Tuesday, 29 December 2009

क़ुरआन - सूरह अनआम -6

सूरह अनआम ६-


(6 The Cattle)



पुर अम्न बस्ती, सुब्ह तडके का वक़्त, लोग अध् जगे, किसी नागहानी से बेखबर, खैबर वासियों के कानों में शोर व् गुल की आवाज़ आई तो उन्हें कुछ देर के लिए ख़्वाब सा लगा मगर नहीं यह तो हक़ीक़त थी. आवाज़ ए तकब्बुर एक बार नहीं, दो बार नहीं तीन बार आई '' खैबर बर्बाद हुवा ! क्यूं कि हम जब किसी कौम पर नाज़िल होते हैं तो इन की बर्बादी का सामान होता है'' यह आवाज़ किसी और की नहीं, सललल्लाहो अलैहे वसल्लम कहे जाने वाले मुहम्मद की थी नवजवान मुकाबिला को तैयार होते, इस से पहले मौत के घाट उतर दिए गए। बेबस औरतें लौडियाँ बना ली गईं और बच्चे गुलाम कर लिए गए. बस्ती का सारा तन और धन इस्लाम का माले गनीमत बनचुका था।

एक जेहादी लुटेरा वहीय क़ल्बी जो एक परी ज़ाद को देख कर फ़िदा हो जाता है, मुहम्मद के पास आता है और एक अदद बंदिनी की ख्वाहिश का इज़हार करता है जो उसे मुहम्मद अता कर देते हैं. वहीय के बाद एक दूसरा जेहादी दौड़ा दौड़ा आता है और इत्तेला देता है या रसूल अल्लाह सफ़िया बिन्त हई तो आप की मलिका बन्ने के लायक हसीन जमील है, वह बनी क़रीज़ा और बनी नसीर दोनों की सरदार थी. मुहम्मद के मुंह में पानी आ जाता है, क़ल्बी को बुलाया और कहा तू कोई और लौंडी चुन ले. मुहम्मद की एक पुरानी मंजूरे नज़र उम्मे सलीम ने सफ़िया को दुल्हन बनाया मुहम्मद दूलह बने और दोनों का निकाह हुवा।

लुटे घर, फुंकी बस्ती में, बाप भाई और शौहर की लाशों पर सललल्लाहो अलैहे वसल्लम ने सुहाग रात मनाई. मुसलमान अपनी बेटियों के नाम मुहम्मद की बीवियों, लौंडियों और रखैलों के नाम पर रखते हैं, यह सुवर ज़ाद ओलिमा के उलटे पाठ की पढाई की करामत है। कुरआन में ''या बनी इसराइल'' के नाम से यहूदियों को मुहम्मदी अल्लाह मुखातिब करता है. अरब में बज़ोर तलवार बहुत सारे यहूदी मुसलमान हो गए हैं, उनकी ही कुछ शाखें हिंदुस्तान में है जो खुद को बनी इसराइल कहते हैं मगर मुहम्मद के फरेब में इतने मुब्तिला हैं कि उनकी तलवार लेकर मरनेमारने पर आमादः रहते हैं।

(बुखारी २३७)

