Friday, 13 November 2009

सुरह अल्बक्र (क़ुरआन)


(तीसरी किस्त)


अल्लाह की तरफ़ से भेजी गई कच्ची वातों पर जब लोग उंगली उठाते हैं और मुहम्मद को अपनी गलती का एहसास होता है तो उस आयत या पूरी की पूरी सूरह अल्लाह से मौकूफ (अमान्य) करा देते हैं। ये भी उनका एक हरबा होता. अल्लाह न हुवा एक आम आदमी हुवा जिस से गलती होती रहती है, उस पर ये कि उस को इस का हक है। बड़ी जोरदारी के साथ अल्लाह अपनी कुदरत की दावेदारी पेश करते हुए अपनी ताक़त का मजाहरा करता है कि वह कुरानी आयातों में हेरा-फेरी कर सकता है, इसकी वह कुदरत रखता है, कल वह ये भी कह सकता है कि वह झूट बोल सकता है, चोरी, चकारी, बे ईमानी जैसे काम भी करने की कुदरत रखता है।
" हम किसी आयत का हुक्म मौकूफ़ कर देते हैं या उस आयत को फ़रामोश कर देते हैं तो उस आयत से बेहतर या उस आयत के ही मिस्ल ले आते हैं। क्या तुझ को मालूम नहीं कि अल्लाह ताला ऐसे हैं कि इन्हीं कि सल्तनत आसमानों और ज़मीन की है और ये भी समझ लो कि तुम्हारे हक ताला के सिवा कोई यारो मदद गार नहीं। "
(सूरह अल्बक्र २ पहला पारा आयत)
मुहम्मद इस कदर ताकत वर अल्लाह के ज़मीनी कमांडर बन्ने की आरजू रखते थे।
" अल्लाह ताला जब किसी काम को करना चाहता है तो इस काम के निस्बत इतना कह देता है कि कुन यानी हो जा और वह फाया कून याने हो जाता है "
(सूरह अल्बक्र २ पहला पारा आयत 117)
विद्योत्मा से शिकस्त खाकर मुल्क के चार चोटी के क़ाबिल ज्ञानी पंडित वापस आ रहे थे , रास्ते में देखा एक मूरख (कालिदास) पेड़ पर चढा उसी डाल को काट रहा था जिस पर वह सवार था, उन लोगों ने उसे उतार कर उससे पूछा राज कुमारी से शादी करेगा? प्रस्ताव पाकर मूरख बहुत खुश हुवा। पंडितों ने उसको समझया कि तुझको राज कुमारी के सामने जाकर बैठना है, उसकी बात का जवाब इशारे में देना है, जो भी चाहे इशारा कर दे,बस तेरी शादी हो जायगी। मूरख विद्योत्मा के सामने सजा धजा के पेश किया गया , विद्योत्मा से कहा गया महाराज का मौन है, जो बात चाहे संकेत में करें। राज कुमारी ने एक उंगली उठाई, जवाब में मूरख ने दो उँगलियाँ उठाईं। बहस पंडितों ने किया और विद्योत्मा हार गई। दर अस्ल एक उंगली से विद्योत्मा का मतलब एक परमात्मा था जिसे मूरख ने समझा वह उसकी एक आँख फोड़ देने को कह रही है। जवाबन उसने दो उंगली उठाई कि जवाब में मूरख ने राज कुमारी कि दोनों आखें फोड़ देने कि बात कही थी. जिसको पंडितों ने आत्मा और परमात्मा साबित किया. कुन फाया कून के इस मूर्ख काली दास की पकड़ पैगम्बरी फार्मूला है जिस पर मुस्लमान क़ौम ईमान रक्खे हुए है। ये दीनी ओलिमा कलीदास मूरख के पंडित हैं जो उसके आँख फोड़ने के इशारे को ही मिल्लत को पढा रहे है, दुन्या और उसकी हर शै कैसे वजूद में आई अल्लाह ने कुन फया कून कहा और सब हो गया. तालीम, तहकीक और इर्तेकई मनाजिल की कोई अहमियत और ज़रूरत नहीं. डर्बिन ने सब बकवास बकी है. सारे तजरबे गाह इनके आगे फ़ैल. उम्मी की उम्मत उम्मी ही रहेगी, इसके पंडे मुफ्त खोरी करते रहेंगे उम्मत को दो+दो+पॉँच पढाते रहेंगे . यही मुसलामानों की किस्मत है। बस तेरी शादी हो जायगी
अल्लाह कुन फया कून के जादू से हर काम तो कर सकता है मगर पिद्दी भर शहर मक्का के काफिरों को इस्लाम की घुट्टी नहीं पिला सकता। ये काएनात जिसे आप देख रहे हैं करोरो अरबो सालों के इर्तेकाई रद्दे अमल का नतीजा है, किसी के कुन फया कून कहने से नहीं बनी ।
* अज ख़ुद ना ख्वान्दा और उम्मी मुहम्मद अपने से ज्यादा ज़हीनो को जाहिल के लक़ब से नवाजते हैं जिसकी वकालत आलिमान इस्लाम आज तक आखें बंद करके अपनी रोटियाँ चलाने के लिए करते चले आ रहे हैं - - -
" कुछ जाहिल तो यूँ कहते हैं कि हम से क्यों नहीं कलाम फ़रमाते अल्लाह ताला? या हमारे पास कोई और दलील आ जाए। इसी तरह वह भी कहते आए हैं जो इन से पहले गुज़रे हैं, इन सब के कुलूब यकसाँ हैं, हम ने तो बहुत सी दलीलें साफ साफ बयाँ कर दी हैं"
(सूरह अल्बक्र २ पहला पारा आयत 118)
* नाम निहाद अल्लाह के ख़ुद साख्ता रसूल ढाई तीन हजार साल क्बल पैदा होने वाले बाबा इब्राहीम से अपने लिए दुआ मंगवाते हैं, उस वक़त जब वह काबा की दीवार उठा रहे होते हैं- - -
