सूरह नह्ल १६
(दूसरी किस्त)
सूरतें क्या खाक में होंगी ?
सूरतें क्या खाक में होंगी ?
मुहम्मद ने कुरआन में कुदरत की बख्शी हुई नेमतों का जिस बेढंगे पन से बयान किया है, उसका मज़ाक़ ही बनता है न कि कोई असर ज़हनों पर ग़ालिब होता हो. बे शुमार बार कहा होगा ''मफ़िस समावते वमा फ़िल अरज़े'' यानी आसमानों को( अनेक कहा है ) और ज़मीन (को केवल एक कहा है ). जब कि आसमान, कायनात न ख़त्म होने वाला एक है और उसमें ज़मीने, बे शुमार हैं। वह बतलाते हैं पहाड़ों को ज़मीन पर इस लिए ठोंक दिया कि तुम को लेकर ज़मीन डगमगा न पाए. परिंदों के पेट से निकले हुए अंडे को बेजान बतलाते है और अल्लाह की शान कि उस बेजान से जान दार परिन्द निकल देता है. ज़मीन पर रस्ते और नहरें भी अल्लाह की तामीर बतलाते हैं. कश्ती और लिबासों को भी अल्लाह की दस्तकारी गर्दानते है. मुल्लाजी कहते हैं अल्लाह अगर अक्ल ही न देता तो दस्तकारी कहाँ से आती? मुहम्मद के अन्दर मुफक्किरी या पयंबरी फ़िक्र तो छू तक नहीं गई थी कि जिसे हिकमत, मन्तिक़ या साइंस कहा जाए। ज़मीन कब वजूद में आई? कैसे इरतेकाई सूरतें इसको आज की शक्ल में लाईं, इन को इससे कोई लेना देना नहीं, बस अल्लाह ने इतना कहा'' कुन'', यानी होजा और ''फयाकून'' हो गई. बकौल 'मुनकिर' - - -
तहकीक, गौर ओ फ़िक्र तबीअत पे बोझ थे,
अंदाज़ से जो ज़ेहन में आया उठा लिया।
चुनना था इनको इल्म ओ अक़ीदत में एक को,
आसान थीं अकीदतें सर में जमा लिया।
देखे जहाँ में जिस क़दर क़ुदरत के नाको-नक्श,
इक बुत वहीँ पे रख दिया, धूनी रमा लिया।
जब तक मुसलमान इस कबीलाई आसन पसंदी को ढोता रहेगा, वक़्त इसको पीछे करता जाएगा। जब तक मुसलमान मुसलमान रहेगा उसे यह कबीलाई आसन पसंदी ढोना ही पड़ेगा, जो कुरआन उसको बतलाता है. मुसलमानों के लिए ज़रूरी हो गया है कि वह इसे अपने सर से उठा कर दूर फेंके और खुल कर मैदान में आए. देखिए कि ब्रिज नारायण चकबस्त ने दो लाइनों में पूरी मेडिकल साइंस समो दिया है।
ज़िन्दगी क्या है? अनासिर में ज़हूरे तरतीब,
मौत क्या है? इन्ही अजज़ा का परीशां होना।
कुरआन की सारी हिकमत, हिमाक़त के कूड़े दान में डाल देने की ज़रुरत है अगर ग़ालिब का यह शेर मुहम्मद की फ़िक्र को मयस्सर होता तो शायद कुरानी हिमाक़त का वजूद ही न होता - - -
सब कहाँ कुछ लाला ओ गुल में नुमायाँ हो गईं,
सूरतें क्या खाक में होंगी कि पिन्हाँ हो गईं.
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देखिए कि मुहम्मदी हिमाक़तें क्या क्या गुल खिलाती हैं - - -
''बखुदा आप से पहले जो उममतें हो गुजरी हैं, उनके पास भी हमने भेजा था (?) सो उनको भी शैतान ने उनके आमल मुस्तहसिन करके दिखलाए, पस वह आज उन का रफ़ीक था और उनके वास्ते दर्द नाक सज़ा है।''
सूरह नह्ल पर१४ आयत (६३)
मुहम्मद का एलान कि कुरआन अल्लाह का कलाम है मगर आदतन उसके मुँह से भी बा खुदा कहलाते है। '' जो उम्मतें हो गुज़री हैं, उनके पास भी हमने भेजा था (?)'' क्या भेजा था? यानी '' गोया मतलब शेर का बर बतने-शायर रह गया'' मुतरजजिम मुहम्मद का मददगार बन कर ब्रेकेट में (रसूलों को) लिख देता है। यह कुरआन का ख़ासा है. कोई कुछ दिन किसी के काम आए तो बड़ी बात है फिर चाहे वह शैतान ही क्यूँ नहो हो बनिस्बत झूठे और जालसाज़ रसूलों के।
''और हम ने आप पर यह किताब सिर्फ इस लिए नाज़िल की है कि जिन उमूर पर लोग इख्तेलाफ़ कर रहे हैं, आप लोगों पर इसे ज़ाहिर फ़रमा दें और ईमान वालों को हिदायत और रहमत की ग़रज़ से. और तुम्हारे लिए मवेशी भी गौर दरकार हैं, इन के पेट में जो गोबर और खून है, इस के दरमियान में से साफ़ और आसानी से उतरने वाला दूध हम तुम को पीने को देते हैं. और खजूर और अंगूरों के फलों से तुम लोग नशे की चीज़ और उम्दा खाने चीज़ें बनाते हो. बे शक इसमें समझने के लिए काफी दलीलें हैं जो अक्ल रखते हैं.''
