Sunday, 29 November 2009

क़ुरआन- सूरह निसाअ ४


To
Intertecconsulting
जनाबे आली,
मैं कोई सिर फिरा नहीं हूँ. सदाक़त को पढ़ कर आप का सिर फिर जाता है. सिर फिरा है आप का अल्लाह और उसका खुद साख्ता रसूल.मैं उसी की बातो का तर्जुमा कर रहा हूँ, और लीक से हट कर उस पर तबसरा. आप बराबर पढ़ते रहे, एक दिन सच्चाई आप के सिर पर चढ़ कर बोलेगी.
To
Truth Way
मोहतरम!
मैं अपनी अक्ल और दिमाग का बेहतर इस्तेमाल कर रहा हूँ, ज़रुरत है आप अपनी आखों पर पड़े अकीदत के परदे को हटाएँ.
मैं मशहूर और मारूफ तर्जुमा निगार अशरफ अली थानवी के क़ुरआनी तर्जुमे को लेकर चल रहा हूँ जिन्होंने मुख्तलिफ़ दीनी किताबें लिखी हैं. मौलाना बुखारी और सही मुस्लिम की मुस्तनद हदीसों का ही हवाला है. हिदोस्तान क्या बर्रे सगीर पर थानवी का क़ुरआनी तर्जुमा ग़ालिब है.
मरने के बाद लाश की परवाह आप जैसे नादानों को होती है. लीजिए फ़िलहाल अबी लहेब का हाल जान लीजिए जो क़ुरआन में एक सूरह की शक्ल में अमर हो गया.
अबू लहब मुहम्मद का रोज़े अव्वल से निगहबान चचा था, यतीम भतीजे के पैदा होते ही अपनी लौंडी को आज़ाद कर दिया था और दूध पिलाने के लिए मुहम्मद के घर नौकरी देदी थी. सर परस्ती का सिसिला उसने सिर्फ बचपन तक ही नहीं, जवानी तक ही नहीं, बल्कि मुहम्मद की दो लड़कियां जवान हो गईं, तब तक कायम रखा और दोनों को बहू बना कर मुहम्मद का बोझ हल्का किया. एहसान फरामोश मुहम्मद की आँखें उससे इस लिए फिर गईं कि अचानक मुहम्मद के एलाने पयंबरी का मुनहरिफ़ होने वाले पहले शख्स अबू लहब थे. फ़तह मक्का के बाद कहते हैं कि उनके घर पर मुन्तकिम मुहम्मद ने इस क़दर पत्थरों की बारिश कराई , भरा परिवार उसी में दफन हो गया और बरसों वह पहड़ी की शक्ल में अबू लहब की अलामत बना रहा.
आप लाशों की बात करते हैं? लाशें तो हमेशा इस्लाम ने रुसवा किया है, तीसरे खलीफा उस्मान गनी की लाश अली जादों के तलवार के नीचे तीन दिन तक सडती रही, बाद में यहूदियों ने उसे अपनी कब्रगाह में जगह दी. उस्मान गनी जिन्हों ने क़ुरआन को मुरत्तब किया, क़ुरआन जो पहले मस्हफे-उस्मानी कहा जाता था. हुसैन की लाश की दुर्गत को आज तक मुसलमान हर साल कन्धों पर ढोते हैं जिसको मुसलमानों ने ही की थी.
अबू जेहल और फ़िरऑन की अज़मतों का बयान फिर कभी. आप मेरे ब्लॉग को पढ़ते रही - - -
मुहम्मद उमर कैरानवी
कहते है - - - मेरे ब्लाग पर आ कभी . . .
(निशाकार भाई! बचाइए पागल सांड आ गया)
मुहम्मद उमर कैरानवी जैसे बे ज़मीर -- ओलिमाओं की तरह ही लोग होते हैं जो उनकी लिखी उल जुलूल लेखन को अपना ज़रीआ मुआश बनाते हैं. यह दोनों चोर चोर मौसेरे भाई हुवा करते हैं. इनको इस बात की क़तअन फ़िक्र नहीं कि कौम जन्नत में जायगी या जहन्नम में, इन को सिर्फ इस बात कि चिंता रहती है कि कैसे अपने बच्चों का पेट हराम की गलाज़त से भरा जाए, क्यूंकि यह कमाई के हलाल ज़रीओं पर ईमान नहीं रखते. इन के खून में भी कुत्तों और सांडों कि सी खसलत होती है. कौम की बात तो बड़ी बात है . इनको इस बात का एह्साह भी नहीं कि २०% मानव जाती घोर अन्धकार में जी रही है. इनकी बला से, दस लाख इराकी काल के गल में समा गए. हो गए होंगे, इनको आखरत के नाम पर दो जून कि गलाज़त चाहिए. मुहम्मद उमर कैरानवी हर एक के फटे में अपनी सींग डाले रहते है, नहीं देखते की हिदू मुस्लिम दंगा हो जाएगा, अपने गढ़ में महफूज़ जो हैं , मारें साले बे कुसूर, मेहनत कश अवाम - - मगर जब इन सर पर फिरका परस्ती का मलकुल मौत खड़ा हो जाता है तो यह उसका तनासुल तक चाटने को तैयार हो जाते है. आखरी नबी, आखरी अवतार, आखरी निजाम और आखरी किताब कहने वाले यह जाहिल कह नहीं सकते कि इनका आखरी बाप भी इन के पैगम्बर ही थे। कोई समझाए कि इस रचना कालिक संसार में आखरी का मतलब क्या होता है? इनके पैगम्बर के ज़माने में आखरी सवारी ऊँट थी तो यह आज हवाई जहाज़ पर हज करने क्यूं जाते हैं?


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अल्लाह बोलता भी है आइए देखें की मुसलामानों का अल्लाह क्या क्या बोलता है - - -

सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा
Prophet of Doom 4th Surah 'Women'

((पहली किस्त))

"ऐ लोगो! परवर दिगर से डरो जिसने तुमको एक जानदार से पैदा किया और इस जानदार से इस का जोड़ा पैदा किया और इन दोनों से बहुत से मर्द और औरतें फैलाईं और क़राबत दारी से भी डरो। बिल यक़ीन अल्लाह ताला सब की इत्तेला रखते हैं।"
सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा आयात (१)
क़ुरआन में मुहम्मद तौरेती विरासत को दोहरा रहे हैं कि आदम की पसली से हव्वा की रचना हुई और वह आदम की जोड़ा हुईं, उन से सुब्ह ओ शाम लड़का लड़की होते रहे और जोड़े बनते गए, इस तरह कराबत दारियां जमीन पर फैलती गईं, वह भी सिर्फ साढ़े छ हज़ार साल पहले जब कि इंसान का वजूद साढ़े छ करोड़ साल पहले तक हो सकने के आसार हम को हमारी साइन्सी मालूमात बतलाती है. लाखों साल की पुरानी इंसानी तवारीख स्कूल के बच्चों को पढाई जा रही हैं और मुस्लिम क़ौम की क़ौम आज भी इस आदम और हव्वा साढ़े छ हज़ार साल पहले की कहानी पर यक़ीन रखती है. अल्लाह कहता है उससे डरो, कराबत दारों से डरो, भला क्यूँ? इस लिए कि अगर डरेंगे नहीं तो इन जेहालत की बातों का मजाक नहीं उडाएँगे? मुहम्मदी अल्लाह कभी जानदार से बेजान को निकलता है, तो कभी बेजान से जानदार को, आदम को मिटटी से बना कर जान डाल दिया तो अभी पिछली सूरह में ईसा गारे की चिडिया बना कर, उसकी दुम उठाकर उस में फूंक मारते है और वह फुर्र से उड़ जाती है. yeh क़ुरआन नहीं बाजी गरी का तमाशा है, मुसलमान तमाशा बने हुए हैं और सारा ज़माना तमाशाई। शर्म तुम को मगर नहीं आती।
." जिन बच्चों के बाप मर जाएँ तो उनका मॉल उन्हीं तक पहुँचते रहो, अच्छी चीज़ को बुरी चीज़ से मत बदलो और अगर तुम्हें एहतेमाल हो कि यतीम लड़कियों के साथ इंसाफ न कर सकोगे तो औरतों से जो तुहें पसंद हों निकाह कर लो, दो दो, तीन तीन या चार चार, बस कि इंसाफ हर एक के साथ कर सको वर्ना बस एक. और जो लौंडी तुम्हारी मिलकियत में है, वही सही,"
सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा आयात (2-3)
जंग जूई का दौर था, मर्द खून खराबे में मुब्तेला रहा करते थे जिस की वजह से औरतें इफ़रात हुआ करती थीं, बेहतर ही हल था यह कि साहिबे सरवत मर्दों के किफालत में दो दो तीन तीन या चार चार औरतें आ जाया करती थीं, बनिसबत हिन्दू समाज के जहाँ औरतें खैराती मरकजों को, माँ, बहन, बीवी का मक़ाम न पा कर, पंडो को अय्याशी के लिए देदी जाती थीं, जहाँ उनकी ज़ईफी दर्द नाक हो जाया करती थी। उस वक़्त बे निकाही लौडियां मुबशरत के लिए जायज़ हुआ करती थीं, खुद मुहम्मद लौडियां रखते थे। एक लौंडी मारिया से तो इब्राहीम नाम का एक बच्चा भी हुआ था जो ढाई साल का होकर मर गया दूसरी लौंडी ऐमन से मशहूर ए ज़माना ओसामा हुवा जिसकी वल्दियत ज़ैद बिन हरसा (या ज़ैद बिन मुहम्मद) थी . जीती हुई जंगों में गिरफ्तार औरतें लौंडियाँ हुआ करती थीं. इज्तेहाद यानी परिवर्तन इर्तेकई (रचना काल) मराहिल का तकाज़ा है कि आज लौंडियों के साथ मुबशरत हराम हो गया है, अब घर की खादमा को मजाल नहीं की उस पर बुरी नज़र डाली जाए। जब इतना बड़ा बदलाव आ चुका है कि मुहम्मद की हरकतें हराम हो चुकी है तो इर्तेकई तक़ाज़े के तहत बाकी मुआमले में बदलाव क्यूँ नहीं?

निजाम दहर बदले, आसमां बदले, ज़मीं बदले।
कोई बैठा रहे कब तक हयाते बे असर ले के।

अल्लाह यतीम के मॉल खाने को आग से पेट भरने की मिसाल देता है. कबीले में मुखिया के मर जाने के बाद विरासत की तकसीम अपने आप में पेचीदा बतलाई गई है, जो कि आज लागू नहीं हो सकती. क़ुरआन में जो हुक्म अल्लाह देता है वह इतना मुज़बज़ब और गैर वज़ह है कि आज इस की बुन्याद पर कोई क़ानून नहीं बनाया जा सकता. आप सुनते होंगे कि फ़त्वा फ़रोश कैसी कैसी मुताज़ाद गोटियाँ लाते हैं. उनका हर फ़ैसला लाल बुझक्कड़ का फरमान जैसा होता है.
" ये सब एहकम मज़कूरह खुदा वंदी ज़ाबते हैं और जो शख्स अल्लाह और उसके रसूल की पूरी इताअत करेगा, अल्लाह उसको ऐसी बहिषतों में दाखिल करेगा जिसके नीचे नहरें जारी होंगी। हमेशा हमेशा इसमें रहेंगे। यह बड़ी कामयाबी है."
सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा आयात (8-13)
यह क़ुरआन की आयत बार बार दोहराई गई है. अहले रीश अपनी दढ़ियाँ इसके तसव्वुर से तर रखते हैं. इस मुहज्ज़ब दुन्या के लिए कुरानी निजाम हयात पर एक नजर डालिए जिसे पढ़ कर शर्म आती है - - " तुम पर हराम की गई हैं तुम्हारी माएँ, और तुम्हारी बेटियाँ और तुम्हारी बहनें और तुम्हारी फूफियाँ और तुम्हारी खालाएँ और भतीजियाँ और भांजियां और तुम्हारी वह माएँ जिन्हों ने तुम्हें दूध पिलाया है और तुम्हारी वह बहनें जो दूघ पीने की वजह से हैं. तुम्हारी बीवियों की माएँ और तुम्हारी बीवियों की बेटियाँ जो तुम्हारी परवरिश में रहती हों, इन बीवियों से जिन के साथ तुम ने सोहबत की हो और तुम्हारी बीवियों की बेटियाँ या दो सगी बहनें."
सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (23)
ऐसा नहीं था की मुहम्मद से पहले ये सारे रिश्ते रवा और जायज़ हुवा करते थे जैसा की आज मुस्लमान समझ सकते हैं. मगर कुरआन में कानून जेहालत मुरत्तब करने के लिए यह मुहम्मद की अध कचरी कोशिश है. इसे ही ओलिमा मुश्तहिर करके आप को गुमराह किए हुए हैं
" इस तरह से बीवी न बनाव कि सिर्फ मस्ती निलालना हो - - अलाह्दह होने के बाद आपसी रज़ामंदी से महर अदा करो. लौडियों से निकाह करो तो इनके मालिकों से इजाज़त लेलो. वह न तो एलान्या बदकारी करने वालियां हों, और न खुफ्या आशनाई करने वाली हों. मनकूहा लौंडियाँ अगर बे हयाई का इर्तेकाब करती हैं तो इन पर सज़ा निस्फ़ है, बनिस्बत आम मुस्लमान औरतों के. इस के बाद भी मर्द अगर ज़ब्त ओ सब्र से काम लें तो अल्लाह मेहरबान है."
सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (24-25)
ये सब कबीलाई बातें क्या आज कहीं पाई जाती हैं? लौंडियों और गुलामों का ज़माना गया उसकी बातें एक कौम की इबादत और तिलावत बनी हुई है, इस से शर्म नाक बात और क्या हो सकती है? एक दरमियानी सूरत नज़र आती है कि मुसलमान अज़ खुद नमाज़ों में इन आयतों को बज़ोर आवाज़ रोजाना पढा करें, शायद कभी कुरानी शैतान उनके सामने आकार खडा हो जाए और वह नमाजों पर लाहौल पढना शुरू करदें. बहर हल मुसलमानों को बेदार होना है
" मर्द हाकिम हैं औरतों पर, इस सबब से कि अल्लाह ने बाज़ों को बअजों पर फजीलत दी है ---- और जो औरतें ऐसी हों कि उनकी बद दिमागी का एहतेमाल हो तो इन को ज़बानी नसीहत करो और इनको लेटने की जगह पर तनहा छोड़ दो और उन को मारो, वह तुम्हारी इताअत शुरू कर दें तो उन को बहाना मत ढूंढो।"
सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (34)
औरतों के साथ सभी धर्मों ने ज्यादतियाँ कीं हैं, बाकियों में औरतों ने नजात पा ली है मगर इस्लाम में आज भी औरत की हालत जैसी की तैसी है. जेहनी एतबार से औरतें मर्दों से कम नहीं हैं, उन्हें अच्छी तालीम ओ तरबीयत की ज़रुरत है. जिस्मानी एतबार से वोह सिंफे नाज़ुक ज़रूर हैं और यही उनकी ताक़त है जो मर्द की कशिश का बाईस बनती है. मर्द की शुजाअत और औरत कि नज़ाक़त, दोनों मिल कर ही कायनात को जुंबिश देते हैं. मखलूक की रौनक इन्हीं दोनों अलामतों पर मुनहसर करती हैं. हाकिम और महकूम कहना इस्लामी बरबरियत है, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं
" अल्लाह मुसलमानों को मिल कर रहने की नसीहत देता है, (जैसा कि तमाम मौलाना आम मुसलमानों को दिया करते हैं मगर अंदर ही अंदर उनको आपस में लड़ाए रहते हैं ताकि उन की डेढ़ ईंट की मस्जिद कायम रहे।)अल्लाह खालिके मख्लूक़ अपनी कमज़ोरी बतलाता है कि आदमी कमज़ोर पैदा किया गया है, फिर अपनी खूबियाँ गिनाता है और अपनी गुन गाता है। आयातों में उसका अपना मुँह है, जो मुँह में आता है बोलता चला जाता है. अजीयत पसंद कुरआन उठा कर देख लें."
सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (27-33)
" खुद साख्ता रसूल का अल्लाह बखीलों को बिलकुल पसंद नहीं करता, इन में हज़ार कीड़े निकालता है, और खर्राचों को बखीलों से ज्यादा ना पसंद करता है। दोनों के बुरे अंजाम से ज़मीन से लेकर आसमान तक के लिए आगाह करता है। बस पसंद करता है तो सिर्फ़ उन शाह खर्चों को जो अल्लाह और उस के रसूल की राह में खर्च करे. कोई मुस्लमान कोई बड़ा खर्च करदे तो मुहम्मद के दिल को धक्का लगता है कि रक़म तो अल्लाह के बाप की थी. उनकी पैरवी मुंबई के सय्यदना कर रहे हैं कि उनकी इजाज़त के बगैर क़ौम अपने बेटे का मूडन तक नहीं कर सकती, गधी क़ौम पहले उनको टेक्स अदा करे. हम ऐसे बोहरों और खोजों जैसों को गधा ही कहते हैं जिनके धर्म गुरू पेरिस मे रह कर उनकी दौलत पर ऐश करते हैं." सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (37-42)
निसार ''निसार-उल-ईमान''

