(पहली क़िस्त)
"अलम " (सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत १ )
यह भी क़ुरआन की एक आयत है. यानी अल्लाह की कोई बात है। ऐसे लफ्ज़ या हर्फ़ों को हुरूफ़े मुक़त्तेआत कहते हैं, जिन के कोई मानी नहीं होते। ये हमेशा सूरह के शुरुआत में आते है। आलिमाने दीन (दर अस्ल बे ज़मीर और बद दीन लोग) कहते हैं इन का मतलब अल्लाह ही बेहतर जानता है। मेरा ख़याल है यह उम्मी मुहम्मद की हर्फ़ शेनासी की हद या मन्त्र की जप मात्र थी, वगरना अल्लाह जल्ले शानाहू की कौन सी मजबूरी थी की वह अपने अहकाम को यूँ मोहमिल (अर्थ-हीन) और गूंगा रखता।
''ये किताब ऐसी है जिस में कोई शुबहा नहीं, राह बतलाने वाली है, अल्लाह से डरने वालों को।"
(सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत 2 )
आख़िर अल्लाह को इस कद्र अपनी किताब पर यक़ीन दिलाने की ज़रूरत क्या है? इस लिए कि यह झूटी है क़ुरआन में एक खूबी या चाल यह है कि मुहम्मद मुसलामानों को अल्लाह से डराते बहुत हैं। मुसलमान इतनी डरपोक क़ौम बन गई है कि अपने ही अली और हुसैन के पूरे खानदान को कटता मरता खड़ी देखती रही, अपने ही खलीफा उस्मान गनी को क़त्ल होते देखती रही, उनकी लाश को तीन दिनों तक सड़ती खड़ी देखती रही, किसी की हिम्मत न थी कि उसे दफनाता, यहूदियों ने अपने कब्रिस्तान में जगह दी तो मिटटी ठिहाने लगी., मगर मुसलमान इतना बहादुर है कि जन्नत की लालच और हूरों की चाहत में सर में कफ़न बाँध कर जेहाद करता है. आगे आप देखिएगा कि मुहम्मद के कुरआन ने मुसलामानों को कितने आसमानी फ़ायदे बतलाए हैं और गौर कीजिएगा कि उसमें कितने ज़मीनी नुकसान पोशीदा हैं.
"वह लोग ऐसे हैं जो ईमान लाते हैं छिपी हुई चीज़ों पर और क़ायम रखते हैं नमाज़ को यकीन रखते हैं इस किताब पर और उन किताबों पर भी जो इस के पहले उतारी गई हैं और यकीन रखते हैं आखिरत पर। बस यही लोग कामयाब हें"
(सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत 4-5)
हरगिज़ नहीं छिपी हुई चीजें चोर हैं, फरेब हैं, छलावा हैं। अल्लाह छुपा हुवा है, कुफ्र और शिर्क के हर पहलू छुपे हुए हैं. मुहम्मद कुरआन के मार्फ़त आप को गुमराह कर रहे हैं. न कुरआन आसमानी किताब है न दूसरी और कोई किताब जिसको वह कहती है. जब असीमित आसमान ही कोई चीज़ नहीं है तो आसमान की तमाम बातें बकवास हैं. आखिरत का खौफ दिल में डाल कर मुहम्मदी अल्लाह ने इंसानी बिरादरी के साथ बहुत बड़ा जुर्म किया है. आखिरत तो वह है कि इंसान पूरी उम्र ऐसे गुजारे कि आखिरी लम्हे उसके दिल पर कोई बोझ न रहे. मौत के बाद कहीं कुछ नहीं है.