सूरह नह्ल पर१४ आयत (६४-६७)
तब्दीलियाँ कानूने-फितरत है जो वक़्त के हिसाब से खुद बखुद आती रहती हैं। मुहम्मद ने अपना दीन थोपने के लिए ''तबदीली बराए तबदीली'' की है जो कठ मुल्लाई पर आधारित थी. खास कर औरतें इस में हाद्सती लुक्मा हुईं. क़ब्ले-इस्लाम औरतों को यहाँ तक आज़ादी थी कि शादी के बाद भी वह समाज के लायक़ ओ फ़ायक़ फर्द से, अपने शौहर की रज़ामंदी के बाद, महीने से फ़ारिग होकर, नहा धो के, उसकी ''शर्म गाह'' को तलब कर सकती थीं और तब तक के लिए जब तक कि वह हामला न हो जाएँ . ये रस्म अरब में अलल एलन थी और काबिले-सताइश थी, जैसा की भारत में नियोग की प्रथा हुवा करती थी. मुहम्मद ने अनमोल कल्चर का गला गोंट दिया, मुसलमानों को सिर्फ यही याद रहने दिया गया कि सललललाहो अलैहेवसल्लम ने बेटियों को जिंदा दफ़नाने को रोका.कठ मुल्ले ने गोबर, खून और दूध का अपने मंतिक बयानी से कैसा गुड गोबर किया है.
''और आप के रब ने शाहेद की मक्खी के जी में यह बात डाली कि तू पहाड़ में घर बनाए और दरख्तों में और जो लोग इमारते बनाते हैं इनमें, फिर हर किस्म के फलों को चूसती फिर,फिर अपने रब के रास्तों पर चल जो आसन है। उसके पेट में से पीने की एक चीज़ निकलती है, जिस की रंगतें मुख्तलिफ होती हैं कि इन में लोगों के लिए शिफ़ा है. इस में इन लोगों के लिए बड़ी दलील है जो सोचते हैं.''
सूरह नह्ल पर१४ आयत (६८-६९)
मुहम्मद का मुशाहिदा शाहेद की मक्खियों पर कि जिनको इतना भी पता नहीं की मक्खियाँ फलों का नहीं फूलों का रस चूसती हैं। रब का कौन सा रास्ता है जिन पर हैवान मक्खियाँ चलती हैं?या अल्लाह कहाँ मक्खियों के रास्तों पर हज़ारों मील योमिया मंडलाया करता है? मगर तफ़सीर निगार कोई न कोई मंतिक गढ़े होगा।
''और अल्लाह तअला ने तुम को पैदा किया, फिर तुम्हारी जान कब्ज़ करता है और बअज़े तुम में वह हैं जो नाकारा उम्र तक पहंचाए जाते हैं कि एक चीज़ से बा ख़बर होकर फिर बे ख़बर हो जाता है । . . और अल्लाह तअला ने तुम में बअज़ों को बअज़ों पर रिज्क़ में फ़ज़ीलत दी है, वह अपने हिस्से का मॉल गुलामों को इस तरह कभी देने वाले नहीं कि वह सब इस पर बराबर हो जावें. क्या फिर भी खुदाए तअला की नेमत का इंकार करते हो. और अल्लाह तअला ने तुम ही में से तुम्हारे लिए बीवियाँ बनाईं और बीवियों में से तुम्हारे लिए बेटे और पोते पैदा किए और तुम को अच्छी चीज़ें खाने कोदीं, क्या फिर भी बे बुन्याद चीजों पर ईमान रखेंगे . . ।
सूरह नह्ल पर१४ आयत (७०-७२)
न मुहम्मद कोई बुन्याद कायम कर पा रहे हैं और न मुखालिफ़ को को बे बुन्याद साबित कर पा रहे हैं। बुत परस्त भी बुतों को तवस्सुत मानते थे, न कि अल्लाह. तवस्सुत का रुतबा छीन लिया बड़े तवस्सुत बन कर खुद मुहम्मद ने. मुजरिम बेजान बुत कहाँ ठहरे? मुजरिम तो गुनेह्गर मुहम्मद साबित हो रहे हैं जिन्हों ने आज तक करोरो इंसानी जिंदगियाँ वक़्त से पहले खत्म कर दीं. अफ़सोस कि करोरो जिंदगियां दाँव पर लगी हुई हैं।
''और अल्लाह तअला ने तुम को तुम्हारी माओं के पेट से इस हालत में निकाला कि तुम कुछ भी न जानते थे और इसने तुम को कान दिए और आँख और दिल ताकि तुम शुक्र करो. क्या लोगों ने परिंदों को नहीं देखा कि आसमान के मैदान में तैर रहे हैं, इनको कोई नहीं थामता.बजुज़ अल्लाह के, इस में ईमान वालों के लिए कुछ दलीलें हैं. और अल्लाह तअला ने तुम्हारे लिए जानवरों के खाल के घर बनाए जिन को तुम अपने कूच के दिन हल्का फुल्का पाते हो और उनके उन, बाल और रोएँ से घर की चीज़ें बनाईं . . . और मखलूक के साए . . . पहाड़ों की पनाहें . . . ठन्डे कुरते . . . और जंगी कुरते बनाए ताकि तुम फरमा बरदार रहो. फिर भी अगर यह लोग एतराज़ करें तो आप का ज़िम्मा है साफ़ साफ़ पहुंचा देना।
सूरह नह्ल पर१४ आयत (७८-८२)
यह है कुरानी हकीकत किसी पढ़े लिखे गैर मुस्लिम के सामने दावते-इस्लाम के तौर पर ये आयतें पेश करके देखिए तो वह कुछ सवाल उल्टा आप से खुद करेगा - - -
।१-अल्लाह ने कान दिए और आँख और दिल - - - सुनने, देखने और एहसास करने के लिए दिए हैं कि शुक्र अदा करने के लिए?