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मेरे हमनवा
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Let's return to the Qur'an to see how Muhammad is using Allah. The 4th surah was named after the women he craved. It opens with yet another version of creation: Qur'an 4:1 "People! Be careful of your Lord, Who created you from a single being and created its mate of the same (kind) and spread from these two, many men and women."
Returning to his favorite Meccan theme, the orphan wants his property returned. Qur'an 4:2 "To orphans restore their property...and devour not their substance (by mixing it up) with your own. For this is a great sin." Muhammad was worried that the Meccans were devouring the assets of the Ka'aba Inc. After all, he had raided their caravans, destroying their only other source of income. And being the world's biggest hypocrite, the prophet never returned the property of the orphans he had created by killing their parents and selling them into slavery.
Since this surah was named "Women," it's only fair that men have more than one. Qur'an 4:3 "If you fear that you shall not be able to deal justly with orphans, marry women of your choice who seem good to you, two or three or four; but if you fear that you shall not be able to do justice (to so many), then only one, or (a slave) that you possess, that will be more suitable. And give the women their dower as a free gift; but if they, of their own good pleasure, remit any part of it to you, eat it with enjoyment, take it with right good cheer and absorb it (in your wealth)." According to Muhammad, it's even okay to beat them until they "remit the dower of their own good pleasure."
Returning to what Muhammad craved: Qur'an 4:10 "Those who unjustly eat up the property of orphans, eat up a Fire into their bodies: They will soon endure a Blazing Fire!"
Next we learn that Allah thinks that men are twice as valuable as women. Qur'an 4:11 "Allah directs you in regard of your Children's (inheritance): to the male, a portion equal to that of two females.... These are settled portions ordained by Allah." Qur'an 4:13 "Those are limits imposed by Allah." In future surahs and Hadiths, Team Islam would call women "half wits," too.
Muhammad was itching for a "submit and obey" verse, so... Qur'an 4:12 "Those who obey Allah and His Messenger will be admitted to Gardens to abide therein and that will be the supreme achievement. But those who disobey Allah and His Messenger and transgress His limits will be admitted to a Fire, to abide therein: And they shall have a humiliating punishment." In other words, if you treat women as equals, you'll burn in hell. Qur'an 4:15 "If any of your women are guilty of lewdness, take the evidence of four witnesses from amongst you against them; if they testify, confine them to houses until death [by starvation] claims them. If two men among you are guilty of lewdness, punish them both. If they repent and improve, leave them alone; for Allah is Oft-Returning."
The following words, coming as they do from the most perverted sexual libertine to have ever claimed prophetic status, are hilarious: Qur'an 4:23 "Prohibited to you are: your mothers, daughters, sisters; father's sisters, mother's sisters; brother's daughters, sister's daughters; foster-mothers (who gave you suck), foster-sisters; your wives' mothers; your step-daughters born of your wives to whom you have gone in, no prohibition if you have not gone in; (those who have been) wives of your sons proceeding from your loins [leaving wives of adopted sons - like his Zayd - fair game]; and two sisters in wedlock at one and the same time, except for what is past; for Allah is Oft-Forgiving. Also (prohibited are) women already married, except slaves who are captives (of war)." Rape is still okay with Rocky.
Since Muhammad's harem included countless concubines and sex slaves, this too is laughable. Qur'an 4:27 "Allah likes to turn you, but those lost in the lusts of the flesh wish to turn away - far, far away. Allah does wish to lighten your (difficulties): For man was created weak. Believers, you should not usurp unjustly the wealth of others, except it be a trade by mutual consent, and kill not one another. If any do that in rancor and injustice, soon shall We cast them into the Fire: And easy it is for Allah." This admonition is obviously meant to prevent the growing Muslim horde from turning on itself when infidel targets become harder to find. "Plunder and kill anyone you like, except fellow pirates," the chief hypocrite said.
Some verses later, we are reminded that Muhammad was against people and that his god was mean-spirited. Qur'an 4:41 "We brought from each people a witness, and We brought you (O Muhammad) as a witness against these people! On that day will those who disbelieve and disobey the Messenger desire that the earth were leveled with them in it, but they shall not be
able hide from Allah."
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Friday, 27 November 2009

क़ुरआन - सूरह आले इमरान ३


छटवीं किस्त

एक मुहम्मद फ़रामूदा हदीस मुलाहिज़ा हो - - -
मुहम्मद कालीन अबू ज़र कहते हैं कि हुज़ूर गिरामी सल लाल्लाहो अलैह वसस्सल्लम (अर्थात मुहम्मद) ने मुझ से फ़रमाया, ''अबू ज़र तुम को मालूम है यह आफताब (डूबने के बाद) कहाँ जाता है? मैं ने अर्ज़ किया खुदा या खुदा का रसूल ही बेहतर जानता है, फ़रमाया यह अर्श पर इलाही के सामने जाकर सजदा करता है और दोबारा तुलू (प्रगट) होने कि इजाज़त तलब करता है. इसको इजाज़त दी जाती है, लेकिन क़रीब क़यामत में यह सजदा की बदस्तूर इजाज़त तलब करेगा, लेकिन इसका सजदा कुबूल होगा न इजाज़त मिलेगी, बल्कि हुक्म होगा कि जिस तरफ से आया है उसी तरफ को वापस हो जा. चुनांच वह मगरिब (पश्चिम) से तुलू होगा. ''
(बुखारी १३०३) +(सही मुस्लिम - - किताबुल ईमान)
तो मियाँ मुहमम्म्द इस किस्म के लाल बुझक्कड़ थे और अबू ज़र जैसे उल्लू के पट्ठे जो आँख तो आँख मुँह बंद करके सुनते थे, यह भी पूछने की हिम्मत न करते कि सूरज के हाथ पांव सर कहाँ है कि वह सजदा करता होगा? मुहम्मद से सदियों पहले यूनान और भारत में आकाश के रहस्य खुल चुके थे। अफ़सोस का मुकाम यह है कि आज भी मुसलमान अहले हदीस लाखों की तादाद में इस गलाज़त को ढो रहे हैं।
मैं एक गाँव में हुक्के के साथ पीने का मशगला अपने दोस्तों के साथ कर रहा था कि एक मुल्ला जी नमूदार हुए. हमने एख्लाकन उन्हें हुक्के कि तरफ इशारह करके कहा आइए नोश फरमाइए. हुक्के को धिक्कारते हुए बोले'' हुज़ूर ने फ़रमाया है हुक्का, बीडी, सिगरेट पीने वालों के मुंह से क़यामत के दिन शोले निकलेंगे'' लीजिए हो गई एक ताज़ा हदीस, जी हाँ! मुहम्मद के नाम से हर कठ मुल्ला रोज़ नई नई हदीसें गढ़ता है। मुहमाद के ज़माने में हुक्का, बीडी, सिरेट कहाँ थे?
अब शुरू करता हूँ अल्लाह के नाम से मुहम्मद का राग माला - - -


" और उन से कहा गया आओ अल्लाह की रह में लड़ना या दुश्मन का दफ़ीअ बन जाना। वह बोले कि अगर हम कोई लडाई देखते तो ज़रूर तुम्हारे साथ हो लेते, यह उस वक़्त कुफ़्र से नजदीक तर हो गए, बनिस्बत इस हालत के की वह इमान के नज़दीक तर थे।"
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (168)
ये जज़्बाए जेहाद ओ क़त्ताल ओ जंग और लूट मार जज़्बए ईमाने इस्लामी का अस्ल है. चौदह सौ सालों से यह इस्लामी ईमान के भूखे और इंसानी खून के प्यासे, भूके भेडिए मौजूदा तालिबान इंसानी आबादी को सताते चले आ रहे हैं. यह सब अपने आका हज़रात मुहम्मद(+अल्काबात) की पैरवी करते हैं. मुहम्मद पुर अमन किसी बस्ती पर हमला करने के लिए लोगों को वर्गाला रहे हैं, जिस पर लोगों का माकूल जवाब देखा जा सकता है जिसे मुहम्मद उनको कुफ्र के नज़दीक बतला रहे हैं. अफ़सोस कि भारतीय लोकतंत्र इस्लामी तबलीग के ज़हर को चीन की तरह नहीं समझ पा रही, इसके साथ समस्या ये है कि इसे पहले हिंदुत्व के बड़े देव के नाक में नकेल डालनी होगी
" ऐसे लोग हैं जो अपने भाइयों के निस्बत बैठे बातें बनाते हैं कि वह हमारा कहना मानते तो क़त्ल न किए जाते, आप कहिए कि अच्छा अपने ऊपर से मौत को हटाओ, अगर तुम सच्चे हो."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (170)
मुहम्मद नंबर१ कठ मुल्ला थे, कठ मुल्लाई दुन्या में शायद मुहम्मद की ही ईजाद है. जंग ओहद में मरने वालों के पस्मानदागान के आँखें खुश्क नहीं हो पा रही हैं और मुहम्मद उन के ज़ख्मों पर कठ मुल्लाई का नमक छिड़क रहे हैं, उनके गुंडे उनके साथ हैं, उनके सभी रिश्ते दार सूबों के हुक्मरान बन कर जेहादी वुसअत की मौज उड़ा रहे हैं. बे फौफ रसूल जो बोलते है वह अल्लाह की ज़बान होती है. सूरह के आखीर में अल्लाह अपने शिकार मुसलामानों को जेहादी लूट मार में लपेटने की भरपूर कोशिश कर रहा है. इसके दांव पेंच ऐसे हैं जैसे कोई सोबदे बाज़ किसी गंवारू बाज़ार में रंगीन राख को अक्सीर दवा बता कर बेच रहा हो जो खाने, पीने, लगाने और सूंघने, हर हाल में फायदे मंद है. कुरानी आयातों का भी यही हाल है. ओलिमा का प्रोपेगंडा है कि इसमें तमाम हिकमत है, यह कुरआने हकीम है, अगर हिकमत कहीं नज़र न आए तो इसे पढ़ कर मुर्दों को बख्शो सब उसके आमाल ए बद मग्फेरत की नज़र हो जाएगे, यह बात अलग है की अल्लाह बन्दे की किस्मत उसके हमल में ही लिख देता है. इस तालिबानी अल्लाह के हाथों से जिब्रीली तलवार, शैतानी ढाल, दोज़ख के अंगार और जन्नत के लड्डू छीन लिए जाएँ तो यह कंगाल हो जाए.
"और जो लोग कुफ्र कर रहे हैं वह ये खयाल हरगिज़ न करें कि हमारा इन को मोहलत देना बेहतर है। हम उनको सिफ इस लिए मोहलत दे रहे हैं कि ताकि जुर्म में उनके और तरक्की हो जाए और उन को तौहीन आमेज़ सजा होगी।''
"सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (178)
किर्द गारे कायनात नहीं किसी क़स्बे का बनिया हुआ जो लोगों को कर्ज़ दे कर सूद बढ़ते रहने का इन्तेज़ार कर रहा है. आखीर में मन मानी तौर पर बक़ाया वसूल कर लेगा. दुन्या से जेहालत अलविदा हुई, सूद, ब्याज और मूल धन की शक्लें बदलीं, न बदल पाई तो बेचारे मुसलमानों की तक़दीर में लिखी हुई ये कुरान
"कुल्ले नफ़्सिन ज़ाइक़तुलमौत''-हर जानदार को मौत का मज़ा चखना है, और तुम को तुम्हारी पूरी पूरी पादाश क़यामत के रोज़ ही मिलेगी, सो जो शख्स दोज़ख से बचा लिया गया और जन्नत में दाखिल किया गया, सो पूरा पूरा कामयाब वह हुवा। और दुनयावी ज़िन्दगी तो कुछ भी नहीं, सिर्फ धोके का सौदा है।"
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (185)
मुसलमानों की पस्मान्दगी की कहानी बस इसी आयत से शुरू होती है और इसी पर ख़त्म. वह मौत के अंजाम को हर हर साँस में ढोता है मुस्लमान, बजाए इस के कि ज़िन्दगी की नेमतों को ढोए. जब कभी रद्दे अमल में इसका बागी होता है तो जेहादी तशद्दुद को जीने की अंगडाई लेता है. दुन्या के हर नशेब ओ फ़राज़ से बे नयाज़ पल भर में खुद कुश आलात के हवाले अपने को करके अल्लाह और दीन की राह में शहीद हो जाता है। वहां उसे यकीने कामिल है कि वह सब कुछ मिलेगा जिसका वादा उस से अल्लाह कर रहा है। वह मासूम, नहीं जनता कि अल्लाह के खोल में एक खूखार पयम्बरी कयाम करती है।
"ऐ मेरे परवर दीगर! बिला शुबहा आप जिसको चाहें दोजख में दाखिल करें, उसको वाकई रुसवा ही कर दिया और ऐसे बे इन्साफों का कोई साथ देने वाला नहीं।''
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (192)
यह एक आयात है जिसमें साफ साफ मुहम्मद अल्लाह को मुखातिब कर रहे हैं और कहते हैं कि यह अल्लाह का कलाम है।कुरान में हर जगह अल्लाह बन्दों के साथ बे इंसाफी करता है और उल्टा इलज़ाम बन्दों पर लगता है। मन मानी अल्लाह की है, जिसको चाहे दोज़ख दे, जिसको चाहे जन्नत, इसको मानने वाले मूरख ही तो हैं, अपने आप में क़ैद इस झूठे अल्लाह के बन्दे.
"ऐ हमारे परवर दिगर! हमें वह चीज़ भी दीजिए जिसका हम से आप ने अपने पैगम्बर के मार्फ़त वादा फ़रमाया था और हम को क़यामत के रोज़ रुसवा न कीजिए और यक़ीनन आप वादा खिलाफ़ी नहीं करते।''
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (194)
यह आयत चीख चीख कर गवाही दे रही है कि क़ुरआन उम्मी मुहम्मद का गढ़ हुवा साजिशी कलाम है जिसको वह अल्लाह का कलाम कहते हैं. एक अदना आदमी भी इस आयत को पढ़ कर कह सकता है कि ये बात मुहम्मद की है जिस में कोई पैगम्बर गवाह भी है. खुदा गारत करे इन आलिमों को जो इतनी बड़ी मुसलमान आबादी की आँखों में धूल झोंके हुए हैं
"तुझ को इस शहर में काफिरों का चलना फिरना मुबालगा में न डाल दे. चंद दिनों की बहार है, फिर उनका ठिकाना दोज़ख होगा और वह बुरी आराम की जगह है."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (197)
जुमले में उम्मियत टपक रही है. बुरी जगह आराम की कैसे हो सकती है? और अगर आराम की है तो बुरी कैसे हुई? दुश्मने इंसानियत, इंसानों के लिए हमेशा बुरा सोचा, बुरा किया. मुहम्मद की बुराई क़ौम पे अज़बे जरिया है.
"जो लोग अल्लाह से डरें उनके लिए बागात हैं, जिनके नीचे नहरें जारी होंगी। वह इस में हमेशा हमेशा के लिए रहेंगे. यह मेहमानी होगी अल्लाह की तरफ से."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (198)
यह लाली पफ की आयत पूरे कुरआन में बार बार आई है. शायद अल्लाह की इसी बात पर ग़ालिब ने चुटकी ली है.

