Thursday 19 November 2009

क़ुरआन - - - सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा

पहली किस्त


एक हदीस मुलहिज़ा फरमाएँ - - -
इस्लाम के दूसरे सूत्राधार अली मौला से रवायत है कि ''मुझे एक ऊंटनी बद्र के जंगी माले-गनीमत(लूट)में मुझे मिली और एक रसूल ने तोह्फतन दी. इन दोनों को एक अंसार के सेहन में बाँध कर मैं सोंच रहा था कि इन पर अज़ख़ुर घास लाद कर लाया करूंगा और बेचूगा, इस तरह कुछ पैसा जमा कर के फातमा का वलीमा करूंगा जो कि अभी तक मुझ पर उधार था. इसी घर में हम्ज़ा बिन अब्दुल मतलब मुहम्मद के चचा शराब पी रहे थे, साथ में एक लौंडी ग़ज़ल गा रही थी जो कुछ इस तरह थी - - -


चल ऐ हम्ज़ा इन मोटे ऊंटों पे जा,
बंधे हैं सेहन में जो सब एक जा,
चला इनकी गर्दन पे जल्दी छुरा,
मिला इनको तू खून में और लुटा,
बना इनके टुकड़ों से उम्दा जो हों,
गज़क गोश्त का हो पका और भुना।


उसकी ग़ज़ल सुन कर हम्ज़ा ने तलवार उठाई और ऊटों की कोखें फाड़ दीं. अली यह मंज़र देख कर मुहम्मद के पास भागे हुए गए और जाकर शिकायत की, जहाँ ज़ैद बिन हार्सा भी मौजूद थे. तीनों अफराद जब हम्ज़ा के पास पहुंचे तो वह नशे में धुत्त था. उन सभों को देख कर गुस्से के आलम में लाल पीला हो रहा हो गया, बोला, '' तुम लोग हो क्या? मेरे बाप दादों के गुलाम हो.'' यह सुन कर मुहम्मद उलटे पाँव वापस हो गए''
(देखें हदीस ''मुस्लिम - - - किताबुल अशर्बता'' + बुखारी १५७)
यह मुहम्मद का बहुत निजी मामला था, एक तरफ दामाद, दूसरी तरफ खुदा खुदा करके उवा, मुसलमान बहादुर चचा हम्ज़ा ? होशियार अल्लाह के खुद मुख़्तार रसूल को एक रास्ता सूझा, दूसरे दिन ही अल्लाह की क़ुरआनी आयत नाज़िल करा दी कि शराब हराम हुई. मदीने में मनादी करा दी गई कि अल्लाह ने शराब को हराम क़रार दे दिया है. जाम ओ पैमाना तोड़ दिए गए, मटका और खुम पलट दिए गए, शराबियों के लिए कोड़ों की सजाएं मुक़रर्र हुईं. कल तक जो शराब लोगों की महबूब मशरूब थी, उस से वह महरूम कर दिए गए. यकीनन खुद मुहम्मद ने मयनोशी उसी दिन छोड़ी होगी क्यूं कि कई क़ुरआनी आयतें शराबियों की सी इल्लत की बू रखती हैं. लोगों की तिजारत पर गाज गिरी होगी, मुहम्मद की बला से, उनका तो कौल थाकि सब से बेहतर तिजारत है जेहाद जिसमे लूट के माल से रातो रात माला माल हो जाओ. गौर करें की मुहम्मद ने अपने दामाद अली के लिए लोगों को शराब जैसी नेमत से महरूम कर दिया.
शराब ज़ेहन इंसानी के लिए नेमत ही नहीं दवा भी है, दवा को दवा की तरह लिया जाए न के अघोरियों की तरह. शराब जिस्म के तमाम आज़ा को संतुलित रखती है आज की साइंसी खोज में इसका बड़ा योगदान है. यह ज़ेहन के दरीचों को खोलती है जिसमे नए नए आयाम की आमद होती है. इसकी लम्स कुदरत की अन छुई परतें खोलती हैं. शराब इंसान को मंजिल पाने के लिए मुसलसल अंगड़ाइयां अता करती है. आलमे इस्लाम की बद नसीबी है कि शराब की बे बरकती ने इसे कुंद जेहन, कौदम, और गाऊदी बना दिया है. इस्लाम तस्लीम करने के बाद कोई मुस्लिम बन्दा ऐसा नहीं हुवा जिस ने कि कोई नव ईजाद की हो.
हमारे मुस्लिम समाज का असर हिन्दू समाज पर अच्छा खासा पड़ा है. इस समाज ने मुस्लिम समाज के रस्मो-रिवाज, खान पान, लिबासों, पोशाक, और तौर तरीकों को अपनाया और ऐसा नहीं की सिर्फ हिन्दुओं ने ही अपनाया हो, मुसलामानों ने भी अपनाया। यूं कहें कि इस्लाम कुबूल करने के बाद भी अपने रस्मो रिवाज पर कायम रहे. मसलन दुल्हन का सुर्ख लिबास हो या जात बिरादरी. मगर सोमरस जो कि ऋग वेद मन्त्र का पवित्र उपहार है, हिदू समाज में हराम कैसे हो गया, मोदी का गुजरात इसे क्यूं क़ुबूल किए हुए है? गांधी बाबा इसके खिलाफ क्यूं सनके? यह तो वाकई आबे हयात है. किसी के लिए मीठा और चिकना हराम है तो किसी के लिए नमक और मिर्च. ज्यादा खाना नुकसान देह हो तो हराम हो जाता है और गरीब को कम खाना तो मजबूरी में हराम होता ही है. यह हराम हलाल का कन्सेप्ट ही इस्लामी बेवकूफियों में से एक है. हराम गिज़ा वह होती है जो मुफ्त और बगैर मशक्क़त की हो, दूसरों का हक हो लूट पाट की हो. मुसलमानों! माले गनीमत बद तरीन हराम गिज़ा है.
आइए तीसरे पारे आले इमरान की बखिया उधेडी जाए - - -