२- और अब हवाई जहाज़, रॉकेट और मिसाइलें कौन थामता है? ईमान वालों के पस अक़ले-सलीम है?
३-अब हम जानवरों की खाल नहीं बुलेट प्रूफ़ जैकेट पहेनते हैं उन,बाल और रोएँ का ज़माना लद गया, हम पोलोथिन युग में जी रहे हैं, तुम भी छोड़ो, इस बाल की खाल में जीना और मरना। जो कुछ है बस इसी दुन्या में और इसी जिंदगी में है.?
४-हम बड़े बड़े टावर बना रहे हैं और मुस्लमान अभी भी पहाड़ों में रहने की बातों को पढ़ रहा है? और पढ़ा रहा है?
५-बड़े बड़े साइंसदानों का शुक्र गुज़र होने के बजाय इन फटीचर सी बातों पर ईमान लाने की बातें कर रहे हो.?
६- तुम्हारे इस उम्मी रसूल पर जो बात भी सलीके से नहीं कर पता? तायफ़ के हाकिम ने इस से बात करने के बाद ठीक ही पूछा था, '' क्या अल्लाह को मक्का में कोई ढंग का पढ़ा लिखा शख्स नहीं मिला था जो तुम जैसे जाहिल को पैग़म्बरबना दिया।''
''और वह लोग खुदा के नेमत को पहचानते हैं, फिर इसके मुनकिर होते हैं, और ज्यादह तर इनमें न सिपास हैं।''
सूरह नह्ल पर१४ आयत (८३)
मुहम्मद क़ुदरत की नेमतों को तस्लीम कराते हैं, फिर कहते हैं कि इन्हीं के खालिक अल्लाह का कलाम हम तुम लोगों को सुनते हैं, उसी ने मुझे अपना रसूल बना कर तुम सब पर नाज़िल किया है, इस बात को लेकर लोग उखड जाते हैं तो मुहम्मद उन लोगों को एहसान फ़रामोश कहते हैं, अल्लाह की बख्शीश का। देखिए कि दूर की, कौड़ी दिमागी तिकड़म, अल्लाह बन जाने की दौड़ में बन्दा हकीर. मुहम्मदी अल्लाह क़यामती पंचायत क़ायम करता है जिसमें वह खुद और उसके नबी हाकिम और गवाह होते हैं, काफ़िर मुद्दई बन कर मुक़दमा दायर करता है, बेढब अल्लाह उन की सजा बढ़ा देता है, ऐसा बार बार मुहम्मद अपने क़ुरआनी बकवास में दोहराते हैं.
मुहम्मद क़ुदरत की नेमतों को तस्लीम कराते हैं, फिर कहते हैं कि इन्हीं के खालिक अल्लाह का कलाम हम तुम लोगों को सुनते हैं, उसी ने मुझे अपना रसूल बना कर तुम सब पर नाज़िल किया है, इस बात को लेकर लोग उखड जाते हैं तो मुहम्मद उन लोगों को एहसान फ़रामोश कहते हैं, अल्लाह की बख्शीश का। देखिए कि दूर की, कौड़ी दिमागी तिकड़म, अल्लाह बन जाने की दौड़ में बन्दा हकीर. मुहम्मदी अल्लाह क़यामती पंचायत क़ायम करता है जिसमें वह खुद और उसके नबी हाकिम और गवाह होते हैं, काफ़िर मुद्दई बन कर मुक़दमा दायर करता है, बेढब अल्लाह उन की सजा बढ़ा देता है, ऐसा बार बार मुहम्मद अपने क़ुरआनी बकवास में दोहराते हैं.
सूरह नह्ल पर१४ आयत (८४-९०)
''और तुम लोग उस औरत के मुशाबह मत बनो जिसने अपना सूत काते, पीछे बोटी बोटी करके नोच डाला -- - और अल्लाह तअला को अगर मंज़ूर होता तो वह सब को एक तरह ही बना देते लेकिन जिस को चाहते हैं बे राह कर देते हैं और जिसको चाहते हैं राह पर डाल देते हैं और तुम से तुम्हारे आमाल की बाज़पुर्स ज़रूर होगी.''