हम को मालूम है जन्नत की हकीक़त लेकिन,
दिल के बहलाने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है।

निसार ''निसार-उल-ईमान''


OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO
हमारे गवाह
oooooooooooooooooooo

Qur'an 3:172 "Of those who answered the call of Allah and the Messenger (at Uhud), even after being wounded (in the fight), those who do right and ward off have a great reward." Allah rewards those who kill for him. Terrorists go to the Islamic paradise: "And they returned with grace and bounty from Allah: no harm ever touched them: For they followed the good pleasure of Allah: Allah is of Infinite Bounty."
During debates with Islamic imams I'm told that these war surahs aren't relevant and that Allah's command to fight was only for Muhammad's Companions. Yet the Qur'an didn't become a book until after Muhammad's death, so that makes no sense. Further, Allah identifies the enemy "infidels" as Christians. He orders Muslims to fight, murder, enslave, and mutilate them until every soul has surrendered to Islam. The order to kill is clear and open ended.
By suggesting that the Medina surahs don't speak to people today, most of Islam becomes irrelevant, which has been my point all along. At its best, the Qur'an is little more than an elongated rant - a series of situational scriptures designed to serve Muhammad. Islam was a vicious con, little more than the Profitable Profit Plan gone awry. At its worst, it is a terrorist manifesto - a religotic that manufacturers murderers and seeks world domination.
Trying to shed his Satanic "Adversary" designation, Lucifer besmirches the character of his alter ego (while demonstrating his duplicitous nature): Qur'an 3:175 "It is the Devil who would make (men) fear his messengers and frighten you. Fear them not; fear Me [first person], if you are true believers. And let not those grieve you who fall into unbelief hastily; surely they can do no harm to Allah [third person]; they cannot injure Him [second person]; Allah intends that He should not give them any portion in the hereafter, and they shall have a grievous punishment."
The next verse borders on pathetic: Qur'an 3:181 "Verily Allah heard the taunt of those who said, (when asked for contributions to the war): 'Allah is poor, and we are rich.' We shall record their saying and We shall say: Taste you the penalty of the Scorching Fire!" If Allah is independent of men, why does he need their money?
According to Allah, those who knew the miracleless, prophetless, scriptureless messenger best rejected him. Qur'an 3:184 "Then if they reject you (Muhammad), so were rejected messengers before you, who came with miracles and with the prophetic Psalms and with the Scripture giving light." Since Muhammad performed no miracles, made no prophecies, and delivered the darkest recitals of all time, rejecting him would seem to be the most enlightened course.
Ibn Ishaq commemorates Uhud with twenty-four pages of poetry. I would be remiss if I didn't share the most disturbed lines. Let's start with a murder confession: Ishaq:403 "Allah killed twenty-two polytheists at Uhud."
Then: Ishaq:404 "War has distracted me, but blame me not, 'tis my habit. Struggling with the burdens it imposes, I bear arms bestride my horse at a cavalry's gallop. Running like a wild ass in the desert I am pursued by hunters."
And... Ishaq:405 "It is your folly to fight the Apostle, for Allah's army is bound to disgrace you. We brought them to the pit. Hell was their meeting place. We collected them there, black slaves, men of no descent. Leaders of the infidels, why did you not learn from those thrown into Badr's pit?" I beg to differ. The Meccans did learn the lesson of Badr's pit. They knew that a disease as vile as Islam, one that would cause terrorists to gloat over the mangled bodies of their slain victims, must be stopped at any cost. That's why they came to Uhud.
The doctrine of the sword will prevail by the sword if unchecked. Ishaq:406 "Among us was Allah's Apostle whose command we obey. When he gives an order we do not examine it. The spirit descends on him from his Lord. We tell him about our wishes and our desires which is to obey him in all that he wants. Cast off fear of death and desire it. Be the one who barters his life. Take your swords and trust Allah. With a compact force holding lances and spears we plunged into a sea of men....and all were made to get their fill of evil. We are men who see no blame in him who kills."
While bad Muslims can and should be saved from Islam, I believe the good ones are beyond hope. They are so corrupt; they will continue to condemn others. Ishaq:414 "If you kill us, the true religion is ours. And to be killed for the truth is to find favor with Allah. If you think that we are fools, know that the opinion of those who oppose Islam is misleading. We are men of war who get the utmost from it. We inflict painful punishment on those who oppose us.... If you insult Allah's Apostle, Allah will slay you. You are a cursed, rude fellow! You utter filth, and then throw it at the clean-robed, godly, and faithful One." It's a rotten job, but someone has to do it.
Prophet of Doom
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Thursday, 26 November 2009

क़ुरआन - सूरह आले इमरान - ३

पांचवीं किस्त

ढोंग और ढकोंसला को धर्म का नाम दे कर उनको क़ौमियत में तकसीम कर दिया गया है। हिदू धर्म, इस्लाम, धर्म, ईसाई धर्म वगैरह वगैरह, जब कि धर्म सिर्फ़ एक होता है किसी वस्तु, जीव या व्यक्ति का सद गुण - जैसे (तराजू) काँटे का धर्म (सदगुण) उस की सच्ची तोल, फूल का धर्म खुशबू, साबुन का धर्म साफ़ करना और वैसे ही इंसान का धर्म इंसानियत। इसी धर्म का अरबी पर्याय ईमान है जिस पर इस्लाम ने कब्ज़ा कर लिया है। इस्लाम अभी चौदह सौ साल पहले आया, ईमान और धर्म इंसान की पैदाइश के साथ साथ हजारों सालों से काएम हैं। इंसान इर्तेक़ाइ (रचना कालिक ) मरहलों में है, ये रचना-काल समाप्त हो, ढोंग और ढ्कोंसलों का कूड़ा इसकी राह से दूर हो जाए तो ये मानव से महा मानव बन जाएगा। खास कर मुस्लिम समाज जो पाताल में जा रहा है, इस को जगाना मेरे लिए ज़रूरी है क्यूँ कि इसी से मैं वाबिस्ता हूँ और यह ख़ुद अपना दुश्मन है। कोई इसका दोस्त नही । इस को तअस्सुब या जानिब दारी न समझा जाए, बल्कि कमज़ोर की मदद है ये।
आइए देखें कि हमारे समाज की विडंबना क्यू क्या ज़हर इसके लिए बोती है - - -


