Thursday, 26 November 2009

क़ुरआन - सूरह आले इमरान - ३

पांचवीं किस्त

ढोंग और ढकोंसला को धर्म का नाम दे कर उनको क़ौमियत में तकसीम कर दिया गया है। हिदू धर्म, इस्लाम, धर्म, ईसाई धर्म वगैरह वगैरह, जब कि धर्म सिर्फ़ एक होता है किसी वस्तु, जीव या व्यक्ति का सद गुण - जैसे (तराजू) काँटे का धर्म (सदगुण) उस की सच्ची तोल, फूल का धर्म खुशबू, साबुन का धर्म साफ़ करना और वैसे ही इंसान का धर्म इंसानियत। इसी धर्म का अरबी पर्याय ईमान है जिस पर इस्लाम ने कब्ज़ा कर लिया है। इस्लाम अभी चौदह सौ साल पहले आया, ईमान और धर्म इंसान की पैदाइश के साथ साथ हजारों सालों से काएम हैं। इंसान इर्तेक़ाइ (रचना कालिक ) मरहलों में है, ये रचना-काल समाप्त हो, ढोंग और ढ्कोंसलों का कूड़ा इसकी राह से दूर हो जाए तो ये मानव से महा मानव बन जाएगा। खास कर मुस्लिम समाज जो पाताल में जा रहा है, इस को जगाना मेरे लिए ज़रूरी है क्यूँ कि इसी से मैं वाबिस्ता हूँ और यह ख़ुद अपना दुश्मन है। कोई इसका दोस्त नही । इस को तअस्सुब या जानिब दारी न समझा जाए, बल्कि कमज़ोर की मदद है ये।
आइए देखें कि हमारे समाज की विडंबना क्यू क्या ज़हर इसके लिए बोती है - - -


