अल्लाह तअला ने इसे ज़मीन में धंसा दिया. क़यामत तक ज़मीन में वह यूं ही में धंसता ही रहेगा.''
बुखारी (१४०२ )
(२)फ़रमाते हैं एक रोज़ मैं सो रहा था कि मेरे सामने कुछ लोग पेश किए गए जिनमें से कुछ लोग तो सीने तक ही कुरता पहने थे, और बअज़ इस से भी कम. इन्हीं लोगों में मैं ने उमर इब्ने अल्खेताब को देखा जो अपना कुरता ज़मीन पर घसीटते हुए चल रहे थे. लोगों ने इसकी तअबीर जब पूछी तो बतलाया यह कुरताए दीन है.''
(बुखारी २२)
कबीर कहते हैं- - -
(१) फ़रमाते हैं एक शख्स अपनी तहबंद ज़मीन पर लाथेर कर चलता था . अल्लाह तअला ने इसे ज़मीन में धंसा दिया. क़यामत तक ज़मीन में वह यूं ही में धंसता ही रहेगा.''
बुखारी (१४०२ )
(२)फ़रमाते हैं एक रोज़ मैं सो रहा था कि मेरे सामने कुछ लोग पेश किए गए जिनमें से कुछ लोग तो सीने तक ही कुरता पहने थे, और बअज़ इस से भी कम. इन्हीं लोगों में मैं ने उमर इब्ने अल्खेताब को देखा जो अपना कुरता ज़मीन पर घसीटते हुए चल रहे थे. लोगों ने इसकी तअबीर जब पूछी तो बतलाया यह कुरताए दीन है.''
(बुखारी २२)
कबीर कहते हैं- - -
साँच बराबर तप नहीं झूट बराबर पाप ,
जाके हृदय सांच है ताके हृदय आप।
जाके हृदय सांच है ताके हृदय आप।
मुहम्मद के कथन में झूट का अंश देखिए - - -
१- उनको कैसे मालूम हुआ कि अल्लाह तअला तहबन्द ज़मीन पर लथेड कर चलने वाले को ज़मीन में मुसलसल धन्सता रहता है?
२-उम्मी सो रहे थे और इनके सामने कुछ लोग पेश किए गए? भला बक़लम खुद का रूतबा तो देखिए. माँ बदौलत नींद के आलम में शहेंशाह हुवा करते थे. जनाब सपनों में पूरा पूरा ड्रामा देखते हैं.
३- कुछ लोग सीने तक कुरता पहने थे? गोया फुल आस्तीन ब्लाउज? कुछ इससे भी कम? यानी आस्तीन दार चोली? मगर ऐसे लिबासों को कुरता कहने की क्या ज़रुरत थी आप? झूट इस लिए कि आगे कुरते की सिफ़त जो बयान करना था. ज़मीन पर कुरता गोगर गलीज़ को बुहारता चले तो दीन है. लंबी तुंगी हो तो वह ज़मीन में धंसने का अनोखा अज़ाब .
ऐसी हदीसों में अक्सर मुसलमान लिपटे हुए लंबे लंबे कुरते और घुटनों के ऊपर पायजामा पहन कर कार्टून बने देखे जा सकते हैं. .
अब देखिए कि अल्लाह बने मुहम्मद अपनी झोली भरने के लिए लोगों को कैसे जेहाद के लिए वरगला रहे हैं - -
फ़तह जेहाद में लूटे हुए माल के बटवारे में मुसलामानों में खीचा तानी है. इसे मुहम्मद ने माले गनीमत का नाम दिया है जो मुसलामानों के लिए फतेह का तबर्रुक अर्थात विजय का प्रसाद बन गया है.सारी सृष्टि के व्यवस्था को छोड़ कर ईश्वर इस पिद्दी भर मुआमले को निपटने के लिए फ़रिश्ते जिब्रील को पकड़ता है और बदमाश लुटेर्रों को शान्त करने के लिए मुहम्मद के पास भेजता है. यह फ़तह बदर के बाद के हालात हैं, लूट के माल पर खुद मुहम्मद की नियत खराब हो जाती है। वह अल्लाह और उसके रसूल के नाम पर खुद सारा माल हड़पना चाहते हैं.
''यह लोग आप से गनीमातों का हुक्म दरयाफ्त करते हैं, आप फ़रमा दीजिए कि गनीमतें अल्लाह की हैं और रसूल की हैं. सो तुम अल्लाह से डरो और बाहमी तअल्लुकात की इस्लाह करो. अल्लाह और उसके रसूल की इताअत करो। अगर तुम ईमान वाले हो.''
सूरह -इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत (१)
अज़ीम कुरैश सरदार अबू जेहल (जेहालत की औलाद - - ये नाम मुहम्मद का दिया हुवा है, इसको इस्लाम ने इस क़दर दोहराया कि इसका असली नाम ही ना पैद हो गया.ये मुहम्मद के सगे चाचा थे) को दो अंसारी नौ उम्र लड़कों ने मैदाने जंग में एलाने जंग होने से पहले ही उसकी बे खयाली में कत्ल कर दिया। जंग ख़त्म हुई, मुहम्मद को पता चला कि उनका दुश्मन नंबर १ अबू जेहल मारा गया. पास गए, पहचाना, दाढ़ी पकड़ कर ताने तिश्ने दिए, लोगों ने कहा हुज़ूर यह मुर्दा लाश है इसे क्या सुना रहे हैं? जवाब था तुम्हें नहीं मालूम ये खूब सुन रहा है. एलान हुआ कि इसको किसने मारा, दोनों अंसारी लड़के बहादरी और इनाम की लालच लिए हाज़िर हुए, नीयतें दोनों की खराब हो चुई थीं, दोनों दावे दार थे। माले गनीमत झगडे में पड़ गया, दोनों की तलवारें मंगाई गईं, दोनों तलवारों में खून ताज़ा लगा हुवा था। मुआमला यूं तै हुआ कि एक को अबू जेहल का घोडा दे दिया गया दूसरे को घोड़े की काठी. बे शक काठी पाने वाले ने मुहम्मद को ज़रूर कोसा होगाकि उसके साथ ना इंसाफी हुई.
इस वाकेए के पसे मंज़र में आप माले गनीमत का लुटेरों में बटवारा समझ गए होगे कि जेहादियों को यूं टरकाया और अबू जेहल की तमाम जायदाद अल्लाह और उसके रसूल की हुई.