"अलम"
"सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयत (1)


यह लफ्ज़ मोहमिल (यानी अर्थ शून्य) है जिसका मतलब अल्लाह ही जनता है. ऐसे हर्फों या लफ्ज़ों को कुरानी मंतिक़यों ने हुरूफे मुक़त्तेआत का नाम दिया है. यह सूरत के पहले आते हैं. यहाँ पर यह एक आयत यानी कोई बात, कोई पैगाम की हैसियत भी रखता है. इस अर्थ हीन शब्द के आगे + गल्लम लगा कर किसी अक्ल मंद ने इसे अल्लम गल्लम कर दिया, गोया इस का पूरा पूरा हक अदा कर दिया, अल्लम गल्लम. क़ुरआन का बेहतरीन नाम अल्लम गल्लम हो सकता है.
" अल्लाह तआला ऐसे हैं कि उन के सिवा कोई काबिल माबूद बनाने के नहीं और वह ज़िन्दा ओ जावेद है.
"सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयत (२)
यहाँ पर मैं फिर आप को एक बार याद दिला दूँ कि कुरआन कलाम अल्लाह नहीं कलाम मुहम्मद है, जैसा कि वह अल्लाह के बारे में बतला रहे हैं, साथ साथ उसकी मुशतहरी भी कर रहे हैं. इस आयत में बेवकूफी कि इत्तेला है. अल्लाह अगर है तो क्या मुर्दा होगा ? मुस्लमान तो मुर्दा खुदाओं का दामन थाम कर भी अपनी नय्या पार लगा लेता है. यह अल्लाह के ज़िन्दा होने और सब कुछ संभालने की बात मुहम्मद ने पहले भी कही है आगे भी इसे बार बार दोहराते रहेंगे.
" सब कुछ संभालने वाले हैं. अल्लाह ने आप के पास जो कुरआन भेजा है वाकेअय्यत के साथ इस कैफ़ियत से कि वह तस्दीक करता है उन किताबों को जो इस से पहले आ चुकी हैं और इसी तरह भेजा था तौरेत और इंजील को."
सूरह आले सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयत (3)
मुसलमानों के साथ कैसा अजीब मज़ाक है कि उनका अल्लाह अपनी तमाम कार गुज़रियाँ खुद गिनवा रहा है वह भी उनका झूठा गवाह बन कर, उन का मुंसिफ बन कर। अफ़सोस का मुक़ाम ये है कि मुस्लमान ऐसे अल्लाह पर यक़ीन करता है। जब तक उसका यक़ीन पुख्ता है तब तक उसका ज़वाल भी यकीनी है. खुदा न करे वह दिन भी आ सकता है कि कहा जाय एक क़ौमे जेहालत उम्मते मुहम्मदी हुवा करती थी. तौरेत, इंजील, ज़ुबूर जैसी सैकडों तारीखी किताबें अपने वाजूदों को तस्लीम और तसदीक़ कराए हुए है, इन के सामने कुरआन हक़ीक़त में अल्लम गल्लम से ज्यादा कुछ भी नहीं. कुरआन का उम्मी मुसन्निफ़ सनद दे तौरेत, इंजील को तो तौरेत, इंजील की तौहीन है. कुरआन के मुताबिक मूसा पर आसमानी किताब तौरेत और ईसा पर आसमानी किताब इंजील नाज़िल हुई थी मगर इन दोनों की उम्मातें के पास इनकी मुस्तनद तारीख़ है. मूसा ने तौरेत लिखना शुरू किया जिसको कि बाद के नबी मुसलसल बढाते गए जो बिल आखीर ओल्ड टेस्टामेंट की शक्ल में महफूज़ हुई जोकि यहूदियों और ईसाइयों की तस्लीम शुदा बुनियादी किताब है. ईसा के बाद इस के हवारियों ने जो कुछ इस के हालात लिखे या लिखवाए वह इंजील है. दाऊद ने जो गीत रचे वह ज़ुबूर है. सुलेमान और छोटे छोटे नबियों ने जो हम्दो सना की वह सहीफ़े हैं. यह सब किताबें आलमी स्कूलों, कालेजों, लाइबब्रेरिज में दस्तयाब