Tuesday 22 June 2010

क़ुरआन - क़ुरआन सूरह बनी इस्राईल -१७

क़ुरआन सूरह बनी इस्राईल -१७


मोमिन



पिछाली किस्त पर अपने पाठक, खास कर धरम धारियों के कमेंट्स ने तो मेरे होश ही उड़ा दिए. किसी ने मुझे गालियाँ दीं और किसी ने शाबाशी. एक शरीफ ने तो मेरी माँ को नरेंद्र मोदी के साथ सुला दिया, तो दुसरे ने अनाम धारी की माँ को. अफ़सोस है कि क्या मैंने सत्य पथ का रास्त इन लोगों के लिए चुना है? दो एक को छोड़ कर बाकी सभी धर्म पथ पर नहीं बल्कि धर्म भरष्ट हैं. मेरी माँ अगर ज़िदा होती तो नरेद्र मोदी उसके छोटे बेटे के बराबर होते और वह भी उनको रास्ट्र धर्म को याद दिलाती.मैं एक बहुत ही निर्धन परिवार का बेटा हूँ . अनथक मेहनत से अपने सम्पूर्ण परिवार को गरीबी रेखा से ऊपर उठाया है, लाखों रुपए ईमानदारी के साथ इनकम टैक्स भरा है. माँ की बात चली है तो मैं इतने बचपन में उसे खो चुका हूँ कि मुझको उसकी शक्ल भी याद नहीं मगर उनको देखने के लिए अपने कालेज को उनके नाम से एक क्लास रूम बनवा कर दिया है. तालीम ही मेरी मंजिल है. मैं आज भी इसके लिए अपने आपको समर्पित रखता हूँ, ये इत्तेला है अपने नादान पाठकों के लिए जो मुझे बच्चों को पढ़ने का मशविरा दे रहेहै..मेरे पास कोई बड़ी डिग्री नहीं, न ही ढंग का लेखन कर पता हूँ मगर धर्म गुरूओं का अध्यन किया है. फिर मुझे कबीर याद आता है, जो कहता है ''तुम जानौ कागद की लेखी, मैं जानूं आखन की देखी.'' मेरे तमाम आलोचक कागद की लेखी को आधार बना कर मुझे उन लेखो का आइना दिखलाते हैं, जिनको पढ़ कर वह उधारज्ञान अर्जित करते हैं. खेद है कि वह अपने दिलो-दिमाग और अपने ज़मीर को अपना साक्ष्य नहीं बनाते. मेरे लेख को कुरआन के उर्दू तर्जुमे से सीधे मीलान ''मौलाना शौकत अली थानवी'' के कुरान से कर लीजिए जो दुनया के सब से दीग्गज आलिम हैं और हदीसें ''बुखारी और मुस्लिम'' से मिला लीजिए. हाँ उस पर तबसरा मेरा है जो ज़्यादः किसी को गराँ गुज़रता हो, उनको ही मेरा मशविरा है कि वह ''कागत की लेखी'' पर न जाएं यह उधार का ज्ञान है. अगर आप की अपना कुछ अपने अन्दर बिसात और चेतन हो तो मेरी बात मने वर्ना हजारों ''बातिल ओलिमा'' हैं, उनपर अपनी तवानाई बर्बाद करें.''दीन और ईमान'' ये दोनों लफ्ज़ बहुत ही मुकद्दस हैं और अरबी भाषा के हैं. इन शब्दों का पर्याय मेरे अल्प ज्ञान के अनुसार किसी और भाषा में नहीं हैं, इस लिए इनका अर्थ भी समझा पाना मुश्किल हो रहा है. दीन लफ्ज़ बना है दयानत से जो कबीरी ''साँच'' है और ईमान का अर्थ लगभग ऐसा है जो किसी ''धर्म कांटे की नाप तौल'' हो.जो किसी दूसरे भाव के असर में न हो. इन दोनों शब्दों पर इस्लाम ने बिल जब्र इजारा कर लिया है. शब्द मुसलमान या हिन्दू नहीं होते मगर इजारादारी का मनहूस साया इन पर ज़रूर है. मैं अपनी अंतर आत्मा के अंतर गत ईमान दार मोमिन हूँ, और मेरा दीन है मानवता. मानवता ही मानव धर्म होना चाहिए. आपसे निवेदन है कि मुझे समझने की कोशिश करें. हो सके तो आप भी ''मोमिन'' हो जाएँ।


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सूरह बनी इस्राईल -१७, पारा-१५


(तीसरी किस्त)


''यह लोग आप से रूह के बारे में पूछते हैं. आप फ़रमा दीजिए कि रूह मेरे रब के हुक्म से बनी है और तुम को बहुत थोडा उम्र दिया है.''


सूरह बनी इस्राईल -१७, पारा-१५ आयत (८५)


कहते हो कि यह कलामे-इलाही है. अल्लाह ने अरबी माहौल, अरबी ज़ुबान और अरब सभ्यता में इसको नाज़िल किया, तो क्या उसे अरबी तमाज़त भी नहीं आती थी ? वह कभी उम्मी मुहम्मद को आप जनाब करके बात करता है, कभी तुम कहता है तो कहीं पर तू कह कर मुखातिब करता है? क्या अल्लाह भी मुहम्मद की तरह ही उम्मी था ? इन्सान बहुत थोड़े वक़्त के दुन्या में आया है, जग जाहिर है, अल्लाह इसकी इत्तेला हम को देता है. क्या इसके कहने से हम मान जाएँगे कि रूह कोई बला होती है? जब कि अभी तक यह सिर्फ अफवाहों में गूँज रही है, अल्लाह बतलाता तो यूं बतलाता ''हाथ कंगन को आरसी क्या?''रूहानियत के धंधे ने हमारे समाज को अँधा बनाए रक्खा है. ये बात क्यूं आलिमुल गैब की पकड़ में नहीं आती?


''और अगर हम चाहें तो जिस क़दर वह्यी (ईशवानी) आप पर भेजी है,सब सलब (ज़ब्त) कर लें, फिर इसके लिए हमारे मुक़ाबिले में कोई हिमायती न मिले. मगर आप के रब की रहमत है, बेशक आप पर उसका बड़ा फज़ल है.''


सूरह बनी इस्राईल -१७, पारा-१५ आयत (८६)


देखें की अल्लाह किस तरह सियासत की बातें करता है. मुहम्मद को ब्लेक मेल कर रहा है, या फिर मुहम्मद इंसानों को ब्लेक मेल कर रहे हैं? दोस्तों अपने अक्ल पर पड़े अक़ीदत के भूत को उतर कर कुरआन की बातों को परखो. कोई गुनाह या अजाब तुम नाज़िल नहीं होगा. दर असल ये कुरआन ही कौम को अज़ाब की तरह पीछे किए हुए है।


''आप फ़रमा दीजिए कि अगर इंसान और जिन्नात जमा हो जाएँ कि ऐसा कुरआन बना लावें, तब भी ऐसा न ला सकेंगे. अगर एक दूसरे के मददगार भी बन जाएँ.''