"बे शक जो लोग काफ़िर हो चुके हैं, बेहतर है उनके हक में, ख्वाह उन्हें आप डराएँ या न डराएँ, वह ईमान न लाएंगे। बंद लगा दिया है अल्लाह ने उनके कानों और दिलों पर और आंखों पर परदा डाल दिया है"
(सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत 6-7)
सारी कायनात पर कुदरत रखने वाला अल्लाह मामूली से काफिरों के सामने बेबस हो रहा है और अपने रसूल को मना कर रहा है कि इनको मत डराओ धमकाओ. यहाँ पर अल्लाह की मंशा ही नाक़ाबिले फ़हेम है कि एक तरफ़ तो वह अपने बन्दों के कानों में डाट लगा रखा है दूसरी तरफ़ इस्लाम को फैलाने की तहरीक? ख़ुद तूने आंखों और दिलों पर परदा डाल दिया है और अपने रसूल को पापड़ बेलने के काम पर लगा रखा है. यह कुछ और नहीं मुहम्मद की इंसानी फितरत है जो अल्लाह बनने की नाकाम कोशिश कर रही है. इस मौके पर एक वाकेया गाँव के एक नव मुस्लिम राम घसीटे उर्फ़ अल्लाह बख्श का याद आता है ---मस्जिद में नमाज़ से पहले मौलाना पेश आयत को बयान कर रहे थे, अल्लाह बख्श भी बैठा सुन रहा था, पास में बैठे गुलशेर ने पूछा "अल्लाह बख्श कुछ समझे ?"
अल्लाह बख्श ने ज़ोर से झुंझला कर जवाब दिया "क्या ख़ाक समझे ! "जब अल्लाह मियाँ खुदई दिल पर परदा डाले हैं और कानें माँ डाट ठोके हैं. पहले परदा और डाट हटाएँ, मोलबी साहब फिर समझाएं" भरे नमाजियों में अल्लाह कि किरकिरी देख कर गुलशेर बोला "रहेगा तू काफ़िर का काफ़िर''
"तुम्हारे ऐसे अल्लाह की ऐसी की तैसी" कहता हुवा घसीटा राम सर की टोपी उतार कर ज़मीन पर फेंकता हुवा मस्जिद से बाहर निकल गया. मैं सोंचता हूँ घसीटा राम तमाम मुसलमानों से ज़्यादह साहबे अक़्ल है।
"और इन में से बाज़ ऐसे हैं जो कहते हैं ईमान लाए मगर वह अन्दर से ईमान नहीं लाए, झूटे हैं, चाल बाज़ी करते हैं अल्लाह से. उनके दिलों में बड़ा मरज़ है जो बढ़ा दिया जाएगा. इन के लिए सज़ा दर्द नाक है, इस लिए कि वह झूट बोला करते हैं."
(सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत 8-10)
मुहम्मद अल्लाह बने हुए हैं, उनके सामने झूट बोलने का मतलब था अल्लाह के सामने झूट बोलना. उस वक्त के माहौल का अंदाजा करें कि इस्लाम किस कद्र गैर यकीनी रहा होगा और लोग ईमान के कितने कमज़ोर. कैसी कैसी चालें इस्लाम को चलाने के लिए चली जाती थीं. अल्लाह बन्दे के दिल में मरज़ बढ़ाता था? कैसा खतरनाक था मुहम्मदी जो अभी तक बाकी बचा और अहमकों में कायम है. मुसलमानों ! आँखें खोलो, खुदा ऐसा नहीं होता. खुदा को ऐसा होने की क्या ज़रूरत आन पड़ी कि वह अपने बन्दे के लिए खतरनाक जरासीम बन जाए ? क्या तुम टी बी के जरासीम की इबादत करते हो ? जागो, आँखें खोलो, खतरे में हो-
"और जब उनसे कहा जाता है कि ईमान लाओ उनकी तरह जो ईमान ला चुके हैं तो जवाब में कहते हैं कि क्या हम उनकी तरह बे वकूफ हैं ? याद रखो की यही बे वकूफ हैं जिस का इन को इल्म नहीं।"
(सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत 13)
कुरआन के पसे मंज़र में ही रसूल कि असली तस्वीर छिपी हुई है. मुहम्मद अल्लाह के मुंह से कैसी कच्ची कच्ची बातें किया करते हैं, नतीजतन मक्का के लोग इस का मज़ाक बनाते हैं. इनको लोग तफरीहन खातिर में लाते हैं. ताकि माहौल में मशगला बना रहे. इनकी कयामती आयतें सुन सुन अक्सर लोग मज़े लेते हैं. और तफरीहन ईमान लाते हैं, उन पर और उन के जिब्रील अलैहिस्सलाम पर. महफ़िल उखड़ती है और एक ठहाके के साथ लोगों का ईमान भी उखड जाता है. इस तरह बे वकूफ बन जाने के बाद मुहम्मद कहते हैं यह लोग ख़ुद बेवकूफ हैं, जिसका इन को इल्म नहीं. इस्लाम पर ईमान लाने का मतलब है एक अनदेखे और पुर फरेब आक़बत से ख़ुद को जोड़ लेना. अपनी मौजूदा दुन्या को तबाह कर लेना. बगैर सोंचे समझे, जाने बूझे, परखे जोखे, किसी की बात में आकर अपनी और अपनी नस्लों कि ज़िन्दगी का तमाम प्रोग्राम उसके हवाले कर देना ही बे बेवकूफी है. ख़ुद मुहम्मद अपनी ज़िन्दगी को कयाम कभी न दे सके, और न अपनी नस्लों का कल्याण कर सके, यहाँ तक कि अपनी उम्मत को कभी चैन की साँस न दिला पाए .