मुहम्मद लूट का सारा का सारा माल घोट जाने के बाद अपने बन्दों को समझाते और फुसलाते हैं असली माल तो क़ुरआनी आयतें हैं, सच्चे मुसलमान की दौलत उनकाईमान है - - -
''बस ईमान वाले तो ऐसे होते हैं कि जब अल्लाह तअला का ज़िक्र आता हैतो उनके कुलूब डर जाते हैं और जब अल्लाह की आयतें उनको पढ़ कर सुनाई जाती हैं तो वह उनके ईमान को ज़राज़्यादा कर देती हैं और वह लोग अपने रब पर तवक्कुल करते हैं.''
सूरह -इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत (२)
मुहम्मद इस्लामी ईमान के बे ईमान धागे को अपने उँगलियों में बांध कर समाज के बेवकूफों और मजबूरों को कठ पुतलियों की तरह नचा रहे हैं। वह अपनी क़ुरआनी तुकबंदी को क़ल्बी सुकून के लिए सुनना चाहते हैं न कि जेहनी तश्नगी की खातिर. सब्र और संतोष का पाठ उम्मत को और मालो मता अपने हक में कर के आँख मेंधूल झोंक रहे है.
''जो कि नमाज़ की पाबन्दी करते हैं और हम ने जो कुछ उनको दिया उस में ही खर्च करते है.''
सूरह -इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत (३)
मुहम्मद जंग में लूटे हुए माल का पांचवां हिस्सा अल्लाह के नाम का निकल के खुद रख लेते और पांचवां हिस्सा अल्लाह के रसूल का लेके खुद रख लेते बाकी ३/५ हजारों लुटेरों में बंटता जोकि बहुत कम होता। बुरा वक्त था भरण-पोषण की मजबूरी के कारन लड़कियां पैदा होते ही दफ़्न करदी जाती थीं. ऐसे में बेकारी की कल्पना की जा सकती है. लूट मार का समय पूरी दुन्या में था मगर लुटेरे डाकू, चोर, बदमाश कहे जाते थे. लूट के माल को माल को माले गनीमत का नाम देकर मुहम्मद ने इसे न्याय संगत कर दिया और स्वयंभू अल्लाह बन बैठे, बन्दों को इसमें से जो कुछ वह हाथ उठा कर दे देते, उसी में वह गुज़ारा करे.
जिसने नमाज़ की पाबंदी दिलो जन से कर ली वह कुछ और कर भी नहीं सकता, खर्च कहाँ से करेगा? या फिर नमाज़ की आड़ में कुछ गलत कम करे.
''जैसा कि आप के रब ने आप के घर से मसलेहत (भलाई) के तहत बदर (जंगे बदर) के लिए रवाना किया और मुसलामानों की एक जमाअत इसे गराँ समझती थी, वह इस मसलेहत में बअद इसके कि इसका ज़हूर हो गया था, आप से इस तरह झगड़ते रहे थे कि गोया इन को कोई मौत की तरफ हाँके जा रहा हो और वह देख रहे हों ''
सूरह -इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत (६)
औरबनू नसीर पर, मुसलामानों का (यहूदियों पर) पहला हमला धोका धडी से कामयाब हुआ तफ़सील आगे होगी. दूसरा हमला मक्का के कुरैश्यों पर था. दिग्गज कुरैश सरदार इसमें शामिल थे. कुरैशों में ज़रुरत से ज्यादह आत्म विशवास था और मुसलमानों में अंध विशवास लालच. मुहम्मद ने यकीन दिला दिया था कि ३००० फ़रिश्ते मुसलमानों के साथ जंग में शरीक करने का वादा अल्लाह ने कर लिया है, लालच थी माले गनीमत की. बहर हल मुसलमान जंग जीत गए मगर गनीमत पर रसूल की बाद नियाती पर लोग बाद गुमान हो गए। जान भी गँवाई और जो बचे उनको कोई खास फायदा भी न हुआ. इस से बेहतर होता कि घर पर कर जो कर रहे थे, करते रहते.. दूसरी जँग जँग-ए-उहद के लिए मुहम्मद एक बार फिर लोगों को ललचा रहे हैं, फुसला रहे हैं, झूट और मक्र का सहारा ले रहे हैं. इस बार ५००० फ़रिशतों के शरीक होने का अल्लाह के वादे कायक़ीन दिला रहे हैं.और दर पर्दा धमका भी रहे हैं - - -
''बिला शुबहा अल्लाह तअला ज़बरदस्त हिकमत वाले हैं''
सूरह -इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत (१०)
अफ़सोस कि मुसलमान अल्लाह की इस हिकमत पर आज भी ईमान रखते हैं कि उनके उनके अल्लाह जेहादों में फरिश्तों की मदद भेजता है और अपने पैगम्बर की ऐसी दरोग़ आमोज़ी पर भी.
''जब अल्लाह तुम पर ऊंघ तारी कर रहा था, अपनी तरफ़ से चैन देने के लिए और इस के क़ब्ल आसमान से बारिश बरसा रहा था कि इस के ज़रीए तुम को पाक करदे और तुम को शैतानी वस्वुसे से दफ़ा कर दे और तुम्हारे दिलों को मज़बूत कर दे और तुम्हारे पाँव जमा दे.''
सूरह -इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत (११)
अरबी, इस्लामी और क़ुरआन की जुग्राफियाई अलामतें ही हमारी सामाजिक मान्यताओं से भिन्न हैं. ऊँघना अल्लाह की रहमत और चैन है, बरसात की गन्दी छींटों से आप पाक हो जाते हैं, शैतानी बहकावे का इलाज हो जाता है और पाँव जम जाते हैं? खैर अरब में ऐसा होता होगा मगर भारत के मुसलमान इस उलटी धार में क्यूं बह रहे हैं, वाजेह हो सकती है कि अल्लाह जेहाद के लिए बहका रहा है,और वह अंदर ही अंदर तालिबानी हो रहे हों ,
''मैं अभी कुफ्फार के दिलों में रोब डाल देता हूँ सो तुम गर्दनों पर मारो और पूरा पूरा मारो.''
सूरह -इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत (१२)
कुन फया कून का फार्मूला क्या भूल रहा है ? अल्लाह तअला ! क्या तेरी शान है. मुनकिर नकीर को क्या छुट्टी पर भेज दिया है? या गया है?
बे ईमान मुस्लिम ओलिमा टिकिया चोर नेता ढोल पीटते फिरते है कि क़ुरआन अमन अमान सिखलाता है, इस्लाम शांति और सद भाव का मज़हब है, अक्सरियत उनके हाँ में हाँ मिलाती है क्यूंकि उसके यहाँ खुद रामायण और महा भारत युद्धों से भरी हुई हैं. सच तो यह है की हिदुस्तानी धर्मों और पश्चिम से आए हुए यहूदी, ईसाई और इस्लाम मजहबों का मतलब ही अन्याय और अधर्म है.