सूरह बनी इस्राईल -१७, पारा-१५ आयत (८७-८८)


इंसानों की तरह जिन्नात भी कोई प्राणी होता है, इस बात को आज तक इस वैगानिक युग में कुरआन ही मुसलामानों से मनवाए हुए है. इस चैलंज को मुहम्मद कुरआन में बार बार दोहराते हैं. मुहम्मद शायर थे (मगर मुशायर) ये शायरों की ग़लत फ़हमी होती है कि उन्हों ने जो कहा लाजवाब है. यही शायराना फ़ितरत मुहम्मद बार बार इस जुमले को कहलाती है. उस वक़्त तथा कथित काफ़िर जवाबन मुहम्मद को ईश वाणी उनकी तरह ही नहीं बल्कि क़वायद को सुधार के मुहम्मद को मुँह पर मारते थे कि अपनी भाषा को संवारते हुए ऐसी आयते अपने अल्लाह से मंगाया करो, मगर मुहम्मद तो बस ''जो कह दिया सो कह दिया'' अल्लाह की भेजी हुई बात है. आज भी थोडा दीवानगी का आलम ला कर कुरआन जैसी बात कोई भी बडबडा सकता है।


''और हमने लोगों के लिए इस कुरआन में हर किस्म का उम्दा मज़मून तरह तरह से बयान किया है फिर भी अक्सर लोग बे इंकार किए न रहे।''


सूरह बनी इस्राईल -१७, पारा-१५ आयत (८९)


कुरआन में कोई उम्दा बात जो कुरआन की अपनी हो, ढूंढें से नहीं पाओगे. बस कुरआन की तारीफ ही तारीफ बखानी गई है, किस बात की तारीफ है? नहीं मालूम जो मुल्ला बतला दें वही होगा इस धोके में मुसलमान अपनी ज़िद में अडिग है. पसे-पर्दा नहीं जाता कि तलाश करे फिर सामीक्ष करे दूसरों के उपदेश से।


''और ये लोग कहते हैं कि हम आप पर हरगिज़ ईमान न लाएँगे जब तक कि आप हमारे लिए ज़मीन से कोई चश्मा न जारी करदें या ख़ास आप के लिए खजूर या अंगूर का बाग़ न हो, फिर इस बाग़ में बीच बीच में जगह जगह बहुत सी नहरें न जारी कर दें, या आप जैसा कहा करते हैं - - - आप आसमान के टुकड़े न हम पर गिरा दें या आप अल्लाह और फरिश्तों को सामने न कर दें. या आप के पास सोने का बना हुवा घर न हो या आप आसमान पर मेरे सामने न चढ़ जाएँ. और हम तो आप के चढ़ने का भी यक़ीन नहीं करेंगे जब तक आप हमारे सामने एक नविश्ता (लिखा हुआ कुरआन) न लावें जिसको हम पढ़ भी लें. आप फ़रमा दीजिए कि सुबहान अल्लाह! बजुज़ इसके कि एक आदमी हूँ, पैगम्बर हूँ और क्या हूँ ? और जब उन लोगों के पास हिदायत पहुँच चुकी, उस वक़्त उनको ईमान लाने से बजुज़ इसके और कोई बात रूकावट न बनी कि उन्हों ने कहा अल्लाह तअला ने बशर को रसूल बना कर भेजा है. आप फ़रमा दीजिए कि अगर ज़मीन पर फ़रिश्ते होते कि उसनें चलते बसते तो अलबत्ता हम उन पर आसमान से फ़रिश्ते को रसूल बना कर भेजते''


सूरह बनी इस्राईल -१७, पारा-१५ आयत (९०-९५)


तहरीर पर गौर करिए, यह बाते अल्लाह से कहलवा रहे है मुहम्मद ? इनका रोना अल्लाह रो रहा है? या खुद मुहम्मद रो रहे है कुरआन में.लोगों को मुहम्मद की बातों का कोई असर नहीं था, मुहम्मद जब मक्का में फेरी लगा लगा कर लोगों को पकड़ पकड़ कर क़ुरआनी आयतों का मन गढ़ंत झूट प्रचारित करते तब लोग उनसे इस तरह का परिहास करते. मज़ाकान कोई कहता है ''आप आसमान पर मेरे सामने न चढ़ जाएँ. और हम तो आप के चढ़ने का भी यक़ीन नहीं करेंगे जब तक आप हमारे सामने एक नविश्ता (लिखा हुआ) न लावें जिसको हम पढ़ भी लें.'' इस लिए कि आसमान की सैर कल्पनाओं में कर आए थे जिसको कुरआन में आगे किससए-मेराज बयान करेंगे।


''आप कह दीजिए कि अल्लाह तअला मेरे और तुम्हारे दरमियान काफ़ी गवाह है वह अपने बन्दों को खूब जनता है, खूब देखता है और जिसको वह बेराह करदे तो उसको खुदा के सिवा आप किसी को भी उन का मददगार न पाओगे. और हम क़यामत के रोज़ ऐसों को अँधा, गूंगा, बहरा बना कर मुँह के बल चला देंगे. ऐसों का ठिकाना दोजख है, वह जब ज़रा धीमी होने लगेगी, तब ही इन के लिए और ज़्यादः भड़का देंगे. यह है उनकी सज़ा इस लिए कि इन्हों ने हमारी आयतों का इंकार किया।''


सूरह बनी इस्राईल -१७, पारा-१५ आयत (९७-९८)


मुहम्मद ने अपने झूट को सच साबित करने के लिए अपने मुअय्यन और मुक़र्रर किए हुए अल्लाह को गवाह बनाया है, पूछा जा सकता है उस अल्लाह का गवाह कौन है? वह है भी या नहीं? देखी कि वह अपने अल्लाह को कौन सा रूप देकर बन्दों लिए स्थापित करते हैं कि वह खुद मासूम बन्दों को गुमराह करता है, उनको अँधा,गूंगा और बहरा बना देता है फिर मुँह के बल चलाता है .एक सहाबा हसन बिन मालिक से हदीस है कि कोई अरबी इस आयत पर चुटकी लेते हुए मोहम्मद से पूछता है


''या रसूल्लिल्लाह क़यामत के दिन काफिरों को यह मुँह के बल चलाना क्या होता है? मुहम्मद फ़रमाते हैं जो अल्लाह पैरों के बल से इंसान को चला सकता है वह क्या मुँह के बल चलाने की कुदरत नहीं रखता?''