अब आइए कुरआन की ख़ुराफ़ात पर- - -
''तो आप को अगर ये कुदरत है कि ज़मीन में कोई सुरंग या आसमान में कोई सीढ़ी दूंढ़ लो फिर कोई मुअज्ज़ा लेकर आओ. अगर अल्लाह को मंज़ूर होता तो इन सब को राहे रास्त पर जमा कर देता, सो आप नादानों में मत हो जाएं.''
सूरह अनआम-६_७वाँ पारा (आयत३५)
मुहम्मद की इस जेहनी कारीगरी को क्या आम आदमी समझ नहीं सकता मगर मुसलमान आँख बंद किए, सर झुकाए इन सौदागरी बातों को समझ नहीं पा रहा है. इन बे सिर पैर की बातों का मज़ाक डेढ़ हज़ार साल पहले बन चुका था, अफ़सोस कि आज इबादत बना हुवा है.
ज़हीन काफिर दीगर नबियों जैसा मुअज्ज़ा दिखने की फरमाइश जब मुहम्मद से करते हैं तो मुहम्मदी अल्लाह कहता है- - -
''अगर आप को इन काफिरों की रू गर्दानी गराँ गुज़रती है तो, फिर अगर आप को कुदरत है तो ज़मीन में कोई सुरंग या आसमान में कोई सीढ़ी दूंढ़ लो''
सूरह अनआम-६_७ वाँ पारा (आयत३७)
लीजिए अल्लाह अपने दुलारे रसूल से भी रूठ रहा है क्यूं कि वह ग़म ज़दः हो रहे हैं और धीरज नहीं रख पा रहे हैं, अल्लाह पहले बन्दों को ताने देकर बातें सुनाता है फिर मुहम्मद को. ये आलमे ख्वाहिशे पैगम्बरी में मुहम्मद की जेहनी कैफियत है जिसमे मक्र की बू आती है.
''और जितने किस्म के जानदार ज़मीन पर चलने वाले हैं और जितने किस्म के परिंदे हैं कि अपने दोनों बाजुओं से उड़ते हैं, इसमें कोई किस्म ऐसी नहीं जो तुम्हारी तरह के गिरोह न हों. हमने दफ्तर में कोई चीज़ नहीं छोड़ी फिर सब अपने परवर दिगार के पास जमा किए जाएंगे''
सूरह अनआम-६_७वाँ पारा (आयत३८)
इन अर्थ और तर्क हीन बातों में मुल्लाओं ने खूब खूब अर्थ और तर्क पिरोया है. ज़रुरत है कि इसे नई तालीम की रौशनी में लाकर इनका पर्दा फाश किया जाए.
''अल्लाह जिसको चाहे बेराह कर दे - - -''
सूरह अनआम-६_७वाँ पारा (आयत३९ )
अल्लाह शैतान का बड़ा भाई जो ठहरा.
मुहम्मदी शैतान जो मुसलामानों को सदियों से गुमराह किए हुए 'है.
''मुहम्मद लोगों से पूछते हैं कि अगर कोई मुसीबत आन पड़े या क़यामत ही आ जाए तो अल्लाह के सिवा किसको पुकारोगे? जिससे लगता है कि उस वक़्त के लोग ईश शक्ति की बुनयादी ताक़त को न मान कर उसकी अलामतों को ही शक्ति मानते रहे होंगे.आज का आम मुसलमान भी यही समझता है, जब कि ख्वाजा अजमेरी को खुद अल्लाह कि मार्फ़त मानता है मगर अल्लाह नहीं. कुफ्र की दुश्मनी का ऐनक लगा कर ही हर मुआमले को देखता है.''
सूरह अनआम-६_७वाँ पारा (आयत४१)
''हमने और उम्मतों की तरफ भी जोकि आपसे पहले हो चुकी हैं पैगम्बर भेजे थे, सो हमने उनको तंग दस्ती और बीमारी में पकड़ा था ताकि वह ढीले पड़ जाएं''
''सो जब उन को हमारी सजाएं पहुची थीं तो वह ढीले क्यूं न पड़े? लेकिन उनके क्लूब (ह्रदय) तो सख्त ही रहे. और शैतान उनके आमाल को उनके ख़याल में आरास्ता करके दिखलाता है''
सूरह अनआम-६_७वाँ पारा (आयत४२-४३)
मुहम्मदी अल्लाह बड़ी बेशर्मी के साथ अपनी बद आमालियों के कारनामें बयान करते हुए मुहम्मद की पैगम्बरी में मदद गार हो रहा है. अपने मुकाबले में शैतान को खड़ा करके नूरा कुश्ती का खेल खेल रहा है, बालावस्था में पड़ा मुस्लिम समाज मुंह में उंगली दबाए अपने अल्लाह की करामातें देख रहा है.
''फिर जब वह लोग इन चीज़ों को भूले रहे जिनकी इनको नसीहत की जाती थी तो हमने इन पर हर चीज़ के दरवाज़े कुशादा कर दिए, यहाँ तक कि जब उन चीज़ों पर जो उनको मिली थीं, वह खूब इतरा गए तो हमने उनको अचानक पकड़ लिया, फिर तो वह हैरत ज़दः रह गए, फिर ज़ालिम लोगों की जड़ कट गई''
सूरह अनआम-६_७वाँ पारा (aayat 44-45)

मुहम्मद एलान नबूवत के बाद अपनी फटीचर टुकड़ी को समझा रहे हैं कि उनके अल्लाह की ही देन है यह काफिरों की खुश हाली जो आरजी है। काश कि वह मेहनत और मशक्क़त का पैगाम देते जिस में कौमों की तरक्क़ी रूपोश है. इस्लाम का पैग़ाम तो क़त्ल ओ ग़ारत गरी और लूट पाट है


निसार ''निसार-उल-ईमान''




Tuesday, 15 December 2009

क़ुरआन - सूरह अनआम - ६


सूरह अनआम ६-
(6 The Cattle)