''जो अल्लाह और रसूल की मुखालिफत करता है, अल्लाह तअला सख्त सजा देते हैं, सो यह चक्खो. जालिमो के लिए सख्त अजाब है.''
सूरह -इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत (१३-१४)
किर्दगार ए कायनात, खुदाए बरतर?, दरोग आमेज़ मुहम्मद की दीवानी के कचेहरी में वकील की नौकरी करली है. वह मुहम्मद की हर ऊट पटाँग बातों की पैरवी कर रहा है।
''यह लोग आप से गनीमातों का हुक्म दरयाफ्त करते हैं, आप फ़रमा दीजिए कि गनीमतें अल्लाह की हैं और रसूल की हैं. सो तुम अल्लाह से डरो और बाहमी तअल्लुकात की इस्लाह करो. अल्लाह और उसके रसूल की इताअत करो। अगर तुम ईमान वाले हो.''
सूरह -इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत (१)
अज़ीम कुरैश सरदार अबू जेहल (जेहालत की औलाद - - ये नाम मुहम्मद का दिया हुवा है, इसको इस्लाम ने इस क़दर दोहराया कि इसका असली नाम ही ना पैद हो गया.ये मुहम्मद के सगे चाचा थे) को दो अंसारी नौ उम्र लड़कों ने मैदाने जंग में एलाने जंग होने से पहले ही उसकी बे खयाली में कत्ल कर दिया। जंग ख़त्म हुई, मुहम्मद को पता चला कि उनका दुश्मन नंबर १ अबू जेहल मारा गया. पास गए, पहचाना, दाढ़ी पकड़ कर ताने तिश्ने दिए, लोगों ने कहा हुज़ूर यह मुर्दा लाश है इसे क्या सुना रहे हैं? जवाब था तुम्हें नहीं मालूम ये खूब सुन रहा है. एलान हुआ कि इसको किसने मारा, दोनों अंसारी लड़के बहादरी और इनाम की लालच लिए हाज़िर हुए, नीयतें दोनों की खराब हो चुई थीं, दोनों दावे दार थे। माले गनीमत झगडे में पड़ गया, दोनों की तलवारें मंगाई गईं, दोनों तलवारों में खून ताज़ा लगा हुवा था। मुआमला यूं तै हुआ कि एक को अबू जेहल का घोडा दे दिया गया दूसरे को घोड़े की काठी. बे शक काठी पाने वाले ने मुहम्मद को ज़रूर कोसा होगाकि उसके साथ ना इंसाफी हुई.
इस वाकेए के पसे मंज़र में आप माले गनीमत का लुटेरों में बटवारा समझ गए होगे कि जेहादियों को यूं टरकाया और अबू जेहल की तमाम जायदाद अल्लाह और उसके रसूल की हुई.
मुहम्मद लूट का सारा का सारा माल घोट जाने के बाद अपने बन्दों को समझाते और फुसलाते हैं असली माल तो क़ुरआनी आयतें हैं, सच्चे मुसलमान की दौलत उनकाईमान है - - -
''बस ईमान वाले तो ऐसे होते हैं कि जब अल्लाह तअला का ज़िक्र आता हैतो उनके कुलूब डर जाते हैं और जब अल्लाह की आयतें उनको पढ़ कर सुनाई जाती हैं तो वह उनके ईमान को ज़राज़्यादा कर देती हैं और वह लोग अपने रब पर तवक्कुल करते हैं.''
सूरह -इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत (२)
मुहम्मद इस्लामी ईमान के बे ईमान धागे को अपने उँगलियों में बांध कर समाज के बेवकूफों और मजबूरों को कठ पुतलियों की तरह नचा रहे हैं। वह अपनी क़ुरआनी तुकबंदी को क़ल्बी सुकून के लिए सुनना चाहते हैं न कि जेहनी तश्नगी की खातिर. सब्र और संतोष का पाठ उम्मत को और मालो मता अपने हक में कर के आँख मेंधूल झोंक रहे है.
''जो कि नमाज़ की पाबन्दी करते हैं और हम ने जो कुछ उनको दिया उस में ही खर्च करते है.''
सूरह -इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत (३)
मुहम्मद जंग में लूटे हुए माल का पांचवां हिस्सा अल्लाह के नाम का निकल के खुद रख लेते और पांचवां हिस्सा अल्लाह के रसूल का लेके खुद रख लेते बाकी ३/५ हजारों लुटेरों में बंटता जोकि बहुत कम होता। बुरा वक्त था भरण-पोषण की मजबूरी के कारन लड़कियां पैदा होते ही दफ़्न करदी जाती थीं. ऐसे में बेकारी की कल्पना की जा सकती है. लूट मार का समय पूरी दुन्या में था मगर लुटेरे डाकू, चोर, बदमाश कहे जाते थे. लूट के माल को माल को माले गनीमत का नाम देकर मुहम्मद ने इसे न्याय संगत कर दिया और स्वयंभू अल्लाह बन बैठे, बन्दों को इसमें से जो कुछ वह हाथ उठा कर दे देते, उसी में वह गुज़ारा करे.
जिसने नमाज़ की पाबंदी दिलो जन से कर ली वह कुछ और कर भी नहीं सकता, खर्च कहाँ से करेगा? या फिर नमाज़ की आड़ में कुछ गलत कम करे.
''जैसा कि आप के रब ने आप के घर से मसलेहत (भलाई) के तहत बदर (जंगे बदर) के लिए रवाना किया और मुसलामानों की एक जमाअत इसे गराँ समझती थी, वह इस मसलेहत में बअद इसके कि इसका ज़हूर हो गया था, आप से इस तरह झगड़ते रहे थे कि गोया इन को कोई मौत की तरफ हाँके जा रहा हो और वह देख रहे हों ''
सूरह -इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत (६)
औरबनू नसीर पर, मुसलामानों का (यहूदियों पर) पहला हमला धोका धडी से कामयाब हुआ तफ़सील आगे होगी. दूसरा हमला मक्का के कुरैश्यों पर था. दिग्गज कुरैश सरदार इसमें शामिल थे. कुरैशों में ज़रुरत से ज्यादह आत्म विशवास था और मुसलमानों में अंध विशवास लालच. मुहम्मद ने यकीन दिला दिया था कि ३००० फ़रिश्ते मुसलमानों के साथ जंग में शरीक करने का वादा अल्लाह ने कर लिया है, लालच थी माले गनीमत की. बहर हल मुसलमान जंग जीत गए मगर गनीमत पर रसूल की बाद नियाती पर लोग बाद गुमान हो गए। जान भी गँवाई और जो बचे उनको कोई खास फायदा भी न हुआ. इस से बेहतर होता कि घर पर कर जो कर रहे थे, करते रहते.. दूसरी जँग जँग-ए-उहद के लिए मुहम्मद एक बार फिर लोगों को ललचा रहे हैं, फुसला रहे हैं, झूट और मक्र का सहारा ले रहे हैं. इस बार ५००० फ़रिशतों के शरीक होने का अल्लाह के वादे कायक़ीन दिला रहे हैं.और दर पर्दा धमका भी रहे हैं - - -
''बिला शुबहा अल्लाह तअला ज़बरदस्त हिकमत वाले हैं''
सूरह -इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत (१०)
अफ़सोस कि मुसलमान अल्लाह की इस हिकमत पर आज भी ईमान रखते हैं कि उनके उनके अल्लाह जेहादों में फरिश्तों की मदद भेजता है और अपने पैगम्बर की ऐसी दरोग़ आमोज़ी पर भी.