(सही मुस्लिम शरअ नवी)


पूछने वाले का सवाल, जवाब तलब इसके बाद भी है कि कैसे? मगर किसी को मजाल न थी कि इस जवाब पर दोबारा सवाल करता क्यूंकि उस वक़्त हज़रात बज़रिए मार काट और लूट के, उरूज पर आ चुके थे.शायद इसी बात पर किसी ने झुंझलाहट में कहा कि फ़रिश्ते अपने पिछवाड़े से घोडा खोल सकते हैं.गौर तलब है कि मोहम्मदी अल्लाह कितना कुरूर और ज़ालिम है कि दुन्या का संचार छोड़ कर दोज़ख की भाड़ झोंकता रहता है सिर्फ इस बात पर कि नोहम्मद की गाढ़ी आयतों को बन्दों ने मानने से इंकार किया. किन बुनयादों पर मुसलमानों का अक़ीदा खड़ा है? वह सोचते नहीं बल्कि जो सोचे उसकी माँ बहेन तौलने लगते है।


(पाँच आयातों में फिर मूसा और बनी इस्राईल का बेतुका हवाला है)


''और कुरआन में हमने जा बजा फसल (वक़फ़ा) रखा है ताकि आप लोगों के सामने ठहर ठहर कर पढ़ें और हम ने इसको उतरने भी तजरीदन (दर्जा बदर्जा) उतरा है. आप कह दीजिए कि तुम इस कुरआन पर ईमान लाओ या ईमान न लाओ जिन लोगों को इससे पहले दीन का इल्म दिया गया था ये जब उनके सामने पढ़ा जाता है तो वह ठुडडियों के बल सजदे में गिर पड़ते हैं और कहते हैं कि हमारा रब पाक है, बेशक हमारे रब का वादा ज़रूर पूरा ही होगा. और ठुडडियों के बल गिरते हैं, रोते हैं और ये उनका खुशु बढ़ा देता है. आप कह दीजिए ख्वाह आप अल्लाह कह कर पुकारो या रहमान कह कर पुकारो सो इसके बहुत अच्छे नाम हैं और अपनी नमाज़ में न बहुत पुकार कर पढ़िए और न बिलकुल चुपके चुपके ही पढ़िए, और दोनों के दरमियान एक तरीक़ा अखतियार कर लीजिए।''


सूरह बनी इस्राईल -१७, पारा-१५ आयत (१०६-१०९)


कुरआन को पढने का तरीक़ा भी बतला दिया गया है जोकि ट्रेनिग द्वारा होती है, इसी कुरआन के गुणगान और कर्म कांड में ही मुसलमानों का वक़्त कटता है. मुहम्मद इसकी पब्लिसिटी करते हैं कि लोग इसे पढ़ कर मदहोश हो जाते हैं और इसका खुमार ऐसा उन पर होता है कि ठुडडियों के बल गिर गिर पड़ते हैं.आप समझ सकते हैं कि मोहम्मद किस कद्र झूठे और मक्र आलूद थे


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मेरे भाइयो, बहनों ! मेरे बुजुगो!! नौ जवानों!!!मेरे मिशन को समझने की कोशिश करो. मैं आप में से ही एक बेदार फ़र्द हूँ जो आने वाले वक़्त की भनक पा चुका है कि अगर तुम न जगे तो पामाल हो जाओगे. मैं कहाँ तुमको गुमराह कर रह हूँ ?तुम तो पहले से ही गुमराह हो, मैं तो तुम से ज़रा सी तब्दीली की बात कह रह हूँ कि मुस्लिम से मोमिन बन जाओ, सब कुछ तुम्हारा जहाँ का तहाँ रहेगा, बस बदल जाएगा सोचने का ढंग. जब तुम मोमिन हो जाओगे तो तुम्हारे पीछे तुम्हारीतक़लीद में होंगे गैर मुस्लिम भी और इस तरह एक पाकीज़ा कौम वजूद में आएगी, जिसको ज़माना सर उठा कर देखेगा कि यह मोमिन है, पार दर्शी है, अनोखा है.सिकंदर दुन्या को फतह करते करते फ़ना हो गया, हिटलर ग़ालिब होते होते मग़लूब हो गया, इस्लाम अब इसी मुक़ाम पर आ पहुंचा है, अल्लाह के नाम पर मुहम्मद ने इंसानियत को बहुत नुक़सान पहुँचाया है, उसका खमयाज़ा आज एक बड़ा मानव समाज पूरी दुन्या में भुगत रहा है, जो तुम्हारी आँखों के सामने है. यह गुनेह गार ओलिमा और उनके एजेंट ग़लत प्रोपेगंडा करते हैं कि इस्लाम योरोप और अमरीका में मकबूल हो रहा है, यह इनकी रोटी रोज़ी का मामला है जिसके वह वफ़ा दार हैं मगर तुम्हारे लिए वह गद्दार हैं.भूल कर मज़हब बदल कर हिन्दू, ईसाई या बहाई मत बन जाना , यह चूहेदानों की अदला बदली है. मज़हबी कट्टरता ही चूहे दान होती है मेरे जज़बा ए मोमिन को समझो . मोमिन का दीन ही तुहारा दीन होगा . आने वाले कल में मोमिन ही सुर्ख रूहोंगे



जीम. मोमिन ''निसारुलईमान''


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हमारी और भी गवाहियाँ हैं - - -