" अल्लाह ऐसे लोगों की हिदायत कैसे करेगे जो काफ़िर हो गए, बाद अपने ईमान लाने के और बाद अपने इस इक़रार के कि मुहम्मद सच्चे हैं और बाद इस के कि उन पर वाजः दलायल पहुँच चुके थे और अल्लाह ऐसे बे ढंगे लोगों को हिदायत नहीं करते।"
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (86)
यह है मुहम्मद का अभियान जिसमे अल्लाह किसी गाँव के मेहतुक की तरह है जिसे कि वह रब्बुल आलमीन कहते हैं. उनका अल्लाह उन लोगों से बेज़ार हो रहा है जो रोज़ रोज़ मुसलमान से काफ़िर हो जाते हैं और काफ़िर से मुसलमान.
" ऐसे लोगों की सज़ा ये है कि इन पर अल्लाह ताला की भी लानत होती है, फरिश्तों की और आदमियों की भी, सब की। वह हमेशा हमेशा के लिए दोज़ख में रहेंगे, इन पर अज़ाब हल्का न होने पाएगा और न ही मोहलत दी जाएगी, हाँ मगर तौबा करके जो लोग अपने आप को संवार लेंगे, सो अल्लाह ताला बख्शने वाला है."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (88-89)
मुसलमानों! सोचो अचानक मुहम्मद किसी अदभुत अल्लाह को पैदा करते है, उसके फ़रमान अपने कानों से अनदेखे फ़रिश्ते से सुनते हैं और उसको तुम्हें बतलाते है। वोह अल्लाह सिर्फ़ २३ सालों की जिंदगी जिया, न उसके पहले कभी था, न उसके बाद कभी हुवा। इस मुहम्मदी अल्लाह पर भरोसा करना क्या अपने आप को धोका देना नहीं है? सोचो कि ऐसे अल्लाह की क़ैद से रिहाई की ज़रुरत है, करना कुछ भी नहीं है, बस जो ईमान उस से ले कर आए थे उसे वापस कर दो. लौटा दो ऐसे हवाई और नामाकूल अल्लाह को उस का ईमान. ईमान लाओ मोमिन का जो धर्म कांटे का ईमान रखता है.
चौथे पारे के शुरुआत में यहूदियों से इनके बुजुर्गों पर मुहम्मद विरोध करते हुए नई नई बातें मन गढ़ंत पेश करते हैं. उनको अपनी गढ़ी हुई बातें मनवाने की कोशिश करते है और मुसलमानों को उनकी सही बातें मानने से रोकते हैं. मुहम्मद के पास दो ही नुस्खे है पहला दोज़ख का खौफ दिखाना और दूसरा जन्नत की लालच देना. अल्लाह कहता है रोजे क़यामत लोगों के चेहरे दो रंग के होंगे, सफेद और काले. काले मुंह वाले दोज़खी और सफेद चेहरे वाले बेहिश्ती. मुहम्मद अपनी अल्प संख्यक उम्मत को समझाते हैं कि काफ़िरों से अगर मुकाबला होगा तो पीठ दिखला कर भागने वाले यही काफिर होंगे, मगर ज़रूरी है कि तुम साबित क़दम रहो. मुहम्मद को शायद कभी कभी अपनों से ही अपने जान को खतरा लगता है, घुमाओ दार बातों में वोह अल्लाह की ज़बान में बोलते हैं - - - मुसलमानों! सोचो अचानक मुहम्मद किसी अदभुत अल्लाह को पैदा करते है, उसके फ़रमान अपने कानों से अनदेखे फ़रिश्ते से सुनते हैं और उसको तुम्हें बतलाते है। वोह अल्लाह सिर्फ़ २३ सालों की जिंदगी जिया, न उसके पहले कभी था, न उसके बाद कभी हुवा. इस मुहम्मदी अल्लाह पर भरोसा करना क्या अपने आप को धोका देना नहीं है? सोचो कि ऐसे अल्लाह की क़ैद से रिहाई की ज़रुरत है, करना कुछ भी नहीं है, बस जो ईमान उस से ले कर आए थे उसे वापस कर दो. लौटा दो ऐसे हवाई और नामाकूल अल्लाह को उस का ईमान. ईमान लाओ मोमिन का जो धर्म कांटे का ईमान रखता है.चौथे पारे के शुरुआत में यहूदियों से इनके बुजुर्गों पर मुहम्मद विरोध करते हुए नई नई बातें मन गढ़ंत पेश करते हैं. उनको अपनी गढ़ी हुई बातें मनवाने की कोशिश करते है और मुसलमानों को उनकी सही बातें मानने से रोकते हैं. मुहम्मद के पास दो ही नुस्खे है पहला दोज़ख का खौफ दिखाना और दूसरा जन्नत की लालच देना. अल्लाह कहता है रोजे क़यामत लोगों के चेहरे दो रंग के होंगे, सफेद और काले. काले मुंह वाले दोज़खी और सफेद चेहरे वाले बेहिश्ती. मुहम्मद अपनी अल्प संख्यक उम्मत को समझाते हैं कि काफ़िरों से अगर मुकाबला होगा तो पीठ दिखला कर भागने वाले यही काफिर होंगे, मगर ज़रूरी है कि तुम साबित क़दम रहो. मुहम्मद को शायद कभी कभी अपनों से ही अपने जान को खतरा लगता है, घुमाओ दार बातों में वोह अल्लाह की ज़बान में बोलते हैं - -
" मगर हाँ! एक तो इस ज़रिए के सबब जो अल्लाह की तरफ़ से है, दूसरे इस ज़रिए से जो आदमी के तरफ़ से है और मुस्तहक हो गए गज़ब इलाही के और जमा दी गई उन पर पस्ती, यह इस वजह से हुवा कि वह लोग मुनकिर हो जाया करते थे एह्काम इलाही के और क़त्ल कर दया करते थे पैगम्बरों को नाहक और यह बे वज्ह हुवा कि इन लोगों ने इताअत न की और दायरे से निकल निकल जाते थे।"
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (92-112)
यह गुनूदगी के आलम में बकी गई अल्लाह की कुछ और आयतें थीं। आप निकाल सकें तो कोई मतलब निकालें अय्यार ओलिमा तो इस मे अपनी इल्म का जादू भर के पुर हिकमत, पुर रहमत, पुर अज़मत वगैरा वगैरा बनाए हुए हैं। अगर आप भी इसे नज़र अंदाज़ करते हैं तो याद रखें कि आने वाले कल में आप अपनी नस्लों के मुजरिम होंगे।
* अहले किताब यानी यहूदियों में से एक हिस्से की मुहम्मद दिल खोल कर तारीफ करते हैं, उनकी जो अपनी किताब पर अमल करते हैं, मगर काफ़िरों के लिए नफ़रत में अज़ाफा हो जाता है अल्लाह इन से नफ़रत के पाठ कैसे पढाता है, देखिए - -
" हाँ तुम ऐसे हो कि उन लोगों से मुहब्बत रखते हो और वोह लोग तुम से असला मुहब्बत नहीं रखते, हालां कि तुम तमाम किताबों पर ईमान रखते हो और ये लोग जो तुम से मिलते हैं कह देते हैं ईमान ले आए और जब अलग होते हें तो तुम पर अपनी उँगलियाँ काट काट खाते हैं, मरे गैज़ के.आप कह दीजिए की तुम मर रहो अपने गुस्से में."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (113-119)
इस आयात से उस वक़्त के गैरत मंद, होश मंद और मजबूर अक्लमंदों पर सोच कर आज भी दिल कुढ़ता है. कितने मजबूर हो गए होगे ज़ी होश, साहिबे फ़िक्र और साहिबे ईमान. यह अल्लाह है कि नौज़बिल्लाह है? बन्दों को कहता है कि गुस्से से मर रहो. ऐसे अल्लाह को पुजवाने वाले खबीस आलिमों तुम को कब शर्म आएगी? तुम्हारे अल्लाह को एक काफ़िर कह रहा है " तू अपनी क़ह्हारी में मर"
* इस सूरह में शुरूआती इस्लामी जंगो का तज़करा है. पहली जंग बदर में हुई थी जिसमे मुसलमानों को फ़तह मिली थी और दूसरी जंग ओहद में हुई थी जिस में शिकस्त. फ़तह वाली जंग में अल्लाह ने मुसलमानों को मदद के लिए ३००० फ़रिश्ते भेज दिए थे. जंगे ओहद जो कि बकौल अल्लाह के मुहम्मद कि रज़ा के खिलाफ लड़ी गई थी, इस लिए फरिश्तों कि मदद नहीं आई
" जब कि आप मुसलमानों से फरमाते थे कि क्या तुम को ये अमर काफ़ी न होगा कि तुहारा रब तुहें इमदाद करे, ३००० फरिश्तों के साथ जो उतारे जाएँगे. हाँ क्यूँ नहीं अगर तुम मुश्तकिल होगे और मुत्तकी रहोगे और वोह लोग तुम पर एक दम से आ पहुंचेगे तो तुम्हारा रब तुम्हारी मदद फरमाएगा,५००० फरिश्तों से जो एक खास वज़ा बनाएँ होंगे और ये महज़ इस लिए कि तुम्हारे लिए बशारत हो और ताकि तुम्हारे दिलों को क़रार हो जाए और नुसरत सिर्फ़ अल्लाह की तरफ़ से है जो कि ज़बर दस्त है."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (125-26)
जंगे ओहद हार जाने के बाद जिन लोगों को मुहम्मद के अल्लाह ने ५००० फरिश्तों की बटालियन भेजने की मदद की यकीन दहानी कराई थी वह कहीं नज़र नहीं आए और मुसलमानों को हार की जिल्लत ढोनी पड़ी, इस हालत में मुहम्मद की कला बाजियां देखने लायक हैं - - -
अल्लाह अपने रसूल से कहता है ---"
आप का कोई दखल नहीं यहाँ तक कि अल्लाह उन पर (काफिरों पर) या तो मुतवज्जो हो जाए या उन को कोई सज़ा देदे क्यूँ कि वह ज़ुल्म भी बड़ा कर रहे हैं - - - वोह जिसको चाहे बख्श दे जिसको चाहे अजाब दे - - - ईमान वालो सूद मत खाओ कई हिस्से और अल्लाह से दरो - - - ख़ुशी से कहना मानों अल्लाह और उसके रसूल का, उम्मीद है रहम किए जाओगे - - -और दौडो मग्फेरत की तरफ जो परवर दिगार की तरफ से है - - - ऐसे लोग जो खर्च करते हैं फरागत में और तंगी में और गुस्से को ज़ब्त करने वाले और लोगों से दर गुज़र करने वाले और अल्लाह ऐसे लोगों को महबूब रखता है और तुम हिम्मत मत हारो और रंज मत करो और ग़ालिब तुम ही रहोगे अगर तुम पूरे मोमिन हो."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (128-139)
" अगर तुम को ज़ख्म पहुंच जाय तो उस क़ौम को भी ऐसा ही ज़ख्म पाहुंचा है और हम इन अय्याम को उन लोगों के बीच अदलते बदलते रहा करते हैं, ताकि अल्लाह ईमान वालों को जान ले और तुम में से बाजों को शहीद बनाना था और अल्लाह ज़ुल्म करने वालों से मुहब्बत नहीं करते और ताकि मेल कुचैल से साफ़ कर दे ईमान वालों को और मिटा दे काफिरों को"
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (141-40)
क़ुरआन की ये औसत सूरतें हैं जो मशकूक हुवा करती हैं, गोया इसमें इस्लामी मुल्लाओं के लिए मनमानी करने की काफी गुंजाईश है. खुद अल्लाह भी मुसलमानों के साथ जीत की यक़ीन दहानी कराने के बाद भी हार हो जाने पर कैसी मक्र की बातें करने लगा है, देखा जा सकता है.
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मुसलमानों को अँधेरे में रखने वाले इस्लामी विद्वान, मुस्लिम बुद्धि जीवी और कौमी रहनुमा, समय आ गया है कि अब जवाब दें- - -
कि लाखों, करोरों, अरबों बल्कि उस से भी कहीं अधिक बरसों से इस ब्रह्मांड का रचना कार अल्लाह क्या चौदह सौ साल पहले केवल तेईस साल चार महीने (मोहम्मद का पैगम्बरी काल) के लिए अरबी जुबान में बोला था? वह भी मुहम्मद से सीधे नहीं, किसी तथा कथित दूत के माध्यम से, वह भी बाआवाज़ बुलंद नहीं काना-फूसी कर के ? जनता कहती रही कि जिब्रील आते हैं तो सब को दिखाई क्यूँ नहीं पड़ते? जो कि उसकी उचित मांग थी और मोहम्मद बहाने बनाते रहे। क्या उसके बाद अल्लाह को साँप सूँघ गया कि स्वयम्भू अल्लाह के रसूल की मौत के बाद उसकी बोलती बंद हो गई और जिब्रील अलैहिस्सलाम मृत्यु लोक को सिधार गए ? उस महान रचना कार के सारे काम तो बदस्तूर चल रहे हैं, मगर झूठे अल्लाह और उसके स्वयम्भू रसूल के छल में आ जाने वाले लोगों के काम चौदह सौ सालों से रुके हुए हैं, मुस्लमान वहीँ है जहाँ सदियों पहले था, उसके हम रकाब यहूदी, ईसाई और दीगर कौमें आज हम मुसलमानों को सदियों पीछे अतीत के अंधेरों में छोड़ कर प्रकाश मय संसार में बढ़ गए हैं. हम मोहम्मद की गढ़ी हुई जन्नत के मिथ्य में ही नमाजों के लिए वजू, रुकू और सजदे में विपत्ति ग्रस्त है. मुहम्मदी अल्लाह उन के बाद क्यूँ मुसलमानों में किसी से वार्तालाप नहीं कर रहा है? जो वार्ता उसके नाम से की गई है उस में कितना दम है? ये सवाल तो आगे आएगा जिसका वाजिब उत्तर इन बदमआश आलिमो को देना होगा....
क़ुरआन का पोस्ट मार्टम खुली आँख से देखें "हर्फ़ ए ग़लत" का सिलसिला जारी हो गया है. आप जागें, मुस्लिम से मोमिन हो जाएँ और ईमान की बात करें। अगर ज़मीर रखते हैं तो सदाक़त अर्थात सत्य को ज़रूर समझेंगे और अगर इसलाम की कूढ़ मग्ज़ी ही ज़ेह्न में समाई है तो जाने दीजिए अपनी नस्लों को तालिबानी जहन्नम में.
निसार ''निसार-उल-ईमान''
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मेरे दीगर गवाह
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Qur'an 3:69 "It is the wish of the followers of the People of the Book to lead you astray." That's true if the "Book" is the "Qur'an" and the "people" are "Muslims." "But they make none to go astray except themselves, but they perceive not. You People of the Book! Why reject you the signs, proofs, and verses of Allah, of which you are witnesses?" This is also true. The witnesses to the "signs of Allah" - terrorism and piracy - rejected Islam. The Qur'an is full of their protestations.
"You People of the Book! Why do you clothe Truth with falsehood, and conceal the Truth?" The anti-Jew version of the never-ending argument is as lame as the anti-Meccan rant. If everyone Muhammad couldn't bribe with booty and babes was calling him, his Qur'an, and his religion a lie, maybe it was.
Team Islam, still miffed that they had to buy Bible stories from the Jews in order to sound prophetic, gave the "People of the Book" another shot. Qur'an 3:77 "As for those who sell for a small price the covenant and faith they owe to Allah and their own plighted word for a small price, they shall have no portion in the Hereafter. Nor will Allah speak to them or look at them on the Day of Judgment, nor will He cleanse them: They shall have a grievous torment, a painful doom."
Then Allah says that the Jews sold Muhammad damaged goods। "There is among them a section who distort the Book with their tongues. (As they read) you would think it is from the Book, but it is not from the Book; and they say, 'That is from God.' but it is not from Allah: It is they who tell a lie against Allah, and (well) they know it!"
This is the boldest confession yet. The Qur'an is confirming that Jews sold Bible stories to Muhammad for some paltry price. For doing so, they're going to hell. Then we learn that they distorted the Scriptures as they read them - causing the "messenger" to believe that they were reading it accurately. In other words, the actual Scriptures weren't corrupted. The only thing that was perverted was the "version" the Jews recited to the wannabe-prophet. You'll discover in the "Source Material" appendix that many of Muhammad's twisted variants were pilfered verbatim from the Talmud - Jewish oral traditions and folklore. They became the "revelations" that formed the Qur'an. Further, the Jews were honest with Islam's prophet. They told him the Bible wasn't from Allah. Able to read it, they knew that Yahweh's name was revealed as the source 7,000 times. Allah's name was never mentioned.
This is odd enough to expose but too weird to analyze. Qur'an 3:83 "Do they seek for other than the Religion of Allah while all creatures in the heavens and on earth have, willing or unwilling, submitted, bowing to His Will (accepting Islam)?"
There is something about megalomaniacs. It's as if they believe that a big lie told often becomes true. Qur'an 3:84 "Say (O Muhammad): 'We believe in Allah and that which is revealed to us and that which was revealed unto Abraham and Ishmael and Isaac and Jacob and the tribes [of Israel], and in (the Books) given to Moses, Jesus, and the prophets, from their Lord. We make no distinction between any of them, and unto Him we have surrendered, bowing our will (in Islam).'" Then after proclaiming that Muslims are unable to distinguish between truth and a sloppy counterfeit, we're told: Qur'an 3:85 "If anyone desires a religion other than Islam (Surrender), never will it be accepted of him; and in the Hereafter He will be in the ranks of those who are losers." Qur'an 3:87 "Of such the reward is that on them (rests) the curse of Allah, of His angels, and of all men, all together. In that will they dwell; nor will their penalty of doom be lightened, nor respite be (their lot)." That pretty much blows the tolerance myth to smithereens.
Then proving that he didn't even understand his own religion, the illiterate prophet proclaimed: Qur'an 3:89 "Except for those that repent after that, and make amends; for verily Allah is Forgiving, Merciful." Since men are predestined to their fate, repentance is folly.
Speaking of folly, the Qur'an orders Muslims to the Ka'aba, claiming that Abraham stood there. But alas, it forgets to tell them what to do when they get there. Qur'an 3:97 "Wherein are plain memorials; the place where Abraham stood up to pray; and whosoever enters it is safe. And pilgrimage to the House is a duty unto Allah for mankind, for him who can find a way thither. As for him who denies [Islamic] faith, Allah is self-sufficient, standing not in need, independent of any of His creatures." If Allah is independent of us then why did he create mankind? Was it for entertainment - the enjoyment he personally gleans from torturing 99:9 percent of us in hell?
Why, if Allah has no needs, does he beg for money and seduce Muslim militants to fight, rob, and terrorize for him? If nothing else, Allah seems to need us to fear him: Qur'an 3:102 "You who believe! Fear Allah as He should be feared, and die not except in a state of Islam [submission]."
Qur'an 3:118 "O you who believe! Take not into your intimacy those outside your religion (pagans, Jews, and Christians). They will not fail to corrupt you. They only desire your ruin. Rank hatred has already appeared from their mouths. What their hearts conceal is far worse." It's hard to imagine a more intolerant decree. "When they are alone, they bite off the very tips of their fingers at you in their rage. Say unto them: 'Perish in your rage.'" This verse makes Mein Kampf seem genteel by comparison. Muhammad was the world's most vulgar hypocrite. The Qur'an orders Muslims not to be "intimate" with non-Muslims, and yet the perverted prophet took Jewish, Christian, and pagan concubines, sex slaves, and wives into his harem. So is Islam do as I do, or do as I say? Are Muslims to emulate the prophet's example, or Sunnah, as detailed in the Hadith or follow Allah's commands as presented by Muhammad in his Qur'an recitals? Or better question yet: if this stuff was such good advice, why didn't Muhammad follow it?
Two-thirds of the way through the second longest surah, Muhammad's and Allah's hatred for Christians and Jews finally subsides long enough for the Islamic duo to attack their latest prey: peace-loving Muslims. Qur'an 3:121 "Remember that morning [of Uhud]? You left your home to post the faithful at their stations for battle at the encampments for war. Remember two of your parties were determined to show cowardice and fell away. Allah had helped you at Badr, when you were a contemptible little force." A contemptible farce would be more accurate.
Unable to count - or worse, unable to remember - the fighting angels have been increased by two thousand. As such, it took forty of them to kill each merchant. Qur'an 3:124 "Remember you (Muhammad) said to the faithful: 'Is it not enough for you that Allah should help you with three thousand angels (specially) sent down? Yea, if you remain firm, and act aright, even if the enemy should rush here on you in hot haste, your Lord would help you with five thousand havoc-making angels for a terrific onslaught." Another Islamic first: havoc-making angels ready for terrific onslaughts. Allah's angels and Lucifer's demons have a lot in common.
Ibn Ishaq, Muhammad's first biographer, felt that it was important to comment on this verse. Ishaq:392 "Allah helped you at Badr when you were contemptible, so fear Allah. Fear Me, for that is gratitude for My kindness. Is it not enough that your Lord reinforced you with three thousand angels? Nay, if you are steadfast against My enemies, and obey My commands, fearing Me, I will send five thousand angels clearly marked. Allah did this as good news for you that your hearts might be at rest. The armies of My angels are good for you because I know your weakness. Victory comes only from Me because of My sovereignty and power for the reason that power and authority belong to Me, not to any one of my creatures." If Lucifer wants to convince us that he is God, he's got to be less transparent than this.
Assisting terrorists is hardly hopeful: Qur'an 3:126 "Allah made it but a message of hope, and an assurance to you, a message of good cheer, that your hearts might be at rest. Victory comes only from Allah that He might cut off a fringe of the unbelievers, exposing them to infamy. They should then be turned back overwhelmed so that they retire frustrated."
The reason Allah was stingy with his killer angels at Uhud was that Muslims didn't Qur'an 3:131 "Fear the Fire, which is prepared for those who reject Faith: and obey Allah and the Messenger." So Allah decided to harvest some martyrs. Qur'an 3:140 "If you have received a blow (at Uhud) and have been wounded, be sure a similar wound has hurt others. Such days (of varying fortunes) We give to men and men by turns: that Allah may know those who believe, and that He may take to Himself from your ranks Martyrs." While harvesting martyrs is a shoddy reason for fighting, it isn't as lame as god saying that battles are needed so that he can figure out who believes.
I find it interesting that Ishaq's rendering of the Qur'an is so much more vivid, even incriminating, than the modern translations. And considering that he was the foremost authority on Muhammad, and wrote a thousand years before the first English translation, his interpretations are worthy of our consideration. Ishaq:394 "Allah said, 'I let them get the better of you to test you. So fear Me and obey Me. If you had believed in what My Prophet brought from Me you would not have received a shock from the Meccan army. But We cause days like this so that Allah may know those who believe and may choose martyrs from among you.
Allah must distinguish between believers and hypocrites so that He can honor the faithful with martyrdom.'" So, let me get this straight: Allah kills the good, loyal Muslims as his way of bestowing honor on them? Islam continues to be a dogma to die for.
The Qur'an is as unambiguous: good Muslims kill. Ishaq:394 "Did you think that you would enter Paradise and receive My reward before I tested you so that I might know who is loyal? You used to wish for martyrdom [and entry into my brothel] before you met the enemy. You wished for death before you met it. Now that you have seen with your own eyes the death of swords...will you go back on your religion, Allah's Book, and His Prophet as disbelievers, abandoning the fight with your enemy? He who turns back [from fighting] in his religion will not harm Allah. He will not diminish His glory, kingdom, sovereignty and power.'" The greatest sin a Muslim can commit is to refrain from fighting.
Prophet of Doom