सूरह नह्ल पर१४ आयत (९१-९३)
अल्लाह अपने बन्दों को उन पागल अपनी बंदियों की तरह बनने को मना करता है जिनको काते हुए सूत को बोटियों की तरह नोचने वाला बना रक्खा है। वह भी अल्लाह की बनाई हुई हैं मगर उन जैसा ना बनना, वह तो नमूना है कि कहीं उनकी तरह ना बन जाओ. हालांकि ''अल्लाह तअला को अगर मंज़ूर होता तो वह सब को एक तरह का ही बना देते'' मगर उनको दोज़ख और जन्नत का तमाशा जो देखना था, तभी तो ''जिसको चाहते हैं राह पर डाल देते हैं'' और ''जिस को चाहते हैं बे राह कर देते हैं'' अब भला बतलाइए कि इन्सान के बस में क्या राह गया है? सिवाए अल्लाह के मर्ज़ी के। या आलावा मुहम्मद के गुलामी के. मुसलमानों कैसे तुमको समझया जाए कि तुम्हारा अल्लाह एक फ्राड है, तुहारा रसूल महा फ्राड।
अल्लाह अपने बन्दों को उन पागल अपनी बंदियों की तरह बनने को मना करता है जिनको काते हुए सूत को बोटियों की तरह नोचने वाला बना रक्खा है। वह भी अल्लाह की बनाई हुई हैं मगर उन जैसा ना बनना, वह तो नमूना है कि कहीं उनकी तरह ना बन जाओ. हालांकि ''अल्लाह तअला को अगर मंज़ूर होता तो वह सब को एक तरह का ही बना देते'' मगर उनको दोज़ख और जन्नत का तमाशा जो देखना था, तभी तो ''जिसको चाहते हैं राह पर डाल देते हैं'' और ''जिस को चाहते हैं बे राह कर देते हैं'' अब भला बतलाइए कि इन्सान के बस में क्या राह गया है? सिवाए अल्लाह के मर्ज़ी के। या आलावा मुहम्मद के गुलामी के. मुसलमानों कैसे तुमको समझया जाए कि तुम्हारा अल्लाह एक फ्राड है, तुहारा रसूल महा फ्राड।
''तो जब आप कुरआन पढना चाहें तो शैतान मरदूद से अल्लाह की पनाह मांग लिया करें यकीनन इसका काबू उन लोगों पर नहीं चलता जो इमान रखते हैं और अपने रब पर भरोसा रखते हैं।
सूरह नह्ल पर१४ आयत (९८-९९)
यानी शैतान इंसानी दिमाग पर इतना ग़ालिब रहता है कि अल्लाह भी इस का क़ायल है। इसके गलबा से महफूज़ रहने के लिए अल्लाह की पनाह मांगी जाय. ज़ालिम है ही ऐसी चीज़, लाख दे पनाह अल्लाह, चंद लम्हों में अंगड़ाई लेती हुई महबूबा की शक्ल में शैतान आँखों के सामने आया कि अल्लाह फुर्र. बेकारों के लिए ज़रीआ मुआश खुदा है, कुरआन नहीं, साइंस दानों के लिए उक्दा कुशाई मंजिले मक़सूद है कुरआन नहीं, मुहम्मद की रची हुई कुरआन नक़ायस इंसानी क्या, बल्कि नक़ायस ए मखलूकात का दर्जा रखती है.
''और जब हम किसी आयत को बजाए दूसरी आयत के बदलते हैं और हालांकि अल्लाह तअला जो हुक्म देता है, इसको वही खूब जनता है तो यह लोग कहते हैं कि आप इफतरा करने वाले हैं बल्कि इन्हीं में से कुछ लोग जाहिल हैं. आप फरमा दीजिए कि इसको रूहुल क़ुद्स, आप के रब की तरफ़ से हिकमत के मुवाफ़िक़ लाए हैं ताकि ईमान वालों को साबित क़दम रखें और मुसलमानों के लिए खुश खबरी हो जाए. और हम को मालूम है कि लोग कहते हैं इनको तो आदमी सिखला जाता है. जिस शख्स की तरफ़ यह निसबत करते हैं उसकी ज़ुबान तो अजमी है और यह कुरआन साफ़ अरबी में है.''
सूरह नह्ल पर१४ आयत (१०१-१०३)
इंसानों पर बहुत ही गराँ वक़्त था क्या हिंदी क्या अरबी। मुहम्मद के गिर्द निहायत लाखैरे क़िस्म के लोग रहा करते थे, उस वक़्त पेट भर जाने का मसअला ही बहुत बड़ा था, उनमे अरबी अजमी, ईसाई ,यहूदी और काफिरों-मुशरिक सभी नज़र्यात की टोली मुहम्मद के समर्थकों में थी। ऐसे में वह लोग मुहम्मद की मदद करते क़ुरआनी आयतों में , कभी कोई ग़लत आयत मुहम्मद के मुँह से बहैसियत क़ुरआनी आयत निकल जाती और उसके जानकर शोर मचाते तो उसको वापस लेना पड़ता तब अवाम तअना देती कि क्या अल्लाह भी ग़लती करता है? तब मुहम्मद बड़ी बे शर्मी के साथ मुकाबिला करते। द्ल्लाम नाम के एक ईसाई की उस वक़्त बड़ी चर्चा थी कि वह मुहम्मद का क़ुरआनी रहबर है। यह आयत उसी के संदर्भ में है.