Leaving Jewish prophets in the dust, our dynamic duo scampered ever higher: "'We ascended to the seventh heaven and again the same questions and answers were exchanged with the gatekeeper. There I greeted Abraham. He ascended with me till I was taken to such a height, I heard the scraping of pens. I was shown Al-Bait-al-Ma'mur (Allah's House). I asked Gabriel about it and he said, 'This is where 70,000 angels perform prayers daily and when they leave they never return to it (a fresh batch arrives daily).' I was shown Sidrat-ul-Muntaha (a tree) and I saw its Nabk fruits which resembled clay jugs. Its leaves were like elephant ears. Four rivers originated at its root; I asked Gabriel about them. "The two hidden rivers are in Paradise, and the apparent ones are the Euphrates and the Nile."'" At least he had that part right. He was in a state of denial."Fifty prayers were enjoined on me [by Allah]." But Moses wasn't pleased: "'I descended till I reached Moses who asked, "What have you done?" I said, "I have been ordered to offer fifty prayers a day." He said, "Your followers cannot bear fifty prostrations. I tested people before you and tried my level best to bring the tribe of Israel to obedience [Islam]. Your followers cannot put up with such an obligation. So, return to your Lord and request a reduction in the burden." I returned and requested Allah (for reduction) and He made it forty. I had a similar discussion with Moses. Then I returned to Allah for reduction and He made it thirty, then twenty, then ten. Then I came to Moses who repeated the same advice. Ultimately Allah reduced it to five. When I came to Moses the last time, he said, "What have you done?" I said, "Allah has made it five only." He repeated the same advice but I said that I had requested so many times I felt ashamed and surrendered (to Allah's final order). When I left, I heard a voice saying, "I have passed My Order and have lessened the burden on My Worshipers."'"You're brought before the creator of the universe and all you talk about is how many times he wants to be mooned with "burdensome and obligatory," mind-numbing ritualistic prostrations? I don't think so. But then again, thinking is why I'm not a Muslim. So, while we are on the subject, think about this: why would Islam's lone prophet leave Allah's Ka'aba in Mecca and fly to Yahweh's Temple in Jerusalem to get into heaven? In all of Muhammad's flights of fancy there are few more troubling questions than this one.Muhammad's Muslims were curious, albeit about minutiae. They wanted to know what the heavenly host looked like. Bukhari:V4B55N607 "Allah's Apostle said, 'On the night of my Ascension to Heaven, I saw Moses who was a thin person, looking like one of the men of the tribe of Shanua; and I saw Jesus with a red face as if he had just come out of a bathroom. [I swear, I am not making this stuff up.] And I resemble Abraham more than any of his offspring.'" And it's okay to scour the Bible for stories because: Bukhari:V4B56N667 "The Messenger said, 'Convey (my teachings) to the people even if it were a single sentence, and tell others the stories of Israel (which have been taught to you), for it is not sinful to do so. And whoever tells a lie on me intentionally, will surely take his place in the Hell Fire.'"It bears mention that the Night Journey is far more than an obscure theological story to Muslims. I personally met with members of Hamas, al-Qaeda, Islamic Jihad, and al-Aqsa Martyr.' Brigade in Bethlehem in December, 2001. They told me in all seriousness that the Night's Journey was the basis for the Islamic claim to Jerusalem. What's more, they were willing to kill and die to take it back in the name of their Prophet.Back in Mecca, and ever in character, the bruised messenger did what all similarly insecure people do. He projected his morbid self-delusion upon his critics. As he had with the Satanic Verses, he had his god say that the Night's Journey was a trial. Bukhari:V8B77N610 "'We granted the vision of the ascension to the heavens, Miraj, which We showed you as an actual eye witness but as a trial for people.' [Qur'an 17:60] Allah's Apostle actually saw with his own eyes the vision of all the things which were shown to him on the Night Journey to Jerusalem. It was not a dream."The 17th surah, named "Children of Israel," reports: Qur'an 17:60 "Your Lord circumscribes mankind and He showed you the vision and the accursed tree of the Qur'an [Zaqqom, the torture tree of Hell]. It was a bone of contention for men, a trial for them. Thus do We instill fear and make them afraid." The surah claims: "Verily, We gave Moses the Torah...and to David, We gave the Book of Psalms." Speaking of Jews, he says: Qur'an 17:7 "We shall rouse Our slaves to shame and ravage you, disfiguring your faces. They will enter the Temple as before and destroy, laying to waste all that they conquer." To his shame, Muhammad did rouse Muslims to attack Jews. However, his militants couldn't have entered or destroyed what the Romans had eradicated 600 years earlier. Allah is mistaken, again. But by lying to us this way, we have come to know him better.The most laughable passage in the 17th surah follows the usual rant: "Dread His punishment. Indeed the Lord's torment is to be feared. He will inflict severe anguish." Qur'an 17:59 "Nothing stops Us from sending signs and proofs except that earlier people rejected them as lies. We sent to Thamud the she-camel as a clear sign, but they treated her cruelly." It's hard to imagine anyone believes this is scripture. The Islamic god just said: "We don't do miracles any more because the Thamud hurt our camel."After saying the Qur'an was so well written jinn and men couldn't conspire to compose the likes of it, we discover that Muhammad doesn't measure up and there is no Qur'an: Qur'an 17:90 "They say, 'We shall not believe you (Muhammad), until you cause a spring to gush forth from the earth [like Moses]. Or until you have a garden, and cause rivers to flow in their midst [like you claim Allah does]. Or you cause the sky to fall upon us in chunks, as you say will happen [like Yahweh did to Sodom and Gomorrah]. Or you bring angels before us face to face [like Abraham]. Or you have a house adorned with gold [like David or Solomon], or you ascend up into the skies [like Yahshua (Jesus)]. No, we shall not have faith in you unless you send down to us a book that we can read [like the Bible].'" This surah was the seventieth chronologically, and yet the Meccans claimed Muhammad didn't have anything to read. There was no Qur'an. There were no miracles.


Prophet of Doom




25 comments:

  1. प्रिय मित्र
    नमस्ते
    आपको जो गाली दे रहे है उन्हें यह नहीं मालूम की वे क्या कर रहे है
    उनपर दया करने की आवस्यकता है,वास्तव में जो अल्लाह क़े मुख से
    सभी कुछ अरबी भाषा,संस्कृति की बात निकलवाता है वे इस्लाम क़े मित्र नहीं शत्रु है
    क्या खुदा अरबी क़े अतिरिक्त कुछ नहीं जनता था ,
    वास्तव में मुहम्मद धर्म क़े बहाने अरबियन राष्ट्राबाद क़े पोसक थे.
    आप एक बहुत अच्छा कार्य कर रहे है सच्चाई में ही इस्लाम की भलाई है.
    धन्यवाद

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  2. गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले के पास इतना पैसा आया कहाँ से की वह लाखों रुपये टैक्स भरने लगे? तेरी तो सी.बी.आई. जांच होनी चाहिए.

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  3. ज़ीशान साहब !
    काश कि आप मोमिन की नज़र लाएँ. क़ुरआन में गलतियाँ ही गलतियाँ हैं. जरायम की बुनियाद है क़ुरआन. पस्मान्दगी की वजेह है, क़ुरआन, मुहम्मद की साज़िश है, क़ुरआन .मुसलामानों का दुश्मन है क़ुरआन, गैर मुसलामानों का दोस्त है क़ुरआन. अकीदत का चश्मा उतार कर इंसानियत की दूरबीन लगा कर क़ुरआन को समझने की कोशिश करें.

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  4. मोमिन साहब !
    आपने कहा 'काश कि आप मोमिन की नज़र लाएँ.' चलिए पहले हम आप की नज़र को समझने की कोशिश करें? मेरे दो सवाल हैं :
    १. क्या आप अल्लाह जैसी किसी शय को मानते हो?
    २. और अगर मानते हो तो क्या जन्नत और दोज़ख को मानते हो?

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  5. भाई जीशान !शुक्रया ,
    बहुत बेहतर हैं आपके सवाल.
    मैं अल्लाह, ईश्वर,गाड,जिनका एलान इन ''गर्भ जन्मित इंसानों'' ने अभी तक किया है, उनमें से किसी को नहीं मानता हूँ. अल्लाह मेरे लिए कोई मअनी नहीं रखता, होगा तो हुवा करे, जब कभी एलान के साथ सब के सामने आएगा तो हम भी नज़र उठा कर देख लेंगे. हाँ अगर वह क़ह्हर, जानिब दार, बन्दों को काफ़िर और मुसलमान कह कर बात करने वाला हुआ तो एक पत्थर उठा कर उसका सर फोड़ देंगे.
    मुझको मालूम है जन्नत की हकीक़त लेकिन,
    दिल के बहलाने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है.
    मरदाना फ़िक्र पैदा कीजिए, करसाज़े-कायनात कहीं मुहम्मदी अल्लाह हो सकता है? उसके फरमान इतने ओछे हो सकते है. डर को दिल से रुखसत कीजिए.

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  6. ठीक है. मान लिया एक मुसलमान ने अपने दिल से अल्लाह के डर को रुखसत कर दिया. अब वह एक सुनसान जगह पर जाकर एक बच्ची के साथ रेप करता है और फिर उसका गला दबा देता है. उसे पता है की उसे कोई सज़ा नहीं मिलने वाली न तो ज़िन्दगी में और न ही मरने के बाद. जबकि दुनिया में अल्लाह का डर मौजूद है तब तो लोग तबाही मचाये हुए हैं तो फिर जब डर ही नहीं होगा तो दुनिया कहाँ होगी, आप बता सकते हैं? यकीनन अल्लाह को कोई ज़रुरत नहीं की वह बन्दों के दिल में अपना डर बिठाए, लेकिन उसके पीछे एक मकसद है.