Wednesday, 25 November 2009

क़ुरआन - आले इमरान -3

चौथी किस्त

पिछली बार मैंने आपको क़ुरआन और हदीस का फर्क समझाया था।
तो लीजिए मुहम्मद की एक हदीस मुलाहिजा फरमाइए - - -
"जो व्यक्ति केवल मेरी सहमति के लिए और मुझ पर विश्वास जताने हेतु तथा मेरे दूत (मुहम्मद) के प्रमाणी करण के करण मेरे रस्ते में जिहाद की उपलब्धियों के लिए निकलता है तो मेरे लिए निर्धारित है की मैं उसको बदले में माल ए गनीमत (लुटे गए माल) से माला माल कर के वापस करूँ या जन्नत में दाखिल करूँ. मोहम्मद कहते है अगर मुझे मेरी उम्मत (सम्प्रदाय) का खौफ न होता (कि मेरे बाद उनका पथ प्रदर्शन कौन करेगा) तो मैं मुजाहिदीन के किसी लश्कर के पीछे न रहता और यह पसंद करता की मैं अल्लाह के रह में सम्लित होकर जीवित रहूँ, फिर शहीद हो जाऊं, फिर जीवित हो जाऊं, फिर शहीद हो जाऊं - - - "
(हदीस बुखारी ३४)
मदरसों में शिक्षा का श्री गणेश इन हदीसों (मुहम्मद कथानात्मकों) से होती है, इससे हिन्दू ही नहीं आम मुस्लमान अनजान है. मुहम्मदी अल्लाह की सहमति मार्ग क्या है ? इसे हर मुसलमान को इस्लामदारी से नहीं, बल्कि ईमानदारी से सोचना चाहिए. मुहम्मदी अल्लाह मुसलमानों को अपने हिदू भाइयों के साथ जेहाद कि रज़ा क्यूं रखता है? इसका उचित जवाब न मिलने तक समस्त तर्क अनुचित हैं जो इस्लाम को शांति का द्योतक सिद्ध करते हैं.मुसलमानों! सौ बार बार इस हदीस को पढो, अगर एक बार में ये तुम्हारे पैगम्बर तुम्हारी समझ में न आएं कि ये किस मिट्टी के बने हुए इन्सान थे? खुद को जंग से इस लिए बचा रहे हैं कि इन को अपनी उम्मत का ख़याल है, तो क्या उम्मत के लिए अल्लाह पर भरोसा नहीं या मौत का क्या एतबार ? सब मक्र की बातें हैं. मुहम्मद प्रारंभिक इस्लामी छ सात जंगों में शामिल रहे जिसे गिज्वा कहते हैं. हमेशा लश्कर के पीछे रहते जिसको स्वयं स्वीकारते है. तरकश से तीर निकाल निकाल कर जवानो को देते और कहते कि मार तुझ पर मेरे माँ बाप कुर्बान.जंगे ओहद में मिली शर्मनाक हार के बाद अंतिम पंक्ति में मुंह छिपाए खड़े थे, .नियमानुसार जब अबू सुफ्यान ने तीन बार आवाज़ लगाईं थी कि अगर मुहम्मद जिंदा हों तो खुद को जंगी कैदी बनना मंज़ूर करें और सामने आएं . अल्लाह के झूठे रसूल, बन्दे के लिए भी झूठे मुजरिम बने. जान बचा कर अपनी उम्मत को अंधा बनाए हुए हैं