C



''यहाँ तक कि जब यह लोग आप के पास आते हैं तो आप से ख्वाह मख्वाह झ्गढ़ते हैं। यह लोग जो काफ़िर हैं वोह यूं कहते हैं यह तो कुछ भी नहीं सिर्फ बे सनद बातें हैं जो कि पहले से चली आ रही हैं और यह लोग इस से औरों को भी रोकते हैं और खुद भी इस से दूर रहते हैं और यह लोग अपने को ही तबाह करते है और कुछ खबर नहीं रखते.''
''सूरह अनआम -६-७वाँ पारा आयत (२६)
सोचने की बात यह है कि डेढ़ हज़ार साल उस वक़्त के लोग आज के कुंद ज़हनों से ज़्यादः समझदार थे. मूसा और ईसा के प्रचलित किस्से दौर जहालत अंध विशवास के रूप में रायज थे जिसको चंट मुहम्मद ने रसूले-खुदा बन के सच साबित किया मगर बहर हाल झूट का अंजाम बुरा होता है जो आज दुन्या की एक बड़ी आबादी भुगत रही है.
'' और अगर आप देखें जब ये दोज़ख के पास खड़े किए जाएँगे तो कहेंगे है कितनी अच्छी बात होती कि हम वापस भेज दिए जाएं और हम अपने रब की बातों को झूटा न बतलाएं और हम ईमान वालों में हो जाएं''
''सूरह अनआम -६-७वाँ पारा आयत (२7)
आगे ऐसी ही बचकानी बातें मुहम्मद करते हैं कि लोग इस पर यकीन कर के इस्लाम कुबूल करें. ऐसी बचकाना बातों पर जब तलवार की धारों से सैक़ल किया गया तो यह ईमान बनती चली गईं. तलवारें थकीं तो मरदूद आलिमों की ज़बान इसे धार देने लगीं.
'' और मेरे पास ये कुरआन बतौर वही (ईश वाणी) भेजा गया है ताकि मैं इस कुरआन के ज़रीए तुम को और जिस जिस को ये कुरआन पहुंचे, इन सब को डराऊं''
''सूरह अनआम-६-७वाँ पारा आयत(२८)
कुरआन बतौर वही नहीं बज़रीए वही कहें या रसूलल्लाह! कुरआनी अल्लाह अपनी किताब कुरआन में न आगाह करता है न वाकिफ कराता है और न ख़बरदार करता है, बस डराता रहता है. ज़ाहिर है कि वह उम्मी है, उसके पास न तो अल्फाज़ के भंडार हैं, न ज़बान दानी के तौर तरीके. बच्चों को डराया जाता है, बड़ों को धमकाया जाता है, मुहम्मद को इस की तमाज़त नहीं. वह बड़े बूढों, औरत मर्द, गाऊदी और मुफक्किर, सब को अपने बनाए अल्लाह के बागड़ बिल्ले से डराते हैं. मुसलमानों का तकिया कलाम बन गया है ''अल्लाह से डरो'' भला बतलाइए कि क्यूँ ख्वाह मख्वाह अल्लाह से डरें? वह कोई साँप बिच्छू या भेडिया तो नहीं? डरना है तो अपनी बद आमालियों से डरो जिसका कि अंजाम बुरा होता है. आप की बद आमालियाँ वह हैं जो दूसरों को नुकसान पहुंचाएं.
इन कुंद ज़ेहन साहिबे ईमान मुसलामानों को कोई समझाए कि अरबों खरबों बरस से कायम इस कायनात का अगर कोई रचना कार है भी तो वह एक जाहिल जपट मुहम्मद से अपनी सहेलियों की तरह, अपने गम गुसारों की तरह, अपने महबूब की तरह बात करेगा? अगर तुम्हारा यकीन इतना ही कच्चा है तो कोई गम नहीं कि तुम इस नई दुन्या में सफा-ए- हस्ती से मिटा दिए जाओ और जगे हुए इंसानों के लिए जगह खाली करदो कि जो दो वक़्त की रोटी नहीं पा रहे हैं हालांकि वह बेदार हैं और तुम अकीदत की नींद में डूबे हुए गुनाहगार ओलिमा को हलुवा पूरी खिला रहे हो. मगर नहीं रुको मैं इतना और कह दूं कि मुहम्मद ने तो सिर्फ कुरैशियों की हलुवा पूरी को कायम करना चाहा था मगर यह बीमारी तो सारी दुन्या को लग गई? दुन्या को जाने, मैं तो सिर्फ पंद्रह करोर हिदुस्तानी मुसलमानों को जगाना चाहता हूँ. देखो कि ब्रह्माण्ड का रचैता एक धूर्त से कैसे बातें करता है - - -
''हम खूब जानते हैं कि आप को इनके अक़वाल मगमूम करते हैं, सो यह लोग आप को झूटा नहीं कहते, लेकिन यह जालिम अल्लाह ताला की आयातों का इनकार करते हैं''
''सूरह अनआम-६-७वाँ पारा आयत(३३)

मेरे भोले भाले मुसलमानों क्या यह अय्यारी की बातें तुम्हारे समझ में नहीं आतीं?



निसार ''निसार-उल-ईमान''
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ऐतिहासिक सत्य में क़ुरआन की हक़ीक़त
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Tabari II:53 "When Abraham's mother found that she was in labor she went out to a cave near her house and bore Abraham. She shut the cave up on him and returned home. Later when she went to see how he had done, she found him alive, sucking his thumb. Allah placed Abraham's sustenance in it." Muhammad was abandoned by his mother at birth, so he invented this story to mimic his own childhood.
Tabari II:51 "Abraham had been in the cave for fifteen months when he said to his mother, 'Take me out that I may look around.'" Why bother? After fifteen months of living in a cave, he would have been blind. "So she took him out one evening and he looked about and thought of the creation of the heavens and the earth and said, 'Verily the One who created me and fed me is my Lord - I have no other god but Him.'" Thus, an infant conceived the first pillar of Islam. But alas, the Hadith and Qur'an quickly plummet into spiritual delirium. "He looked out at the sky and saw a star. 'This is my Lord.' He followed it with his eyes until it disappeared. When it set he said, 'I do not like things that set.' Then he saw the moon rising and said, 'This is my Lord.' [Perceptive kid - Allah began his life as a moon deity.] And he followed it until it disappeared. When it set, he said, 'If my Lord did not guide me, I would have gone astray.'" A fifteen-month-old baby converts from paganism to Islam by watching the moon. Sure, why not.
Like so many Islamic Traditions, these were written to provide the context the Qur'an lacks. Let's dive into the 6th surah to hear what Allah has to say: Qur'an 6:74 "When Abraham said to his sire, Azar: 'Why do you take idols for gods? I find you and your people in manifest error.' Thus We showed Abraham the visible and invisible kingdom of the heavens and earth that he might be of those who are sure and believe. So when night overshadowed him, he saw a star. Said he: 'This is my Lord.' When it set, he said: 'I do not love the setting ones.' When he saw the moon rising, he said: 'This is my Lord.' When it set, he said: 'If my Lord had not guided me I would be of the erring people who go astray.'" This is embarrassing. The conversation condemns the message. After Allah personally showed Abe his kingdom so that he might be sure, the Islamic babe turns to the sky, the source of idols, and says, "This is my Lord." What is it about Islam that turns everyone's brains to mush - Allah's included?
Prophet of Doom