" और जब उठा रहे थे इब्राहीम दीवारें खानाए काबा की और इस्माईल भी--- (दुआ गो थे) ऐ हमारे परवर दिगार हम से कुबूल फरमाइए,बिला शुबहा आप खूब सुनने वाले हैं, जानने वाले हैं, ऐ हमारे परवर दिगार! हमें और मती बना लीजिए और हमारी औलादों में भी एक ऐसी जमाअत पैदा कीजिए जो आप की मती हो। और हम को हमारे हज के अहकाम बता दिजिए और हमारे हाल पर तवज्जे रखिए. फिल हकीक़त आप ही हैं तवज्जे फरमाने वाले मेहरबानी करने वाले. ऐ हमारे परवर दिगार! और इस जमात से इन्हीं में के एक ऐसे पैगम्बर भी मुकर्रर कीजिए जो इन लोगों को आप की आयत पढ़ पढ़ कर सुनाया करें और आसमानी किताब की खुश फ़हमी दिया करें और इन को पाक करें - - - और मिल्लते इब्राहिमी से तो वही रू गर्दानी करेगा जो अपनी आप में अहमक होगा.और हम ने इन को दुन्या में मुन्तखिब किया और वह आखिरत में बड़े लायक लोगों में शुमार किए जाते हैं"
(सूरह अल्बक्र २ पहला पारा आयत 127-130)
इस तरह मुहम्मद एक चाल चलते हुए अपने चलाए हुए दीन इस्लाम को यहूदियों, ईसाइयों, और मुसलमानों के मुश्तरका पूर्वज बाबा इब्राहीम का दीन बनाने की कोशिश कर रहे, साँप और सीढ़ी का खेल खेल कर ख़ुद मूरिसे आला के गद्दी नशीन बन जाते हैं। इब्राहिम बशरी तारीख में एक मील का पत्थर है। इनकी जीवनी ऐबो हुनर के साथ तारीख इंसानी में पहली दास्तान रखती है। इसी लिए इनको फादर अब्राहम का मुकाम हासिल है। उसको लेकर मुहम्मद ने आलमी राय को गुमराह करने की कोशिश की ।
सारा, बीवी के अलावा इब्राहीम की एक लौंडी हाजरा (हैगर) थी जिसका बेटा इस्माईल था जिसकी नस्लों से कुरैश और ख़ुद यह बने हुए हज़रत हैं। साथ ही बतलाता चलूं कि इब्राहीम ने कुर्बानी अपने छोटे बेटे इसहाक इब्न सारा की दी थी, इस्माईल की नहीं जिसको मुहम्मद के कुरआन ने अल्लाह की गवाही में बदल दिया। आगे हदीस में देखिएगा कि मुहम्मद ने बाबा इब्राहीम को भी अपने सामने बौना कर दिया है।
मुझे कुरानी इबारतों को सोंच सोंच कर हैरत होत्ती है कि क्या आज भी दुन्या में इतने कूढ़ मग्ज़ बाक़ी हैं जो इसे समझ ही नहीं पा रहे हैं? या इस्लामी शातिर इतने मज़बूत हैं कि जो इन पर गालिग़ हैं।कुरआन में पोशीदा धांधली तो मुट्ठी भर लोगों के लिए थी. रात के अंधेरे में सेंध लगाती थी, आज तो दिन दहाड़े डाका डाल रही है. तालीम की रौशनी में ऐसी मुहम्मदी जेहालत पर मासूम बच्चा भी एक बार सुन कर मानने से हिचकिचाए.
" जिस वक्त याकूब का आखिरी वक्त आया अपने बेटों से पूछा, तुम लोग मेरे मरने के बाद किस चीज़ की परस्तिश करोगे? बेटों ने जवाब दिया हम लोग उसी की परस्तिश करेंगे जिस की आप, आप के बुजुर्ग, इब्राहीम, इस्माईल, इसहाक परस्तिश करते आऐ हैं, यानी वही माबूद जो वाद्हू ला शरीक है और हम उसी की एताअत पर रहेंगे "
(सूरह अल्बक्र २ पहला पारा आयत १३२-133)
इस क़िस्म की आयतें कुरआन में वाकेआत पर आधारित बहुतेरी है जो सभी तौरेत की चोरी हैं मगर सब झूट का लबादा, हाँ जड़ ज़रूर तौरेत में छिपी है। इस वाकए की जड़ है कि जोज़फ़ (यूसुफ़) के ख्वाब के मुताबिक जो कि उसने देखा था कि एक दिन सूरज और चाँद उसके सामने सर झुकाए खड़े होंगे और ग्यारा सितारे उसके सामने सजदे में पड़े होंगे, जो कि पूरा हुवा, जब जोज़फ़ (यूसुफ़) मिस्र का बेताज बादशाह हुवा तो उसका बाप गरीब याकूब और याकूब की जोरू उसके सामने सर झुके खड़े थे और उसके तमाम सौतेले भाई शर्मिदा सजदे में पड़े थे. याकूब के सामने दीन का कोई मसला ही न था मसला तो ग्यारा औलादों की रोटी का था. मुहम्मद का यह जेहनी शगूफा कहीं नहीं मिलेगा, यूसुफ़ की दास्तान तारीख में साफ़ साफ़ है.
" आप फरमा दीजिए कि तुम लोग हम से हुज्जत किए जाते हो अल्लाह ताला के बारे में, हालां कि वह हमारा और तुम्हारा रब है। हम को हमारा क्या हुवा मिलेगा और तुम को तुम्हारा किया हुवा, और हम ने हक ताला के लिए अपने को खालिस कर रक्खा है. क्या कहे जाते हो कि इब्राहीम और इस्माईल और इसहाक और याकूब और औलाद याकूब यहूद या नसारा थे, कह दीजिए तुम ज़्यादा वाकिफ हो या हक ताला और इस शख्स से ज्यादा जालिम कौन होगा जो ऐसे शख्स का इख्फा करे जो इस के पास मिन जानिब अल्लाह पहंची हो और अल्लाह तुहारे किए से बे खबर नहीं
"