हैं और रोज़े रौशन की तरह अयाँ हैं. बहुत तफसील के साथ सब कुछ देखा जा सकता है. ये किताबें मुक़द्दस ज़रूर मानी जाती हैं मगर आसमानी नहीं, सब ज़मीनी हैं, कुरआन इन्हें ज़बरदस्ती आसमानी बनाए हुए है, इन्हें अपने रंग में रंगने के लिए. इनकी मौजूदत को कुरानी अल्लाह (इस्लामी सियासत के तहत) नकली कहता है. इस की सजा मुसलामानों को चौदह सौ सालों से सिर्फ मुहम्मद की खुद सरी, खुद पसंदी और खुद बीनी की वज़ह से चुकानी पड़ रही है। बात अरब दुन्या की थी, समेट लिया पूरे एशिया अफ्रीका और आधे योरोप को. हम फ़िलहाल अपने उप महा द्वीप की बात करते हैं कि ये आग हम को एकदम पराई लग रही है जिसमे यह मज़हबी रहनुमा हम को धकेल रहे हैं
" जो लोग मुनकिर हैं अल्लाह ताला के आयतों के इन के लिए सजाए सख्त है और अल्लाह ताला गल्बा वाले हैं, बदला लेने वाले हैं.''
"सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयत (4)

मुनकिर के लफ्जी माने तो होते हैं इंकार करने वाला, इन्सान या तो किसी बात का मुनकिर होता है या इक्रारी मगर लफ्ज़ मुनकिर का इस्लामी करण होने के बाद इसके मतलब बदल कर इसलाम कुबूल कर के फिर जाना वाला मुनकिर हो जाना है, ऐसे लोगों की सज़ा मोहसिन इंसानियत, सरवरे कायनात, मालिके क़ौनैन, हज़रात मुहम्मद मुस्तफ़ा, रसूल अकरम, सल्लललाहो अलैहे वालेही वसल्लम ने मौत फरमाई है. जो ताक़त कायनात पर ग़ालिब होगी, क्या वजह है कि वह हमारे हाँ न पर, हमारी मर्ज़ी पर, हमारे अख्तियार पर क्यों न गालिब हो, उसको मोहतसिब और मुन्तक़िम होने की ज़रुरत ही क्यूँ पड़ी. ये क़ुरआन के उम्मी खलिक़ का बातिल पैगाम है, खलिक़े हक़ीक़ी का नहीं हो सकता. मुसलमानों होश में आओ. कुरआन के बातिल एजेंट अपना कारोबार चला रहे हैं और कुछ भी नहीं. इन का कई बार सर क़लम किया गया है मगर ये सख्त जन फिर पनप आते हैं।
इसी तरह अरबों के मुश्तरका बुज़ुर्ब अब्राहम जो अरब इतिहासकारों के लिए पहला मील का पत्थर है, जिस से इंसानी समाज की तारीख़ शुरू होती है और जो फ़ादर अब्राहम कहे जाते है उनको भी मुहम्मद ने मुस्लमान बना लिया और उनका दीन इसलाम बतलाया। खुद पैदा हुए उनके हजारों साल बाद और अपने बाप को भी काफ़िर और जहन्नमी कहा मगर इब्राहीम अलैहिस्सलाम को जन्नती मुसलमान. काश मुसलमानों को कोई समझाए कि हिम्मत के साथ सोचें कि वह कहाँ हैं? एक लम्हे में ईमान दारी पर ईमान ला सकते है. मुस्लिम से मोमिन बन सकते हैं.
" जिसने नाज़िल किया किताब को जिस का एक हिस्सा वह आयतें हैं जो कि इश्तेबाह मुराद से महफूज़ हैं और यही आयतें असली मदार हैं किताब का. दूसरी आयतें ऐसी हैं जो कि मुश्तबाहुल मुराद हैं, सो जिन लोगों के दिलों में कजी है वह इन हिस्सों के पीछे हो लेते हैं. जो मुश्तबाहुल मुराद हैं, सो सोरिश ढूढने की ग़रज़ से. हालांकि इस का सही मतलब बजुज़ अल्लाह ताला के कोई नहीं जनता."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयत (6+7)