''जब अल्लाह तुम पर ऊंघ तारी कर रहा था, अपनी तरफ़ से चैन देने के लिए और इस के क़ब्ल आसमान से बारिश बरसा रहा था कि इस के ज़रीए तुम को पाक करदे और तुम को शैतानी वस्वुसे से दफ़ा कर दे और तुम्हारे दिलों को मज़बूत कर दे और तुम्हारे पाँव जमा दे.''
सूरह -इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत (११)
अरबी, इस्लामी और क़ुरआन की जुग्राफियाई अलामतें ही हमारी सामाजिक मान्यताओं से भिन्न हैं. ऊँघना अल्लाह की रहमत और चैन है, बरसात की गन्दी छींटों से आप पाक हो जाते हैं, शैतानी बहकावे का इलाज हो जाता है और पाँव जम जाते हैं? खैर अरब में ऐसा होता होगा मगर भारत के मुसलमान इस उलटी धार में क्यूं बह रहे हैं, वाजेह हो सकती है कि अल्लाह जेहाद के लिए बहका रहा है,और वह अंदर ही अंदर तालिबानी हो रहे हों ,
''मैं अभी कुफ्फार के दिलों में रोब डाल देता हूँ सो तुम गर्दनों पर मारो और पूरा पूरा मारो.''
सूरह -इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत (१२)
कुन फया कून का फार्मूला क्या भूल रहा है ? अल्लाह तअला ! क्या तेरी शान है. मुनकिर नकीर को क्या छुट्टी पर भेज दिया है? या गया है?
बे ईमान मुस्लिम ओलिमा टिकिया चोर नेता ढोल पीटते फिरते है कि क़ुरआन अमन अमान सिखलाता है, इस्लाम शांति और सद भाव का मज़हब है, अक्सरियत उनके हाँ में हाँ मिलाती है क्यूंकि उसके यहाँ खुद रामायण और महा भारत युद्धों से भरी हुई हैं. सच तो यह है की हिदुस्तानी धर्मों और पश्चिम से आए हुए यहूदी, ईसाई और इस्लाम मजहबों का मतलब ही अन्याय और अधर्म है.
''जो अल्लाह और रसूल की मुखालिफत करता है, अल्लाह तअला सख्त सजा देते हैं, सो यह चक्खो. जालिमो के लिए सख्त अजाब है.''
सूरह -इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत (१३-१४)
किर्दगार ए कायनात, खुदाए बरतर?, दरोग आमेज़ मुहम्मद की दीवानी के कचेहरी में वकील की नौकरी करली है. वह मुहम्मद की हर ऊट पटाँग बातों की पैरवी कर रहा है।
'' निसार-उल-ईमान'
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_ऐतिहासिक सत्य में क़ुरआन की हक़ीक़त
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The battle over, the booty collected, the ransoms negotiated, it was time for some situational scriptures. Most religions considered murder, piracy, kidnapping, and terrorism bad, so Muhammad needed a special dispensation.
As before, I will weave the Hadith into the fabric of the Qur'an to give Allah's scriptures the context of time, circumstance, and place they otherwise lack. Tabari VII:80 "When the events of Badr were over, Allah revealed the 8th surah, 'The Spoils of War.' in its entirety. The two armies met [there were no armies - just merchants and militants] and Allah defeated the Meccans [with Muslim swords]. Seventy of them were killed, and seventy were taken captive." The previous death toll was forty-four killed and an equal number brought back for ransom. The lower number is also in line with Ishaq's meticulously documented total of fifty dead, and forty-three taken hostage. "Abu Bakr said, 'O Prophet of Allah, these are your people, your family; they are your cousins, fellow clansmen, and nephews. I think that you should accept ransoms for them so that what we take from them will strengthen us.'" Yes, it's true: Islam was financed by kidnapping ransom. The wealth of pagans was forged into the sword of Islam. And Abu Bakr, Muhammad's bloodsucking promoter, was only interested in the money - never religion.
Tabari VII:81 "'What do you think Khattab.' Muhammad asked. 'I say you should hand them over to me so that I can cut off their heads. Hand Hamzah's brother over to him so that he can cut off his head. Hand over Aqil to Ali so that he can cut off his brother's head. Thus Allah will know that there is no leniency in our hearts toward the unbelievers.' The Messenger liked what Abu Bakr said and did not like what I said, and accepted ransoms for the captives." Bloodshed was good; money was better.
This Tradition continues to pull back the veil on Islam. It was a performance, one in which a pagan god played a staring role. Tabari VII:81 "The next day I went to the Prophet in the morning. He was sitting with Abu Bakr, and they were weeping. I said, 'O Messenger of Allah, tell me, what has made you and your companion weep? If I find cause to weep, I will weep with you, and if not, I will pretend to weep because you are weeping.' The Prophet said, 'It is because of the taking of ransoms which has been laid before your companions. It was laid before me that I should punish them instead.' Allah revealed: 'It is not for any Prophet to have captives until he has made slaughter in the land.' After that Allah made booty lawful for them." Because money enabled slaughter, Muhammad would have both.
Ishaq:316 "Following Badr, Muhammad sent a number of raiders with orders to capture some of the Meccans and burn them alive. But on the following day he sent word to us, 'I told you to burn these men if you got hold of them. But I decided that none has the right to punish by fire save Allah. So if you capture them, kill them.'"
The Hadith report on the battle of Badr ends with these words: "On the Badr expedition, the Messenger took the sword of Dhu al-Faqar as booty. It had belonged to Munabbih. On that day he also took Abu Jahl's camel as booty. It was a Mahri dromedary on which he used to go on raids." Nothing but the best for Muhammad - after all, he was a prophet. "It is said that he wrote 'Ma'aqil' [Blood-Money] on his sword."