आइए अब कुरआनी आयतों को देखा जाए कि अल्लाह इन में कौन सी रहस्य की बातों पर से पर्द हटाता है - - -
" बे शक अल्लाह मेरे रब भी हैं और तुम्हारे रब भी हैं, सो तुम लोग इस की इबादत करो मगर ईसा ने जब इस से इंकार देखा तो कहा कोई ऐसे लोग भी हैं जो हमारे मदद गार हो जाएँ? अल्लाह के वास्ते. हवारीन बोले हम हैं मदद गार अल्लाह के, हम अल्लाह पर इमान लाए और आप इस के गवाह रहिए कि हम फरमा बरदार हैं."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (51-52)
(हवारीन=ईसा के साथी धोबी)
ये पैगाम-ए-इलाही नहीं, मुहम्मद की पुकार है, ईसा की तरह मक्का के लोगो को. ईसा के हवारी बन जाने की जो ईसा मसीह को जानते हैं, वोह मुहम्मद की सुर्रे बाज़ी को समझते हैं कि वह जो कुछ कह रहे हैं वह सब झूट है, ईसा के हवारी तो एन ईसा की गिरफ्तारी पर दुम दबा कर भाग खड़े हुवे थे, किसी ने उनकी मुखबिरी की थी तो कुछ ने अदालत के सामने मसीह को पहचानने से इंकार कर दिया था. मुहम्मद के इर्द दिर्द सुसाहिबों (चमचों) की कमी नहीं मगर कुरआन का पेट ईसा की बे सर पैर की बातों से भर रहे हैं।
" अल्लाह ईसा से कहता है तुम गम न करो, मैं तुम को वफ़ात (मौत) देने वाला हूँ, मैं तुम को अपनी तरफ उठा लेता हूँ और उन लोगों से पाक करने वाला हूँ जो तुहारे मुनकिर हैं और जो तुहारा कहना मानने वाले हैं वह गालिग़ होंगे। अल्लाह ईसा से भी रोज़े महशर की कहानी छेड़ देता है कि वह मुन्किरों की खबर लेगा, इस तरह मुहम्मद अपनी तबलीग को ईसा का फ़्रेम पहना देते हैं।"
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (54-58) तबलीग=प्रचार
मुस्लमान इन कुरानी आयातों में क्या मनन चितन के लिए कुछ पाते हैं? या फिर जैसा इस के ज्ञानी प्रचार करते हैं कि इस में मानव पीडा का हर उपचार है, हिकमत है, युक्ति है, जीवन धारा है, दूर दूर तक कहीं ऐसा कुछ है क्या?
एक आयते अजीबिया मुलाहिज़ा हो. खुद मुहम्मद हालाते अजीबिया (आश्चर्य जनक) में हैं. पता नहीं वह वज्द (उन्मत्ता) के आलम में हैं या फिर हालते उम्मियत(निरक्छरता) में अपनी बात कह न पा रहे हों और इल्जाम अल्लाह पर है कि वोह मुश्तबाहुल मुराद (शंका युक्त) आयतें नाजिल करता है
" बे शक हालते अजीबिया ईसा की अल्लाह के नज़दीक मुशाबह हालते अजीबिया आदम के है कि उनको मिटटी से बनाया, फिर उनको हुक्म दिया कि हो, बस वह हो गए। यह अम्र वाकई आप के परवर दिगर की तरफ से है सो शुबहा करने वालों में न से न बनो।"
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (59-60) मुशाबह=मुखाकृति
५० साल पहले तक जब मदरसों के मुल्ले समाज पर हावी न थे और समाज पर हदीसों का इतना असर न था, उस वक़्त अगर कोई हदीस गैर फितरी(अलौकिक) मुल्ला बयान करता तो लोगों के तेवर चढ़ जाते और उसकी ज़बान बंद करदी जाती कि "कठ मुल्लाई मत किया करो" आज मुल्लाओं का गलबा हो गया है "हुज़ूर ने फ़रमाया है" कह कर कठ मुल्लाई बयान करते फिरते हैं। मुलाहिज़ा हो कि मुहम्मद कुरआन में कैसी कठ मुल्लाई की शर्त ईसाइयों के सामने रखते हैं - -
-" जो शख्स ईसा के बाब में हुज्जत करे--- तो आप फरमा दीजिए कि आओ हम बुला लें अपने बेटों और तुम्हारे बेटों को, अपनी औरतों को और तुम्हारी औरतों को और खुद अपने तनों को और तुम्हारे तनों को, फिर हम दिल से दुआ करें इस तौर पर कि अल्लाह की लानत भेजें जो इस बहस में नाहक हो।"
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (61)
सूरह का नाम आले इमरान है, इमरान मरियम के बाप थे। मुहम्मद ने सुने सुनाए इन्जीली किस्सों को अपने अंदाज़ में डायलाग के साथ गढा है जिसमें अधूरे पन के साथ साथ फूहड़ पन भी है. कहानी को अल्लाह के नाम से जोड़ते हैं और अपने हक में तोड़ते हैं. तहरीर में बेशर्मी और बेहूदगी भरी हुई है. जिसारते बेजा का साफ़ साफ़ मुज़ाहिरा है. नीम दीवानगी की इन बकवासों को अल्लाह का कलाम कहा गया है. दुन्या की तमाम मज़हबी किताबों का अख्लाकी मुवाज़ना हो तो कुरआन उन में रुस्वाए ज़माना सिन्फ़ साबित होगी. इस की जवाब देही कभी भी वक़्त के मौजूदा बे कुसूर मुसलमानों की आबादी से हो सकती है कि ऐसे गैर अख्लाकी और इंसानियत दुश्मन एह्कम की पैरवी क्यूँ करते हो? कभी भी दुन्या का मुस्लमान एकदम खली हाथ हो सकता है, और उसका हशर इस्पेनी मुसलमानों जैसा हो सकता है जहाँ पर उन्हें सात सौ साल हुमरानी करने के बाद भी उन्हीं के अल्लाह के हिकमत भरे जहन्नम में झोंक दिया गया था. जी हाँ दस लाख जिंदा अल्लाह वाले एक साथ जलाए गए थे. सदियों यह ओलिमा गुमराह किए रहे इतनी बड़ी आबादी को. बेहतर है कि इस से पहले ही ये नादान क़ौम बेदार हो जाए. आला तर जदीद इंसानी क़द्रें इस के लिए आँखें बिछाए बैठी हुई है।
"यहूदी नबियों की तरह ईसाइयों के बारे में लगता है मुहम्मद की जानकारी कुछ कम है, इन के नाम ही सुन रखे हैं, इनकी कहानियां या हालत खुद बना लिए हैं और अल्लाह को उसका गवाह कर लिया है। इमरान और ज़कारिया के बारे में कुछ न कुछ बना ही लिया है। मरियम से तो नमाजों के रुकू भी कराए और नमाजें भी पढ़वाई हैं। ईसा को अपने रंग में रंगते हुए अपने हक में बातें भी कराते हैं। अपनी ही तरह उन पर वहियाँ भी उतरवाते हैं। ईसा खुद को खुदा का बेटा कहते कहते सलीब पर लटक गया और मुहम्मद उस को अपनी तरह ही अल्लाह का पैगम्बर बतलाते हैं."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (62-84)
यही बातें भड़काऊ साबित होती हैं और कौमों में शर का बाईस बनी, जिस के नतीजे में लाखों इंसानी जानें गईं. आज भी अमरीका, योरोप बनाम अफगानिस्तान, ईराक, ईरान और दीगर मुस्लिम दुन्या से दुश्मनी की वजह यही कुरानी आयतें बनी हुई हैं. इन को सलीबी जंगों की बाकियात कहा जा सकता है.कुरानी भूल भुलय्या में अल्लाह मुसलमानों को छका रहा है. मुहम्मद ईसा की अल्लाह से बात चीत कराने लगते हैं जिस के बाद अल्लाह ईसा को न मानने वालों को भी काफ़िर कहने लगता है। और क़यामत में मज़ा चखने का वादा करता है, जब कि ईसा के हरीफ यहूदी ही होते हैं. ईसा को मानने वालो को अल्लाह मोमिन कहने लगता है. शोब्देबाज़ और मदारी अल्लाह कहता है - -
-" और यहूदी एक चल चले और ईसा को बचने के लिए अल्लाह एक चल चला और अल्लाह खूब चलें चलने वाला है।"" यह आयतें हम तुम को पढ़ पढ़ कर सुनाते हैं जो की मिन जुमला दलाइल की हैं और मिन जुमला हिकमत आमोज मज़ामीं की हैं।"
सोचिए कि वह अल्लाह कैसा होगा जो चालबाज़ हो?इसी तरह की बातों में अल्लाह मुसलमानों को लपेटे हुए है। इस में क्या अक़दस पाते हैं झुंड के झुंड नमाज़ी जिन्हें ओलिमा भेड़ बकरियों की तरह चरा रहे हैं.अल्लाह मियां अपने प्यारे नबी से राज़ की बात का पर्दा फाश करते हैं - - -
"इब्राहीम तो न यहूदी थे, न नसरानी और मुशरिकीन में भी न थे लेकिन तरीके मुस्तकीम वाले साहिबे इसलाम थे।"
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (67)
हज़रात इब्राहीम एक परदेसी थे, बद हाली और परेशानी की हालत में अपनी बीवी सारा को किसी मजबूरी के तहत अपनी बहन बतला कर मिसरी बादशाह फ़िरौन की पनाह में रहा करते थे. तौरेत के मुताबिक सारा हसीन थी और बादशाह कि मंजूरे नज़र हो कर उसके हरम में पनाह पा गई थी. सच्चाई खुलने पर हरम से बहार की गई और साथ में इब्राहीम और उनका भतीजा लूत भी. उसके बाद दोनों चचा भतीजों ने मवेशी पालन का पेशा अपनाया और कामयाब गडरिया हुए.बनी इस्राईल की शोहरत की वजेह तारीख़ में फिरअना के वज़ीर यूसुफ़ की ज़ात से हुई. युसूफ इतना मशहूर हुवा कि इसके बाप दादों का नाम तारिख में आ गया, वर्ना याकूब, इशाक , इस्माईल, और इब्राहीम जैसे मामूली लोगों का नामो निशान भी कहीं न होता.मानव की रचना कालिक अवस्था में इब्राहीम को जो होना चाहिए था वोह थे, न इतने सभ्य कि उन्हें पैगाबर या अवतार कहा जाए, ना ही इतने बुरे कि जिन्हें अमानुष कहा जाय. मानवीय कमियाँ थीं उनमें कि अपनी बीवी को बहन बना कर बादशाह के शरण में गए और अपनी धर्म पत्नी को उसके हवाले किया. दूसरा उनका जुर्म ये था कि अपनी दूसरी गर्भ वती पत्नी हाजरा को पहली पत्नी सारा के कहने पर घर से निकल बाहर कर दिया था, जो कि रो धो कर सारा से माफ़ी मांग कर वापस घर आई. तीसरा जुर्र्म था कि दोबारा इस्माईल के पैदा हो जाने के बाद हाजरा को मय इस्माईल के घर से दूर मक्का के पास एक मरु खंड में मरने के लिए छोड़ आए. उनका चौथा बड़ा जुर्म था सपने के वहम को साकार करना और अपने बेटे इशाक को अल्लाह के नाम पर कुर्बान करना, जो मुसलमानों का अंध विश्वास बन गया है और हजारो जानवर हर साल मारे जाते हैं.
निसार ''निसार-उल-ईमान''

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मेरे अन्य अंतर राष्ट्रीय विचारक और गवाह
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But it's a great trick if you can pull it off। So in the 4th surah Allah bares all: Qur'an 4:171 "O people of the Book (Christians), do not be fanatical in your faith, and say nothing but the truth about Allah। The Messiah who is Isa (Jesus), son of Mariam, was only a messenger of Allah, nothing more. He bestowed His Word on Mariam and His Spirit. So believe in Allah and say not Trinity for Allah is one Ilah (God)...far be it from His Glory to beget a son." The "Messiah" is Yahweh's "Anointed." There are over 500 prophecies proclaiming His arrival, all of which Yahshua fulfilled (or will fulfill in his second coming). The prophet Isaiah wrote these words about him in chapter 9 of his book: "For unto us a child will be born...and His name will be Wonderful Counselor, Mighty God, Eternal Father." In the 53rd chapter, Isaiah, speaking of the salvation the Messiah would bring to mankind from his cross, said: "He will be wounded for our transgressions.... We are like sheep, gone astray, so He will lay on Him the iniquity of us all.... The Righteous One shall bear the sins of many." If Allah was right, and "Jesus" is the Messiah, he is Mighty God. If he is God, the Allah/Lucifer combo aren't