(सूरह अल्बक्र २ पहला पारा आयत १३९-140)
इस में आयत १४० बहुत खास है। पूरा कुरआन इसी की मदार पर घूमता है जिस से मुस्लमान गुमराह होते हैं तुम ज़्यादा वाकिफ हो या हक ताला कौमों की तवारीख कोई सच्चाई नहीं रखती, अल्लाह की गवाही के सामने. इसको न मानने वाले जालिम होते हैं, और जालिमों से अल्लाह निपटेगा.
मुसलमानों! पूरा यकीन कर सकते हो की तवारीख अक़वाम के आगे कुरानी अल्लाह की गवाही झूटी है। मुहम्मद से पहले इस्लाम था ही नहीं तो इब्राहीम और उनकी नस्लें मुस्लमान कैसे हो सकती हैं? ये सब मजनू बने मुहम्मद की गहरी चालें हैं.
" जिस जगह से भी आप बाहर जाएं तो अपना चेहरा काबा की तरफ़ रक्खा करें और ये बिल्कुल हक है और अल्लाह तुम्हारे किए हुए कामो से असला बे ख़बर नहीं है और तुम लोग जहाँ कहीं मौजूद हो अपना चेहरा खानाए काबा की तरफ़ रक्खो ताकि लोगों को तुम्हारे मुकाबले में गुफ्तुगू न रहे। मुझ से डरते रहो।"