जीम। मोमिन ''निसारुल ईमान''
हमारी और भी गवाहियाँ हैं
The Nimrodian Tradition continues to scuttle any last remnant of credibility Islam may have otherwise retained: Tabari II:108 "They took off from Jerusalem and they fell down in the Mountain of Smoke। When Nimrod saw that this method would accomplish nothing, he began building the tower - taller and taller। Then he voided excrement through it। Allah seized his building by its foundations and the roof fell down upon them and doom came upon them whence they knew not।" [Qur'an 16:26] Dare we poke through the excrement and find Allah's little problem? Or do we just chalk this one up to diarrhea of the mouth?We've come this far। Why give up now? Hold your nose if you must। Verses 22-25 of the 16th surah say that non-Muslims are puffed up with pride (probably from holding their noses) and living in denial. But Allah is on to them like stink on...well, you know what. The Big Guy asks, "'What has your Lord sent down.' They answer, 'Tales from long ago.'" In other words, a blend of plagiarism and stolen Hebrew and Babylonian myths. As you will discover in the "Source Material" appendix, the Islamic clerics in Baghdad who fleshed out the Qur'an in the eighth century attempted to make it seem more religious by usurping myths and fables from the Talmud, uninspired Jewish folklore.That somehow leads us to this: Qur'an 16:26 "Those that have gone before them had also conspired; [Have you noticed how many plots there are in the Qur'an? Everybody has a conspiracy going, even Allah.] Then Allah uprooted their structure from its foundation; the roof fell over them from above, and punishment came upon them from where they did not suspect." Okay, I understand. Without the context of the Hadith the Qur'an doesn't make sense. But with the context, nothing makes sense.Qur'an 68:15 "When you recite Our proofs and verses (from the Qur'an) they cry, 'Tales of the ancients, mere fables of long ago.' Soon shall We muzzle them and brand the beast on the snout!" Ouch! Muhammad's Lord chafes when he's called a plagiarizer. Must be hitting a little too close to home. Let's turn to the Sira to see how close... Ishaq:180 "According to my information, the Apostle often sat by a young Christian slave named Jabr. The Meccans said, 'He is the one who teaches Muhammad most of what he brings.'" Then Allah revealed, Qur'an 16:103 "We know what they (pagans) say: 'It is only a mortal man who teaches him (Muhammad). But the tongue of the man they wickedly point to is notably foreign, while this (Qur'an) is pure Arabic.'" When accused of plagiarism, the best Team Islam could do was to claim that the Bible Jabr was quoting from wasn't written in Arabic. That's a problem. First, by responding to the Meccan's claim that Muhammad was out of his mind, a demon-possessed madman, plagiarizing scripture, the Qur'an confirmed that these were legitimate concerns. Muhammad's kin were convinced he was demon possessed and insane.Second, the Qur'an continues to reflect man's least civil nature rather than rising above the fray and inspiring humankind. Name-calling isn't divine and the never-ending argument isn't motivational. Further, without the supplemental "scripture" from the Hadith, the Qur'an's response is senseless. No one would have any way of knowing who was talking to whom, or why. Senseless material that floats aimlessly outside place, circumstance, and time doesn't belong in a book that claims to be dictated word for word by God.Third, if Arabic was Allah's chosen language for revelation, why were "his" earlier revelations written in Hebrew and Greek? And as illiterates, Team Islam remains confused as to how translations work. Words are just tools, names for things and ideas mankind uses to convey a message. Every language has a word for demon, god, mad, and plagiarize. But this argument goes to the root of why today's Muslims say their Qur'anic message can't be translated - they still don't understand the nature of language. Little do they know, the Greek Gospels they are so fond of claiming credit for literally began their existence as translations of Aramaic conversations.Fourth, the source of the Qur'an's inspiration and its audience was so dimwitted, the claim was posited that changing the language obfuscated the source. That's as lame as Muslims claiming that Muhammad couldn't have stolen his Qur'an from the Bible because he couldn't read, suggesting the surahs were miraculous. Yet even the Qur'an pokes holes in this argument by saying the Jews incorrectly read their scriptures to Muhammad, saying words that weren't really on their scrolls. All this Christian source had to do was to verbally convey the gist of the Biblical stories. And judging by the quality of the material we are reading, the prophet was qualified to twist them from there.Fifth, by bringing this argument, the Qur'an injured itself. The rebuttal is a lie. The Qur'an wasn't written in "pure Arabic." The plethora of parentheses in the Qur'an text we have been examining proves this. They were put there to fill in missing words, fix the grammatical errors, solve the problem of dangling participles, and render a discernable message. Moreover, as you'll discover in the "Source Material" appendix, the Qur'an's most important words are foreign. They are Christian Syriac or Rabbinic Hebrew. Allah's book contains many words that have no meaning in any language, including Arabic. In its defense, the Qur'an says only Allah knows what they mean. But that defeats the whole purpose of scripture.While we're on the subject of exposing the words of fools, the 16th surah says: Qur'an 16:103 "When we replace a message with another, and Allah knows best what He reveals, they say: 'You have made it up.'" The Meccans recognized that Muhammad's Qur'an recitals were conflicting, and that the prophet couldn't keep his stories straight. They knew that internal contradiction was the surest sign that something was bogus. Since Muhammad wasn't able to refute his critic's claims, he had his spirit friend belittle them. Even today, unable to defend Islam, Muslims slander and threaten their accusers.