Blood still dripping from the implements of war, the dark spirit of Islam revealed a surah that made killing a religious duty and thievery a sacred rite: "The Spoils of War." Qur'an 8:1 "They question you about (windfalls taken as) spoils of war. Say: 'Booty is at the disposal of Allah and the Messenger; they belong to Us and are for Our benefit. So fear Allah, and adjust your way of thinking in this matter. Obey Allah and His Messenger.'" How convenient. But this was crass, even for Muhammad. His propensity to steal was obviously being questioned. So he claimed that his god said: "The booty is ours - it belongs to us."
Some might think being a pirate would be a great gig if you could get "god" to sponsor your raids. But for Muhammad, that wasn't enough. He was after more than money. He coveted power, too. So he had his god say: "Obey Allah and the Messenger." Then, for those who were squabbling over the prophet's new career path, he professed: "Adjust your way of thinking and fear me." The Communists used to call it "re-education." But no matter how you interpret this, it isn't religious. It's disgusting.
Muhammad's Companions agree with my assessment: Ishaq:321 "The Spoils of War surah was handed down because we quarreled about the booty. So Allah took it away from us and gave it to His Apostle. When He did, we learned to fear Allah and obey his Messenger." The Hadith goes on to report: "For in truth, our army had gone out with the Prophet seeking the caravan because we wanted its booty."
The Qur'an's attempts at religion were overt efforts to control people through fear, ritual, indoctrination, and taxation: Qur'an 8:2 "The only believers are those who feel fear and terror when Allah is mentioned. When His [Qur'an] revelations [like this one focused on killing and stealing] are recited to them it increases their faith. Muslims establish regular prayers and pay out of the booty We have given them." Muslims who fear will obey - and they will pay.
Conditioning men to be submissive through the implementation of religious rituals was good; motivating them to loot was better. Qur'an 8:4 "These are true Muslims. For them are exalted grades (of honor) with their Lord, and pardon, and a bountiful provision." Who gets the exalted grades of honor, the bountiful provision, you ask? Muslim militants who leave their homes to rob caravans and murder their kin, that's who! Qur'an 8:5 "Your Lord ordered and caused you [the good Muslims] out of your homes to fight for the true cause, even though some Muslims disliked it, and were averse (to fighting). They argued with you concerning this matter [of piracy] even after it was made clear to them. It was as if they were being driven to their death." This verse is speaking to the rift between the "good," warlike, Muslims and the "bad," peaceful ones. Good Muslims were ready, willing, and able to plunder and kill - just as they are today. The bad, peaceful Muslims just wanted to live and let live. But peace was something Allah couldn't tolerate.
Qur'an 8:7 "Behold! Allah promised that one of the two parties would fall and become yours. You (Muhammad) coveted (the caravan,) the one which was not armed." This verse confirms that Muhammad was a pirate, not a general or a prophet. It devastates Islam's credibility. Yet it is often missed because the passage goes on to proclaim the most fearsome words every spoken: "Allah wished to confirm and justify the truth by His words. Wipe the infidels out to the last."
The confirmation is clear. It is the justification that's muddled. Muhammad left Medina with his militants for the express purpose of robbing an unarmed caravan. He wanted money. His god wanted war. The dark spirit of Islam wanted to slaughter and humiliate all those who didn't bow to his authority.
Lucifer enticed men to do his bidding. His goal was to cloud men's minds so that they would no longer recognize truth. Qur'an 8:8 "That He might justify Truth and prove Falsehood false, distasteful though it be to the disbelievers who oppose." The writing quality is dreadful so let me translate this for you. The verse says: the people whose conscience had not yet been eroded opposed terror. That made them "guilty." From Lucifer's perspective, truth could only be justified by killing men with a conscience - men with the ability to discern right from wrong. You are witnessing spiritual warfare of the highest order. And the stakes in this game are men's souls.
Muhammad made a deal with the Devil: Qur'an 8:9 "(Remember,) you implored the assistance of your Lord, and He heard what you requested: 'I will assist you with 1,000 angels, ranks on ranks.'" If ever a verse proved that the Qur'an was as false as its deity, this is it. It is beyond comprehension that the creator of the universe would send his angels to help a pirate. Moreover, can you imagine angels so impotent it takes 1,000 of them to kill fifty merchants?
There is more to this demonic assistance than I have shared thus far. According to both the Hadith and Qur'an, Allah used rain and wind to foil the merchants. Rain was said to have secured the gravel under the militants and undermined the sandy slopes beneath the merchants' feet. And a wind from behind the militant.' backs blew coarse sand in the merchant.' faces, impairing their vision. The Bible calls Lucifer "the prince of the power of the air." He was given control over weather. In the book of Job, Satan uses wind and a thunderstorm to try and lure a man of God away from the truth. He also incites men to kill and steal on his behalf. That is precisely what happened at Badr and for the same reasons. Is it a coincidence or not?
The Hadith and Qur'an reveal something more sinister than just a bad man who craved power, sex, and money. To understand what was at stake, we need to expose the spirit that inspired Islam. And to accomplish this, we must turn to the same place Muhammad turned for enlightenment - the Hebrew Bible. By lifting the majority of the Qur'an from its pages, he left the honest searcher with no option but to compare where they agree and where they conflict. And what we find is that spirit of Islam is identical to that of a fallen angel, Lucifer, or Satan. Allah's nature, character, motivations, means, and limitations are a carbon copy of the Devil's. He deceives men and leads them astray. He enjoys torment, killing, and death. He entices lost souls.
For the purpose of this book, it matters not if you view the Bible as inspired or Satan as real. If you do, you will see Allah more nearly and understand the significance of the problem currently facing our world. If not, it is sufficient that you see Muhammad's words and behavior as deceitful and demented. Either way, the greatest service we can render Muslims is to free them from Islam. In so doing we will free ourselves from the terror this man, his spirit, and doctrine inspire.
Reading on we discover that Muhammad was no better at piracy than he was at prophecy. Qur'an 8:10 "Allah made the victory [killing, kidnapping, and stealing] but a message of hope, a glad tiding, to reassure you. Victory [of this kind] comes only from Allah [Lucifer]. Lo! Allah is Almighty. (Remember) He covered you with slumber, as a security from Him. He sent down rain to clean you of the plague of evil suggestions of Satan, that you might plant your feet firmly." Satan's plague was being cast out of heaven for disobedience. His cure was to bring mankind down to his level.
A Hadith says: Ishaq:321 "Allah sent down water from the sky at night and it prevented the polytheists from getting to the well before us." This Tradition is followed by a hellish one, suggesting the source of the inclement nocturnal weather. Ishaq:322 "I will cast terror into the hearts of those who reject Me. So strike off their heads and cut off their fingers. All who oppose Me and My Prophet shall be punished severely."