" अल्लाह ऐसे लोगों की हिदायत कैसे करेगे जो काफ़िर हो गए, बाद अपने ईमान लाने के और बाद अपने इस इक़रार के कि मुहम्मद सच्चे हैं और बाद इस के कि उन पर वाजः दलायल पहुँच चुके थे और अल्लाह ऐसे बे ढंगे लोगों को हिदायत नहीं करते।"
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (86)
यह है मुहम्मद का अभियान जिसमे अल्लाह किसी गाँव के मेहतुक की तरह है जिसे कि वह रब्बुल आलमीन कहते हैं. उनका अल्लाह उन लोगों से बेज़ार हो रहा है जो रोज़ रोज़ मुसलमान से काफ़िर हो जाते हैं और काफ़िर से मुसलमान.
" ऐसे लोगों की सज़ा ये है कि इन पर अल्लाह ताला की भी लानत होती है, फरिश्तों की और आदमियों की भी, सब की। वह हमेशा हमेशा के लिए दोज़ख में रहेंगे, इन पर अज़ाब हल्का न होने पाएगा और न ही मोहलत दी जाएगी, हाँ मगर तौबा करके जो लोग अपने आप को संवार लेंगे, सो अल्लाह ताला बख्शने वाला है."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (88-89)
मुसलमानों! सोचो अचानक मुहम्मद किसी अदभुत अल्लाह को पैदा करते है, उसके फ़रमान अपने कानों से अनदेखे फ़रिश्ते से सुनते हैं और उसको तुम्हें बतलाते है। वोह अल्लाह सिर्फ़ २३ सालों की जिंदगी जिया, न उसके पहले कभी था, न उसके बाद कभी हुवा। इस मुहम्मदी अल्लाह पर भरोसा करना क्या अपने आप को धोका देना नहीं है? सोचो कि ऐसे अल्लाह की क़ैद से रिहाई की ज़रुरत है, करना कुछ भी नहीं है, बस जो ईमान उस से ले कर आए थे उसे वापस कर दो. लौटा दो ऐसे हवाई और नामाकूल अल्लाह को उस का ईमान. ईमान लाओ मोमिन का जो धर्म कांटे का ईमान रखता है.
चौथे पारे के शुरुआत में यहूदियों से इनके बुजुर्गों पर मुहम्मद विरोध करते हुए नई नई बातें मन गढ़ंत पेश करते हैं. उनको अपनी गढ़ी हुई बातें मनवाने की कोशिश करते है और मुसलमानों को उनकी सही बातें मानने से रोकते हैं. मुहम्मद के पास दो ही नुस्खे है पहला दोज़ख का खौफ दिखाना और दूसरा जन्नत की लालच देना. अल्लाह कहता है रोजे क़यामत लोगों के चेहरे दो रंग के होंगे, सफेद और काले. काले मुंह वाले दोज़खी और सफेद चेहरे वाले बेहिश्ती. मुहम्मद अपनी अल्प संख्यक उम्मत को समझाते हैं कि काफ़िरों से अगर मुकाबला होगा तो पीठ दिखला कर भागने वाले यही काफिर होंगे, मगर ज़रूरी है कि तुम साबित क़दम रहो. मुहम्मद को शायद कभी कभी अपनों से ही अपने जान को खतरा लगता है, घुमाओ दार बातों में वोह अल्लाह की ज़बान में बोलते हैं - - - मुसलमानों! सोचो अचानक मुहम्मद किसी अदभुत अल्लाह को पैदा करते है, उसके फ़रमान अपने कानों से अनदेखे फ़रिश्ते से सुनते हैं और उसको तुम्हें बतलाते है। वोह अल्लाह सिर्फ़ २३ सालों की जिंदगी जिया, न उसके पहले कभी था, न उसके बाद कभी हुवा. इस मुहम्मदी अल्लाह पर भरोसा करना क्या अपने आप को धोका देना नहीं है? सोचो कि ऐसे अल्लाह की क़ैद से रिहाई की ज़रुरत है, करना कुछ भी नहीं है, बस जो ईमान उस से ले कर आए थे उसे वापस कर दो. लौटा दो ऐसे हवाई और नामाकूल अल्लाह को उस का ईमान. ईमान लाओ मोमिन का जो धर्म कांटे का ईमान रखता है.चौथे पारे के शुरुआत में यहूदियों से इनके बुजुर्गों पर मुहम्मद विरोध करते हुए नई नई बातें मन गढ़ंत पेश करते हैं. उनको अपनी गढ़ी हुई बातें मनवाने की कोशिश करते है और मुसलमानों को उनकी सही बातें मानने से रोकते हैं. मुहम्मद के पास दो ही नुस्खे है पहला दोज़ख का खौफ दिखाना और दूसरा जन्नत की लालच देना. अल्लाह कहता है रोजे क़यामत लोगों के चेहरे दो रंग के होंगे, सफेद और काले. काले मुंह वाले दोज़खी और सफेद चेहरे वाले बेहिश्ती. मुहम्मद अपनी अल्प संख्यक उम्मत को समझाते हैं कि काफ़िरों से अगर मुकाबला होगा तो पीठ दिखला कर भागने वाले यही काफिर होंगे, मगर ज़रूरी है कि तुम साबित क़दम रहो. मुहम्मद को शायद कभी कभी अपनों से ही अपने जान को खतरा लगता है, घुमाओ दार बातों में वोह अल्लाह की ज़बान में बोलते हैं - -