The Nimrodian Tradition continues to scuttle any last remnant of credibility Islam may have otherwise retained: Tabari II:108 "They took off from Jerusalem and they fell down in the Mountain of Smoke। When Nimrod saw that this method would accomplish nothing, he began building the tower - taller and taller। Then he voided excrement through it। Allah seized his building by its foundations and the roof fell down upon them and doom came upon them whence they knew not।" [Qur'an 16:26] Dare we poke through the excrement and find Allah's little problem? Or do we just chalk this one up to diarrhea of the mouth?We've come this far। Why give up now? Hold your nose if you must। Verses 22-25 of the 16th surah say that non-Muslims are puffed up with pride (probably from holding their noses) and living in denial. But Allah is on to them like stink on...well, you know what. The Big Guy asks, "'What has your Lord sent down.' They answer, 'Tales from long ago.'" In other words, a blend of plagiarism and stolen Hebrew and Babylonian myths. As you will discover in the "Source Material" appendix, the Islamic clerics in Baghdad who fleshed out the Qur'an in the eighth century attempted to make it seem more religious by usurping myths and fables from the Talmud, uninspired Jewish folklore.That somehow leads us to this: Qur'an 16:26 "Those that have gone before them had also conspired; [Have you noticed how many plots there are in the Qur'an? Everybody has a conspiracy going, even Allah.] Then Allah uprooted their structure from its foundation; the roof fell over them from above, and punishment came upon them from where they did not suspect." Okay, I understand. Without the context of the Hadith the Qur'an doesn't make sense. But with the context, nothing makes sense.Qur'an 68:15 "When you recite Our proofs and verses (from the Qur'an) they cry, 'Tales of the ancients, mere fables of long ago.' Soon shall We muzzle them and brand the beast on the snout!" Ouch! Muhammad's Lord chafes when he's called a plagiarizer. Must be hitting a little too close to home. Let's turn to the Sira to see how close... Ishaq:180 "According to my information, the Apostle often sat by a young Christian slave named Jabr. The Meccans said, 'He is the one who teaches Muhammad most of what he brings.'" Then Allah revealed, Qur'an 16:103 "We know what they (pagans) say: 'It is only a mortal man who teaches him (Muhammad). But the tongue of the man they wickedly point to is notably foreign, while this (Qur'an) is pure Arabic.'" When accused of plagiarism, the best Team Islam could do was to claim that the Bible Jabr was quoting from wasn't written in Arabic. That's a problem. First, by responding to the Meccan's claim that Muhammad was out of his mind, a demon-possessed madman, plagiarizing scripture, the Qur'an confirmed that these were legitimate concerns. Muhammad's kin were convinced he was demon possessed and insane.Second, the Qur'an continues to reflect man's least civil nature rather than rising above the fray and inspiring humankind. Name-calling isn't divine and the never-ending argument isn't motivational. Further, without the supplemental "scripture" from the Hadith, the Qur'an's response is senseless. No one would have any way of knowing who was talking to whom, or why. Senseless material that floats aimlessly outside place, circumstance, and time doesn't belong in a book that claims to be dictated word for word by God.Third, if Arabic was Allah's chosen language for revelation, why were "his" earlier revelations written in Hebrew and Greek? And as illiterates, Team Islam remains confused as to how translations work. Words are just tools, names for things and ideas mankind uses to convey a message. Every language has a word for demon, god, mad, and plagiarize. But this argument goes to the root of why today's Muslims say their Qur'anic message can't be translated - they still don't understand the nature of language. Little do they know, the Greek Gospels they are so fond of claiming credit for literally began their existence as translations of Aramaic conversations.Fourth, the source of the Qur'an's inspiration and its audience was so dimwitted, the claim was posited that changing the language obfuscated the source. That's as lame as Muslims claiming that Muhammad couldn't have stolen his Qur'an from the Bible because he couldn't read, suggesting the surahs were miraculous. Yet even the Qur'an pokes holes in this argument by saying the Jews incorrectly read their scriptures to Muhammad, saying words that weren't really on their scrolls. All this Christian source had to do was to verbally convey the gist of the Biblical stories. And judging by the quality of the material we are reading, the prophet was qualified to twist them from there.Fifth, by bringing this argument, the Qur'an injured itself. The rebuttal is a lie. The Qur'an wasn't written in "pure Arabic." The plethora of parentheses in the Qur'an text we have been examining proves this. They were put there to fill in missing words, fix the grammatical errors, solve the problem of dangling participles, and render a discernable message. Moreover, as you'll discover in the "Source Material" appendix, the Qur'an's most important words are foreign. They are Christian Syriac or Rabbinic Hebrew. Allah's book contains many words that have no meaning in any language, including Arabic. In its defense, the Qur'an says only Allah knows what they mean. But that defeats the whole purpose of scripture.While we're on the subject of exposing the words of fools, the 16th surah says: Qur'an 16:103 "When we replace a message with another, and Allah knows best what He reveals, they say: 'You have made it up.'" The Meccans recognized that Muhammad's Qur'an recitals were conflicting, and that the prophet couldn't keep his stories straight. They knew that internal contradiction was the surest sign that something was bogus. Since Muhammad wasn't able to refute his critic's claims, he had his spirit friend belittle them. Even today, unable to defend Islam, Muslims slander and threaten their accusers.
Prophet of Doom
क्या साहब कहां से लाते हैं इतनी यथार्थपरक जानकारी...
ReplyDeleteमोमिन : एक क्रांति का नाम है. मोमिन ने इस्लाम के कुत्तों को उनकी औकात बता दी है.
ReplyDeleteइस्लाम अय्याशी और हिंसा का मजहब है. इसको मानने वाले मुहम्मद उमर कैरान्वी, जमाल, असलम कासमी, सलीम खान, अयाज अहमद, सफत आलम, एजाज इदरीसी, जीशान, इम्पैक्ट, खुर्सीद जैसे देशद्रोही, कृतध्न, जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं, ब्लोगों पर हिन्दुओं के विरुद्ध इतना विष वामन करते हैं तो इनकी मस्जिदों में क्या नही होता होगा? कोई भी अनुमान लगा सकता है. विदेश से पैसा लेकर इस्लाम का प्रचार और हिन्दू धर्म का अपमान कर रहे हैं.