Then from the Qur'an: Qur'an 8:12 "Your Lord inspired the angels [fellow demons] with the message: 'I am with you. Go and give firmness to the Believers. I will terrorize the unbelievers. Therefore smite them on their necks and every joint and incapacitate them. Strike off their heads and cut off each of their fingers and toes." Allah is calling himself a terrorist. He is ordering his fellow demons to decapitate and mutilate men so that their fathers, sons, and brothers might rob them. Islam has sunk to a new low.
Ah, but it was justified, according to the spirit of Islam: Qur'an 8:13 "This because they rejected Allah [The Meccans invented Allah; they never rejected him. So this was all about:] and defied His Messenger. If anyone opposes Allah and His Messenger, Allah shall be severe in punishment. That is the torment: 'So taste the punishment. For those infidels who resist there is the torment of Hell.'" While Allah's command to fight is new, as is his bribe of booty, his character hasn't changed. He is the same o.' demented fellow we grew to despise in Mecca. Surrender and obey, or die.
Prophet of Doom
The battle over, the booty collected, the ransoms negotiated, it was time for some situational scriptures. Most religions considered murder, piracy, kidnapping, and terrorism bad, so Muhammad needed a special dispensation.
As before, I will weave the Hadith into the fabric of the Qur'an to give Allah's scriptures the context of time, circumstance, and place they otherwise lack. Tabari VII:80 "When the events of Badr were over, Allah revealed the 8th surah, 'The Spoils of War.' in its entirety. The two armies met [there were no armies - just merchants and militants] and Allah defeated the Meccans [with Muslim swords]. Seventy of them were killed, and seventy were taken captive." The previous death toll was forty-four killed and an equal number brought back for ransom. The lower number is also in line with Ishaq's meticulously documented total of fifty dead, and forty-three taken hostage. "Abu Bakr said, 'O Prophet of Allah, these are your people, your family; they are your cousins, fellow clansmen, and nephews. I think that you should accept ransoms for them so that what we take from them will strengthen us.'" Yes, it's true: Islam was financed by kidnapping ransom. The wealth of pagans was forged into the sword of Islam. And Abu Bakr, Muhammad's bloodsucking promoter, was only interested in the money - never religion.
Tabari VII:81 "'What do you think Khattab.' Muhammad asked. 'I say you should hand them over to me so that I can cut off their heads. Hand Hamzah's brother over to him so that he can cut off his head. Hand over Aqil to Ali so that he can cut off his brother's head. Thus Allah will know that there is no leniency in our hearts toward the unbelievers.' The Messenger liked what Abu Bakr said and did not like what I said, and accepted ransoms for the captives." Bloodshed was good; money was better.
This Tradition continues to pull back the veil on Islam. It was a performance, one in which a pagan god played a staring role. Tabari VII:81 "The next day I went to the Prophet in the morning. He was sitting with Abu Bakr, and they were weeping. I said, 'O Messenger of Allah, tell me, what has made you and your companion weep? If I find cause to weep, I will weep with you, and if not, I will pretend to weep because you are weeping.' The Prophet said, 'It is because of the taking of ransoms which has been laid before your companions. It was laid before me that I should punish them instead.' Allah revealed: 'It is not for any Prophet to have captives until he has made slaughter in the land.' After that Allah made booty lawful for them." Because money enabled slaughter, Muhammad would have both.
Ishaq:316 "Following Badr, Muhammad sent a number of raiders with orders to capture some of the Meccans and burn them alive. But on the following day he sent word to us, 'I told you to burn these men if you got hold of them. But I decided that none has the right to punish by fire save Allah. So if you capture them, kill them.'"
The Hadith report on the battle of Badr ends with these words: "On the Badr expedition, the Messenger took the sword of Dhu al-Faqar as booty. It had belonged to Munabbih. On that day he also took Abu Jahl's camel as booty. It was a Mahri dromedary on which he used to go on raids." Nothing but the best for Muhammad - after all, he was a prophet. "It is said that he wrote 'Ma'aqil' [Blood-Money] on his sword."
Blood still dripping from the implements of war, the dark spirit of Islam revealed a surah that made killing a religious duty and thievery a sacred rite: "The Spoils of War." Qur'an 8:1 "They question you about (windfalls taken as) spoils of war. Say: 'Booty is at the disposal of Allah and the Messenger; they belong to Us and are for Our benefit. So fear Allah, and adjust your way of thinking in this matter. Obey Allah and His Messenger.'" How convenient. But this was crass, even for Muhammad. His propensity to steal was obviously being questioned. So he claimed that his god said: "The booty is ours - it belongs to us."
Some might think being a pirate would be a great gig if you could get "god" to sponsor your raids. But for Muhammad, that wasn't enough. He was after more than money. He coveted power, too. So he had his god say: "Obey Allah and the Messenger." Then, for those who were squabbling over the prophet's new career path, he professed: "Adjust your way of thinking and fear me." The Communists used to call it "re-education." But no matter how you interpret this, it isn't religious. It's disgusting.
Muhammad's Companions agree with my assessment: Ishaq:321 "The Spoils of War surah was handed down because we quarreled about the booty. So Allah took it away from us and gave it to His Apostle. When He did, we learned to fear Allah and obey his Messenger." The Hadith goes on to report: "For in truth, our army had gone out with the Prophet seeking the caravan because we wanted its booty."
The Qur'an's attempts at religion were overt efforts to control people through fear, ritual, indoctrination, and taxation: Qur'an 8:2 "The only believers are those who feel fear and terror when Allah is mentioned. When His [Qur'an] revelations [like this one focused on killing and stealing] are recited to them it increases their faith. Muslims establish regular prayers and pay out of the booty We have given them." Muslims who fear will obey - and they will pay.
Conditioning men to be submissive through the implementation of religious rituals was good; motivating them to loot was better. Qur'an 8:4 "These are true Muslims. For them are exalted grades (of honor) with their Lord, and pardon, and a bountiful provision." Who gets the exalted grades of honor, the bountiful provision, you ask? Muslim militants who leave their homes to rob caravans and murder their kin, that's who! Qur'an 8:5 "Your Lord ordered and caused you [the good Muslims] out of your homes to fight for the true cause, even though some Muslims disliked it, and were averse (to fighting). They argued with you concerning this matter [of piracy] even after it was made clear to them. It was as if they were being driven to their death." This verse is speaking to the rift between the "good," warlike, Muslims and the "bad," peaceful ones. Good Muslims were ready, willing, and able to plunder and kill - just as they are today. The bad, peaceful Muslims just wanted to live and let live. But peace was something Allah couldn't tolerate.