" मगर हाँ! एक तो इस ज़रिए के सबब जो अल्लाह की तरफ़ से है, दूसरे इस ज़रिए से जो आदमी के तरफ़ से है और मुस्तहक हो गए गज़ब इलाही के और जमा दी गई उन पर पस्ती, यह इस वजह से हुवा कि वह लोग मुनकिर हो जाया करते थे एह्काम इलाही के और क़त्ल कर दया करते थे पैगम्बरों को नाहक और यह बे वज्ह हुवा कि इन लोगों ने इताअत न की और दायरे से निकल निकल जाते थे।"
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (92-112)
यह गुनूदगी के आलम में बकी गई अल्लाह की कुछ और आयतें थीं। आप निकाल सकें तो कोई मतलब निकालें अय्यार ओलिमा तो इस मे अपनी इल्म का जादू भर के पुर हिकमत, पुर रहमत, पुर अज़मत वगैरा वगैरा बनाए हुए हैं। अगर आप भी इसे नज़र अंदाज़ करते हैं तो याद रखें कि आने वाले कल में आप अपनी नस्लों के मुजरिम होंगे।
* अहले किताब यानी यहूदियों में से एक हिस्से की मुहम्मद दिल खोल कर तारीफ करते हैं, उनकी जो अपनी किताब पर अमल करते हैं, मगर काफ़िरों के लिए नफ़रत में अज़ाफा हो जाता है अल्लाह इन से नफ़रत के पाठ कैसे पढाता है, देखिए - -
" हाँ तुम ऐसे हो कि उन लोगों से मुहब्बत रखते हो और वोह लोग तुम से असला मुहब्बत नहीं रखते, हालां कि तुम तमाम किताबों पर ईमान रखते हो और ये लोग जो तुम से मिलते हैं कह देते हैं ईमान ले आए और जब अलग होते हें तो तुम पर अपनी उँगलियाँ काट काट खाते हैं, मरे गैज़ के.आप कह दीजिए की तुम मर रहो अपने गुस्से में."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (113-119)
इस आयात से उस वक़्त के गैरत मंद, होश मंद और मजबूर अक्लमंदों पर सोच कर आज भी दिल कुढ़ता है. कितने मजबूर हो गए होगे ज़ी होश, साहिबे फ़िक्र और साहिबे ईमान. यह अल्लाह है कि नौज़बिल्लाह है? बन्दों को कहता है कि गुस्से से मर रहो. ऐसे अल्लाह को पुजवाने वाले खबीस आलिमों तुम को कब शर्म आएगी? तुम्हारे अल्लाह को एक काफ़िर कह रहा है " तू अपनी क़ह्हारी में मर"
* इस सूरह में शुरूआती इस्लामी जंगो का तज़करा है. पहली जंग बदर में हुई थी जिसमे मुसलमानों को फ़तह मिली थी और दूसरी जंग ओहद में हुई थी जिस में शिकस्त. फ़तह वाली जंग में अल्लाह ने मुसलमानों को मदद के लिए ३००० फ़रिश्ते भेज दिए थे. जंगे ओहद जो कि बकौल अल्लाह के मुहम्मद कि रज़ा के खिलाफ लड़ी गई थी, इस लिए फरिश्तों कि मदद नहीं आई
" जब कि आप मुसलमानों से फरमाते थे कि क्या तुम को ये अमर काफ़ी न होगा कि तुहारा रब तुहें इमदाद करे, ३००० फरिश्तों के साथ जो उतारे जाएँगे. हाँ क्यूँ नहीं अगर तुम मुश्तकिल होगे और मुत्तकी रहोगे और वोह लोग तुम पर एक दम से आ पहुंचेगे तो तुम्हारा रब तुम्हारी मदद फरमाएगा,५००० फरिश्तों से जो एक खास वज़ा बनाएँ होंगे और ये महज़ इस लिए कि तुम्हारे लिए बशारत हो और ताकि तुम्हारे दिलों को क़रार हो जाए और नुसरत सिर्फ़ अल्लाह की तरफ़ से है जो कि ज़बर दस्त है."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (125-26)
जंगे ओहद हार जाने के बाद जिन लोगों को मुहम्मद के अल्लाह ने ५००० फरिश्तों की बटालियन भेजने की मदद की यकीन दहानी कराई थी वह कहीं नज़र नहीं आए और मुसलमानों को हार की जिल्लत ढोनी पड़ी, इस हालत में मुहम्मद की कला बाजियां देखने लायक हैं - - -
अल्लाह अपने रसूल से कहता है ---"