चमन में होने दो बुलबुल को फूल के सदके
ReplyDeleteबलिहारी जाऊँ मै तो अपने रसूल के सदके
सदा बहार सजीला है रसूल मेरा
हो लाखपीर रसीला है रसूल मेरा
जहे जमाल छबीला है रसूल मेरा
रहीने इश्क रंगीला है रसूल मेरा
चमन में होने दो बुलबुल को फूल के सदके
बलिहारी जाऊँ मै तो अपने रसूल के सदके
किसी की बिगड़ी बनाना है ब्याह कर लेंगे
बुझा चिराग जलाना है ब्याह कर लेंगे
किसी का रूप सुहाना है ब्याह कर लेंगे
किसी के पास खजाना है ब्याह कर लेंगे
चमन में होने दो बुलबुल को फूल के सदके
बलिहारीजाऊँ मै तो अपने रसूल के सदके
मंधाता की पत्नी शशिबिन्दु से बिन्दुमती नाम की लड़की हुई। उससे पुरुकुत्स, अम्बरीष (द्वितीय) तथा मुचुकुंद हुए। तथा इनके पचास बहनें थीं। पचासों बहनों के साथ सौभरि ब्राह्मण ने विवाह कर लिया। कहानी इस प्रकार हैᄉ एक बार एक मल्लाह यमुना नदी के पास अपनी पत्नियों के साथ विहार कर रहा था। वहीं सौभरि ब्राह्मण जल में खड़े तपस्या कर रहे थे। निषाद को जलक्रीड़ा करते देख वह कामांध हो गया। वहां से राजा मंधाता के पास गया और मंधाता से एक कन्या का विवाह अपने साथ करने को कहा।
ReplyDeleteराजा ने कहा कि इनमें से कोई पसंद कर लें और विवाह कर लीजिए। ब्राह्मण बूढ़ा और कमजोर था। नसें दिखाई पड़ रही थीं। आंखें कमजोर, बाल सफेद हो गये थे। उसने कहा मुझे पचासों पसंद हैं। उसने पचासों उस बूढ़े ब्राह्मण सौभरि को दे दीं।
उस समय क्षत्रिायों के यहां लड़कियां मार दी जाती थीं। ब्राह्मणों को बिना ब्याहे ही दान दे दिया करते थे। पचासों लड़कियां उस बूढ़े ब्राह्मण के साथ जंगल चली गयीं। घुट घुट कर मर गयीं।
मंधाता के पुत्राों में अम्बरीष था। मंधाता के वंश तीन अवांतर गोत्राों के प्रवर्तक हुए। पुरुकुत्स का विवाह नर्मदा नाम की कन्या जो, नागवंश की थी, के साथ हुआ। वह दक्षिणी भारत का राजा था। उससे त्रासदस्यु, त्रासदस्यु से अनरण्य, अनरण्य से हर्यश्रव उसके अरुण और त्रिाबंधन हुए। त्रिाबंधन से सत्यव्रत हुआ। वही पिता व गुरु की आज्ञा न मानने पर चांडाल हो गया। यहीं से चांडाल वंश चला। उसे देवताओं ने स्वर्ग से ढकेल दिया। वह बीच में लटक गया। अर्थात् न शूद्र रहा न आर्य। वह चांडाल हो गया तो शव जलाने का काम करता था। उसे ही त्रिाशंकु कहते हैं।
हरिश्चंद्रᄉ त्रिाशंकु का पुत्रा हरिश्चंद्र था। वरुण देव की कृपा से उसके रोहित नाम का पुत्रा हुआ। यह वही हरिश्चंद्र हैं जिन्हें सत्यवादी कहा जाता है। वास्तविकता यह है कि वे काशी में चांडाल के यहां बेचे नहीं गये थे। बल्कि विश्वामित्रा द्वारा छल से राजपाट छीन लिए जाने के बाद अपने रिश्तेदार काशी के कालू डोम के यहां पत्नी सहित रहने लगे थे और श्मशान घाट में मुर्दे जलाते थे।
वरुण ने पुत्रा उत्पन्न करने के पूर्व हरिश्चंद्र से उसके पुत्रा को यज्ञ में यजन करने का वादा कराया था। यजन का अर्थ बलि से है। रोहित को यज्ञ पशु मान कर जन्म के दस दिन बाद उसे यज्ञ में बलि के लिए कहा।
हरिश्चंद्र ने कहा यज्ञ पशु के जब दांत निकल आयेंगे, तब यज्ञ योग्य होगा।
जब दांत आ गये तब वरुण ने कहा अब बलि के लिए दो। हरिश्चंद्र ने कहा जब दांत गिर जायेंगे, तब यज्ञ योग्य होगा। दूध के दांत गिर गये। वरुण ने फिर वही बात दोहरायी। हरिश्चंद्र ने कहा पुनः दांत उग आने पर बलि के योग्य होगा।
दांत आने पर हरिश्चंद्र ने कहा कि क्षत्रिाय पशु तब यज्ञ के योग्य होता है जब कवच धारण करने लगे। इस तरह वरुण चांडाल वंश को नष्ट करना चाहता था।
रोहित को पता चला कि वरुण मुझे बलि दिलाना चाहता है तो वह अपने प्राणों की रक्षा में धनुष लेकर जंगल चला गया। वरुण ने नाराज होकर हरिश्चंद्र पर आक्रमण कर दिया। रोहित ने अपने पिता की सहायता के लिए वन से लौटना चाहा तो इंद्र ने रास्ते में मना कर दिया। जितनी बार रोहित घर लौटने की सोचता, इंद्र बूढ़ा ब्राह्मण बन कर उसको रोक देता।