Qur'an 8:7 "Behold! Allah promised that one of the two parties would fall and become yours. You (Muhammad) coveted (the caravan,) the one which was not armed." This verse confirms that Muhammad was a pirate, not a general or a prophet. It devastates Islam's credibility. Yet it is often missed because the passage goes on to proclaim the most fearsome words every spoken: "Allah wished to confirm and justify the truth by His words. Wipe the infidels out to the last."
The confirmation is clear. It is the justification that's muddled. Muhammad left Medina with his militants for the express purpose of robbing an unarmed caravan. He wanted money. His god wanted war. The dark spirit of Islam wanted to slaughter and humiliate all those who didn't bow to his authority.
Lucifer enticed men to do his bidding. His goal was to cloud men's minds so that they would no longer recognize truth. Qur'an 8:8 "That He might justify Truth and prove Falsehood false, distasteful though it be to the disbelievers who oppose." The writing quality is dreadful so let me translate this for you. The verse says: the people whose conscience had not yet been eroded opposed terror. That made them "guilty." From Lucifer's perspective, truth could only be justified by killing men with a conscience - men with the ability to discern right from wrong. You are witnessing spiritual warfare of the highest order. And the stakes in this game are men's souls.
Muhammad made a deal with the Devil: Qur'an 8:9 "(Remember,) you implored the assistance of your Lord, and He heard what you requested: 'I will assist you with 1,000 angels, ranks on ranks.'" If ever a verse proved that the Qur'an was as false as its deity, this is it. It is beyond comprehension that the creator of the universe would send his angels to help a pirate. Moreover, can you imagine angels so impotent it takes 1,000 of them to kill fifty merchants?
There is more to this demonic assistance than I have shared thus far. According to both the Hadith and Qur'an, Allah used rain and wind to foil the merchants. Rain was said to have secured the gravel under the militants and undermined the sandy slopes beneath the merchants' feet. And a wind from behind the militant.' backs blew coarse sand in the merchant.' faces, impairing their vision. The Bible calls Lucifer "the prince of the power of the air." He was given control over weather. In the book of Job, Satan uses wind and a thunderstorm to try and lure a man of God away from the truth. He also incites men to kill and steal on his behalf. That is precisely what happened at Badr and for the same reasons. Is it a coincidence or not?
The Hadith and Qur'an reveal something more sinister than just a bad man who craved power, sex, and money. To understand what was at stake, we need to expose the spirit that inspired Islam. And to accomplish this, we must turn to the same place Muhammad turned for enlightenment - the Hebrew Bible. By lifting the majority of the Qur'an from its pages, he left the honest searcher with no option but to compare where they agree and where they conflict. And what we find is that spirit of Islam is identical to that of a fallen angel, Lucifer, or Satan. Allah's nature, character, motivations, means, and limitations are a carbon copy of the Devil's. He deceives men and leads them astray. He enjoys torment, killing, and death. He entices lost souls.
For the purpose of this book, it matters not if you view the Bible as inspired or Satan as real. If you do, you will see Allah more nearly and understand the significance of the problem currently facing our world. If not, it is sufficient that you see Muhammad's words and behavior as deceitful and demented. Either way, the greatest service we can render Muslims is to free them from Islam. In so doing we will free ourselves from the terror this man, his spirit, and doctrine inspire.
Reading on we discover that Muhammad was no better at piracy than he was at prophecy. Qur'an 8:10 "Allah made the victory [killing, kidnapping, and stealing] but a message of hope, a glad tiding, to reassure you. Victory [of this kind] comes only from Allah [Lucifer]. Lo! Allah is Almighty. (Remember) He covered you with slumber, as a security from Him. He sent down rain to clean you of the plague of evil suggestions of Satan, that you might plant your feet firmly." Satan's plague was being cast out of heaven for disobedience. His cure was to bring mankind down to his level.
A Hadith says: Ishaq:321 "Allah sent down water from the sky at night and it prevented the polytheists from getting to the well before us." This Tradition is followed by a hellish one, suggesting the source of the inclement nocturnal weather. Ishaq:322 "I will cast terror into the hearts of those who reject Me. So strike off their heads and cut off their fingers. All who oppose Me and My Prophet shall be punished severely."
Then from the Qur'an: Qur'an 8:12 "Your Lord inspired the angels [fellow demons] with the message: 'I am with you. Go and give firmness to the Believers. I will terrorize the unbelievers. Therefore smite them on their necks and every joint and incapacitate them. Strike off their heads and cut off each of their fingers and toes." Allah is calling himself a terrorist. He is ordering his fellow demons to decapitate and mutilate men so that their fathers, sons, and brothers might rob them. Islam has sunk to a new low.
Ah, but it was justified, according to the spirit of Islam: Qur'an 8:13 "This because they rejected Allah [The Meccans invented Allah; they never rejected him. So this was all about:] and defied His Messenger. If anyone opposes Allah and His Messenger, Allah shall be severe in punishment. That is the torment: 'So taste the punishment. For those infidels who resist there is the torment of Hell.'" While Allah's command to fight is new, as is his bribe of booty, his character hasn't changed. He is the same o.' demented fellow we grew to despise in Mecca. Surrender and obey, or die.
Prophet of Doom
सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है-
ReplyDeleteफिर उसने (कुरआन को) देखा। फिर (घृणा से) मुँह मोड़ा और फिर अहंकार किया। फिर बोला,“ यह एक जादू है जो पहले से चला आ रहा है, यह मनुष्य का वचन (वाणी है)”
‘मैं, शीघ्र ही उसे ‘सक़र’ (नर्क) में झोंक दूँगा, और तुम्हें क्या मालूम कि सक़र क्या है?
