Saturday 14 November 2009

सूरह अल्बक्र ( क़ुरआन)

चौथी किस्त


हज

आज से एक सदी पहले हज हिन्दोस्तानियों के लिए लग भग मौत का एलान हुवा करता था. आज गैर इस्लामी साइंसी बरकतों ने इसे आसान कर दिया है. हज जैसे ज़ेह्नी तफ़रीह में कोई तखरीबी पहलू नज़र नहीं आता सिवाय इसके कि ये मुहम्मद का अपनी क़ौम के लिए एक मुआशी ख़्वाब था, जो उनकी उम्मीदों से कहीं ज्यादह फूला फला. आज समाज में हज हैसियत की नुमाइश एक फैशन भी बना हुवा है। दरमियाना तबका अपनी बचत पूंजी इस पर बरबाद कर के अपने बुढापे को ठन ठन गोपाल कर लेता है, जो अफ़सोस का मुक़ाम है. हज हर मुस्लमान पर एक तरह का उस के मुसलमान होने का क़र्ज़ है जो मुहम्मद ने अपनी क़ौम के लिए उस पर लादा है. उम्मी की सियासत को दुन्या की हर पिछ्ड़ी हुई कौम ढो रही है. अल्लाह कहता है - - -

"क्या तुहारा ख़याल है कि जन्नत में दाखिल होगे, हाँलाकि तुम को अभी तक इन का सा कोई अजीब वक़ेआ अभी पेश नहीं आया है जो तुम से पहले गुज़रे हैं और उन पर ऐसी ऐसी सख्ती और तंगी वाके हुई है और उन को यहाँ तक जुन्बिशें हुई हैं कि पैग़म्बर तक और जो उन के साथ अहले ईमान थे बोल उठे कि अल्लाह की मदद कब आएगी। याद रखो कि अल्लाह की इमदाद बहुत नज़दीक है"
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २१३)
मुहम्मद अपने शागिर्दों को तसल्ली की भाषा में समझा रहे हैं, कि अल्लाह की मदद ज़रूर आएगी और साथ साथ एलान है कि ये क़ुरआन अल्लाह का कलाम है. इस कशमकश को मुसलमान सदियों से झेल रहा है कि इसे अल्लाह का कलाम माने या मुहम्मद का. ईमान लाने वालों ने इस्लाम कुबूल करके मुसीबत मोल ले ली है. उन के लिए अल्लाह फ़रमाता है - - -

(तालिबानी आयत)

" जेहाद करना तुम पर फ़र्ज़ कर दिया गया है और वह तुम को गराँ है और यह बात मुमकिन है तुम किसी अम्र को गराँ समझो और वह तुम्हारे ख़ैर में हो और मुमकिन है तुम किसी अमर को मरगूब समझो और वह तुहारे हक में खराबी हो और अल्लाह सब जानने वाले हैं और तुम नहीं जानते,"

(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २१४)
नमाज़, रोजा, ज़कात, हज, जैसे बेसूद और मुहमिल अमल माना कि कभी न ख़त्म होने वाले अमले ख़ैर होंगे मगर ये जेहाद भी कभी न ख़त्म होने वाला अल्लाह का फरमाने अमल है कि जब तक ज़मीन पर एक भी गैर मुस्लिम बचे या एक भी मुस्लिम बचे? जेहाद जारी रहे बल्कि उसके बाद भी? मुस्लिम बनाम मुस्लिम (फिरका वार) बे शक। अल्लाह, उसका रसूल और क़ुरआन अगर बर हक हैं तो उसका फ़रमान उस से जुदा नहीं हो सकता। सदियों बाद तालिबान, अलकायदा जैशे मुहम्मद जैसी इस की बर हक अलामतें क़ाएम हो रही हैं, तो इस की मौत भी बर हक है. इसलाम का यह मज्मूम बर हक, वक़्त आ गया है कि ना हक में बदल जाय.