Monday, 14 December 2009

क़ुरआन - सूरह अनआम ६


सूरह अनआम ६-
(6 The Cattle)
B


मुसलमानों! क्या तुम को मालूम है कि इस वक्त दुन्या में और खास कर बर्रे सगीर हिंद (भारत उप महा द्वीप) में आप का सब से बड़ा दुश्मन कौन है? कोई और नहीं आप को पीछे खडा आप का मज़हबी रहनुमा, आप का आलिमे दीन, मौलाना, मोलवी साहब और मुल्लाजी का गिरोह. जी हाँ! चौंकिए मत यही हज़रात आप के अस्ल मुजरिम हैं, बजाहिर आप के खैर ख्वाह. ये मजबूरी में पेशेवर हैं क्यूं कि इनको इसमें ढाला गया है,और कोई जीविका इनके लिए नहीं है . इनका ज़रीया मुआश दीन है. मगर इनके लिए दीन कोई हकीक़त नहीं, जैसा कि आप समझते हैं. यह दीन के करीब तर रह कर इसको उरियाँ हालत में देख चुके हैं. अब इन लिए कुछ बचा नहीं जो देखना बाकी रह गया हो. अब तो इन्हें दीन की पर्दापोस्शी करनी है. इनको इनकी तालीमी वक्फे में यही सिखलाया गया है. यही ''पर्दापोस्शी". यह निन्नानवे फी सद आलिमे दीन गरीब, मुफ़लिस, मोहताज घरों के फाका का कश बच्चे होते हैं. तालीम के नाम पर जो कुछ पाया है, इसी में फसल जोतना, बोना, सींचना और काटना है. यह पैदाइशी मुन्तक़िम (प्रति शोधक) होते हैं, इसकी वजह गुरबत के मारे, दूसरी वजह तालीमी विषय का इन पर गलत थोपन है.ये अव्वल दर्जे के अय्यार, परले दर्जे के ईमान फरोश होते हैं. ये अपने साथ की गई समाजी ना इंसाफी का बदला उस समाज से गिन गिन कर लेते है जिसने इनके साथ न इंसाफी की है. आप अपने बच्चों को इनके से दूर रखिए क्यूंकि कुरआनी जन्नत में मिलने वाली हूरें और गुलामों की यौन सेवाएँ इन्हें जिंसी बे राह रवी का शिकार बना देती हैं. मस्जिद के हुजरे हों चाहे मदरसे की छत, ये हर जगह बाल शोषण करते हुए पकडे जाते हैं.
यह दीन धरम के खुद साख्ता पैगम्बर और स्वयम्भू बने भगवान आज तक अपने विरोधी इन्सान को, इंसानियत को जी भर के कोसते काटते, गलियां, देते और तरह तरह की उपाधियाँ प्रदान करते चले आए हैं. हम कुछ नहीं कर सकते थे, कानून इनका संरक्षक था और है. हुकूमतें इनकी पुश्त पनाही में थीं और हैं. जनता इनके साथ में थी और है मगर शिक्षित,और जागृति जनता, बेदार अवाम अब सिर्फ हमारे साथ हैं. हम सुरक्षा महसूस कर रहे हैं. सदियों से ये हमें धिक्कारते चले आ रहे हैं अब हमारी बारी है इनकी पोल पट्टी खोलने की, एक बुद्दी जीवी हजारो भेड़ बकरियों पर भरी पड़ेगा. हम शुक्र गुज़र हैं गूगल आदि वेब साइड्स के, हम शुक्र गुज़र है ब्लॉग के उस मुकाम के अविष्कार के जहाँ कबीर का सच बोला जा सकेगा.अब सदाक़त धडाधड छपेगी और कोई कुछ न बिगड़ पाएगा.