आप का कोई दखल नहीं यहाँ तक कि अल्लाह उन पर (काफिरों पर) या तो मुतवज्जो हो जाए या उन को कोई सज़ा देदे क्यूँ कि वह ज़ुल्म भी बड़ा कर रहे हैं - - - वोह जिसको चाहे बख्श दे जिसको चाहे अजाब दे - - - ईमान वालो सूद मत खाओ कई हिस्से और अल्लाह से दरो - - - ख़ुशी से कहना मानों अल्लाह और उसके रसूल का, उम्मीद है रहम किए जाओगे - - -और दौडो मग्फेरत की तरफ जो परवर दिगार की तरफ से है - - - ऐसे लोग जो खर्च करते हैं फरागत में और तंगी में और गुस्से को ज़ब्त करने वाले और लोगों से दर गुज़र करने वाले और अल्लाह ऐसे लोगों को महबूब रखता है और तुम हिम्मत मत हारो और रंज मत करो और ग़ालिब तुम ही रहोगे अगर तुम पूरे मोमिन हो."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (128-139)
" अगर तुम को ज़ख्म पहुंच जाय तो उस क़ौम को भी ऐसा ही ज़ख्म पाहुंचा है और हम इन अय्याम को उन लोगों के बीच अदलते बदलते रहा करते हैं, ताकि अल्लाह ईमान वालों को जान ले और तुम में से बाजों को शहीद बनाना था और अल्लाह ज़ुल्म करने वालों से मुहब्बत नहीं करते और ताकि मेल कुचैल से साफ़ कर दे ईमान वालों को और मिटा दे काफिरों को"
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (141-40)
क़ुरआन की ये औसत सूरतें हैं जो मशकूक हुवा करती हैं, गोया इसमें इस्लामी मुल्लाओं के लिए मनमानी करने की काफी गुंजाईश है. खुद अल्लाह भी मुसलमानों के साथ जीत की यक़ीन दहानी कराने के बाद भी हार हो जाने पर कैसी मक्र की बातें करने लगा है, देखा जा सकता है.
OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO
मुसलमानों को अँधेरे में रखने वाले इस्लामी विद्वान, मुस्लिम बुद्धि जीवी और कौमी रहनुमा, समय आ गया है कि अब जवाब दें- - -
कि लाखों, करोरों, अरबों बल्कि उस से भी कहीं अधिक बरसों से इस ब्रह्मांड का रचना कार अल्लाह क्या चौदह सौ साल पहले केवल तेईस साल चार महीने (मोहम्मद का पैगम्बरी काल) के लिए अरबी जुबान में बोला था? वह भी मुहम्मद से सीधे नहीं, किसी तथा कथित दूत के माध्यम से, वह भी बाआवाज़ बुलंद नहीं काना-फूसी कर के ? जनता कहती रही कि जिब्रील आते हैं तो सब को दिखाई क्यूँ नहीं पड़ते? जो कि उसकी उचित मांग थी और मोहम्मद बहाने बनाते रहे। क्या उसके बाद अल्लाह को साँप सूँघ गया कि स्वयम्भू अल्लाह के रसूल की मौत के बाद उसकी बोलती बंद हो गई और जिब्रील अलैहिस्सलाम मृत्यु लोक को सिधार गए ? उस महान रचना कार के सारे काम तो बदस्तूर चल रहे हैं, मगर झूठे अल्लाह और उसके स्वयम्भू रसूल के छल में आ जाने वाले लोगों के काम चौदह सौ सालों से रुके हुए हैं, मुस्लमान वहीँ है जहाँ सदियों पहले था, उसके हम रकाब यहूदी, ईसाई और दीगर कौमें आज हम मुसलमानों को सदियों पीछे अतीत के अंधेरों में छोड़ कर प्रकाश मय संसार में बढ़ गए हैं. हम मोहम्मद की गढ़ी हुई जन्नत के मिथ्य में ही नमाजों के लिए वजू, रुकू और सजदे में विपत्ति ग्रस्त है. मुहम्मदी अल्लाह उन के बाद क्यूँ मुसलमानों में किसी से वार्तालाप नहीं कर रहा है? जो वार्ता उसके नाम से की गई है उस में कितना दम है? ये सवाल तो आगे आएगा जिसका वाजिब उत्तर इन बदमआश आलिमो को देना होगा....
क़ुरआन का पोस्ट मार्टम खुली आँख से देखें "हर्फ़ ए ग़लत" का सिलसिला जारी हो गया है. आप जागें, मुस्लिम से मोमिन हो जाएँ और ईमान की बात करें। अगर ज़मीर रखते हैं तो सदाक़त अर्थात सत्य को ज़रूर समझेंगे और अगर इसलाम की कूढ़ मग्ज़ी ही ज़ेह्न में समाई है तो जाने दीजिए अपनी नस्लों को तालिबानी जहन्नम में.
निसार ''निसार-उल-ईमान''
'
मेरे दीगर गवाह
OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO

Qur'an 3:69 "It is the wish of the followers of the People of the Book to lead you astray." That's true if the "Book" is the "Qur'an" and the "people" are "Muslims." "But they make none to go astray except themselves, but they perceive not. You People of the Book! Why reject you the signs, proofs, and verses of Allah, of which you are witnesses?" This is also true. The witnesses to the "signs of Allah" - terrorism and piracy - rejected Islam. The Qur'an is full of their protestations.
"You People of the Book! Why do you clothe Truth with falsehood, and conceal the Truth?" The anti-Jew version of the never-ending argument is as lame as the anti-Meccan rant. If everyone Muhammad couldn't bribe with booty and babes was calling him, his Qur'an, and his religion a lie, maybe it was.
Team Islam, still miffed that they had to buy Bible stories from the Jews in order to sound prophetic, gave the "People of the Book" another shot. Qur'an 3:77 "As for those who sell for a small price the covenant and faith they owe to Allah and their own plighted word for a small price, they shall have no portion in the Hereafter. Nor will Allah speak to them or look at them on the Day of Judgment, nor will He cleanse them: They shall have a grievous torment, a painful doom."
Then Allah says that the Jews sold Muhammad damaged goods। "There is among them a section who distort the Book with their tongues. (As they read) you would think it is from the Book, but it is not from the Book; and they say, 'That is from God.' but it is not from Allah: It is they who tell a lie against Allah, and (well) they know it!"
This is the boldest confession yet. The Qur'an is confirming that Jews sold Bible stories to Muhammad for some paltry price. For doing so, they're going to hell. Then we learn that they distorted the Scriptures as they read them - causing the "messenger" to believe that they were reading it accurately. In other words, the actual Scriptures weren't corrupted. The only thing that was perverted was the "version" the Jews recited to the wannabe-prophet. You'll discover in the "Source Material" appendix that many of Muhammad's twisted variants were pilfered verbatim from the Talmud - Jewish oral traditions and folklore. They became the "revelations" that formed the Qur'an. Further, the Jews were honest with Islam's prophet. They told him the Bible wasn't from Allah. Able to read it, they knew that Yahweh's name was revealed as the source 7,000 times. Allah's name was never mentioned.
This is odd enough to expose but too weird to analyze. Qur'an 3:83 "Do they seek for other than the Religion of Allah while all creatures in the heavens and on earth have, willing or unwilling, submitted, bowing to His Will (accepting Islam)?"
There is something about megalomaniacs. It's as if they believe that a big lie told often becomes true. Qur'an 3:84 "Say (O Muhammad): 'We believe in Allah and that which is revealed to us and that which was revealed unto Abraham and Ishmael and Isaac and Jacob and the tribes [of Israel], and in (the Books) given to Moses, Jesus, and the prophets, from their Lord. We make no distinction between any of them, and unto Him we have surrendered, bowing our will (in Islam).'" Then after proclaiming that Muslims are unable to distinguish between truth and a sloppy counterfeit, we're told: Qur'an 3:85 "If anyone desires a religion other than Islam (Surrender), never will it be accepted of him; and in the Hereafter He will be in the ranks of those who are losers." Qur'an 3:87 "Of such the reward is that on them (rests) the curse of Allah, of His angels, and of all men, all together. In that will they dwell; nor will their penalty of doom be lightened, nor respite be (their lot)." That pretty much blows the tolerance myth to smithereens.
Then proving that he didn't even understand his own religion, the illiterate prophet proclaimed: Qur'an 3:89 "Except for those that repent after that, and make amends; for verily Allah is Forgiving, Merciful." Since men are predestined to their fate, repentance is folly.
Speaking of folly, the Qur'an orders Muslims to the Ka'aba, claiming that Abraham stood there. But alas, it forgets to tell them what to do when they get there. Qur'an 3:97 "Wherein are plain memorials; the place where Abraham stood up to pray; and whosoever enters it is safe. And pilgrimage to the House is a duty unto Allah for mankind, for him who can find a way thither. As for him who denies [Islamic] faith, Allah is self-sufficient, standing not in need, independent of any of His creatures." If Allah is independent of us then why did he create mankind? Was it for entertainment - the enjoyment he personally gleans from torturing 99:9 percent of us in hell?
Why, if Allah has no needs, does he beg for money and seduce Muslim militants to fight, rob, and terrorize for him? If nothing else, Allah seems to need us to fear him: Qur'an 3:102 "You who believe! Fear Allah as He should be feared, and die not except in a state of Islam [submission]."
Qur'an 3:118 "O you who believe! Take not into your intimacy those outside your religion (pagans, Jews, and Christians). They will not fail to corrupt you. They only desire your ruin. Rank hatred has already appeared from their mouths. What their hearts conceal is far worse." It's hard to imagine a more intolerant decree. "When they are alone, they bite off the very tips of their fingers at you in their rage. Say unto them: 'Perish in your rage.'" This verse makes Mein Kampf seem genteel by comparison. Muhammad was the world's most vulgar hypocrite. The Qur'an orders Muslims not to be "intimate" with non-Muslims, and yet the perverted prophet took Jewish, Christian, and pagan concubines, sex slaves, and wives into his harem. So is Islam do as I do, or do as I say? Are Muslims to emulate the prophet's example, or Sunnah, as detailed in the Hadith or follow Allah's commands as presented by Muhammad in his Qur'an recitals? Or better question yet: if this stuff was such good advice, why didn't Muhammad follow it?