" लोग आप से शराब और कुमार (जुवा) के निस्बत दर्याफ़्त करते हैं, आप फरमा दीजिए कि दोनों में गुनाह की बड़ी बडी बातें भी हें और लोगों को फायदे भी हैं और गुनाह की बातें उनके फायदों से ज़्यादा बढी हुई हैं"
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २१९)
बन्दाए हकीर मुहम्मद का रुतबा चापलूस इस्लामी कलम कारों ने इतना बढा दिया है कि कायनातों का मालिक उसको आप जनाब कह कर मुखातिब करता है. यह शर्म की बात है. अल्लाह में बिराजमान मुहम्मद मुज़ब्ज़ब बातें करते हैं जो हाँ में भी है और न में भी. मौलानाओं को फतवा बांटने की गुंजाइश इसी किस्म की कुरानी आयतें फराहम करती हैं जो जुवा खेलना या न खेलना शराब पीना या न पीना दोनों बाते जाएज़ ठहरती हैं. पता नहीं ये उस वक़्त की बात है जब शराब हलाल थी और मुहम्मद भी दो घूट पीए रहे हों. वैसे भी शराब कहीं किसी मज़हब मे हराम नहीं, ईसा तो चौबीसों घंटे टुन रहते. खुद इस्लाम में मौत तक सब्र से कम लो ऊपर धरी है शराबन तहूरा. हाँ जुवा खेलना किसी भी हालत में फायदे मंद नही खिलवाना अलबत्ता फायदे मंद है. अल्लाह नासमझ है.

अब देखी यह ज़हरीली आयत

" निकाह मत करो काफिर औरतों के साथ जब तक कि वह मुसलमान न हो जाएँ और मुस्लमान चाहे लौंडी क्यूं न हो वह हजार दर्जा बेहतर है काफिर औरत से, गो वह तुम को अच्छी मालूम हो और औरतों को काफिर मर्दों के निकाह में मत दो, जब तक की वह मुसलमान न हो जाए, इस से बेहतर मुस्लमान गुलाम है"
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत 221)
हमारे मुल्क में फिरका परस्ती का जो माहौल बन गया है उसको देखते हुए दोनों क़ौमों को ज़हरीले फ़रमान की डट कर खिलाफ वर्जी करना चाहिए। हिदुस्तान में आपसी नफ़रत दूर करने की यही एक सूरत है कि दोनों फिरके आपस में शादी ब्याह करें ताकि नई नस्लें इस झगडे का खात्मा कर सकें. कितनी झूटी बात है - - - मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना. हम देखते हैं कि कुरआन की हर दूसरी आयत नफ़रत और बैर सिखला रही है.

" और लोग आप से हैज़ (मासिक-धर्म) का हुक्म पूछते हैं, आप फरमा दीजिए की गन्दी चीज़ है, तो हैज़ में तुम ओरतों से अलाह्दा रहा करो और इनसे कुर्बत मत किया करो, जब तक की वह पाक न हो जाएँ"
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २२२)
देखिए कि अल्लाह कहाँ था, कहाँ आ गया? कौमी मसाइल समझा रहा था कि हैज़ (मासिक धर्म)की गन्दगी में घुस गया. कुरआन में देखेंगे यह अल्लाह की बकसरत आदत है ऐसे बेहूदा सवाल भी कुरआन ने मुहम्मद के हवाले किए हैं. हदीसें भी इसी क़िस्म की गलीज़ बातों से भरी पडी हैं. हैज़, उचलता हुवा पानी, तुर्श और शीरीं दरयाओं का मिलन, मनी, खून का लोथडा और दाखिल ओ खुरूज कि हिकमत से लबरेज़ अल्लाह की बातें जिसको मुसलमान निजामे हयात कहते हैं. अफ़सोस कि यही गंदगी इबारतें नमाजों में पढाई जाती है.
* औरतों के हुकूक का ढोल पीटने वाला इसलाम क्या औरत को इंसान भी मानता है? या मर्दों के मुकाबले में उसकी क्या औकात है, आधी? चौथाई? या कोई मॉल ओ मता, जायदाद और शय ? इस्लामी या कुरानी शरा और कानून ज्यादा तर कबीलाई जेहालत के तहत हैं. इन्हें जदीद रौशनी की सख्त ज़रुरत है ताकि औरतें ज़ुल्म ओ सितम से नजात पा सकें. इनकी कुरानी जिल्लत का एक नमूना देखें - - -