अब आये कुरआनी अल्लास कि जेहालत पर - - -
''और अगर हम कागज़ पर लिखा हुवा कोई नविश्ता आप पर नाज़िल फ़रमाते, फिर ये लोग इसको अपने हाथ से छू भी लेते, तब भी ये काफ़िर यही कहते, ये कुछ भी नहीं, सही जादू है और अगर हम इन को फ़रिश्ते तजवीज़ करते तो इसको आदमी ही बनाते . . . आप फ़रमा दीजिए ज़रा ज़मीन पर चलो फिरो देख लो कि तक्ज़ीब करने वालों का कैसा अंजाम हुवा.''
''सूरह अनआम -६-७वाँ पारा आयत (11)
फिर मैं कुरआन के पाठकों को याद दिला दूं कि नाज़िल कोई प्रकोप ही होता है वरदान नहीं.जैसा कि मैं ने कुरआन की व्याख्या की शुरू में बतलाया था कि इस्लाम के प्रकोपित ओलिमा ने बहुत से लफ्जों के माने कुछ के कुछ कर दिए हैं. वैसे ही कुरआन वरदानित नहीं हुवा है बल्कि मुहम्मद पर प्रकोपित हुवा है.नाज़िल हुवा है. जिसे खुद वह गा बजा रहे हैं. कुरआन मुसलमानों पर मुहम्मदी अल्लाह का नजला है, नजला एक तरह की बीमारी है जो आधी बीमारियों कि जड़ होती है. जब तक मुसलमान इस नजला को नेमत समझता रहेगा उसका कल्याण कभी नहीं हो सकता. कुरआन किसी खुदाए बरतर का कलाम नहीं बल्कि एक चालाक अहमक की बतकही है.
''आप फरमा दीजिए कि मुझे ये हुक्म हुवा है कि सब से पहले मैं इस्लाम कुबूल करूँ और तुम इन मुशरिकीन में से हरगिज़ न होना. आप फरमा दीजिए कि अगर मैं अपने रब का कहना न मानूँ तो मैं एक बड़े दिन के अज़ाब से डरता हूँ.''
इन आयतों का का तर्जुमा इस्लाम के मशहूर आलिम मौलाना शौकत अली थानवी का है. देखें कि उनका अल्लाह फूहड़ है या फिर उसका रसूल या फिर मौलाना का तर्जुमा. यह थानवी साहब वही हैं जो लड़कियों के तालीम के खिलाफ थे, क़ुरआन, हदीस, और अपनी गढ़ी हुई कठमुल्लाई किताबों (जैसे बेहिश्ती ज़ेवर) तक में उन्हों ने लड़कियों को एक सदी तक महदूद रखा. रसूल कैसा बच्चों को फुसला रहे है. अल्लाह जल्ले जलालहु उम्मी को आप फरमा दीजिए कह कर बात करता है, फिर अगली सांस में ही तुम पर उतर आता है. नाबालिग़ मुसलमान ऐसी पैगम्बरी की शान में नातें पढ़ रहे हैं.
''सूरह अनआम -६-७वाँ पारा आयत (15)
क़ुरआन में मुस्म्मद ने जेहालत की दलीलें ऐसी फिट कीं हैं कि साहिबे इल्म अपना सर पीटे या उनका मगर सदियों से यह दलीलें बेज़मीर ओलिमा सर झुकाए हुए बुजदिल कौम को समझा रहे हैं और उनके साथ हुकूमत की तलवारें आज भी उनके सरों पर झूल रही हैं, किसी इन्कलाब की आहट नहीं है. खुद को अल्लाह का रसूल और क़ुरआन को अल्लाह का कलाम साबित करने के लिए मुहम्मद अल्लाह की गवाही को काफी बतलाते हैं, बगैर किसी अदालत, मुक़दमा और वकील के, वही अल्लाह जिसको उन्हों से खुद गढा है. कहते हैं कि अगर अल्लाह ने कोई तकलीफ दिया है तो वही दूर करने वाला भी है.यह बात मुस्लिम समाज की इतनी दोहराई गई है कि गैर मुस्लिम भी यह गान गाने लगे हैं. मौत का मज़ा चखाने वाला भी यही ज़ालिम अल्लाह मुस्लिम समाज से है.
अल्लाह मियाँ मुहम्मद से कहते हैं

''क्या तुम सचमुच गवाही दोगे कि अल्लाह के साथ और कोई देव भी हैं? आप कह दीजिए कि मैं तो गवाही नहीं देता. आप कह दीजिए कि वह तो बस एक ही माबूद है और बेशक मैं तुम्हारे शिर्क से बेजार हूँ''
उम्मी मुहम्मद की उम्मियत की इन जुमलों से बढ़ कर कोई गवाही नहीं हो सकती. इन मोहमिलात और अपनी पागलों कि सी बातों से खुद मुहम्मद परेशान हुए होंगे और इन बातों से पीछा छुडाते हुए इसे अल्लाह का कलाम करार दे दिया और इसकी तिलावत सवाब करार दे दी गई.
'' जिन लोगों को हमने किताब दी वह लोग इसको इस तरह पहचानते हैं जिस तरह बेटों को पहचानते हैं.''
हाँ! आलमे इंसानियत के लिए ना लायक़ और ना जायज़ बेटों की तरह.
'' जिन लोगों ने अपने आप को ज़ाया कर लिया वह ईमान न लाएंगे''
सच तो ये है वह ज़ाया हुवा जो उम्मी के नाक़बत अनदेशियों और उसकी जेहालत का शिकार हुवा.
फिर एक बार क़यामत में मुशरिकों पर मुक़दमे का सिलसिला शुरू होता है और उम्मी मुहम्मद की हठ धर्मी की गुफ्तुगू. हम इस मुसीबत की तफसील में जाना नहीं चाहते, अजीयत पसंद चाहें तो तर्जुमा पढ़ लें वर्ना वास्ते तिलावत टालें.
''सूरह अनआम -६-७वाँ पारा आयत (१६-२४)