मुहम्मदी अल्लाह अपनी कुरानी आयातों की खामियों की जानकारी देता है कि इन में कुछ साफ़ साफ़ हैं और यही क़ुरआन की धुरी हैं और कुछ मशकूक हैं जिनको शर पसंद पकड़ लेते हैं. इस बात की वज़ाहत आलिमान क़ुरआन यूँ करते हैं कि क़ुरआन में तीन तरह की आयतें हैं---
१- अदना (जो साफ़ साफ़ मानी रखती हैं)
२- औसत (जो अधूरा मतलब रखती हैं)
३- तवास्सुत ( जो पढने वाले की समझ में न आए और जिसको अल्लाह ही बेहतर समझे।)
सवाल उठता है कि एक तरफ़ दावा है हिकमत और हिदायते नेक से भरी हुई क़ुरआन अल्लाह की अजीमुश्शान किताब है और दूसरी तरफ़ तवस्सुत और औसत की मजबूरी ? अल्लाह की मुज़बज़ब बातें, एहकामे इलाही में तजाद, हुरूफ़े मुक़त्तेआत का इस्तेमाल जो किसी मदारी के छू मंतर की तरह लगते हैं। दर अस्ल कुरआन कुछ भी नहीं, मुहम्मद के वजदानी कैफ़ियत में बके गए बड का एह मज्मूआ है। इन में ही बाज़ बातें ताजाऊज़ करके बे मानी हो गईं तो उनको मुश्तबाहुल मुराद कह कर अल्लाह के सर हांडी फोड़ दिया है। वाज़ह हो कि जो चीजें नाज़िल होती हैं वह बला होती हैं. अल्लाह की आयतें हमेशा नाज़िल हुई हैं. कभी प्यार के साथ बन्दों के लिए पेश नहीं हुईं. कोई कुरानी आयत इंसानी ज़िन्दगी का कोई नया पहलू नहीं छूती, कायनात के किसी राज़ हाय का इन्क्शाफ़ नहीं करती, जो कुछ इस सिलसिले में बतलाती है दुन्या के सामने मजाक बन कर रह जाता है. बे सर पैर की बातें पूरे कुरआन में भरी पड़ी हैं, बसकी कुरआन की तारीफ, तारीफ किस बात की तारीफ उस बात का पता नहीं. इस की पैरवी मुल्ला, मौलवी, ओलिमाए दीन करते हैं जिन की नक़ल मुस्लमान भी करता है. आम मुस्लमान नहीं जनता की कुरआन में क्या है खास जो कुछ जानते हैं वह सोचते है भाड़ में जाएँ हम बचे रहें इन से यही काफी है।

यह आयत बहुत खास इस लिए है कि ओलिमा नामुराद अक्सर लोगों को बहकते हैं कि क़ुरआन को समझना बहुत मुश्किल है.