थू थू करें

" तुम्हारी बीवियां तुम्हारी खेतियाँ हैं, सो अपनी खेतियों में जिस तरफ से होकर चाहो जाओ, और आइन्दा के लिए अपने लिए कुछ करते रहो और यकीन रक्खो कि तुम अल्लाह के सामने पेश होने वाले हो। और ऐसे ईमान वालों को खुश खबरी सुना दो"
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २२३)
तुम्हारी बीवियां तुम्हारी खेतियाँ हैं, सो अपनी खेतियों में जिस तरफ से होकर चाहो जाओ, अल्लाह बे शर्मी पर उतर आया है तो बात साफ़ करना पड़ रही है कि यायूदियों में ऐसा भरम था कि औरत को औंधा कर जिमा (सम्भोग) करने में तानासुल (लिंग) योनि के बजाय बहक जाता है और नतीजे में बच्चा भेंगा पैदा होता है. इस लिए सीधा लिटा कर जिमा करना चाहिए. मुहम्मद इस यहूदी अकीदत को खारिज करते हैं और अल्लाह के मार्फ़त यह जिंसी आयत नाज़िल करते हैं कि औरत का पूरा जिस्म मानिन्द खेत है जैसे चाहो जोतो बोवो. *मुसलमानों में अवाम से ले कर बडे बड़े मौलाना तक कसमें बहुत खाते हैं। खुद अल्लाह क़ुरआन में बिला वजे कसमे खाता दिखाई देता है, हो सकता है अरब में रिवाज हो कि बगैर क़सम के बात ही न पूरी होती हो। अल्लाह कहता है वह तुम को कभी नहीं पकडेगा तुम्हारी उस बेहूदा कसमों पर जो तुम रवा रवी में खा लेते हो मगर हाँ जिसे दिल से खा लेते हो, इस पर जवाब तलबी होगी (इसे इरादी कसमें भी कहा गया है) फिर भी फ़िक्र की बात नहीं, वह गफूर रुर रहीम है. इस सिलसिले में नीचे दोनों आयतें हैं-

आयत २२६ के मुताबिक औरत से चार माह तक जिंसी राबता न रखने की अगर क़सम खा लो और उसपर कायम रहो तो तलाक यक लख्त फैसल होगा और इस बीच अगर मन बदल जाए या जिंसी बे क़रारी में वस्ल की नोबत आ जाए तो अल्लाह इस क़सम की जवाब तलबी नहीं करेगा. ये आयत का मुसबत पहलू है.

(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २२६ )
" अल्लाह ताला वारिद गीर न फरमाएगा तुम्हारी बेहूदा कसमों पर लेकिन वारिद गीर फरमाएगा इस पर जिस में तुम्हारी दिलों ने इरादा किया था और अल्लाह ताला गफूरुर रहीम है"

(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत 225)

" जो लोग क़सम खा बैठे हैं अपनी बीवियों से, उन को चार महीने की मोहलत है, सो अगर ये लोग रुजू कर लें तब तो अल्लाह ताला मुआफ कर देंगे और अगर छोड़ ही देने का पक्का इरादा कर लिया है तो अल्लाह ताला जानने और सुनने वाले हैं।"
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २२७)

मुस्लिम समाज में औरतें हमेशा पामाल रही हैं आज भी ज़ुल्म का शिकार हैं. मुश्तरका माहोल के तुफैल में कहीं कहीं इनको राहत मिली हुई है जहाँ तालीम ने अपनी बरकत बख्शी है. देखिए तलाक़ के कुछ इस तरह गैर वाज़ह फ़रमाने मुहम्मदी - - -