(सूरह अल्बक्र २ पहला पारा आयत १४९- १५० )
इस रसूली फरमान पर मुस्कुरइए, तसव्वुर में अमल करिए, भरी महफिल में बेवकूफी हो जाए तो कहकहा लगाइए। भेड़ बकरियों के लिए अल्लाह का यह फरमान मुनासिब ही है.
हुवा यूँ था की मुहम्मद ने मक्का से भाग कर जब मदीने में पनाह ली थी तो नमाजों में सजदे के लिए रुख करार पाया था बैतुल मुक़द्दस, जिस को किबलाए अव्वल भी कहा जाता है, यह फ़ैसला एक मसलेहत के तहत भी था, जिसे वक्त आने पर सजदे का रुख बदल कर काबा कर दिया गया ,जो कि मुहम्मद की आबाई इबादत गाह थी। इस तब्दीली से अहले मदीना में बडी चे-में गोइयाँ होने लगीं जिसको मुहम्मद ने सख्ती के साथ कुचल दिया, इतना ही नहीं, मंदर्जा बाला हुक्मे रब्बानी भी जारी कर दिया।

(सूरह अल्बक्र २ पहला पारा {सयाकूल} आयत १४९- १५० )

निसार 'निसार-उल-ईमान
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मुस्लिम क़ौम देखे कि आलमी बिरादरी क़ुरआन के बारे में क्या कहती है - - -


