पाठकों से निवेदन
मैं हिन्दू हूँ न मुसलमान, न क्रिश्चेन और न ही कोई धार्मिक आस्था रखने वाला व्यक्ति. मैं सिर्फ एक इंसान हूँ, मानव मात्र। हिदू और मुस्लिम संस्कारों में ढले आदमी को मानव मात्र बनना बहुत ही मुश्किल काम है. कोई बिरला ही सत्य और सदाक़त से आँखें मिला पाता है कि परिवेश का ग़लबा उसके सामने त्योरी चढाए खड़ा रहता है और वह फिर आँखें मूँद कर असत्य की गोद में चला जाता है. ग़ालिब कहता है - - -
बस कि दुश्वार है हर काम का आसान होना,
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसान होना।
(हर आदमी, आदमी का बच्चा होता है चाहे उसे भेड़िए ने ही क्यूं न पाला हो और सभ्य होने के बाद ही आदमी इंसान कहलाता है)
मैं सिर्फ इन्सान हो चुका हूँ इस लिए मैं इंसान दोस्त हूँ. दुन्या में सब से ज्यादह दलित, दमित, शोषित और मूर्ख कौम है मुसलमन, उस से ज्यादा हमारे भारत में अछूत, हरिजन, दलित और पिछड़ा वर्ग के नामों से पहचान रखने वाला हिन्दू . पहले अंतर राष्ट्रीय कौम को क़ुरआनी आयातों ने पामाल कर रखा है, दूसरेको भारत में लोभ और पाखण्ड ने। मुट्ठी भर लोग इन दोनों को उँगलियों पर नचा रहे हैं. मैं फिलहाल मुसलामानों को इस दलदल से निकलने का बेडा उठता हूँ, हिन्दू भाइयो के शुभ चिन्तक लाखों हैं. इस लिए मैं इस मुसलमन मानव जाति का असली शुभ चिन्तक हूँ यही मेरा मानव धर्म है. नादान मुसलमान मुझे अपना दुश्मन समझते हैं जब कि मैं उनके अज़ली दुश्मन इस्लाम की का विरोध करता हूँ और वाहियात गाथा कुरआन का.
हर मानवता प्रेमी पाठक से मेरा अनुरोध है कि वह मेरे अभियान के साथ आएं, मेरे ब्लॉग को मुस्लिम भाइयों के कानों तक पहुँचाएँ। हर साधन से उनको इसकी सूचना दें। मैं मानवता के लिए जान कि बाज़ी लगा कर मैदान में उतरा हूँ, आप भी कुछ कर सकते हैं - - -
देखें क़ुरआन की बकवासें
दूसरी किस्त
" बिल यकीन जो लोग कुफ्र करते हैं, हरगिज़ उनके काम नहीं आ सकते, उनके माल न उनके औलाद, अल्लाह तआला के मुकाबले में, ज़र्रा बराबर नहीं और ऐसे लोग जहन्नम का सोखता होंगे।"
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (१०)
खुद ला वलद मुहम्मद अपने दामाद की औलादों हसन और हुसैन का हशर हौज़ऐ कौसर के कनारे खड़े खड़े देख रहे होंगे। दुश्मने इंसानियत मुहम्मद तमाम उम्र अपने मुखालिफों को मारते पीटते और काटते कोसते रहे, असर उल्टा रहा अहले कुफ्र सुर्ख रू रहे और फलते फूलते रहे, मुस्लमान पामाल रहे और ज़र्द रू हुए। आज भी उम्मते मुहम्मदी पूरी दुन्या के सामने एक मुजरिम की हैसियत से खड़ी हुई है. किस क़दर कमजोर हैं कुरानी आयतें, मौजूदा मुसलमानों को कैसे समझाया जाय?