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  7. भाई जीशान,
    आपने सही बात पकडी,
    "अल्लाह के डर के पीछे एक मकसद है." और वो मक़सद है,लोग डरकर सही राह पर रहे।
    पर हम आदमी को जानते है,डरने वाले भी अपराध तो करते है,और कई तो जानते हुए भी करते है,कई इस्लाम मानने वाले भी करते है,तो कई इस्लाम नहिं मानने अपने मन की आवाज़ पर नहिं करते।
    इसिलिये डर की लगाम असफ़ल होती है,और इसिलिये 'मोमिन'कहते है,ऐसे असफ़ल नियमों का नियंता अल्लाह नहिं हो सकता।

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  8. @सुज्ञ जी,
    अल्लाह या परमेश्वर का कोई कानून असफल नहीं. जुर्म या गुनाह वही लोग करते हैं जिनके दिल में सर्वशक्तिमान का डर या तो होता नहीं या कुछ ही लम्हों के लिए सही, निकल जाता है. इस डर के निकलने के पीछे कई कारण होते हैं, मिसाल के तौर पर
    'ये तो बस छोटा सा जुर्म है, इसकी सजा अल्लाह थोड़ी न देगा'
    'अभी गुनाह कर लूं बाद में तौबा कर लूँगा, या गंगा स्नान कर लूँगा'
    'अभी तो क़यामत आने में करोड़ों साल हैं, तब की किसने देखी है'
    'मैंने तो बहुत से भलाई के काम किये हैं, अब एक जुर्म कर लूं, क्या फर्क पड़ेगा'
    'फिलहाल तो मेरे सामने इतना बड़ा मौका है, बाद की बाद में देखी जायेगी'
    'मुझे तो दुनिया में बुरे लोग ऐश करते दिख रहे हैं, फिर मैं ही क्या बेवक़ूफ़ हूँ?'
    इन्हीं बातों के फेर में पड़कर इंसान जुर्म और गुनाह कर बैठता है, लेकिन जिसके दिल में हर वक़्त अल्लाह का खौफ रहता है वह चींटे को भी मारने से बरी रहता है.

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  9. जुर्म का इर्तेकाब अल्लाह के डर नहीं समाज या दरोगा जी के डर बाईस नहीं होता. बहुत से मुल्क दुन्या में हैं जहाँ जुर्म न के बराबर है और अल्लाह का वजूद नदारद है. मगर वहां के कानून कायदे इंसानी फितरत के एतबार से बने है, इस्लामी जिहालत पर नहीं. आप अच्छी इंसानी फितरत के मालिक हैं तो जो हैं वह बने रहीए, मोमिन की मुहिम तो नेकी कीही है.

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  10. भाई जीशान,
    यही तो मैं कह रहा हुं, देखो इन्सान ने कितने बहाने गढ डाले?
    और अल्लाह खुद कुर आन में जगह जगह यह स्पष्ठ भी करता है,कि "वे ऐसा…… कहेंगे,तुम उन्हे डरा दो कि उन्हे जलती आग में झोंक दिया जायेगा"
    डरा डरा के भी डर कायम नहीं रहेगा,अल्लाह स्वयं जानता था,फ़िर भी उसने कोइ ऐसी तरक़िब न निकाली जिससे उसकी आज्ञा की अवज्ञा ही न हो सके। ऐसी लिक़प्रुफ़ तरक़िब जो दुनिया के नियमों से भी विषेश हो,तभी तो उसका सर्वशक्तिमान होना सिद्ध होगा। असफ़लताएं तो हम इन्सानों की कमी है,अल्लाह या परमेश्वर का तो कोई कानून असफल नहीं हो सकता।

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  11. अल्लाह ने कानून बनाए हैं और इंसान को आज़ाद कर दिया की वह उसके कानूनों का पालन करे या न करे (यह भी उसी का कानून है). साथ में ये भी बता दिया की पालन न करने की दिशा में क्या सज़ाएँ हैं और पालन करने की दिशा में क्या मिलने वाला है. अब ये इंसान को अपनी अक्ल से तय करना है की उसे किधर जाना है. इसके नमूने भी दुनिया में मौजूद हैं. जैसे की आग का जलाने का कानून. अगर आप इस कानून को मानते हुए आग से दूर रहेंगे तो जलने से बचे रहेंगे, और अगर कानून को झुट्लाते हुए आग में कूद जायेंगे तो जल जायेंगे. ग्लोबल वार्मिंग जैसे अनेकों उदाहरण हैं की कुदरत यानी के अल्लाह के कानूनों से अलग जाते हुए क्या अंजाम हो सकता है. चाहे लाख बहाने बनाए जाएँ की ग्लोबल वार्मिंग सिर्फ एक रयूमर है, लेकिन सच्चाई से बच नहीं सकते.

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  12. भाई जीशान,
    यही तो समस्या है, क्यों सर्वशक्तिमान जिसने हमें बनाया,फ़िर उसने निर्णय के लिये हमें आज़ाद क्यों किया,नहिं बनाया होता तो उसे क्या फ़र्क पड सकता था? बनाकर भी उसकी अक्ल से चलाता तो क्या फ़र्क पड सकता था? वो चाहे तो हमारी बुद्धि पर परदे डाल दे,तो वह यह क्यों नहिं चाहता कि हमारी बुद्धि आईने की तरह स्वच्छ हो जाये?
    क्या वो हमारे साथ खेल खेल रहा है? क्या एक बच्चे की तरह हमे बनाता है,अपनी इच्छा से खेलता है,उसका दिल करे तोड दे और दिल करे तो सजा कर रख दे?

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  13. @सुज्ञ जी,
    इसके पीछे जो कारण है वह है अल्लाह का इन्साफ. अगर हम किसी कार्य को करने के लिए अपने को जिम्मेदार समझ रहे हैं और वह कार्य हमने नहीं किया तो यह हमारा अन्याय होता है। अक्सर हम सरकार को कोसते रहते हैं। क्योंकि वह पानी बिजली और सड़क जैसी समस्याओं से हमें दो चार किये रहती है। यहां चूंकि सरकार के पास इन व्यवस्थाओं को दुरुस्त करने के साधन हैं लेकिन वह उनका उपयोग नहीं करती तो सरकार को अक्षम और अन्यायी कह दिया जाता है। अगर किसी शिक्षक के पास ज्ञान है लेकिन वह विद्यार्थियों में नहीं बाँटता तो उसे गलत करार दिया जाता है। अर्थात अगर हमने अपनी योग्यताओं का उपयोग नहीं किया तो यह भी एक अपराध होता है।