Qur'an 2:142 "The fools among the people will say: What has turned them from their Qiblah which they had? Say: The East and the West belong only to Allah; He guides whom He likes to the right path. Thus We have appointed you a medium nation, that you may be witnesses against mankind, and that the Messenger may be a witness against you. And We appointed the Qiblah which you formerly observed only that We might know him who follows the messenger, from him who turns on his heels." Muhammad had just arrived in Yathrib and his foolish spirit was already calling the townsfolk "fools." The one-time prophet turned profiteer had moved away from Allah's House in disgrace following the Satanic Verses. He had changed his Qiblah to Jerusalem opportunistically - naïvely thinking the Jews would accept him as their Messiah. When they rejected him for the fool he was, his "god" told his coconspirator: "The Jews have rejected our bogus claims, so we aren't going to play with them any more." Team Islam issued an about-face.
You probably noticed that the never-ending argument gained a larger antagonist. Muhammad and his dark spirit are now "against mankind." What you may not have noticed, however, was the admission of failure. Muhammad needed a way to determine who was in lockstep with him, as he had been unable to seduce a sufficient quantity of the Ansar Helpers to go along with his new program. Not a single Ansar joined the pirates in any of the first dozen Muslim raids. Then when the last one prevailed, ending in murder, theft, and kidnapping for ransom, they cried foul, since the raid breached their "religious" covenants.
Maududi acknowledges Muhammad's problem in his commentary. "During this period a new type of Muslim, called munafiqin or hypocrite, began to appear.... They professed Islam but were not prepared to abide by the consequences.... There were some who had entered the Islamic fold merely to harm it from within. There were others who were surrounded by Muslims and, therefore, had become 'Muslim.' to safeguard their worldly interests." They knew "good" Muslims were terrorist thieves.
So Muhammad came up with a plan to separate the hypocrites from his raiders. He had his dog bark: "We appointed the Qiblah which you formerly observed only that We might know him who follows the Messenger from him who turns on his heels [and doesn't submit]." God knows all, so this cannot be god speaking. These words must therefore be Muhammad's. "This was surely a hard test except for those whom Allah has guided; and Allah was not going to make your faith fruitless and go to waste; surely Allah is Merciful." Since bowing south verses north isn't a test, we must read between the lines and assume Muhammad was testing Ansar and Emigrant obedience. He needed to know whom he could count on to raid, terrorize, and plunder his enemies.
Qur'an 2:144 "We see the turning of your face: now shall We turn you to a Qiblah that shall please you. Turn then your face in the direction of the Sacred Mosque (at Mecca): Wherever you are, turn your faces in that direction. The People of the Book (Jews and Christians) know well that (the Ka'aba) is the truth from their Lord. Nor is Allah unmindful of what they do." When "god" has to lie, there's a problem. If the Jews thought the Ka'aba was godly, why did they pray facing the site of their former Temple in Jerusalem? More importantly, why did Muhammad join them? Further, how could the Ka'aba be "sacred" when it was a pagan shrine?
Unable to perform miracles, the prophet dismissed their significance. Qur'an 2:145 "Even if you were to bring to the people of the Scripture Book all the Signs, they would not follow Your Qiblah; nor are you going to follow their Qiblah; nor indeed will they follow each other's Qiblah." This is another Allah-Oops. Christians have never had a Qiblah for Yahweh's spirit resides in us. Since Allah claims to have inspired the Gospels, he ought to have known that. "If you, after knowledge has reached you, were to follow their (vain) desires, then were you indeed (clearly) in the wrong."
Qur'an 2:146 "The People of the Book, unto whom We gave the Scripture, know/recognize this revelation/him as they know/recognize their own sons; But lo! a party of them knowingly conceals truth." Like all things made of man, the deeper one digs into the Qur'an the more its flaws become apparent. Before we resolve the "know/recognize" and "this/him" controversy, ponder the impossibility of "the People of the Book unto whom We gave the Scripture" believing that every time the Bible referenced something happening in the land of Israel, the city of Jerusalem, on Mount Moriah, or in the magnificent Temple of Solomon, it was a purposeful deception. They would have to believe that it was possible for the thousands of events chronicled in the Bible to have actually occurred in Arabia, at a rock pile in a barren and deserted ravine that a thousand years later would become a motley collection of mud huts called Mecca. They would have to believe that tens of millions of people conspired together over the course of two millennia to write the Jewish Temple in and the Muslim Ka'aba out of thousands of pages of the most meticulously maintained, most broadly read and distributed scripture of all time. Then they would have to believe that Muhammad, the pirate of Medina, was actually talking with Yahweh, the God of the Bible, and telling the truth about what happened in another time and place. It's so preposterous it begs a question. Does anyone really believe Islam? Or, as Ishaq and Maududi suggest, are they all hypocrites, merely going along to keep from losing their possessions and their lives?
The translations that read "recognize him (Muhammad) rather than "know this" are equally outrageous. Muhammad is suggesting that the Jews of Yathrib recognized him as their Messiah but were concealing the truth. Yet in truth, the Jews didn't even recognize Yahshua as their Messiah, and he fulfilled hundreds of exacting prophecies regarding his genealogy, birth, time, life, mission, death, and resurrection. Muhammad didn't fulfill one. So to say that the Jews recognized Muhammad's prophetic credentials as they recognized their own sons tells us a great deal about the mindset of the man. He was as delusional as he was egotistical.
The next five verses wallow in the new Qiblah. The most important line warns the raiders not to fear the hypocrites: Qur'an 2:150 "Do not fear them; fear Me."
Motivating men to murder requires conditioning them to hate first. The intended victims must be dehumanized: Qur'an 2:171 "The semblance of the infidels is one who shouts to one who cannot hear. They are deaf, dumb, and blind. They make no sense." Qur'an 2:174 "Those who conceal Allah's revelations in the [Bible] Scripture Book, and thus make a miserable profit thereby [selling it to Muhammad], swallow Fire into themselves; Allah will not address them. Grievous will be their doom." Since they're destined for hell anyway, why not kill them? Qur'an 2:175 "They are the ones who bartered away guidance for error and Torment in place of Forgiveness. Ah, what boldness (they show) for the Fire! (Their doom is) because Allah sent down the Book in truth but those who seek causes of dispute in the Book are in a schism of great opposition."
Although this was written in code (or maybe just written badly), it provides the entire equation. It confirms that the Jews sold Muhammad the Bible stories he used to try to make himself look like a prophet. As we have discovered, Muhammad changed these to suit his agenda. Then, since the Qur'anic accounts were different, Muhammad accused his suppliers of selling him a faulty product. He said that B and Q were once identical but that the Jews corrupted B so that they could argue with him about Q.

Prophet of Doom

निसार 'निसार-उल-ईमान

(१५-११-२००९)

2 comments:

  1. अभी एक पागल सांड आता होगा चैलेंज देने..... आप डट रहो खिसके हुओं का बुरा नहीं मानते......

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  2. लग रहा है तुम मेरे भाई हो ।
    PLEASE REMOVE WORD VERIFICATION

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