''तलाक़ दी हुई औरतें रोक रखें अपने आप को तीन हैज़ तक और इन औरतों को यह बात हलाल नहीं कि अल्लाह ने इन के रहेम में जो पैदा किया हो उसे पोशीदा रखें और औरतों के शौहर उन्हें फिर लौटा लेने का हक रखते हैं, बशर्ते ये की ये इस्लाह का क़स्द रखते हों। और औरतों के भी हुकूक हैं जव कि मिस्ल उन ही के हुकूक के हैं जो उन औरतों पर है, काएदे के मुवाफिक और मर्दों का औरतों के मुकाबले कुछ दर्जा बढा हुवा है."
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २२८)
औरतों के हुकूक आयत में अल्लाह ने क्या दिया है ? अगर कुछ समझ में आए तो हमें भी समझाना - - -

" दो बार तलाक़ देने के बाद भी निकाह क़ायम रहता है मगर तीसरी बार तलाक़ देने के बाद तलाक़ मुकम्मल हो जाती है। और औरत से राबता कायम करना हराम हो जाता है, उस वक़्त तक कि औरत का किसी दूसरे मर्द से हलाला न हो जाए।"
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २२९-३०)
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हरामा
मुसलामानों में रायज रुस्वाए ज़माना नाजेब्गी हलाला जिसको दर असल हरामा कहना मुनासिब होगा, वह तलाक़ दी हुई अपनी बीवी को दोबारा अपनाने का एक शर्म नाक तरीका है जिस के तहेत मत्लूका को किसी दूसरे मर्द के साथ निकाह करना होगा और उसके साथ हम बिस्तारी की शर्त लागू होगी फिर वह तलाक़ देगा, बाद इद्दत ख़त्म औरत का तिबारा निकाह अपने पहले शौहर के साथ होगा, तब जा कर दोनों इस्लामी दागे बे गैरती को ढोते हुए तमाम जिंदगी गुज़ारेंगे। अक्सर ऐसा भी होता है कि टेम्प्रेरी शौहर औरत को तलाक़ ही नहीं देता और वह नई मुसीबत में फंस जाती है, उधर शौहर ठगा सा रह जाता है। ज़रा तसव्वुर करें कि मामूली सी बात का इतना बड़ा बतंगड़, दो जिंदगियां और उनके मासूम बच्चे ताउम्र रुसवाई का बोझ ढोते रहें. एक औरत मुहम्मद के पास आती है जिसका हलाला किसी दूसरे मर्द से होता है जो कि नामर्द होता है, इस बात का खुलासा करती है, उम्मी मुहम्मद कहते हैं कि तुझ को उसके साथ भरपुर जिंसी राबता तो कायम करना ही होगा कि यह कानून खुदा वंदी है. औरत सर पीट कर वापस चली जाती है कि कानून बनाने से पहले अल्लाह ने मर्द को नामर्द क्यूं बनाया?

मुहम्मदी अल्लाह तलाक़ शुदा और बेवाओं के लिए अधूरे और बे तुके फ़रमान जारी करता है. बच्चों को दूध पिलाने कि मुद्दत और शरायत पर भी देर तक एलान करता है जो कि गैर ज़रूरी लगते हैं. एक तवील ला हासिल गुफ्तुगू जो कुरआन में बार बार दोहराई गई है जिस को इल्म का खज़ाना रखने वाले आलिम अपनी तकरीर में हवाला देते हैं कि अल्लाह ने यह बात फलां फलां सूरतों की फलां फलां आयत में फरमाई है, दर असल वह उम्मी मुहम्मद कि बड़ बड़ है जो बार बार कुरआन का पेट भरने के लिए आती है, और आलिमों का पेट इन आयातों की जेहालत से भारती है.