    अब आप अल्लाह के बारे में ख्याल कीजिए। उसके पास हर तरंह की शक्ति है। अगर वह अपनी शक्ति का उपयोग नहीं करता, छुपा हुआ खजाना बना रहता तो वह स्वयं अपने साथ नाइंसाफी करता। जबकि खुदा नाइंसाफ, जालिम या अज्ञानी नहीं है। इस तरंह सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माण करके उसने अपनी योग्यताओं और शक्तियों का इंसाफ किया है। इसीलिए उसने मनुष्य की रचना की और उसे सोचने समझने की शक्ति दी। जिससे वह भला बुरा पहचान कर उसके नियमों को अपनी भलाई में लगाये और अल्लाह के बारे में विचार करे। भ्रमों को छोड़कर सिर्फ उसकी इबादत करे, आराधना करे।

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  15. "इसके पीछे जो कारण है वह है अल्लाह का इन्साफ."
    वही हमें अपनी बुद्धि लगाके कर्म करने को प्रेरित करे,फ़िर हमारा ही इन्साफ करे? केवल अपना इन्साफ दिखाने की खातिर? वह इन्तज़ार करे, कब हम नासमज़ी में बदी करें? और कब हमें जलती भट्टी में झोंक कर इन्साफ जताए?
    जबकि वह सर्वशक्तिमान,इन्साफपसंद,सर्वज्ञ,व रहिम है। सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माण करके उसने अपनी योग्यताओं और शक्तियों का परिचय दिया है,हमें सोचने समझने की शक्ति भी दी। तो भ्रमों को तोडने की शक्ति क्यों न दी उस सर्वज्ञ ने,भला बुरे की पहचान कि शक्ति क्यों न दी उस इन्साफपसंद ने, उसके नियमों को अपनी भलाई में ही लगाने की शक्ति क्यों न दी सर्वशक्तिमान नें।हम पर दया करके,भलाई के लिये,व उसकी इबादत लिये, हमारे दिमागों को कन्ट्रोल क्यों न कर कर दिया रहिम नें।
    क्या केवल तेरी जलती हुइ भट्टीओं में इन्धन के लिये, हे रहिम!!

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  16. @सुज्ञ जी,

    मक्के में कथित काफिरों के निशाने पर आ जाने के वक़्त मुहम्मद ने काफिरों से सुलह करके मुआहिदा किया था तब कुरआन की यह आयत ''लकुम दीनाकुम वाले यदीन'' मुहम्मद के मुंह में आई जिसका मतलब हुआ ''तुहारा दीन तुम्हारे लिए है, हमारा हमारे लिए है .''मगर फफिरों के नारगे से निकलते ही सुलह किए हुए मुआहिदा को तोड़ दिया और सूरह तौबा नाज़िल कर दिया जो अल्लाह के नाम से शुरू नहीं होती कि इसमें मुआहिदा शिकनी है, बाक़ी तमाम ११३ सूरह ''बिस्मिल्ला हिररहमा निररहीम'' से शुरू हुई हैं, इसे छोड़ कर . सूरह तौबा कथित आयत से तौबा है जिसको मुल्ला हर जगह उछाला करते हैं, ऐसे ही आयतें हैं जिनका ज़िक्र मियाँ ज़ीशान कर रहे हैं वह सब आपस में मुसलामानों से मुसलामानोंके लिए हैं.
    पहले भी मैं ने अल्लाह की आयतें बयान की हैं फिर भी सूरह तौबा में अल्लाह कहता है - - -
    ''अल्लाह की तरफ से और उसके रसूल की तरफ से उन मुशरिकीन के अह्द से दस्त बरदारी है, जिन से तुमने अह्द कर रखा था.''
    सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (१)
    ''सो जब अश्हुर-हुर्म गुज़र जाएँ इन मुशरिकीन को जहाँ पाओ मारो और पकड़ो और बांधो और दाँव घात के मौकों पर ताक लगा कर बैठो. फिर अगर तौबा करलें, नमाज़ पढने लगें और ज़कात देने लगें तो इन का रास्ता छोड़ दो,'''
    सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (५)
    ''ऐ ईमान वालो! अपने बापों को, अपने भाइयों को अपना रफ़ीक़ मत बनाओ अगर वह कुफ़्र को बमुक़बिला ईमान अज़ीज़ रखें और तुम में से जो शख्स इनके साथ रफ़ाक़त रखेगा, सो ऐसे लोग बड़े नाफ़रमान हैं''
    सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (२३)
    '' लोग चाहते हैं कि अल्लाह के नूर को अपने मुंह से फूँक मार के बुझा दें ,हालाँकि अल्लाह तआला बदून इसके अपने नूर को कमाल तक पहुँचा दे , मानेगा नहीं, गो काफ़िर लोग कैसे ही नाखुश हों.''
    सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (३२)
    क्यूंकि - - -
    ''बिला शुबहा अल्लाह तअला ज़बरदस्त हिकमत वाले हैं''
    सूरह -इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत (१०)
    आज कल मौलानाओं का यही रवय्या है जो मियां जीशान अख्तियार किए हुए हैं और दूसरों को बच्चा समझते हैं.इनके हक में है कि सच्चाई पर आएं .

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  17. @सुज्ञ जी
    आपने कहा, "तो भ्रमों को तोडने की शक्ति क्यों न दी उस सर्वज्ञ ने,भला बुरे की पहचान कि शक्ति क्यों न दी उस इन्साफपसंद ने, उसके नियमों को अपनी भलाई में ही लगाने की शक्ति क्यों न दी सर्वशक्तिमान नें।हम पर दया करके,भलाई के लिये,व उसकी इबादत लिये, हमारे दिमागों को कन्ट्रोल क्यों न कर कर दिया रहिम नें।"
    यहाँ पर आप गलत हैं. भले बुरे की पहचान की शक्ति किसमें नहीं होती? राह चलते किसी व्यक्ति को आप देखते हैं की वह एक मासूम बच्चे को पीट रहा है, तो फ़ौरन उसे बचाने आप दौड़ पड़ते हैं. इसलिए क्योंकि आप में भले बुरे को पहचानने की शक्ति है. हर व्यक्ति को पता है की चोरी करना, दूसरों का माल हड़पना गलत है. किसी प्यासे राहगीर को देखकर आप फ़ौरन उसे पानी पिलाने खड़े हो जाते हैं, क्यों?
    उसके बनाए नियम न्यूक्लियर पावर की तरह हैं, चाहे तो इंसान उनका उपयोग बिजली बनाकर रचनात्मक रूप में करे या फिर एटम बम बनाकर विनाश के रूप में. हर व्यक्ति को पता है की एटम बम विनाशी है, इसके बावजूद यदि कोई उसका इस्तेमाल करता है तो ऐसे ही लोगों के लिए जहन्नुम है.
    वह चाहे तो हमारे दिमागों को कण्ट्रोल कर सकता है, लेकिन वह ज़बरदस्ती अपनी इबादत नहीं कराना चाहता. वह धरती के किसी छोटे देश का नहीं, बल्कि ब्रह्माण्ड का बादशाह है. उसे कोई ज़रुरत नहीं हमारे ज़बरदस्ती के सौदे की.