"वह बहरे हैं, गूंगे हैं और अंधे हैं, सो अब ये ईमान लाने पर रुजू नहीं होंगे. मगर वह(अल्लाह) इन्हें घेरे में लिए हुए है. अगर वह चाहे तो उनके गोशो चश्म (कान और आँख) को सलब (गायब) कर सकता है. वह ज़ात ऐसी है जिसने बनाया तुम्हारे लिए ज़मीन को फ़र्श और आसमान को छत और बरसाया आसमान से पानी, फिर उस पानी से पैदा किया फलों की गिजा"
(सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत 18-22)
मुहम्मद गली सड़क, खेत खल्यान हर जगह सूरते क़ुरआनी की यह आयतें बना बना कर गाया करते. लोग दीवाने की बातों पर कोई तवज्जो न देते और अपना काम किया करते. आजिज़ आकर मुहम्मद कहते ---"वह बहरे हैं, गूंगे हैं और अंधे हैं, सो अब ये ईमान लाने पर रुजू नहीं होंगे. मगर वह इन्हें घेरे में लिए हुए है. अगर वह चाहे तो उनके गोशो ---चश्म ----ऐसी बातें मुहम्मद कुरआन में बार बार दोहराते हैं, भूल जाते हैं कि कुरआन अल्लाह का कलाम है अगर वह बोलता तो यूँ कहता "मैं चाहूँ तो -------
मुसलमानों! यह कुरआन की शुरुआत है, ऐसी बातों से ही कुरआन लबरेज़ है। कोई भी कारामद नुस्खा इसमें नहीं है, सिवाए बहलाने, फुसलाने और धमकाने के. इस्लाम मुहम्मद की एक साज़िश है अरबों के हक़ में और गैर अरबों के ख़िलाफ़ जिसको अंधी क़ौम मुसलमान कही जाने वाली ये आलमी बिरादरी जब भी समझ जाए सवेरा होगा.
मुस्लिम क़ौम देखे कि आलमी बिरादरी क़ुरआन के बारे में क्या कहती है - - -
The 2nd surah begins with a contradiction: Qur'an 2:1 "Alif-Lam-Min. (These letters are a miracle of the Qur'an and only Allah knows what they mean.) This is the Book free of doubt, a guidance to those who ward off (evil), who believe in the Unknown, fulfill their devotional obligations, and pay (zakat) out of what We have provided." There is no doubt: these uninspired rantings have guided more evil than they have warded off.
Allah's "Book" is asking people to believe in the "Unknown." Unable to produce a miracle, prophecy, or even a sane depiction of God, Muhammad just gives up and says, "believe in the unknown." We're ninety-one surahs into the Qur'an, and what little is known about this spirit is demonic. He spends his days torturing unbelievers in hell, and he spends his nights leading believers astray. He supports immorality when it serves his prophet's interests, and he doesn't want his true identity to be known.
But the dark spirit wants to be worshiped. The passage defines Muslims as those who "fulfill their devotional obligations." Although this may sound pious, it's wrong too. Devotion and obligation are incompatible, mutually exclusive concepts. Devotion - love - requires choice. The lack of choice is Islam's greatest deficiency, as the word "obligation" suggests.
That brings us to the zakat, the tax imposed on all Muslims; it's one of the Five Pillars. Islam gives monetary confiscation a politically correct veneer by calling it charity, the giving of alms. But Muhammad used it exactly like politicians use taxes. At swordpoint, he took money from productive people so that he could bribe his unproductive supporters. It made Muhammad powerful and Muslims dependant. It's no different from the tactics Saddam Hussein used to ensure Baath Party loyalty.