निसार ''निसार-उल-ईमान''
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ऐतिहासिक सत्य में क़ुरआन की हक़ीक़त


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We're going to pass by Muhammad's history lesson on the mythical tribes of Ad and Thamud. Their battles with the Almighty seemed important to Muhammad as he dedicated scores of Hadith to them. But I want to focus on the Islamic path to Abraham as it lies at the core of the prophet's deception. Tabari II:50 "Nimrod was Abraham's master and wanted him burned.... The first king who ruled over all the earth was Nimrod. There were four such kings who ruled all the earth: Nimrod, Solomon bin David, Dhu'l-Qarnain, and Nebuchadnezzar - two believers [Muslims] and two infidels." Nimrod only ruled a city-state. Solomon's kingdom only included a portion of the Middle East. Nebuchadnezzar's realm like that of Dhu'l-Qarnain, as Alexander the Great, was large, but neither ruled over the whole earth. As for two of them being Muslims - Muhammad and Allah are again mistaken. There wasn't a Muslim in the batch.
According to Ishaq's Sira: Tabari II:50 "Allah desired to send Abraham as an argument against his people and as a messenger to His worshippers since there had been no messengers between Noah and Abraham except Hud and Salih [the mythical rulers of Ad and Thamud]." If that's true, there couldn't have been Muslim worshippers. A thousand years had passed with no religious communication. Allah said he destroyed the Ad and Thamud and he never suggests Abraham visited them. So in an attempt to establish a religious context for his scam, Muhammad destroyed it. The scenario he has just laid out precludes worshippers, and without them, all he has shared thus far concerning the establishment of Islamic rites and the veneration of the Ka'aba, could not have been passed along.
"As time drew near, the astrologers came to Nimrod, saying, 'We have learned from our lore that a boy will be born in this city of yours who will be called Abraham। He will abandon your religion and break your idols in such and such a month and year." Muslims are attempting to bestow on Abraham, whom they view as the father of Islam, the same kind of birth announcement enjoyed by Yahshua, the founder of Christianity, but they didn't have a clue when either man actually lived.
Both secular and scriptural histories tell us that Nimrod died centuries before Abraham was born. The clay tablets that were unearthed near ancient Babylon starting in the late 19th century suggest Nimrod died violently at the age of forty around 2800 B.C., two generations after the great flood. Apart from the Bible, Abraham is not as well known. Yet, archeologists have been able to confirm the Biblical accounting of when he lived by unearthing the places the Scriptures say he visited or that coexisted during his time. They have found dozens of corroborating artifacts that confirm Abraham lived between 2100 B.C. and 1950 B.C. These men were not contemporaries.
Since their lives were separated by 700 years, everything Muhammad claims about them is both suspect and uninspired. Tabari II:53 "Another story about Abraham is that a star rose over Nimrod so bright that it blotted out the light of the sun and the moon. He became frightened and called the magicians, soothsayers, and prognosticators to ask about it. They said, 'A man will arise in your domain whose destiny is to destroy you and your rule.' Nimrod lived in Babylon but he left his town and moved to another, forcing all men to go with him but leaving the women. He ordered that any male child who was born should be slain." This is a blatant, although not believable, rip-off of the star of Bethlehem that directed wise men to Christ and of King Herod killing the male children born that year in Bethlehem.
The Bible tells us that Abram, the future Abraham, was born in Ur, the great Chaldean city, to Terah. His journey to the Promised Land is detailed in Genesis 11. Muhammad says: "Some task in Babylon came up for which Nimrod could trust only Azar, the father of Abraham. He sent him to do the job, saying, 'See that you do not have intercourse with your wife.' Azar said to him, 'I am too tenacious in my religion for that.' But when he entered Babylon he visited his wife and could not control himself. He had intercourse with her and fled to a town called Ur."
Prophet of Doom