निसार 'निसार-उल-ईमान'


OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO
मुस्लिम क़ौम देखे कि आलमी बिरादरी क़ुरआन के बारे में क्या कहती है - - -


Koran Quran 3
"The Family of Imran ''


According to the Hadith, the 3rd surah was the lone revelation handed down during the third year of the Islamic Era. At half the length of the 2nd surah, it is still too long and convoluted to review in its entirety here. It begins by listing some Arabic letters. The Noble Qur'an explains: Qur'an 3:1 "Alif-Lam-Mim. (These letters are one of the miracles of the Qur'an but only Allah knows their meaning.) How's that for desperate? If you can't perform a miracle and can't compose intelligent scripture, claim that the incomprehensiblity itself is a miracle.
Along that same line, Allah declares the impossible: Qur'an 3:3 "He has verily revealed to you this Book, in truth and confirmation of the Books revealed before, as indeed He had revealed the Taurat (Torah) and the Injeel (Gospel)." Although we have covered this before, it bears repeating. The Dead Sea Scrolls and the Septuagint prove that the words of the Torah, Psalms, and Prophets did not change during the thousand years preceding Islam - or in the fourteen hundred years since. And twenty-five thousand New Testament fragments and scrolls dating to more than five hundred years before the earliest surviving Qur'an testify that the Gospels remain unaltered. Allah's claim that his Qur'an confirms books that differ in every way and on every page is ludicrous to the point of lunacy. Further, the magnitude of the supposed conspiracy to write Yahweh, Jews, Judaism, Israel, Jerusalem, the Temple, the Messiah, love, relationship, and peace into the Scriptures - and Allah, Arabs, Islam, Arabia, Mecca, the Ka'aba, Muhammad, hate, punishment, and war out - is beyond comprehension. The odds are beyond impossible. Islam is therefore based upon a false proclamation, a false god, and a false prophet.
Moving on, Allah confirms that he is still demented and dimwitted. Qur'an 3:4 "As a guidance to mankind, He sent down the criterion (to judge between right and wrong). Truly, for those who deny the proofs, signs, and lessons of Allah, the torture will be severe; Allah is powerful, the Lord of Retribution." While there have been no signs or proofs, there has been a lesson. Islam has redefined right and wrong. Its tortured and vindictive spirit has spit upon the Ten Commandments. And, as always, that which Muhammad protests, he is guilty of: no miraculous signs, no proof, no actual scripture, no morality, and no Biblical confirmations.
The seventh verse says the unclear parts of the Qur'an are for the perverse. The verse warns us not interpret the Qur'an. We're not to look for hidden meanings because searching will bring discord. Then, contradicting the concept of a "revelation," Allah says that he alone knows the meaning. To add insult to injury, we're told that good Muslims believe it all, even the parts written for the perverse. Then to rub salt into the wound, the passage squelches honest inquiry by saying that anyone who doesn't grasp it all lacks understanding.
Qur'an 3:7 "He it is Who has sent down to you the Book. In it are entirely clear verses, decisive, or fundamental (with established meaning); they are the foundation of the Book: others are unclear or allegorical. As for those who are perverse, they follow the part that is not entirely clear, trying (to cause) dissension by seeking to explain it and searching for hidden meanings. But no one knows its explanation or meaning except Allah. And those who are firmly grounded in knowledge say: 'We believe in the Book; the whole of it (clear and unclear) is from our Lord.' None will grasp the Message except men of understanding."
Prophet of Doom

4 comments:

  1. बहुत ही तरीके से चीजों को तौलते हुये रख रहे हैं...यकीन मानिये एक ही सांस में पूरा पढ़ जाता हूं

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  2. मुझे समझ नहीं आता कि एक ऐसी किताब जो दुनिया की एक चौथाई आबादी के लिए पत्थर की लकीर है वह इतनी बेतरतीब और विरोधाभासों से भरी हुई कैसे है. क्या इसको मानने वालों में एक भी ऐसा नहीं जो इसकी सही व्याख्या कर सके? आप एक अच्छा काम कर रहे हैं लोगों की आँखों पर पड़े हुए परदे को हटाने के लिए.

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  3. bhai aapka mobile no. nahin hai apka address bhi nahin hai.
    Agar aap sab kuch sahi likh rahe hain to chupe huye kyo hain apni pehchan zahir kariye taaki sab aapke baare main jaane

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  4. aur jo kuch bhi aap likh rahe hain ye ek sirfire kee baat se zyada nahin hai

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