Qur'an 2:4 "Whoever believes in (the Qur'an and Sunnah) which has been sent down to you (Muhammad) and in that which was sent to those before your time (the Torah and Gospel), have the assurance of the Hereafter." Although there are a thousand reasons to discard the Qur'an, this is one of the best. Allah is taking credit for prior scripture, saying that it should also be believed. Since the Torah and Qur'an are irreconcilably different, the order is impossible. It's like telling someone to be a democratic capitalist and a totalitarian communist at the same time.
Qur'an 2:6 "As for the disbelievers, it is the same whether you warn them or not; they will not believe. Allah has set a seal upon their hearts, upon their hearing, and a covering over their eyes. There is a great torment for them." It's another Islamic first: a spirit so perverse, so evil, he precludes people from knowing him. And he does it so that he can torture them. The concept is demonic; the words are Satanic.
The next thirteen verses rekindle the never-ending argument; only this time the victims are Jews, not Arabs. Qur'an 2:9 "They deceive Allah and those who believe, but they only deceive themselves, and realize (it) not! In their hearts is a disease; and Allah has increased their disease. Grievous is the painful doom they (incur) because they (lie)." Only in Islam could man deceive God. But that's child's play compared to a god who calls men diseased, and then, rather than curing them, makes them sicker. The Qur'an begins as badly as it ends.
Qur'an 2:11 "When it is said to them: 'Make not mischief on the earth.' they say: 'We are peacemakers only.'" Propagandists and political strategists know that the most effective deception is one that projects a doctrine's or a candidate's faults onto their rivals. That is precisely what is being done here. The "mischief makers" are Muslims, not Jews. As proof, the Jews were tending to their businesses while the Muslims were out pirating. But it is the last line that haunts us today. In the face of worldwide Islamic terror, Muslims say, "We are peacemakers only." And we believe them. Shame on us.
Still attacking Jews, the Qur'an says: "They are mischief-mongers, but they realize not. When it is said to them: 'Believe as the others believe.' They say: 'Shall we believe as the fools.' Nay, surely they are the fools, but they know not. When they meet the faithful, they say: 'We believe.' but when they are alone with the devils, they say: 'We are really with you: We (were) only mocking.'" Obviously, it didn't take the Jews long to assess the merits of Islam. Knowing who God is helped them recognize who He was not. And therein lies our problem. We have lost sight of Yahweh, having separated ourselves from him. Most don't even know his name, much less his character and plan. Not knowing Yahweh makes Lucifer more deceptive.
For example, this is Lucifer speaking, not God: Qur'an 2:15 "Allah mocks them, paying them back, increasing their wrong-doing so they wander blindly."
Then the Devil says: "These are they who have bartered guidance for error, and have gained nothing from the deal." Another translation reads: "These are they who purchase error at the price of guidance, so their bargain shall bring no gain." This is Allah's first attempt at condemning Jews for selling (not giving) their oral traditions to Muhammad. He is inferring that his bastardized accounts, the ones twisted to make his immoral behavior look divine, are true guidance while the originals are erroneous. Remember, people believed Hitler's lies too - lies that were indistinguishable from Islam. Working for the same master, they were equally seductive, racist, demonic, and destructive.
Qur'an 2:17 "They are like one who kindled a fire; when it burned around him, Allah took away their light and left them in darkness so they could not see. They are deaf, dumb, and blind, so they return not. Or like a storm with darkness, thunder and lightning. They thrust their fingers in their ears for fear of death. But Allah surrounds the disbelievers. The lightning snatches away their eyes; when darkness covers them, they stand still; and if Allah pleased He would take away their hearing too." Allah is harming men, not condemning doctrines. And the dark spirit is shown thwarting man's efforts to know him (which is probably a good thing).
After a series of "proofs" Allah says: Qur'an 2:23 "If you are in doubt of what We have revealed to Our Votary, then bring a surah like this, and call any witnesses apart from Allah. But you cannot, as indeed you cannot guard yourselves against the Hell Fire whose fuel is men and rocks, which has been prepared for the infidels." Dr. Seuss writes better sonnets than this. They are original, instructive, nurturing, and chronological. So I call the Grinch to witness; he is no less real, and a lot less disturbed.