(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २३१-२४२)

अल्लाह औरतों के जिंसी और अजदवाजी मसलों की डाल से फुधक कर अफ़साना निगारी की टहनी पर आ बैठता है बद ज़ायका एक किस्सा पढ़ कर, आप भी अपने मुंह का ज़ायका बिगादिए - - -

" तुझको उन लोगों का क़िस्सा तहकीक़ नहीं हुवा जो अपने घरों से निकल गए थे और वह लोग हजारो ही थे, मौत से बचने के लिए। सो अल्लाह ने उन के लिए फ़रमाया कि मर जाओ, फिर उन को जला दिया। बे शक अल्लाह ताला बड़े फज़ल करने वाले हैं लोगों पर मगर अक्सर लोग शुक्र नहीं करते।"।

(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २४३)

लीजिए अफ़साना तमाम .क्या फ़ज़ले इलाही? उस जालिम अल्लाह का यही ही जिस ने अपने बन्दों को बे यारो मददगार करके जला दिया ? ये मुहम्मद की ज़लिमाना फ़ितरत की लाशुऊरी अक्कासी ही है जिसको वह निहायत फूहड़ ढंड से बयान करते हैं.


मुसलमानों! खुदा के लिए जागो, वक्त की रफ़्तार के साथ खुद को जोडो, बहुत पीछे हुए जा रहे हो ,तुम ही न बचोगे तो इस्लाम का मतलब? यह इसलाम, यह इस्लामी अल्लाह, यह इस्लामी पयम्बर, सब एक बड़ी साजिश हैं, काश समझ सको. इसके धंधे बाज़ सब के सब तुम्हारा इस्तेसाल (शोषण) कर रहे है. ये जितने बड़े रुतबे वाले, इल्म वाले, शोहरत वाले, या दौलत वाले हैं, सब के सब कल्बे स्याह, बे ज़मीर, दरोग गो और सरापा झूट हैं. इसलाम तस्लीम शुदा गुलामी है, इस से नजात हासिल करने की हिम्मत जुटाओ, ईमान जीने की आज़ादी है, इसे समझो और मुस्लिम नहीं, मोमिम बनो।