वह न बाक़ी रखेगी, और न छोड़ेगी। वह शरीर को बिगाड़ देने वाली है। उस पर 19 (देवदूत) नियुक्त हैं। और ‘हमने’ उस अग्नि के रखवाले केवल देवदूत (फरिश्ते) बनाए हैं, और ‘हमने’ उनकी संख्या को इनकार करने वालों के लिए मुसीबत और आज़माइश बनाकर रखा है। ताकि पूर्व ग्रन्थ वालों को (कुरआन की सत्यता का) विश्वास हो जाए और आस्तिक किसी शक में न पडें। (पवित्र कुरआन 29:21:31)
मनुष्य का मार्ग और धर्म
पालनहार प्रभु ने मनुष्य की रचना दुख भोगने के लिए नहीं की है। दुख तो मनुष्य तब भोगता है जब वह ‘मार्ग’ से विचलित हो जाता है। मार्ग पर चलना ही मनुष्य का कत्र्तव्य और धर्म है। मार्ग से हटना अज्ञान और अधर्म है जो सारे दूखों का मूल है।
पालनहार प्रभु ने अपनी दया से मनुष्य की रचना की उसे ‘मार्ग’ दिखाया ताकि वह निरन्तर ज्ञान के द्वारा विकास और आनन्द के सोपान तय करता हुआ उस पद को प्राप्त कर ले जहाँ रोग,शोक, भय और मृत्यु की परछाइयाँ तक उसे न छू सकें। मार्ग सरल है, धर्म स्वाभाविक है। इसके लिए अप्राकृतिक और कष्टदायक साधनाओं को करने की नहीं बल्कि उन्हें छोड़ने की ज़रूरत है।
ईश्वर प्राप्ति सरल है
ईश्वर सबको सर्वत्र उपलब्ध है। केवल उसके बोध और स्मृति की ज़रूरत है। पवित्र कुरआन इनसान की हर ज़रूरत को पूरा करता है। इसकी शिक्षाएं स्पष्ट,सरल हैं और वर्तमान काल में आसानी से उनका पालन हो सकता है। पवित्र कुरआन की रचना किसी मनुष्य के द्वारा किया जाना संभव नहीं है। इसके विषयों की व्यापकता और प्रामाणिकता देखकर कोई भी व्यक्ति आसानी से यह जान सकता है कि इसका एक-एक शब्द सत्य है।
आधुनिक वैज्ञानिक खोजों के बाद भी पवित्र कुरआन में वर्णित कोई भी तथ्य गलत नहीं पाया गया बल्कि उनकी सत्यता ही प्रमाणित हुई है। कुरआन की शब्द योजना में छिपी गणितीय योजना भी उसकी सत्यता का एक ऐसा अकाट्य प्रमाण है जिसे कोई भी व्यक्ति जाँच परख सकता है।
प्राचीन धर्म का सीधा मार्ग
ईश्वर का नाम लेने मात्र से ही कोई व्यक्ति दुखों से मुक्ति नहीं पा सकता जब तक कि वह ईश्वर के निश्चित किये हुए मार्ग पर न चले। पवित्र कुरआन किसी नये ईश्वर,नये धर्म और नये मार्ग की शिक्षा नहीं देता। बल्कि प्राचीन ऋषियों के लुप्त हो गए मार्ग की ही शिक्षा देता है और उसी मार्ग पर चलने हेतु प्रार्थना करना सिखाता है।
‘हमें सीधे मार्ग पर चला, उन लोगों का मार्ग जिन पर तूने कृपा की।’ (पवित्र कुरआन 1:5-6)
ईश्वर की उपासना की सही रीति
मनुष्य दुखों से मुक्ति पा सकता है। लेकिन यह इस पर निर्भर है कि वह ईश्वर को अपना मार्गदर्शक स्वीकार करना कब सीखेगा? वह पवित्र कुरआन की सत्यता को कब मानेगा? और सामाजिक कुरीतियों और धर्मिक पाखण्डों का व्यवहारतः उन्मूलन करने वाले अन्तिम सन्देष्टा हज़रत मुहम्मद (स.) को अपना आदर्श मानकर जीवन गुज़ारना कब सीखेगा?
सर्मपण से होता है दुखों का अन्त
ईश्वर सर्वशक्तिमान है वह आपके दुखों का अन्त करने की शक्ति रखता है। अपने जीवन की बागडोर उसे सौंपकर तो देखिये। पूर्वाग्रह,द्वेष और संकीर्णता के कारण सत्य का इनकार करके कष्ट भोगना उचित नहीं है। उठिये,जागिये और ईश्वर का वरदान पाने के लिए उसकी सुरक्षित वाणी पवित्र कुरआन का स्वागत कीजिए।
भारत को शान्त समृद्ध और विश्व गुरू बनाने का उपाय भी यही है।
क्या कोई भी आदमी दुःख, पाप और निराशा से मुक्ति के लिये इससे ज़्यादा बेहतर, सरल और ईश्वर की ओर से अवतरित किसी मार्ग या ग्रन्थ के बारे में मानवता को बता सकता है?
please see
http://hamarianjuman.blogspot.com/2010/02/quran-math-ii.html
आप की लगन अद्भुत है।
ReplyDeleteउजाले की खातिर उछाले कितने ही पत्थर
जाने कैसा आसमाँ है, सुराख ही नहीं होता।
चरैवेति। कठमग़जी कभी तो द्रवित होगी।
तार्किक ढंग से सोचेगी।
उस युग के लिये कुरआन में कही गयी बातें इस युग में दे रहे हो, वह भी मामा के अनुवाद से, इस युग और भविष्य के लिये कही गयी बातों पर आओ
ReplyDeletesignature:
विचार करें कि मुहम्मद सल्ल. कल्कि व अंतिम अवतार और बैद्ध मैत्रे, अंतिम ऋषि
(इसाई) यहूदीयों के भी आखरी संदेष्टा? हैं या यह big Game against Islam है?
antimawtar.blogspot.com (Rank-1 Blog) डायरेक्ट लिंक
अल्लाह का
चैलेंज पूरी मानव-जाति को
अल्लाह का
चैलेंज है कि कुरआन में कोई रद्दोबदल नहीं कर सकता
अल्लाह का
चैलेंजः कुरआन में विरोधाभास नहीं
अल्लाह का
चैलेंजः आसमानी पुस्तक केवल चार
अल्लाह का
चैलेंज वैज्ञानिकों को सृष्टि रचना बारे में
अल्लाह
का चैलेंज: यहूदियों (इसराईलियों) को कभी शांति नहीं मिलेगी
छ अल्लाह के चैलेंज सहित अनेक इस्लामिक पुस्तकें
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आप जैसे एक नहीं करोड़ों इस्लाम दुश्मन पड़ॆ हैं आज से नहीं 1400 सालों से यही काम कर रहे हैं जो आज आप कर रहें है वो ख़ुद तो फ़ना हो गये पर इस्लाम तरक़्क़ी करता गया। असल में आप जैसे लोगों को यह बात हजम नहीं होती की दुनिया के तमाम धर्म अपने मूल स्वरूप से हट्कर आज विकृत रूप में मौजूद हैं मगर इस्लाम कैसे वही असली रूप में मौजूद है। यही इस बात का सबूत है की इसकी निगहबानी ख़ुद दुनिया का पालनहार कर रहा है। अगर यह मुहम्मद का स्वनिर्मित धर्म होता तो 100-150 सालों बाद गायब हो जाता या उससे भी कम। मगर जिसे समझना ही न हो उसे कौन समझाए।
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