" आप फरमा दीजिए क्या मैं तुम को ऐसी चीज़ बतला दूँ जो बेहतर हों उन चीजों से, ऐसे लोगों के लिए जो डरते हैं, उनके मालिक के पास ऐसे ऐसे बाग हैं जिन के नीचे नहरें बह रही हैं, हमेशा हमेशा के लिए रहेंगे, और ऐसी बीवियां हैं जो साफ सुथरी की हुई हैं और खुश नूदी है अल्लाह की तरफ से बन्दों को."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (15)
देखिए कि इस क़ौम की अक़्ल को दीमक खा गई। अल्लाह रब्बे कायनात बंदे मुहम्मद को आप जनाब कर के बात कर रहा है, इस क़ौम के कानों पर जूँ तक नहीं रेगती. अल्लाह की पहेली है बूझें? अगर नहीं बूझ पाएँ तो किसी मुल्ला की दिली आरजू पूछें कि वह नमाजें क्यूँ पढता है? ये साफ सुथरी की हुई बीवियां कैसी होंगी, ये पता नहीं, अल्लाह जाने, जिन्से लतीफ़ होगा भी या नहीं? औरतों के लिए कोई जन्नती इनाम नहीं फिर भी यह नक़िसुल अक्ल कुछ ज़्यादह ही सूम सलात वालियाँ होती हैं। अल्लाह की बातों में कहीं कोई दम दरूद है? कोई निदा, कोई इल्हाम जैसी बात है? दीन के कलम कारों ने अपनी कला करी से इस रेत के महेल को सजा रक्खा है।
" अल्लाह बड़ी नरमी के साथ बन्दों को अपनी बंदगी की अहमियत को समझाता है. काफिरों की सोहबतों के नशेब ओ फ़राज़ समझाता है. अपनी तमाम खूबियों के साथ बन्दों पर अपनी मालिकाना दावेदारी बतलाता है. दोज़ख पर हुज्जत करने वालों को आगाह करता है. कुरान से इन्हिराफ़ करने वालों का बुरा अंजाम है, ग़रज़ ये कि दस आयातों तक अल्लाह कि कुरानी तान छिडी रहती है जिसका कोई नतीजा अख्ज़ करना मुहाल है.
"सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (16-26)
अल्लाह की जुग्राफियाई मालूमात और क़ुदरत की राज़दारी के बारे में देखें। उम्मी मुहम्मद का तकमील करदा अल्लाह कहता है - - -
" कि वोह रात को दिन में दाखिल कर देते हैं और दिन को रात में. वोह जानदार चीज़ों को बेजान से निकाल लेता है (जैसे अंडे से चूजा) और बे जान चीज़ों को जानदार से निकाल लेता है (जैसे परिंदों से अंडा)
"सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (27)
इस बात को मुहम्मद कुरआन में बार बार दोहराते हैं मगर आज के दौर में ओलिमा इस बात को जाहिल अवाम के आगे भी नहीं बयान करते, न ही अपनी तहरीर में कहीं इस आयत को छूते हैं. मगर मिस्कीन हिंदी हर रोज़ अपनी नमाजों में ज़रूर इस जेहालत को पढ़ते हैं। सोचिए कि जो शख्स यूनानी साइंस दानो सुकरात और अरस्तु से सदियों बाद पैदा हुवा हो उसकी समाजी जानकारी इतनी भी न हो कि रात और दिन कैसे होते है और अंडा जो परिन्दे के पेट से पैदा होता है वह जानदार होता है, जाहिलों के सरदार मोहम्मद अल्लाह के रसूल बने बैठे हैं. मुसलमानों के ये बद तरीन दुश्मन जो मुसल्मानो को जिंदा नोच नोच कर खा रहे हैं, ऐसे गाऊदी को सर्वर कायनात जैसे सैकडों लक़ब से नवाजे हुवे हैं.