Two-thirds of the way through the second longest surah, Muhammad's and Allah's hatred for Christians and Jews finally subsides long enough for the Islamic duo to attack their latest prey: peace-loving Muslims. Qur'an 3:121 "Remember that morning [of Uhud]? You left your home to post the faithful at their stations for battle at the encampments for war. Remember two of your parties were determined to show cowardice and fell away. Allah had helped you at Badr, when you were a contemptible little force." A contemptible farce would be more accurate.
Unable to count - or worse, unable to remember - the fighting angels have been increased by two thousand. As such, it took forty of them to kill each merchant. Qur'an 3:124 "Remember you (Muhammad) said to the faithful: 'Is it not enough for you that Allah should help you with three thousand angels (specially) sent down? Yea, if you remain firm, and act aright, even if the enemy should rush here on you in hot haste, your Lord would help you with five thousand havoc-making angels for a terrific onslaught." Another Islamic first: havoc-making angels ready for terrific onslaughts. Allah's angels and Lucifer's demons have a lot in common.
Ibn Ishaq, Muhammad's first biographer, felt that it was important to comment on this verse. Ishaq:392 "Allah helped you at Badr when you were contemptible, so fear Allah. Fear Me, for that is gratitude for My kindness. Is it not enough that your Lord reinforced you with three thousand angels? Nay, if you are steadfast against My enemies, and obey My commands, fearing Me, I will send five thousand angels clearly marked. Allah did this as good news for you that your hearts might be at rest. The armies of My angels are good for you because I know your weakness. Victory comes only from Me because of My sovereignty and power for the reason that power and authority belong to Me, not to any one of my creatures." If Lucifer wants to convince us that he is God, he's got to be less transparent than this.
Assisting terrorists is hardly hopeful: Qur'an 3:126 "Allah made it but a message of hope, and an assurance to you, a message of good cheer, that your hearts might be at rest. Victory comes only from Allah that He might cut off a fringe of the unbelievers, exposing them to infamy. They should then be turned back overwhelmed so that they retire frustrated."
The reason Allah was stingy with his killer angels at Uhud was that Muslims didn't Qur'an 3:131 "Fear the Fire, which is prepared for those who reject Faith: and obey Allah and the Messenger." So Allah decided to harvest some martyrs. Qur'an 3:140 "If you have received a blow (at Uhud) and have been wounded, be sure a similar wound has hurt others. Such days (of varying fortunes) We give to men and men by turns: that Allah may know those who believe, and that He may take to Himself from your ranks Martyrs." While harvesting martyrs is a shoddy reason for fighting, it isn't as lame as god saying that battles are needed so that he can figure out who believes.
I find it interesting that Ishaq's rendering of the Qur'an is so much more vivid, even incriminating, than the modern translations. And considering that he was the foremost authority on Muhammad, and wrote a thousand years before the first English translation, his interpretations are worthy of our consideration. Ishaq:394 "Allah said, 'I let them get the better of you to test you. So fear Me and obey Me. If you had believed in what My Prophet brought from Me you would not have received a shock from the Meccan army. But We cause days like this so that Allah may know those who believe and may choose martyrs from among you.
Allah must distinguish between believers and hypocrites so that He can honor the faithful with martyrdom.'" So, let me get this straight: Allah kills the good, loyal Muslims as his way of bestowing honor on them? Islam continues to be a dogma to die for.
The Qur'an is as unambiguous: good Muslims kill. Ishaq:394 "Did you think that you would enter Paradise and receive My reward before I tested you so that I might know who is loyal? You used to wish for martyrdom [and entry into my brothel] before you met the enemy. You wished for death before you met it. Now that you have seen with your own eyes the death of swords...will you go back on your religion, Allah's Book, and His Prophet as disbelievers, abandoning the fight with your enemy? He who turns back [from fighting] in his religion will not harm Allah. He will not diminish His glory, kingdom, sovereignty and power.'" The greatest sin a Muslim can commit is to refrain from fighting.
Prophet of Doom

3 comments:

  1. bahut achchhe. bahut khoob. satya ko is khoobsoorti ke saath saamne rakhne ke liye dhanyavaad

    ReplyDelete
  2. पोस्ट का जवाब यहाँ मौजूद है.

    ReplyDelete
  3. momin shahab, tum likhate raho. bahut mehanat kara rahe hain aur log padh rahe hain. samajh rahe hain.

    zeeshaan zaidi, javaab naheen socho aur apanee qaum ke liye kuchh karo. kab tak mullon kee pairavee karate rahoge?

    ReplyDelete