So that there is no misunderstanding here, you should know that the Messiah is central to the Bible, the fulcrum upon which the entire story pivots. His coming was proclaimed throughout the Scriptures. And there isn't the slightest possibility of revisionist history. The Biblical prophecies were written 400 to 1,200 years before Yahweh entered our world as a man to show us what he was like, building a bridge from our polluted world to his perfect realm. The oldest Dead Sea Scroll fragments date to 250 B.C., a thousand years before the earliest surviving Qur'an. The Isaiah scroll is preserved in one piece, unaltered. It still proclaims the truth more than 2,700 years after it was inspired and 2,000 years after a scribe copied Isaiah's predictions onto the scroll that was discovered in Qumran.
The combination of that scroll and these verses render an undeniable verdict: Islam is a complete fraud. It provides irrefutable proof that Allah was no more divine than an average garden rock. Lucifer, the wannabe god, and Muhammad, the wannabe prophet, were a pair of cons - just common crooks. Ill-mannered and moronic, they tried to play in Yahweh's league. Moreover, they tried to steal Yahweh's league - our souls. It's little wonder Allah says, "Booty is lawful and good," that he admits to being a deceptive schemer, or that he is fixated on hell.
Continuing to speak of Yahshua, the Qur'an proclaims: Qur'an 3:46 "And he shall speak to the people when in the cradle and when of old age, and shall be one of the good ones." By claiming that he spoke while in swaddling clothes, Allah is conferring supernatural status on Christ - a status Muhammad did not enjoy. As for speaking in old age, that's impossible. There are ossuaries from mid first-century tombs with crosses carved into them and the words "Yahshua Saves." Since the Messiah was born around 2 B.C., and the sarcophaguses memorializing his crucifixion are dated to as early as 50 A.D., he couldn't have been old. Further, the Gospels detail his life in the context of history and they say that he was in his mid-thirties when he entered Jerusalem, died for our sins, and was resurrected.
Muhammad continued to impugn his own credibility with the following Hadith. He forgot that he had told Muslims that the Islamicized Abraham spoke in the cradle, too. Bukhari:V4B55N645 "The Prophet said, 'None spoke in cradle but three: The first was Jesus, the second was an Israeli called Juraij. While he was offering his prayers, his mother called him. He said, "Shall I answer her or keep on praying?" He went on praying and did not answer her. His mother said, "O Allah! Do not let him die till he sees the faces of prostitutes."" The story goes downhill from there, but you get the picture. And speaking of pictures, in the very next Hadith, the man who claimed to know more about Yahshua than Christ's Disciples, said: Bukhari:V4B55N646 "The Prophet shared, 'I met Jesus.' The Prophet described him saying, 'He was one of moderate height and was red-faced as if he had just come out of a bathroom.'"
Qur'an 3:47 "Mary said: 'O my Lord! How shall I have a son when no man has touched me.' He said: 'Even so: Allah creates what He wills: When He has decreed a plan, He but says to it, 'Be.' and it is!" If Yahshua was virgin born, if he was created as a result of a Godly order, then he is unique among all creation. While it's true, it makes Islam false. According to the Qur'an, Allah made Adam and then from Adam came all men including Muhammad. But not "Jesus." So how can Christ be born of a virgin and not be divine? Ask yourself this: if Muhammad was conceived the old-fashioned way, and "Jesus" was formed by a direct order from God, whom should we trust to tell us the way to God?
Islam's prophet covers this same material in his Hadith. The Noble Qur'an refers to: Bukhari:V4B55N657 "Allah's Messenger said, 'Isa (Jesus), the son of Mariam, will shortly descend amongst you Muslims and will judge mankind by the law of the Qur'an. He will break the cross and kill the swine [Jews] and there will be no Jizyah tax taken from non-Muslims. Money will be so abundant no one will accept it. So you may recite this Holy Verse: "Isa (Jesus) was just a human being before his death. On the Day of Resurrection he (Jesus) will be a witness against the Christians."'" I wonder if the Pope read this before he kissed the Qur'an and praised Islam?
On a roll, the false prophet proclaimed: Bukhari:V4B55N658 "Allah's Apostle said 'How will you be when the son of Mary (i.e., Jesus) descends amongst you and he will judge people by the Law of the Qur'an and not by the law of Gospel.'" First, there are no laws in the Gospels. Christ's sacrifice on the cross provided a reprieve from the Old Covenant laws. Second, if the Qur'an existed before "Jesus" was born, and if the Gospels are of no value, why did Allah bother revealing them?
Before we leave this section of Bukhari, I'd like to reiterate Muhammad's greatest lie: Bukhari:V4B55N651-2 "I heard Allah's Apostle saying, 'I am the nearest of all the people to Jesus. There has been no prophet between me and Jesus. All the prophets are paternal brothers; their mothers are different, but their religion is one.'" No, no, no, and especially no. But it's interesting: Muhammad is either claiming that God begot many sons, in total conflict with the Qur'an, or that he is a Jew (which is possible considering the circumstances surrounding his conception in Yathrib).
Returning to the Qur'an: Qur'an 3:48 "And Allah will teach him the Scripture Book and Wisdom, the Torah and the Gospel, and appoint him a messenger to the Children of Israel, with this message: 'Lo! I come unto you with a Sign from your Lord. Lo! I fashion for you out of clay the likeness of a bird, and I breathe into it and it is a bird, by Allah's leave. I heal him who was born blind, and the leper, and I raise the dead, by Allah's leave." Since the Gospels record the words and deeds of Christ - past tense - saying that Allah taught him his history and life makes absolutely no sense. And if the Gospels were so important, why aren't any of Christ's teachings in the Qur'an?
Further, if Yahshua was the Messiah, he "authored" the Torah. Christ came to save all mankind, not just the Jews. The story of the clay bird comes from an apocryphal work attributed to Thomas. Not only didn't it occur, think for a moment about the absurdity of singling out something that trivial from a laundry list that includes: returning sight to men born blind, curing leprosy, and bringing the dead back to life. What's more, this is one of those things that is so right, it makes Islam wrong. Yes, Allah's right - Yahshua did heal the blind, the lepers, and he brought the dead back to life. So how did he do that if he wasn't God? And equally important, since Muhammad didn't do a single miracle, why trust him over the Messiah?
As if reading a different Arabic text, the Ali translation says: Qur'an 3:48 "He will teach him the Law and the Judgment, the Torah and the Gospel, and he will be Apostle to the children of Israel, (saying) 'I have come to you with a prodigy from your Lord that I will fashion the state of destiny out of the mire for you and breathe (a new spirit) into it, and (you) will rise by the will of Allah.'" Again, Allah is confused. The Torah is the Law (actually the instructions). There is no book of "Judgment" in Judaism. In Christianity, the Good News of the Gospel is that judgment has been eliminated. Since the central message of the Gospels is not laws and judgment, but a reprieve from them, why would Allah bother to teach Jesus such things? And why would Allah say that Jesus was going to fashion a state of destiny out of the mire for Israel, and breathe new life into it, when in fact, as predicted in the Bible, Israel was destroyed shortly after Yahshua was crucified, and the Jews were dispersed for nearly 2,000 years? I recognize that Mecca is a long way from civilization, but Allah ought to be smarter than this. Yahshua correctly predicted the future; Allah couldn't even get the past right.
Speaking as if he were Yahshua, Allah continues to flail blindly. Qur'an 3:50 "(I have come to you) to attest the Torah which was before me. And to make lawful to you part of what was forbidden; I have come to you with a Sign from your Lord." That's interesting: Muhammad said countless times that Allah had brought signs during his life, yet there were none. So why is it then that Yahshua was able to perform them? "So fear Allah, and obey me. Lo! Allah is my Lord and your Lord, so worship Him. That is a straight path." Yahshua came to fulfill the Scriptures, not eradicate them. Said another way, he made nothing that was "forbidden" lawful. He established the mechanism of forgiveness so we might be saved from judgment. Further, he knows who he is. The Messiah's name is Yahshua, which means "Yahweh Saves." He commanded us to love Yahweh, not fear Allah. And he said, "Follow me." Muhammad's ignorance is appalling.
But Islam wouldn't be Islam if it didn't expose itself. Bukhari:V4B56N814 "There was a Christian who embraced Islam and he used to write the revelations for the Prophet. Later on he returned to Christianity again he used to say: 'Muhammad knows nothing but what I have written for him.'" This Hadith impugns Islam coming and going. A literate man "who used to write the revelations for the Prophet" rejected Islam. A man Muhammad trusted enough to "write the revelations for" him said that "Muhammad knows nothing but what I have written for him." And that's the bottom line. The Qur'an is little more than a racist and violent rant sandwiched between a pathetic job of plagiarism. Islam's prophet knew so little about the Gospels, and Christ in particular, everything he professed was wrong.
Qur'an 3:52 "But when Jesus became conscious of their disbelief, he cried: 'Who will be my helpers in the Allah's Cause? The disciples said: We will be Allah's helpers. We believe in Allah, and do you bear witness that we are Muslims." The very idea of an ignorant and perverted terrorist thug and his demonic partner proclaiming in the sand dunes of Arabia that the Messiah believed in a pagan moon rock and called men to be Muslims is as preposterous as it is factually and historically impossible. So why did these buffoons so thoroughly trash their own credibility? Why didn't the Muhammad-Lucifer team simply ignore Christ in their Qur'an rather than falsely converting the Messiah to Islam? Sure, for the wannabe Messiah it was one-upmanship, but what was Lucifer's excuse? The answer is shocking. By deceiving mankind, by corrupting the Messiah's message, demoting him by artificially removing his divinity, sacrifice, and resurrection, Lucifer removed the only means of salvation. He damned billions. In Islam, Jihad saves but Jesus doesn't Never forget, there is nothing Lucifer covets more than deceit, death, and damnation (a.k.a. Islam).
Speaking of Christ's disciples, the Qur'an reports: Qur'an 3:54 "And they (the disciples from the previous verse) schemed, and Allah schemed and plotted (against them): and Allah is the best of schemers." While that's true, a good schemer does not a good god make. I appreciate the confession, though. It makes the job of exposing Islam easier. Another translation reads: Qur'an 3:54 "'Lord, we believe in Your revelations [the Torah and Gospels] and follow this Apostle [Jesus]. Enroll us among the witnesses.' But the Christians contrived a plot and Allah did the same; but Allah's plot was the best." That's the premise of this book and its conclusion. Islam is a plot.
A third translation says that "they" refers to "disbelievers," not the disciples and they plotted to kill Jesus. "And they (disbelievers) plotted (to kill Isa [Jesus]) and Allah plotted too." In this case, Allah's plot is the denial of Christ's crucifixion.
In the next verse Lucifer divulged the nature of his scheme. Qur'an 3:55 "Allah said, 'Jesus, I will take you and raise you to Myself and rid you of the infidels (who have forged the lie that you are My son).... Those who are infidels will surely receive severe torment both in this world and the next; and none will they have as a savior for them." As you recall, Allah defines "infidels" in surah Qur'an 5:72 : "They are surely infidels who say; 'God is the Christ, the Messiah, the son of Mary."
Mecca, I think we have a problem. "Christ" is a derivation from the Greek word for the Hebrew "Messiah." So those who agree with Allah and say that Yahshua (Jesus) is the Messiah (Christ), are infidels, and they are going to receive a severe punishment in this world and the next. Those who trust "Jesus" to be their savior - the good news for which the Gospels are named - will find no savior, according to Allah. This is some plot.
Said another way: If you say that Yahshua (Jesus) is the Messiah (Christ), you are acknowledging his divinity. But if you say that God (divinity) is the Messiah, you are an unbelieving infidel. It's little wonder Muhammad claimed that anyone who questioned the Qur'an would reject Islam. (Jesus Christ) = (Muhammad) = (God). Yet (God) <> (Jesus Christ), even though according to Allah, (Jesus Christ) = (Muhammad). Muslims must practice a new form of logic.
After defining "Jesus" as the virgin-born, miracle-working, divinely inspired, and resurrected Messiah, the Qur'an claims the Messiah was just kidding about dying on the cross as our savior and calling himself God. Yet it professes to confirm the Torah and Gospels - books that predict and proclaim the truth it denies. Methinks this invites comparison, and even Allah seems to agree. Qur'an 4:82 "Do they not ponder over the Qur'an? Had it been the word of any other but Allah they would surely have found a good deal of variation in it." Continuing, he says: "...those who check and scrutinize will know it." This sounds like an invitation, even a dare, to do exactly as we are doing. And what we have found by "scrutinizing it" is "a good deal of variation."
If Muhammad had ignored the Bible, Adam, Satan, Noah, Abraham, Lot, Moses, and especially Christ, I would have judged Islam independently, based solely upon its own merits. But he wasn't that smart, and his dark spirit was a liability, having his own agenda.
In case you were wondering, the scheme or plot the disciples concocted according to Allah was the Gospel account of Christ - the one in which Yahshua claimed to be God in the flesh. The one in which the Messiah taught us what he's like so that we might know Yahweh and form an eternal relationship with our creator. The one in which he allowed the Romans to crucify him for proclaiming that he was divine. The one in which he rose from the dead so that his sacrifice would enable us to live forever in his presence. It was the plot of the greatest story ever told.
Muhammad's dark spirit acknowledged the single most important event in history - the resurrection of Yahshua. But then, knowing that his religion of submission didn't mesh with Yahshua's Gospel of freedom, Lucifer called God's plan of salvation blasphemy. He said the disciples' account recorded in the Gospels was false - a reason for dispute - even though he claimed he inspired them. Qur'an 3:55 "Behold! Allah said: 'O Jesus! I will take you and raise you to Myself and clear you (of the falsehoods) of those who blaspheme; I will make those who follow you superior to those who reject faith, to the Day of Resurrection: Then shall you all return unto me, and I will judge between you on the matters wherein you dispute."
If Yahshua was raised unto God, if he cheated death by way of divine order, he was the Messiah - and thus he was the creator of the universe. Therefore, Muhammad must be condemned, the Qur'an burned, and Islam repudiated. Nothing bothers Yahweh more than false prophets, false doctrines, and false gods. So let's review another translation to make certain we have this right. "(Remember) when Allah said: 'Jesus! Lo! I am gathering you and causing you to ascend unto Me. I am cleansing you of those who disbelieve.'"
A third reads: "When Allah said: 'Jesus, I am going to terminate the period of your stay (on earth) and cause you to ascend unto Me and purify you of those who disbelieve.... I will decide between you concerning that which you differed.'" While meaningless in the context of the greater whole, if Christ's life was cut short he couldn't have talked while he was old, as an earlier verse alleged. But the overall message is clear: according to the Qur'an, Christ was an ordinary man and a Muslim to boot. His Gospel message of salvation wasn't true, even though Allah revealed it. He didn't die on a cross, and yet he was resurrected. And most importantly, those who believe he is God have no savior and will roast in hell.
Speaking of Christians, Allah proclaims: Qur'an 3:56 "As for those disbelieving infidels, I will punish them with a terrible agony in this world and the next. They have no one to help or save them." It's Satan's ultimate fantasy.
Continuing on, we are told that this lunacy is a rehearsal directly from god: Qur'an 3:58 "This is what We rehearse to you of the Signs and Message, a wise reminder. The similitude (likeness) of Jesus before Allah is as that of Adam; He created him from dust, then said to him: 'Be.' And he was." Allah was digging himself in deeper. Now he claims that "Jesus" was created miraculously like Adam from dust. While that's not exactly true, if it were, it would render Muhammad meaningless.
Despite all evidence to the contrary: Qur'an 3:60 "The Truth (comes) from Allah alone." That would mean that all scientific discoveries are erroneous. Math is without merit and courts are folly. "So be not of those who doubt, waver or dispute. If any one disputes in this matter with you, now after knowledge has come to you, say: 'Come! Let us gather together our sons and women among ourselves. Then let us earnestly pray, and invoke the curse of Allah on those who lie!'" So if someone tells a Muslim that Allah's book proves he's a phony, they're told to gather their sons and women and leave. They are not to look into the merits of the allegation. They aren't to even try and refute the charge. There is to be no discussion, no investigation, no evangelism, no thinking. None of that is in Satan's interest. Lucifer wants Muslims to pray for him to invoke a curse on those who expose him.
By the way, the Noble Qur'an says Qur'an 3:61 "If anyone disputes with you about Jesus being divine, flee them and pray that Allah will curse them." (Not save them.)
Rather than provide any proof that his view isn't a hoax, Allah simply protests: "The Qur'an is true because I said so." Qur'an 3:62 "This is the true account, the true narrative, the true explanation: There is no ilah except Allah; and Allah - He is the Mighty, the Wise. And if they turn away, then lo! Allah is aware of the corrupters, the mischief-makers. Say: 'O People of the Book, come to common terms as an agreement between us and you: That we all shall worship none but Allah; that we associate no partners with him; and that none of us shall take others for lords beside Allah.' If then they turn back, say you: 'Bear witness that we (at least) are Muslims surrendered.'" Such a deal. Everybody needs to come together and surrender to this demented, delusional, and dimwitted doctrine. What a wonderful world it would be. Or would it? Think about where terrorists are bred. Think about where the most impoverished people on earth live - those with the least freedoms. That is the world that accepted this invitation (or more correctly - the one that had it thrust upon them). Just like Hitler, Allah promises that there will be peace just as soon as he controls every soul. And even then, he's lying.
There was a phrase in the last verse I feel compelled to bring to your attention. If you "turn away" from Islam you are accused of being a "mischief-maker." In Allah's farewell address, this is what he had to done to them: Qur'an 5:33 "The recompense for those who fight against Allah and His Messenger and are mischief-makers in the land is only that they shall be killed or crucified or their hands and their feet be cut off from opposite sides, or be exiled from the land. That is their disgrace in this world, and a great torment is theirs in Hell." It's little wonder Islamic terrorists are so brutal.
Next, the spirit who knows just enough about the Bible to make a fool of himself says to the people who know it by heart: Qur'an 3:65 "You People of the Book! Why dispute you about Abraham, when the Law and the Gospel were not revealed till after him? Have you no understanding? Ah! You are those who fell to disputing (even) in matters of which you had some knowledge! But why dispute in matters of which you have no knowledge? It is Allah Who knows, and you who know not!" According to Allah, Abraham was supposed to have scrolls. So were Adam, Noah and others. So why is Allah only aware of the revelations that started with Moses?
Qur'an 3:67 "Abraham was not a Jew nor yet a Christian; but he was a true Muslim, surrendered to Allah (which is Islam), and he joined not gods with Allah." The line: "Nor yet a Christian" means that according to Muhammad's Allah, Abraham was a Muslim who became a Christian. I don't think so.
Prophet of Doom
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Tuesday, 24 November 2009

क़ुरआन - आले इमरान -3


मुहम्मद उम्मी थे अर्थात निक्षर. तबीयतन शायर थे, मगर खुद को इस मैदान में छुपाते रहते , मंसूबा था कि जो शाइरी करूंगा वह आल्लाह का कलाम क़ुरआन होगा . इस बात की गवाही में क़ुरआन में मिलनें वाली तथा कथित काफिरों के मुहम्मद पर किए गए व्यंग '' शायर है ना'' है. शाइरी में होनें वाली कमियों को, चाहे वह विचारों की हों, चाहे व्याकरण की, मुहम्मद अल्लाह के सर थोपते हैं. अर्थ हीन और विरोद्दाभाशी मुहम्मद की कही गई बातें ''मुश्तबाहुल मुराद '' आयतें बन जाती हैं जिसका मतलब अल्लाह बेहतर जानता है. देखें (सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयत 6+7) यह तो रहा क़ुरआन के लिए गारे हेरा में बैठ कर मुहम्मद का सोंचा गया पहला पद्य आधारित मिशन ''क़ुरआन''.
दूसरा मिशन मुहम्मद का था गद्य आधारित. इसे वह होश हवास में बोलते थे, खुद को पैगम्बराना दर्जा देते हुए, हांलाकि यह उनकी जेहालत की बातें होतीं जिसे कठबैठी या कठ मुललाई कहा जाय तो ठीक होगा. यही मुहम्मदी ''हदीसें'' कही जाती हैं. क़ुरआन और हदीसों की बहुत सी बातें यकसाँ हैं, ज़ाहिर है एह ही शख्स के विचार हैं, ओलिमा-ए-दीन इसे मुसलामानों को इस तरह समझाते हैं कि अल्लाह ने क़ुरआन में कहा है जिस को हुज़ूर (मुहम्मद) ने हदीस फलाँ फलाँ में भी फरमाया है. अहले हदीस का भी एक बड़ा हल्का है जो मुहम्मद कि जेहालत पर कुर्बान होते हैं. शिया कहे जाने वाले मुस्लिम इससे चिढ्हते हैं.
मैं क़ुरआन के साथ साथ हदीसें भी पेश करता रहूँगा
तो लीजिए कुरानी अल्लाह फरमाता है - - -

" अल्लाह काफ़िरों से मुहब्बत नहीं करता"

सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (32)

क्या काफ़िर अल्लाह के बन्दे नहीं हैं? फिर वह रब्बुल आलमीन कैसे हुवा? क़ुरआन की इन दोगली बातों का मौलानाओं के पास जवाब नहीं है। वह काफ़िरों से मुहब्बत नहीं करता तो काफ़िर भी अल्लाह को लतीफा शाह से ज्यादा नहीं समझते, मुस्लमान इस्लामी ओलिमा से अपनी हजामतें बनवाते रहें और काफ़िरों के आगे हाथ फैलाते रहें.