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  18. जिस प्रकार छोटे बच्चे को यह इल्म नहिं होता कि,बिना पुछे किसी की वस्तु लेना चोरी होता है,जिद करके दूसरे की वस्तु ले लेना,हक़ मारना होता है,वह बच्चा तब समझने लगता है जब हम बुराई से उसकी पह्चान करवाते है।
    सारी बुराईयां,इन्सान के स्वार्थ से ही शुरू होती है,बिना श्रम किये पाने का स्वार्थ ही चोरी व लूटमार है।स्वार्थ के लिये ही इन्सान असत्य और हिंसा करता है। स्वार्थ के ही कारण वह कभी बुरे को बुरा नहिं जानता नहिं मानता।स्वार्थ के ही कारण वह तर्क लगाता,बहाने बनाता है,जैसे स्वबचाव के तर्क में हिंसा को आप लोग जायज ठहराते है।
    जैसा कि विदित है,भले बुरे की पहचान हमें धार्मिक ग्रन्थों से ही मिलती है(वो भी उसी के)वर्ना हम कैसे समझ पाते अपने हक़ का और पराये हक़ का?
    अब उपर जो मैने 'शक्ति' का उल्लेख किया,वह इस स्वार्थ पर कंट्रोल पाने की शक्ति का उल्लेख था,और यह उस तथाकथित सर्वशक्तिमान के लिये असम्भव नहिं था

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  19. @सुज्ञ जी,
    जिस प्रकार छोटे बच्चे को यह इल्म नहिं होता कि,बिना पुछे किसी की वस्तु लेना चोरी होता है,जिद करके दूसरे की वस्तु ले लेना,हक़ मारना होता है,वह बच्चा तब समझने लगता है जब हम बुराई से उसकी पह्चान करवाते है।
    अच्छाई और बुराई की सीख बच्चे को अल्लाह की कुदरत देती है. जब वह तेज़ी से दौड़ता हुआ चोट खाकर गिरता है तो समझ जाता है की दौड़ने में गिरने का खतरा है और चोट लगने पर दर्द होता है. फिर उसके दिमाग में यह बात भी आ जाती है की दूसरे को चोट पहुंचाने पर उसे भी दर्द होगा. उसके हाथ से कोई और बच्चा उसका प्यारा खिलौना छीन लेता है तो उसे एहसास होता है की दूसरे की चीज़ लेने पर दूसरे को दुःख होता है. कोई बड़ा जब बच्चे पर हाथ उठाता है तो आत्मरक्षा में अपने आप उसका हाथ उठ जाता है. यही कुदरत है, और इस्लाम नाम है इंसान के लिए बने कुदरत के कानूनों का पालन करने का. जो भी इन कानूनों का पालन करेगा उसके लिए अगली ज़िन्दगी में आराम है, और जो इनका पालन नहीं करेगा उनके लिए सजा है, यह सन्देश देते हैं ईशदूत और धर्मग्रन्थ.
    सारी बुराईयां,इन्सान के स्वार्थ से ही शुरू होती है,बिना श्रम किये पाने का स्वार्थ ही चोरी व लूटमार है।....बहाने बनाता है,जैसे स्वबचाव के तर्क में हिंसा को आप लोग जायज ठहराते है।
    इंसान लाख स्वार्थ में अँधा हो जाए, उसके बावजूद वह जानता है की अच्छा क्या है और बुरा क्या. उसके सामने हमेशा दो रास्ते होते है, एक अच्छाई का और दूसरा अपने स्वार्थ की पूर्ती करने हेतु बुराई का. रही बात स्वबचाव की तो उसमें भी कुरआन पूरी एहतियात का हुक्म देता है. अगर अपने बचाओ में दुश्मन को भगाने से काम चल सकता था और आपने उसे मार डाला तो ये आपका ज़ुल्म साबित होता है.
    अब उपर जो मैने 'शक्ति' का उल्लेख किया,वह इस स्वार्थ पर कंट्रोल पाने की शक्ति का उल्लेख था,और यह उस तथाकथित सर्वशक्तिमान के लिये असम्भव नहिं था.
    उस सर्वशक्तिमान ने हर व्यक्ति को अपने स्वार्थ पर कण्ट्रोल पाने की शक्ति दी है. और छोटी सी ज़िन्दगी दी है. और ये भी दिखा दिया है की मरते समय इंसान का सब कुछ यहीं रह जाता है. तो फिर स्वार्थ पर कण्ट्रोल करने में क्या दिक्कत है? बजाये ये की उसकी बनाई दुनिया और कानूनों में मीन मेख निकालें हम कुछ समय (ब्रह्माण्ड की आयु की तुलना में हमारी ज़िन्दगी एक लम्हा भी तो नहीं!) के लिए अनुशासन से बिना किसी को तकलीफ पहुंचाए जी लें तो कौन इससे रोक रहा है?

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  20. चर्चामित्र ज़ीशान,

    बात को घुमा फ़िरा कर वहीं ला पटकते हो।
    अगर अच्छा बुरा हम कुदरत से सीखते है,तो ईशदूत और धर्मग्रन्थ में
    अच्छे बुरे के उपदेश क्यों?खुदाई कुदरत से ही हम जान जाते अच्छे का नतिज़ा अच्छा और बुरे का नतिज़ा बुरा। खुदा ने ईशदूतों को नाहक़ श्रम दिया। कुदरती संज्ञान हो सकता,अर्थार्त संदेश हम तक सीधा पहुंच जाता तो दूत की और संदेशपत्र (किताब)की क्या उपयोगीता?

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  21. हर व्यक्ति को अपने स्वार्थ पर कण्ट्रोल पाने की शक्ति दी है।

    फ़िर जब इन्सान स्वार्थी बना रह्ता है तब वह शक्ति कहां जाती है।
    मैं भी यही पुछ्ता हुं,सर्वशक्तिमान द्वारा प्रदत्त स्वार्थ पर कण्ट्रोल पाने की शक्ति के होते हुए,स्वार्थ पर कण्ट्रोल करने में क्या दिक्कत है?
    अर्थार्त कोई और भी शक्ति है जो सर्वशक्तिमान की शक्ति को ओवरटेक कर के सफ़ल नहिं होने देती।