*यहूदियों का खुदा यहुवा हमेशा यहूदियों पर मेहरबान रहता है, गाड एक बाप की तरह हमेशा अपने ईसाई बेटों को मुआफ़ किए रहता है, ज़्यादह तर धार्मिक भगवान दयालु होते हैं, बस की एक मुसलमानों का अल्लाह है जो उन पर पैनी नज़र रखता है। वोह बार बार इन्हें धमकियाँ दिए रहता है। हर वक़्त याद दिलाता है रहता कि वह बड़ा अज़ाब देने वाला है। सख्त बदला लेने वाला है. चाल चलने वाला वाला है. गर्दन दबोचने वाला है. क़हर ढाने वाला है. वह मुसलमानों को हर वक़्त डराए रहता है. उसे डरपोक बन्दे पसंद हैं, बसूरत दीगर उसकी राह में जेहादी. वोह मुसलमानों को महदूद होकर जीने की सलाह देता है, जिस की वजह से हिदुस्तानी मुस्लमान कशमकश की ज़िन्दगी जीने पर मजबूर हैं. इन्हें मुल्क में मशकूक नज़रों से देखा जाए तो क्यूँ न देखा जाए ? देखिए अल्लाह कहता है - - -
''मुसलमानों को चाहिए कुफ्फारों को दोस्त न बनाएं, मुसलमानों से तजाउज़ करके जो शख्स ऐसा करेगा, वोह शख्स अल्लाह के साथ किसी शुमार में नहीं मगर अल्लाह तुम्हें अपनी ज़ात से डराता है." सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (28)
इस कुरानी आयात को सुनने के बाद भारत की काफिर हिन्दू अक्सरीयत आबादी मुस्लिम अवाम को दोस्त कैसे बना सकती है? ऐसी कुरानी आयतों के पैरोकारों को हिन्दू अपना दुश्मन मानें तो क्यूँ न मानें? दुन्या के तमाम गैर मुस्लिम मुमालिक में बसे हुए मुसलमानों के साथ किस दर्जा ना आकबत अन्देशाना और ज़हरीला ये पैगाम है इसलाम का. मुस्लिम खवास और मज़हबी रहनुमा कहते हैं कि उनके बुजुर्गों ने पाकिस्तान न जाकर हिंदुस्तान जैसे सैकुलर मुल्क में रहना पसंद किया, इस लिए उन्हें सैकुलर हुकूक मिलने चाहिएं. सैकुलरटी की बरकतों के दावे दार ये लोग सैकुलर भी हैं और ऐसी आयात वाली क़ुरआन के पुजारी भी। इन्हीं की जुबान में - - -
" ये सब के सब हिदुस्तान के जदीद मुनाफिक हैं" इन से सावधान रहे हिद्स्तान।
निसार ''निसार-उल-ईमान''
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मुस्लिम क़ौम देखे कि आलमी बिरादरी क़ुरआन के बारे में क्या कहती है - - -
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Qur'an 3:11 "The punishment of Allah is severe. So tell the unbelieving infidels: 'You will surely be vanquished, seized by Allah, and driven to Hell. How bad a preparation.'" Fire and brimstone preachers of days long past used to stand in their pulpits and speak of hell in order to draw people to salvation. But that isn't what is happening here. Allah is not calling people to deliverance. This is not a decree or warning. He is announcing his condemnation - preparation H. This is as perverse as calling men the firewood of hell. The creator of the universe cannot be this demented. Allah cannot be God.
In the next verse, the dark spirit of Islam confirms that the terrorist raids leading to Badr were "in Allah's Cause," and that the militant.' victory over the merchants was a miraculous sign. Qur'an 3:13 "There has already been for you a Sign in the two armies that met (in combat at Badr): One was fighting in Allah's Cause, the other resisting Allah; these saw with their own eyes twice their number. But Allah supports whom He pleases. In this is a warning for such as have eyes to see." Badr occurred because Muhammad was out on a terrorist raid trying to loot a caravan. By saying that this behavior was in "Allah's Cause," Islam has officially become the "religion of pirates and terrorists."
Now, speaking of the covetous behavior that founded the religotic of submission, Allah says: Qur'an 3:14 "Beautified for men is the love of the things they covet, desiring women, hoards of gold and silver, attractive horses, cattle and well-tilled land. These are the pleasures of this world's life. But Allah has a more excellent abode." Since the only guaranteed entrance into the "excellent abode" is to die a martyr murdering infidels, Allah is telling Muslims that fighting to the death for Muhammad is better than "earning" the survivor's booty - beautiful women, gold and silver, horses, cattle, and productive farmland. And make no mistake, Allah isn't against Muslims stealing these things. In fact, he thinks it's "beautiful" men covet them. He just wants them to believe his stash is better.
Allah goes on to describe paradise. However, something has changed. Now that Muhammad has four wives, two of whom are little girls, he no longer brags about virgins. Then in six words, Allah summarizes the con that became Islam: Qur'an 3:19 "Lo! religion with Allah (is) Surrender."
Jumbled as ever, the passage demeans Christians and Jews next. "Nor did the People of the Book differ except out of envy after knowledge had come to them. But if any deny the proofs, signs and lessons of Allah, Allah is swift in reckoning." A second translation reads: "Surely the religion with Allah is Islam, and those to whom the Book had been given did not show opposition but after knowledge had come to them, out of envy among themselves; and whoever disbelieves in the communications of Allah then surely Allah is quick in reckoning." No matter how one goes about interpreting this verse, it's nonsense. Jews and Christians don't envy each other - not then, not now, not ever. And it's for certain they never envied Satan's sadistic scriptures. Further, Christ was an observant Jewish rabbi. Pure Christianity embraces all things Jewish: festivals, scriptures, and God. So what I think Allah is trying to say is: Judaism was Islam until Christianity. Christianity was Islam until Islam. Then Islam caused Judeo-Christianity to differ, envying Islam.