निसार निसार-उल-ईमान

क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्क्ष्

हमारे गवाह - - -

Qur'an 2:217 "They question you concerning fighting in the sacred month. Say: 'Fighting therein is a great/grave (matter); but to prevent access to Allah, to deny Him, to prevent access to the Sacred Mosque, to expel its members, and polytheism are worse than slaughter. Nor will they cease fighting you until they make you renegades from your religion. If any of you turn back and die in unbelief, your works will be lost and you will go to Hell. Surely those who believe and leave their homes to fight in Allah's Cause have the hope of Allah's Mercy." The Islamic god must be very small if access to him can be prevented by men. But that wasn't the purpose of this passage. Muhammad wanted the Ansar Helpers or Hypocrites to know it would get nasty if they didn't join the party. He wanted fighters, not pacifists. What's more, the last line suggests something that will be made abundantly clear in later surahs: "Fight in my cause and paradise will be yours."
Muhammad had to be certain the Ansar knew that his party was not fun and games, so he had his "god" say: Qur'an 2:219 "They ask you about wine and gambling. Say: 'In them is great sin, and some profit, for men; but the sin is greater than the profit.'" But if you are willing to "gamble" your soul on Muhammad's scheme, you'll find rivers flowing with "wine."
After polishing his war manifesto and get rich scheme, Muhammad turned his attention to his next favorite subject - women. Qur'anic Laws were dictated that placed women in submissive roles to men just as men had been placed in submission to Muhammad. To enforce his laws, he said: "Big Brother is watching. You'll be punished if you don't obey me."
The dark spirit returned to the main theme of the surah: "Fight because our enemies have mocked us and we hate them." The infidels were called a series of childish names. Then Muhammad convoluted Bible stories to make his crusade appear religious. These twisted portrayals continued through verse 257. A delusional trip down Jewish memory lane followed. Muhammad's twisted story of Abraham was as different from the original account as it was vulgar and insulting. Next, Allah attempted rational religious thought. His stories were moral and Biblically inspired. But sadly, even the more rational passages focused on taxes, of which Muhammad was beneficiary. This led to a rant on interest and a discussion of business contracts starting in verse 275. The motivation: Muslims borrowed money from the Jews to survive. These sections were short on spirituality and long on pent-up rage.
Qur'an 2:244 "Fight in Allah's Cause, and know that Allah hears and knows all." 002:245 "Who is he that will loan Allah a beautiful loan, which Allah will double to his credit and multiply many times?" Allah's boy was broke and was begging for money.
All Muhammad had to do to justify his new behavior was bastardize Hebrew scripture. Qur'an 2:246 "Have you not considered the chiefs of the Jews after Moses? They said to a prophet of theirs: Raise up for us a king, (that) we may fight in Allah's Cause. He said: 'Would you refrain from fighting if fighting were prescribed for you?' They said: 'How could we refuse to fight in Allah's Cause, seeing that we were turned out of our homes?' But when they were commanded to fight, they turned back, except a small band." According to Allah, peace is wrong.
Some of the most incriminating Qur'anic errors are those in which Muhammad transparently projects his words and situation into the mouths and times of Jewish leaders. The Islamic scriptures have a complete disregard for time. Saul wasn't a contemporary of Moses. Therefore, in the context of history, this conversation was impossible. As such, it means either that Allah was a nincompoop or that Muhammad was an incompetent prophet, or both. Qur'an 2:247 "Their Prophet said: 'Allah has appointed Talut [Saul] as king over you.' They said: 'How can he exercise authority over us when we are better fitted than he, and he is not gifted with wealth?' He said: 'Allah has chosen him above you in preference to you, and has gifted him with knowledge, physique, and stature: Allah grants His authority to whom He pleases.'"
Qur'an 2:256 "There is no compulsion in religion." That would be tolerant if Allah didn't abrogate the verse by proclaiming: Qur'an 4:90 "If they turn back from Islam, becoming renegades, seize them and kill them wherever you find them."
The second surah ends with Allah's lap dog telling his people what his master wanted to hear: Qur'an 2:285 "The Messenger believes in what has been sent down to him, (as do) the believers. Each believes in Allah, His Angels, His Books, and His Messengers. 'We make no distinction between His Messengers.' And they say: 'We hear and obey.'" The only reason such foolishness survived was the Islamic code: "We hear and obey." Muslims don't think; they obey. They don't believe, they surrender.
Muslims, like Germans, were deceived by an anti-Semitic charlatan: Bukhari:V7B71N662 "Allah's Apostle said, 'Eloquent speech is as effective as magic.'" Bukhari:V9B87N127 "The Prophet said, 'I have been given eloquent speech and have been awarded victory by terror so the treasures of the earth are mine.'"
The former wannabe prophet, turned pedophile pirate, was a racist tyrant: Bukhari:V9B89N256 "Allah's Apostle said, 'You should listen to and obey your ruler even if he is a black African slave whose head looks like a raisin.'" He required obedience, not faith: Bukhari:V9B89N258 "The Prophet said, 'A Muslim has to listen to and obey the order of his ruler whether he likes it or not.'" Hitler and Muhammad were cut from the same cloth. Hitler was stopped, Mein Kampf was exposed, and Nazism was eradicated, as they could not coexist with a civilized world. Haven't Muhammad, the Qur'an, and Islam earned the same fate?


Prophet of Doom

4 comments:

  1. Eye opening blog.
    I express my sincerest thank for spreading the knowledge.
    Kudos!
    Keep writing. I'll be regular visitor now onwards.
    Thanks.

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  2. बेजा बात किसी के हक़ में, वाजिब बात किसी के हक़ में।
    मगर आपने जो बात कही, साबित कही इंसानियत के हक़ में। बिल्कुल दुरुस्त और क़ाबिले-ग़ौर। हम साथ हैं आपके।

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  3. आपकी प्रत्येक पोस्ट लाजवाब और आँख खोलने वाली होती है.

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  4. bakwas
    quraan ki ayat ko bahot galat tarike se pesh kiya gaya hai
    aese to kisi ki bhi baat ko kuch bhi bana ke pesh kar do

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