इधर वरुण को मझले पुत्रा शुनशेय को देकर यज्ञ पुत्रा बना कर उसकी बलि दी। उस यज्ञ में विश्वामित्रा होता थे। जमदग्नि, वशिष्ठ, ब्रह्मा आदि यज्ञ में शामिल थे। उसके मझले पुत्रा की बलि से इंद्र आदि प्रसन्न थे।
इतनी निर्दयी कथाओं को सुन कर हिन्दू समाज प्रसन्न होता है। एक भी हिन्दू ऐसा नहीं है जो इनके घृणित कार्यों की निन्दा करे। इतनी कठोर यातनाएं देने के बाद हरिश्चंद्र को राज्य का अवसर दिया।
भारत के विनाश और पतन का कारण केवल ब्राह्मण हैं। मेरे लेखों से यह सच्चाई उजागर होते देखकर जनाब बी. एन. शर्मा परेशान हो गये और किसी मत में विश्वास न रखने के बावजूद वे ब्राह्मणी मायाजाल की रक्षा में कमर कसकर मैदान में कूद गये। उन्होंने इस्लाम के बारे में जो कुछ भी कहा वह केवल इसलिये ताकि लोग इस्लाम के नियमों को मानकर ब्राह्मणी मायाजाल से मुक्त न हो जाएं।
ReplyDeleteइस्लाम के युद्धों में कमियां निकालने वालों को डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा ‘अज्ञात‘ का यह लेख देखना चाहिये।
क्या वेद अहिंसावादी हैं ? - डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा ‘अज्ञात‘ The True Hindu
नीचे इंद्र और उसके युद्धों का वर्णन करने वाले कुछ मंत्र प्रस्तुत हैं :
त्वमेतात्र् जनराज्ञो द्विदशाबंधुना सुश्रवसोपजग्मुषः ,
षष्टिं सहसा नवतिं नव श्रुतो नि चक्रेण रथ्या दुष्पदावृणक्
( ऋग्वेद , 1-53-9 )
अर्थात हे इंद्र , सुश्रवा नामक राजा के साथ युद्ध करने के लिए आए 20 राजाओं और उनके 60,099 अनुचरों को तुमने पराजित कर दिया था ।
इंद्रो दधीचो अस्थभिर्वृत्राण्यप्रतिष्कुतः जघान नवतीर्नव ।
( ऋग्वेद , 1-84-13 )
अर्थात अ-प्रतिद्वंदी इंद्र ने दधीचि ऋषि की हड्डियों से वृत्र आदि असुरों को 8-10 बार नष्ट किया ।
अहन् इंद्रो अदहद् अग्निः इंद्रो पुरा दस्यून मध्यन्दिनादभीके ।
दुर्गे दुरोणे क्रत्वा न यातां पुरू सहस्रा शर्वा नि बर्हीत्
( ऋग्वेद , 4-28-3 )
अर्थात हे सोम , तुझे पी कर बलवान हुए इंद्र ने दोपहर में ही शत्रुओं को मार डाला था और अग्नि ने भी कितने ही शत्रुओं को जला दिया था । जैसे किसी असुरक्षित स्थान में जाने वाले व्यक्ति को चोर मार डालता है , उसी प्रकार इंद्र ने हज़ारों सेनाओं का वध किया है ।
अस्वापयद् दभीयते सहस्रा त्रिंशतं हथैः, दासानिमिंद्रो मायया ।
( ऋग्वेद , 4-30-21 )
अर्थात इंद्र ने अपने कृपा पात्र दभीति के लिए अपनी शक्ति से 30 हज़ार राक्षसों को अपने घातक आयुधों से मार डाला ।
नव यदस्य नवतिं च भोगान् साकं वज्रेण मधवा विवृश्चत्,
अर्चंतींद्र मरूतः सधस्थे त्रैष्टुभेन वचसा बाधत द्याम ।
( ऋग्वेद , 5-29-6 )
अर्थात इंद्र ने वज्र से शंबर के 99 नगरों को एक साथ नष्ट कर दिया । तब संग्राम भूमि में ही मरूतों ने त्रिष्टुप छंद में इंद्र की स्तुति की । तब जोश में आकर इंद्र ने वज्र से शंबर को पीड़ित किया था ।
नि गव्यवो दुह्यवश्च पष्टिः शता सुषुपुः षट् सहसा
षष्टिर्वीरासो अधि षट् दुवोयु विश्वेदिंद्रस्य वीर्या कृतानि
( ऋग्वेद , 7-18-14 )
अर्थात अनु और दुहयु की गौओं को चाहने वाले 66,066 संबंधियों को सेवाभिलाषी सुदास के लिए मारा गया था । ये सब कार्य इंद्र की शूरता के सूचक हैं ।
वेदों में युद्ध के लिए युद्ध करना बड़े बड़े यज्ञ करने से भी ज़्यादा पुण्यकारी माना गया है । आज तक जहां कहीं यज्ञ होता है , उस के अंत में निम्नलिखित शलोक पढ़ा जाता है ।
अर्थात अनेक यज्ञ , कठिन तप कर के और अनेक सुपात्रों को दान दे कर ब्राह्मण लोग जिस उच्च गति को प्राप्त करते हैं , अपने जातिधर्म का पालन करते हुए युद्धक्षेत्र में प्राण त्यागने वाले शूरवीर क्षत्रिय उस से भी उच्च गति को प्राप्त होते हैं ।
http://vedquran.blogspot.com/2010/04/true-hindu.html