In verse 20, Lucifer tells his prophet: "If they argue with you, (Muhammad), say: 'I have surrendered to Allah (in Islam) and those who follow me.' And say to those who were given the Scripture (Jews and Christians) and to the illiterates (Arabs): 'Do you also submit? If they surrender, then they are rightly guided, and if they turn away, then it is your duty only to convey the message." Predestination renders this verse as absurd as the rest of the surah. Why deliver a message if it makes no difference? Why have a religion if all men are predestined to either brothels or fires? And why have a book if the intended audience can't read?
Just in case Muhammad failed sweet talking his brethren into submission, he warned... Qur'an 3:21 "Verily, to those who deny the signs, verses, and proofs of Allah, and slay the prophets [like Muhammad], and kill the upholders of justice [Muslim militants], give the news of painful torments [a.k.a. terrorism]." This ungodly chat goes on to say that the Christians and Jews "who have received a part of Revelation" will claim that "the fires of hell will not touch us for more than a few days." Within this short passage there are two poison pills. If the Bible is part of the revelation why is the Qur'an opposed to its every doctrine? And why isn't a single verse from the New Testament included in the Qur'an? Second, what are the odds that lettered people would say "the fires of hell will only burn us for a few days?" There is no indication in the Bible that hell is temporary.
This is what Islam does to Muslims: Qur'an 3:24 "They have been deceived by the lies they have themselves fabricated; their religion has deceived them." Allah is trying to dress down Christians and Jews. But if "They" were replaced by "Muslims" this would be the Qur'an's most accurate verse. If Allah and his pal wanted to find a "fabricated deceitful religion," they wouldn't have to look very far.
In the 26th verse we learn, "You [Allah, second person] exalt whom You please and debase and humiliate whom You will." That leads to another confirmation of Islam's intolerance. "Those who believe should not take unbelievers as their friends...guard yourselves from them." And... "Allah commands you to beware of Him."
Prophet of Doom
Superb... nice study...
ReplyDeleteआप एक बड़ा काम कर रहे हैं. हम लगातार पढ़ रहे हैं आपकी आँखे खोल देने वाली पोस्ट!!!
ReplyDeleteपहली बार पढ़ा आपको.. लेकिन आश्चर्यजनक लगा।
ReplyDeleteअपनी तमाम जानकारियों और ग़लत्फ़हमियों के बावजूद मुझे लगता था कि मुस्लिम ही इकलौती क़ौम है जो अभी भी इंट्रोस्पेक्शन के दरवाजे ख़ुद के लिये बन्द किये बैठी है। जो कि किसी भी मजहब के लिये सबसे जानलेवा बात हो सकती है।
लेकिन आज आपको पढ़कर लगा कि दक्यानूस कठमुल्लाओं की बे-सिर-पैर की बातों में मुब्तिला रहने वाली एक अनजान क़ौम में भी इस आला क़िस्म का इंट्रोस्पेक्शन भी हो सकता है। आप जो भी हों, अगर मुस्लिम हुए तो यहाँ भी मौलाना लोग आपके ख़िलाफ़ फ़तवे रवाँ करने लगेंगे।
लेकिन आपकी इस जाँबाज कोशिश को मेरा व्यक्तिगत सलाम... रही बात आपके पैग़ाम के सही कानों तक पहुँचने की, तो निस्संदेह वह भी होगा।
सभी धर्म अप्रासंगिक हो चुके हैं। जो धर्म आधुनिक विज्ञान की खोजों और जानकारियो के आधार पर अपने आप को बदलता चलेगा वही स्थाई हो सकेगा। यह खूबी भारतीय दर्शनों सांख्य और अद्वैत वेदांत में है। आप इस्लाम की अवैज्ञानिकता को उजागर कर एक नेक काम कर रहे हैं।
ReplyDeleteजहां से यह मेटर उठा के ला रहे हो,वहां से मेरे नाम का लेख भी लाओ मेरे कमेंटस सहित या फिर
ReplyDeletesignature:
विचार करें कि मुहम्मद सल्ल. कल्कि व अंतिम अवतार और बैद्ध मैत्रे, अंतिम ऋषि (इसाई) यहूदीयों के भी आखरी संदेष्टा? हैं या यह big Game against Islam है?
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