क़ुरआन - सूरह अनआम -६


सूरह अनआम ६-
(6 The Cattle)
A



ध्यान दें - - -
क़ुरआन किसी अल्लाह का कलाम हो ही नहीं सकता.
कोई अल्लाह अगर है तो अपने बन्दों के क़त्ल-ओ- खून का हुक्म न देगा.
क्या सर्व शक्ति वान, सर्व ज्ञाता, हिकमत वाला अल्लाह मूर्खता पूर्ण और अज्ञानता पूर्ण बकवास करेगा?
क्या इन बेहूदा बातों की तिलावत (पाठ) से कोई सवाब मिल सकता है?
जागो! मुसलमानों जागो!! मुहम्मद के सर पर करोड़ों मासूमों का खून है जो इस्लाम के फरेब में आकर अपनी नस्लों को इस्लाम के हवाले कर चुके हैं. मुहम्मद की ज़िदगी में ही हज़ारों मासूम मारे गए और मुहम्मद के मरते ही दामाद अली और बीवी आयशा के दरमियाँ जंग जमल में दो लाख इंसान बहैसियत मुसलमान मारे गए. स्पेन में सात सौ साल काबिज़ रहने के बाद दस लाख मुसलमान जिंदा नकली इस्लामी दोज़ख में डाल दिए गए, अभी तुम्हारे नज़र के सामने ईराक में दस लाख मुसलमान मारे अफगानिस्तान, पाकिस्तान कश्मीर में लाखों इन्सान इस्लाम के नाम पर मारे जा रहे है.चौदह सौ सालों में हज़ारों इस्लामी जंगें हुईं हैं जिसमें करोड़ों इंसानी जानें गईं. मुस्लमान होने का अंजाम है बेमौत मारो या बेमौत मरो.
क्या अपनी नस्लों का अंजाम यही चाहते हो? एक दिन इस्लाम का जेहादी सवाब मुसलामानों को मारते मारते और मरते मरते ख़त्म कर देगा. वक़्त आ गया है खुल कर मैदान में आओ. ज़मीर फरोश गीदड़ ओलिमा का बाई काट करो, इनके साए से दूर रहो और भोले भाले लोगों को दूर रखो.
अब आइए कुरआनी बकवासों पर जिनको आम मुसलमान नहीं जनता - - -

क़ुरआन ने मुसलामानों में एक वहम '' नाज़िल और नुज़ूल''(अवतीर्ण एवं अवतरित) का डाल दिया है, मिन जानिब अल्लाह आसमान से किसी बात, किसी शय, किसी आफ़त का उतरना नाज़िल होना कहा जाता है. ये सारा का सारा क़ुरआन वहियों(ईश-वाणी) के नुजूल का पुथंना बतलाया जाता है. यानी क़ुरआन का ताअल्लुक़ ज़मीन से नहीं बल्कि यह आसमान से उतरी हुई किताब है. क़ुरआन अपनी ही तरह मूसा रचित तौरेत और दाऊद द्वारा रचे ज़ुबूर के गीतों को ही नहीं बल्कि ईसा के हवारियों (धोबियों) के बाइबिल के बयानों को भी आसमानी साबित करता है, जब कि इन के मानने वाले खुद इन्हें ज़मीनी कहते हैं. आगे की खोज कहती है आसमान ऐसी कोई चीज़ नहीं कि जिसके फर्श और छत हों,ये फ़क़त हद्दे नज़र है. क़ुरआन के सात मंजिला आसमान पर मुख्तलिफ मंजिलों पर मुख्तलिफ दुनिया है, सातवें पर खुद अल्लाह विराजमान है.
हमारी जदीद तरीन तह्क़ीक़ कहती है की ऐसा आसमान एक कल्पना है, तो ऐसा अल्लाह भी मुहम्मद का तसव्वुर ही है. दोज़ख जन्नत सब उनकी साजिश है.
'' तमाम तारीफें अल्लाह के लिए ही लायक हैं जिसने आसमानों और ज़मीन को पैदा किया और तारीकियों (अंधकार) और नूर को बनाया, फिर भी काफिर लोग दूसरों को अपना रब क़रार देते हैं.''
सूरह अनआम -६-७वाँ पारा आयत (१)
उम्मी मुहम्मद ब्रम्हामांड में ज़मीन को हर जगह बार बार एक वचन में लाते हैं और आसमान को बहु वचन (अनुमानित सात) क़ुरआन में अल्लाह के मुंह से कहलाते हैं जब कि आसमान एक है और ज़मीन इसमें करोरों बल्कि बेशुमार हैं. कोई ताक़त इसका रचैता अगर है तो वह क्या मुहम्मद का अल्लाह हो सकता है जो कह रहा है सब तारीफ मेरे लिए हैं और खुद उसको अपनी रचना का ज्ञान नहीं? अंधकार और रौशनी सूरज के गिर्द ज़मीनी गर्दिश के रद्दे अमल से होती है, मुहम्मद से सदयों पहले यूनान के साइंस दानों ने दुन्या को बतला दिया था मगर यह बात मुहम्मदी अल्लाह के कानों तक नहीं पहुंची. काफिर लोगों ने हमेशा हू, याहू, इलह, इलोही, इलाही, रब और ख़ुदा जैसी किसी ताक़त को ईश्वर माना है और अपने देवी देवताओं को उसका माध्यम जैसे आज तक चला आ रहा है. अरबी माध्यम लात, मनात, उज़ज़ा आदि थे, मुहम्मद ज़बरदस्ती उनको उनका अल्लाह साबित करने मेंलगे हुए है.
''और वह ऐसा है जिसने तुम को मिटटी से बनाया, फिर एक वक़्त मुअय्यन किया और दूसरा खास वक़्त मुअय्यन उसी के नजदीक है, फिर भी तुम शक रखते हो.''
सूरह अनआम -६-७वाँ पारा आयत (२)
मुहम्मद अल्लाह के बारे में बतलाते हैं कि वह ऐसा है और कहते हैं यह अल्लाह का कलाम है, जब कि मुहम्मद खुद साबित कर रहे हैं कि यह कलाम खुद उनका है। इसे ढंग से यूँ कहते - - -