I am going to skip the debate between Allah, Adam, and Satan, as we have played the "can-you-name-the-animals" game before. It ends with a clever impersonation, however, with Adam playing Muhammad: Qur'an 2:39 "Those who reject and deny Our Signs will be inmates of the Hell Fire and will abide there forever."
Proving that the Qur'an was as crazy as its god, the book that had just invested the better part of forty verses condemning Jews to hell, telling them that they were deaf, dumb, blind, diseased, and led astray, now says: Qur'an 2:40 "O Children of Israel, remember the favors I bestowed on you। So keep My Covenant so that I fulfil your covenant. Fear Me. And believe in what I sent down, confirming and verifying the Scripture which you possess already." This reconfirms that Islam is irrational. Q cannot verify or confirm B if Q condemns and contradicts B. Further, if B is true and Q opposes B, then Q must be false.
निसार 'निसार-उल-ईमान'
खूब खोद लाए हैं, उस्ताद मानना पड़ेगा, आप को।
ReplyDeletebeta jiski copy karke la rahe ho,,,,,wahin se to bane the ham cyber maulana.....
ReplyDeleteblogvani tere aise sainkdon pehlwanon ke liye kafi he akela kairanvi
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विचार करें कि मुहम्मद सल्ल. कल्कि व अंतिम अवतार और बैद्ध मैत्रे, अंतिम ऋषि (इसाई) यहूदीयों के भी आखरी संदेष्टा? हैं या यह big Game against Islam है?
antimawtar.blogspot.com (Rank-2 Blog) डायरेक्ट लिंक
अल्लाह का चैलेंज पूरी मानव-जाति को
अल्लाह का चैलेंज है कि कुरआन में कोई रद्दोबदल नहीं कर सकता
अल्लाह का चैलेंजः कुरआन में विरोधाभास नहीं
अल्लाह का चैलेंजः आसमानी पुस्तक केवल चार
अल्लाह का चैलेंज वैज्ञानिकों को सृष्टि रचना बारे में
अल्लाह का चैलेंज: यहूदियों (इसराईलियों) को कभी शांति नहीं मिलेगी
छ अल्लाह के चैलेंज सहित अनेक इस्लामिक पुस्तकें
islaminhindi.blogspot.com (Rank-3 Blog)
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ये लो कैरानवी भड़क गया, तर्क का जवाब तर्क से आज तक नहीं दिया इसने… हर जगह सड़ी हुई लिंक चेपता रहता है… हर्फ़-ए-गलत तुम जो भी हो, जहाँ भी हो, पूरी पोल खोलकर ही रुकना… इधर भाई लोग वेद-पुराणों में से पता नहीं क्या-क्या छाँट के ला रहे हैं… तुम भी लाओ… शाबास…
ReplyDeleteकैरानवी, अगर तुम्हारे जैसे आंय -बांय बकने वाले मौलाना कहलाते हैं फिर तो मोमिन भाई की बात माननी पड़ेगी कि इसलाम जाहिलों का फितूर है. कोई जवाब तो देते नहीं बनता है सिर्फ गीदड़ भभकियां देता रहता है.कभी कुछ अक्ल की बात भी किया कर वर्ना इलाज करा "नूर मंजिल" जाके.