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  22. ये क्या पागलपन है एक तो जाकिर नाइक जिसके दिमाग में भूसा भरा है और ये दूसरा असरफअली है जिनका भी कोई स्क्रू ढीला लगता है एक को संस्कृत ठीक से नहीं आती और एक को अरबी का मतलब करना नहीं आता दोनों ही अपने अपने नाम का प्रचार करने में लगे है में कोई इस्लाम या मुसलमानों का विरोधी नहीं हूँ लेकिन ऐसे लोगो का विरोधी हूँ जो की किसी भी धर्म ग्रन्थ का अपमान करके अपने आप को बड़ा चतुर और समजदार बताते है इन लोगो की आदत होती है ये किसी भी धर्म ग्रन्थ का अध्ययन नहीं किया करते लेकिन ये धर्म ग्रन्थ इस लिए पढ़ते है की उसमे से कुछ ऐसा मसाले दार मतलब निकला जाये कि दुनिया अचंभित हो जाये ये सब दया के पात्र है और इनका साथ देनेवाले विकृत मनो विचार वाले कहलायेंगे (अगर जाकिर नाइक को संस्कृत और असरफ को अरबी उर्दू सीखनी है तो में सिखाने के लिया तैयार हु बिलकुल निःशुल्क ) चाणक्य के अनुसार मूर्खो से कोई भी सम्बन्ध रखने वाला अंत में संकट ही पाता है तो असरफ अली और जाकिर नाइक ये दोनों को एक दुसरे पर कीचड़ उछालना है तो उछाले लेकिन इनके पास खड़े रह कर अपने ऊपर भी किचल उचालेंगा ये तय है तो इनसे दूर ही रहा जाये यही बुध्धिमानी है असरफ अली मुस्लिम हो कर मुस्लिम के उपास्यो को निचा दिखा रहा है तो क्या ये दुसरे धमो की इज्जत करेगा ? इनसे पूछो की फिर किसकी उपासना की जाये? क्या तुम लोगो की ? इससे पूछना भी बेकार होगा की, तुम्हारे स्वामी रामकृष्ण परमहंस के बारेमे क्या विचार है? या तो गरीब नवाज़ के बारे में क्या विचार है? विवेकानंद के बारेमे या तो सूफी संत निजामुदीन के बारेमे? कबीर, तुलसीदास, मीराबाई के बारे में ?क्यों की ये दोनों बकवास ही करने वाले है. मैं तो हिन्दू, जैन, बुद्ध, सिख, इसाई और सबको इनसे दूर ही रहने की सलाह देता हूँ . - श्री दासअवतार

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  23. ये क्या पागलपन है एक तो जाकिर नाइक जिसके दिमाग में भूसा भरा है और ये दूसरा असरफअली है जिनका भी कोई स्क्रू ढीला लगता है एक को संस्कृत ठीक से नहीं आती और एक को अरबी का मतलब करना नहीं आता दोनों ही अपने अपने नाम का प्रचार करने में लगे है में कोई इस्लाम या मुसलमानों का विरोधी नहीं हूँ लेकिन ऐसे लोगो का विरोधी हूँ जो की किसी भी धर्म ग्रन्थ का अपमान करके अपने आप को बड़ा चतुर और समजदार बताते है इन लोगो की आदत होती है ये किसी भी धर्म ग्रन्थ का अध्ययन नहीं किया करते लेकिन ये धर्म ग्रन्थ इस लिए पढ़ते है की उसमे से कुछ ऐसा मसाले दार मतलब निकला जाये कि दुनिया अचंभित हो जाये ये सब दया के पात्र है और इनका साथ देनेवाले विकृत मनो विचार वाले कहलायेंगे (अगर जाकिर नाइक को संस्कृत और असरफ को अरबी उर्दू सीखनी है तो में सिखाने के लिया तैयार हु बिलकुल निःशुल्क ) चाणक्य के अनुसार मूर्खो से कोई भी सम्बन्ध रखने वाला अंत में संकट ही पाता है तो असरफ अली और जाकिर नाइक ये दोनों को एक दुसरे पर कीचड़ उछालना है तो उछाले लेकिन इनके पास खड़े रह कर अपने ऊपर भी किचल उचालेंगा ये तय है तो इनसे दूर ही रहा जाये यही बुध्धिमानी है असरफ अली मुस्लिम हो कर मुस्लिम के उपास्यो को निचा दिखा रहा है तो क्या ये दुसरे धमो की इज्जत करेगा ? इनसे पूछो की फिर किसकी उपासना की जाये? क्या तुम लोगो की ? इससे पूछना भी बेकार होगा की, तुम्हारे स्वामी रामकृष्ण परमहंस के बारेमे क्या विचार है? या तो गरीब नवाज़ के बारे में क्या विचार है? विवेकानंद के बारेमे या तो सूफी संत निजामुदीन के बारेमे? कबीर, तुलसीदास, मीराबाई के बारे में ?क्यों की ये दोनों बकवास ही करने वाले है. मैं तो हिन्दू, जैन, बुद्ध, सिख, इसाई और सबको इनसे दूर ही रहने की सलाह देता हूँ . - श्री दासअवतार

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  24. ये क्या पागलपन है एक तो जाकिर नाइक जिसके दिमाग में भूसा भरा है और ये दूसरा असरफअली है जिनका भी कोई स्क्रू ढीला लगता है एक को संस्कृत ठीक से नहीं आती और एक को अरबी का मतलब करना नहीं आता दोनों ही अपने अपने नाम का प्रचार करने में लगे है में कोई इस्लाम या मुसलमानों का विरोधी नहीं हूँ लेकिन ऐसे लोगो का विरोधी हूँ जो की किसी भी धर्म ग्रन्थ का अपमान करके अपने आप को बड़ा चतुर और समजदार बताते है इन लोगो की आदत होती है ये किसी भी धर्म ग्रन्थ का अध्ययन नहीं किया करते लेकिन ये धर्म ग्रन्थ इस लिए पढ़ते है की उसमे से कुछ ऐसा मसाले दार मतलब निकला जाये कि दुनिया अचंभित हो जाये ये सब दया के पात्र है और इनका साथ देनेवाले विकृत मनो विचार वाले कहलायेंगे (अगर जाकिर नाइक को संस्कृत और असरफ को अरबी उर्दू सीखनी है तो में सिखाने के लिया तैयार हु बिलकुल निःशुल्क ) चाणक्य के अनुसार मूर्खो से कोई भी सम्बन्ध रखने वाला अंत में संकट ही पाता है तो असरफ अली और जाकिर नाइक ये दोनों को एक दुसरे पर कीचड़ उछालना है तो उछाले लेकिन इनके पास खड़े रह कर अपने ऊपर भी किचल उचालेंगा ये तय है तो इनसे दूर ही रहा जाये यही बुध्धिमानी है असरफ अली मुस्लिम हो कर मुस्लिम के उपास्यो को निचा दिखा रहा है तो क्या ये दुसरे धमो की इज्जत करेगा ? इनसे पूछो की फिर किसकी उपासना की जाये? क्या तुम लोगो की ? इससे पूछना भी बेकार होगा की, तुम्हारे स्वामी रामकृष्ण परमहंस के बारेमे क्या विचार है? या तो गरीब नवाज़ के बारे में क्या विचार है? विवेकानंद के बारेमे या तो सूफी संत निजामुदीन के बारेमे? कबीर, तुलसीदास, मीराबाई के बारे में ?क्यों की ये दोनों बकवास ही करने वाले है. मैं तो हिन्दू, जैन, बुद्ध, सिख, इसाई और सबको इनसे दूर ही रहने की सलाह देता हूँ . - श्री दासअवतार

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  25. मुर्ख है जो एक मत को मानते है , सत्य तो केवल वक्त है जो सनातन सत्य है वो है वैदिक धर्म और जो मत है जिसमे हिन्दू , बौद्ध , ईसाई और खासकर मोमिनो का इस्लाम वो तो एक अधर्मी राक्षसों का धर्म है

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