तीसरी किस्त

अल्लाह कहता है - -

" मोमिनों! किसी गैर मज़हब वालों को अपना राज़दार मत बनाओ। ये लोग तुम्हारी खराबी में किसी क़िस्म की कोताही नहीं करते और अगर तुम अक़्ल रखते हो तो हम ने अपनी आयतें खोल खोल कर सुना दीं। काफ़िरों से कहदो कि गुस्से से मर जाओ, अल्लाह तुम्हारे दिलों से खूब वक़िफ़ है। ऐ मुसलमानों! दो गुना, चार गुना सूद मत खाओ ताकि नजात हासिल हो सके।''

सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (33)

क्या यह कम ज़रफी की बातें किसी खुदाए बर हक की हो सकती हैं? क्या जगत का पालन हारा अगर है कोई तो ऐसा गलीज़ दिल ओ दिमाग रखता होगा? अपने बन्दों को कहेगा की मर जाओ, नहीं ये गलाज़त किसी इंसानी दिमाग की है और वह कोई और नहीं मुहम्मद हैं। यह टुच्ची मसलेहत की बातें किसी मर्द बच्चे को ज़ेबा नहीं देतीं अल्लाह तो अल्लाह है. कानो में खुसुर फुसुर कर के ओछी बातें सिखलाने वाला, ज्यादा या कम सूद खाने को मना करने वाला अल्लाह हो ही नहीं सकता.

मुसलमानों! जागो कहीं तुम धोके में अल्लाह की बजाए शैतान की इबादत तो नहीं कर रहे हो। कलाम इलाही पर एक मुंसिफाना नज़र डालो, आप को ऐसी तालीम दी जा रही है कि दूसरों की नज़र में हमेशा मशकूक बने रहो . एक हिदू इदारे के कुछ वर्कर आपस में मुझे भांपे बगैर बात कर रहे थे कि मुस्लमान पर कभी विश्वास न करना चाहे वह जलते तवे पर अपने चूतड रख दे, उसकी बात की इस आयात से तस्दीक हो जाती है. अल्लाह ने क़ुरआन में अपनी बातें खोल खोल कर समझाईं हैं, अल्ला मियां! जिसको आज आलिमान दीन ढकते फिर रहे हैं।

सूरह आले इमरान से मुराद है इमरान यानी मरियम के बाप की औलादें - - -

अल्लाह अब सूरह के उन्वान पर आता है इमरान की जोरू जिसका नाम अल्लाह भूल रहा है ( ? ) की गुफ्तुगू अल्लाह से चलती है, वह लड़के की उम्मीद किए बैठी रहती है, हो जाती है लड़की, जिसका नाम वोह मरियम रखती है. उधर बूढा ज़कारिया अल्लाह से एक वारिस की दरख्वास्त करता है जो पूरी हो जाती है, (इस का लड़का बाइबिल के मुताबिक मशहूर नबी योहन हुवा. जिस को कि उस वक़्त के हाकिम शाह हीरोद ने फांसी देदी थी. मुहम्मद को उसकी हवा भी नहीं लगी) इन सूरतों में जिब्रील ईसा की विलादत की बे सुरी तान छेड़ते हैं. बहुत देर तक अल्लाह इस बात को तूल दिए रहता है. इस को मुस्लमान चौदह सौ सालों से कलाम इलाही मान कर ख़त्म क़ुरआन किया करते हैं।

सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (34-48)

इसकी सच्चाई हमारी सहायक किताब Prophet of Doom देखें

देखिए की मुहम्मद ईसा से कैसे गारे की चिडिया में, उसकी दुम उठवा कर फूंक मरवाते हैं और वह जानदार होकर फुर्र से उड़ जाती है - -

" बनी इस्राईल की तरफ से भेजेंगे पयम्बर बना कर, वह कहेंगे कि तुम लोगों के पास काफ़ी दलील लेकर आया हूँ, तुम्हारे परवर दिगर की जानिब से। वह ये है कि तुम लोगों के लिए गारे की ऐसी शक्ल बनाता हूँ जैसे परिंदे की होती है, फिर इस के अन्दर फूंक मार देता हूँ जिस से वह परिंदा बन जाता है। और अच्छा कर देता हूँ मादर जाद अंधे और कोढ़ी को और ज़िन्दा कर देता हूँ मुर्दों को अल्लाह के हुक्म से। और मैं तुम को बतला देता हूँ जो कुछ घर से खा आते हो और जो रख आते हो. बिला शुबहा इस में काफ़ी दलील है तुम लोगों के लिए, अगर तुम ईमान लाना चाहो."

सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (49)

उम्मी मुहम्मद की बस की बात न थी कि किसी वाकिए को नज़्म कर पाते जैसे क़ाबिल तरीन रामायण और महाभारत के रचैताओं ने शाहकार पेश किए हैं। अभी वह इमरान का क़िस्सा भी बतला नहीं सके थे कि ईसा कि पैदाइश पर आ गए। ईसा के बारे में जो जग जाहिर सुन रखी थी उसको अल्लाह की आगाही बना कर अपने कबीलाई लाखैरों को परोस रहे हैं. उम्मियों और जाहिलों की अक्सरियत माहौल पर ग़ालिब हो गई और पेश कुरानी लाल बुझक्कड़ड़ी फलसफे मुल्क का निज़ाम बन गए, जैसा कि आज स्वात घाटी जैसी कई जगहों पर हो रहा है.इस मसअला का हल सिर्फ जगे हुए मुसलमानों को ही हिम्मत के साथ करना होगा, कोई दूसरा इसे हल करने नहीं आएगा. कोई दूसरा अपना फायदा देख कर ही किसी के मसअलe में पड़ता है क्यूँ कि सब के अपने खुद के ही बड़े मसाइल हैं. मुसलामानों! बेदार हो जाओ, इन कुरआनी आयतों को समझो, समझ में आजाएं तो इन्हें अपने सुल्फा कि भूल समझ कर दफ़ना दो और इस से जुड़े हुए ज़रीया मआश को हराम क़रार दे कर समाज को पाक करो.

" और मैं इस तौर पर आया हूँ कि तस्दीक करता हूँ इस किताब को जो तुहारे पास इस से पहले थी,यानि तौरेत की. और इस लिए आया हूँ कि तुम लोगों पर कुछ चीजें हलाल कर दूं जो तुम पर हराम कर दी गई थीं और मैं तुम्हारे पास दलील लेकर आया हूँ तुम्हारे परवर दिगर कि जानिब से. हासिल यह कि तुम लोग परवर दिगर से डरो और मेरा कहना मनो"

सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (50)

मुहम्मद के पास लौट फिर कर वाही बातें आती हैं, नया ज्यादा कुछ कहने को नहीं है. जिन आयातों को मैं छू नहीं रहा हूँ, उनमे कही गई बातें ही दोहराई गई हैं या इनतेहाई दर्जा लगवयात है. यहूदी बहुत ही तौहम परस्त और अपने आप ने बंधे हुए होते हैं जिनके कुछ हराम को मुहम्मद हलाल कर रहे हैं. गैर यहूदी अहले मदीना और अहले मक्का को इस से कोई लेना देना नहीं. मुहम्मद के अल्लाह की सब से बड़ी फ़िक्र की बात यह है कि लोग उस से डरते रहें. बन्दों की निडर होने से उसकी कुर्सी को खतरा क्यूँ है, मुसलमानों के समझ में नहीं आता कि यह खतरा पहले मुहम्मद को था और अब मुल्लों को है.


निसार ''निसार-उल-ईमान''

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मेरे हम नवा
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Returning to the purpose of Islam: Qur'an 3:32 "Say: 'Obey Allah and His Messenger।' If they refuse, remember Allah [third person] does not like unbelieving infidels।" This is the inverse of the Bible। Yahweh loves everyone, including unbelievers.

Then in the "he-is-too-dumb-to-be-god" category we find: Qur'an 3:33 "Allah chose Adam and Nuh (Noah) and the families of Ibrahim (Abraham) and Imran in preference to others." Adam couldn't have been chosen in preference to others as he was the only man. Further, Noah was saved and Abraham was blessed because they chose Yahweh, not the other way around. Sadly for Muslims, the fine line between a stupid god and no god has been crossed.
According to Allah, Imran was Mary's father, and that's a problem. The Bible says Mary's father was Heli in Luke 3:24. Imran isn't a Hebrew name, but Amram is. Numbers 26:59 identifies him as the father of Moses, Aaron, and Miriam. This misunderstanding may be why Allah, in Qur'an 19:28, calls Mary "Miriam, the sister of Aaron." As such she would have been over 1,200 years old when Christ was born. And while that's bad, the verse begins with "remember," yet there was no prior "Imran" revelation. Qur'an 3:35 "Remember, when the wife of Imran prayed: 'Lord, I offer what I carry in my womb in dedication to Your service, accept it, for You are the Hearer, the Knower.' And when she had given birth, she said: 'O my Lord I have delivered but a girl, a female child.' [Remember: girls are worthless in Islam apart from luring boys to their doom.] But Allah knew better what she had delivered: 'The male is not like the female, and I have named her Mariam (Mary).'"
Allah is very confused, demonstrating an embarrassing lack of knowledge for the scriptures he claims to have inspired. Yahweh sent Gabriel to talk to Zechariah about his wife Elizabeth having a baby who would preach with the power of the Holy Spirit, like Elijah of old. So as to try to unmuddle the mess, Allah has Zechariah adopting Mary as well as fathering John the Baptist. Qur'an 3:37 "Mariam was given into the care of Zacharyah. Whenever he came to see her in her chamber he found her provided with food, and he asked, 'Where has this come from Mary.' She said, 'From Allah who gives in abundance to whomsoever He will. Zacharyah prayed, 'Bestow on me offspring that is good [i.e., not a girl]. As he stood in the chamber the angels said, 'Allah sends you tidings of Yahya (John) who will confirm a thing from Allah (the creation of Isa (Jesus), the Word of Allah) and be a noble prophet, one who is upright and does good [a Muslim]." In trying to dig himself out, Allah fell deeper into his pit. Magical food for Yahshua's mother doesn't square with Muhammad's mother's misfortune, especially if Muhammad is to be believed over "Jesus." And John proclaimed that Yahshua was from Yahweh, not Allah.
And yet they were so very close. The Arabic name for John identified the name of his God YAHya, as did ZacharYAH's. Even the Arabic word for Jew used throughout the Qur'an is YAHdodi. Biblical names acknowledge Yahweh: YAHshua (Joshua and Jesus), YAHayahu (Isaiah), YirmeYAHu (Jeremiah) YAHezqel (Ezekiel), NehemYAH (Nehemiah), MattihYAHu (Matthew), YAHaqob (Jacob and James). There wasn't an Allah in the batch.
As misguided as this Qur'an account is, it gets worse in a hurry. Qur'an 3:42 "Behold! the angels said: 'Mariam! Allah has chosen you and purified you above the women of all nations and creation (including jinn).'" That's also a problem for Islam. How can Mary be the best if Yahshua is a second-rate "prophet?" In Islam, Adam, Noah, Abraham, Moses, Qusayy, and Muhammad are more important than the Messiah. If Muhammad is numero uno, why wasn't his mom mentioned in the Qur'an?
The answer is simple. Amina, Muhammad's mother, abandoned her son at birth and was a source of rage, not praise. The abuse he suffered as a child gave rise to his religion. And for the "Religion of Submission" to be credible, Yahshua and Mary had to be converted into Muslims... "Mary! submit with obedience to your Lord (Allah). Prostrate yourself, and bow down with those [Muslims] who bow down." In 2 B.C. there were no Muslims with which Mary could have prostrated herself. Gabriel would never have referred to Yahweh using the pagan "Lord." Islam's Black Stone wouldn't come to be named "Allah" for another five hundred years. And why, pray tell, would the Islamic god visit Mary in Israel if Mecca and the Ka'aba were his sacred territory and house? Further, why is there no mention in all of the Qur'an and Hadith of the Messiah visiting Allah at his "House?" After all, the big Mo made the Night's Journey to the Jewish Temple. The answers are: there was no Ka'aba, no Mecca, no Allah, and there were no Muslims back when Yahshua was born. And that makes the primary premise of Islam - that it was the religion of Adam, Noah, Abraham, Moses, David, Solomon, and the Messiah - a bold-faced lie. Islam's premise is as rotten as its prophet, as false as its god.
Next we learn why this impossible - and thus untrue - scenario was revealed only to Muhammad... Qur'an 3:44 "This is part of the tidings of the things unseen, which you have no knowledge and We reveal unto you (O Messenger!) by inspiration. You were not with them when they cast lots with arrows, as to which of them should be charged with the care of Mariam. Nor were you with them when they disputed." Casting arrows was an occult rite performed around the Ka'aba. Abu Muttalib did this very thing to spare the life of Abd-Allah - Muhammad's father - after consulting with sorcerers. Jews never did such a thing - ever. But Islam needs Jesu.' mother saved in similar fashion. Yet ascribing a demonic gambling game designed to elicit the oracle of manmade idols to Mary "the pure, the chosen above all creation" means that Allah is unable to distinguish sorcery from truth. This verse proves that Allah isn't God, no matter how badly he wants to be.
While I don't mean to kick a dead camel, Allah is insistent on dying a hundred ugly deaths. Qur'an 3:45 "Behold, the angels said: 'O Mariam! Allah gives you glad tidings of a Word from Him: his name will be the Messiah, Isa (Jesus), the son of Mariam, held in honor in this world and the Hereafter and of those nearest to Allah." By saying that "Jesus" was the "Messiah," Allah fractured his stone. If "Jesus", whose name is actually Yahshua, was the Messiah, he is God and Allah isn't. Oops.
Since the verse is fatal to Islam, let's try another translation. "(And remember) when the angels said: Mary! Lo! Allah gives you glad tidings of a word from him, whose name is Christ Jesus, the Messiah, son of Mary, illustrious in the world and the hereafter." The problem isn't the translation; it's the inspiration. The instant Allah admitted that "Jesus" was the Messiah, Islam was finished - at least for anyone who knows anything about "Allah's. divinely inspired Bible.
Prophet of Doom
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