ReplyDeleteये क्या पागलपन है एक तो जाकिर नाइक जिसके दिमाग में भूसा भरा है और ये दूसरा असरफअली है जिनका भी कोई स्क्रू ढीला लगता है एक को संस्कृत ठीक से नहीं आती और एक को अरबी का मतलब करना नहीं आता दोनों ही अपने अपने नाम का प्रचार करने में लगे है में कोई इस्लाम या मुसलमानों का विरोधी नहीं हूँ लेकिन ऐसे लोगो का विरोधी हूँ जो की किसी भी धर्म ग्रन्थ का अपमान करके अपने आप को बड़ा चतुर और समजदार बताते है इन लोगो की आदत होती है ये किसी भी धर्म ग्रन्थ का अध्ययन नहीं किया करते लेकिन ये धर्म ग्रन्थ इस लिए पढ़ते है की उसमे से कुछ ऐसा मसाले दार मतलब निकला जाये कि दुनिया अचंभित हो जाये ये सब दया के पात्र है और इनका साथ देनेवाले विकृत मनो विचार वाले कहलायेंगे (अगर जाकिर नाइक को संस्कृत और असरफ को अरबी उर्दू सीखनी है तो में सिखाने के लिया तैयार हु बिलकुल निःशुल्क ) चाणक्य के अनुसार मूर्खो से कोई भी सम्बन्ध रखने वाला अंत में संकट ही पाता है तो असरफ अली और जाकिर नाइक ये दोनों को एक दुसरे पर कीचड़ उछालना है तो उछाले लेकिन इनके पास खड़े रह कर अपने ऊपर भी किचल उचालेंगा ये तय है तो इनसे दूर ही रहा जाये यही बुध्धिमानी है असरफ अली मुस्लिम हो कर मुस्लिम के उपास्यो को निचा दिखा रहा है तो क्या ये दुसरे धमो की इज्जत करेगा ? इनसे पूछो की फिर किसकी उपासना की जाये? क्या तुम लोगो की ? इससे पूछना भी बेकार होगा की, तुम्हारे स्वामी रामकृष्ण परमहंस के बारेमे क्या विचार है? या तो गरीब नवाज़ के बारे में क्या विचार है? विवेकानंद के बारेमे या तो सूफी संत निजामुदीन के बारेमे? कबीर, तुलसीदास, मीराबाई के बारे में ?क्यों की ये दोनों बकवास ही करने वाले है. मैं तो हिन्दू, जैन, बुद्ध, सिख, इसाई और सबको इनसे दूर ही रहने की सलाह देता हूँ . - श्री दासअवतार
ReplyDeleteये क्या पागलपन है एक तो जाकिर नाइक जिसके दिमाग में भूसा भरा है और ये दूसरा असरफअली है जिनका भी कोई स्क्रू ढीला लगता है एक को संस्कृत ठीक से नहीं आती और एक को अरबी का मतलब करना नहीं आता दोनों ही अपने अपने नाम का प्रचार करने में लगे है में कोई इस्लाम या मुसलमानों का विरोधी नहीं हूँ लेकिन ऐसे लोगो का विरोधी हूँ जो की किसी भी धर्म ग्रन्थ का अपमान करके अपने आप को बड़ा चतुर और समजदार बताते है इन लोगो की आदत होती है ये किसी भी धर्म ग्रन्थ का अध्ययन नहीं किया करते लेकिन ये धर्म ग्रन्थ इस लिए पढ़ते है की उसमे से कुछ ऐसा मसाले दार मतलब निकला जाये कि दुनिया अचंभित हो जाये ये सब दया के पात्र है और इनका साथ देनेवाले विकृत मनो विचार वाले कहलायेंगे (अगर जाकिर नाइक को संस्कृत और असरफ को अरबी उर्दू सीखनी है तो में सिखाने के लिया तैयार हु बिलकुल निःशुल्क ) चाणक्य के अनुसार मूर्खो से कोई भी सम्बन्ध रखने वाला अंत में संकट ही पाता है तो असरफ अली और जाकिर नाइक ये दोनों को एक दुसरे पर कीचड़ उछालना है तो उछाले लेकिन इनके पास खड़े रह कर अपने ऊपर भी किचल उचालेंगा ये तय है तो इनसे दूर ही रहा जाये यही बुध्धिमानी है असरफ अली मुस्लिम हो कर मुस्लिम के उपास्यो को निचा दिखा रहा है तो क्या ये दुसरे धमो की इज्जत करेगा ? इनसे पूछो की फिर किसकी उपासना की जाये? क्या तुम लोगो की ? इससे पूछना भी बेकार होगा की, तुम्हारे स्वामी रामकृष्ण परमहंस के बारेमे क्या विचार है? या तो गरीब नवाज़ के बारे में क्या विचार है? विवेकानंद के बारेमे या तो सूफी संत निजामुदीन के बारेमे? कबीर, तुलसीदास, मीराबाई के बारे में ?क्यों की ये दोनों बकवास ही करने वाले है. मैं तो हिन्दू, जैन, बुद्ध, सिख, इसाई और सबको इनसे दूर ही रहने की सलाह देता हूँ . - श्री दासअवतार
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