धरा को परमाण यही तुलसी,
जो फरा, सो झरा, जो बरा सो बुताना।


काश कि मुहम्मद एक अदना अरबी शायर ही होते कि उनके सर पर करोरो इंसानी खूनों का अजाब तो न होता.
तीन आयतें ३, ४, ५ ऐसी ही मुहम्मद की जाहिलाना बकवास हैं.
''उन्हों ने देखा नहीं हम उनके पहले कितनी जमाअतों को हलाक कर चुके हैं, जिनको हमने ज़मीन पर ऐसी कूवत दी थी कि तुम को वह कूवत नहीं दिया और हम ने उन पर खूब बारिश बरसाईं हम ने उनके नीचे से नहरें जारी कीं फिर हमने उनको उनके गुनाहों के सबब हलाक कर डाला''
सूरह अनआम -६-७वाँ पारा आयत (6)
मुहम्मद का रचा अहमक अल्लाह अपने जाल में आने वाले कैदियों को धमकता है कि तुम अगर मेरे जाल में आ गए तो ठीक है वर्ना मेरे ज़ुल्म का नमूना पेश है, देख लो. उस वक्त के लोगों ने तो खैर खुल कर इन पागल पन की बातों का मजाक उडाया था मगर जिहाद के माले-गनीमत की हांडी में पकते पकते आज ये पक्का ईमान बन गया है. यही अलकायदा और तल्बानियों का ईमान है. ये अपनी मौत खुद मरेंगे मगर आम बे गुनाह मुसलमान अगर वक़्त से पहले न चेते तो गेहूं के साथ घुन की मिसाल बन जायगी.
''और ये लोग कहते हैं कि इनके पास कोई फ़रिश्ता क्यों नहीं भेजा गया और अगर हम कोई फ़रिश्ता भेज देते तो सारा किस्सा ही ख़त्म हो जाता, फिर इन को ज़रा भी मोहलत न दी जाती.
''सूरह अनआम -६-७वाँ पारा आयत (8)
यानी फ़रिश्ता न हुवा कोहे तूर पर झलकने वाली इलोही की झलक हुई कि उसके दिखते ही लोग खाक हो जाते. देखें कि एक हदीस में इसके बर अक्स मुहम्मद क्या कहते हैं---
'' मुहम्मद सहबियों की झुरमुट में बैठे थे कि एक शख्स आकर कुछ सवाल पूछता है - - -
१- ईमान क्या है? २-इस्लाम क्या है? ३-एहसान क्या है? और क़यामत कब आएगी? मुहम्मद उसको अपनी जेहनी जेहालत से लबरेज़ बेतुके जवाब देते हैं. उसके जाने के बाद लोगों से पूछते हैं कि जानते हो यह कौन थे? लोगों ने कहा अल्लाह के रसूल ही बेहतर जानते हैं. फ़रमाया जिब्रील अलैहिस्सलाम थे दीन बतलाने आए थे.
( बुखारी-४७)
ये है मुहम्मद का कुरआनी और हदीसी दो विरोधाभासी अवसर वादिता. यह मोह्सिने इंसानियत नहीं थे बल्कि इंसानियत कि जड़ों में मट्ठा डालने वाले नस्ल-ए-इंसानी के बड़े मुजरिम थे.
कुरआन में अल्लाह बार बार कहता है कि उसे तमस्खुर (हंसी-मज़ाक) पसंद नहीं. लोग तमस्खुर उसी शख्स से करते है जो बेवकूफी कि बातें करता है.खुद साख्ता बने अल्लाह के रसूल कुरआन में ऐसी ऐसी बे वज़्न और बेवकूफी की बातें करते हैं कि हंसी आना लाजिम है, इस पर तुर्रा ये कि ये अल्लाह की भेजी हुई आयतं हैं.हर दिन एक एक टुकडा अल्लाह की आयत बन कर नाजिल होता है. इस पर काफिर कहते हैं कि
'' क्यूं नहीं तुम्हारा अल्लाह यक मुश्त मुकम्मल किताब आसमान से सीढी लगा कर किसी फ़रिश्ते के मार्फ़त एक बार में ही भेज देता.'' देखिए कि बन्दों के इस माकूल सवाल का नामाकूल अल्लाह का जवाब - - -
'' और वाकई आप (खुद साख्ता पैगम्बर मुहम्मद को अल्लाह भी एह्तरामन आप कहता है. ये कमीनगी आलिमान दीन के क़लम का ज़ोर है) से पहले जो पैगम्बर हुए हैं उन के साथ भी इस्तेह्जा (मज़ाक) किया गया है फिर जिन लोगों न इन के साथ तमस्खुर (मज़ाक) किया उन को एक अजाब न आ घेरा जिसका वह मजाक उड़ा रहे थे''
''सूरह अनआम -६-७वाँ पारा आयत (10)



निसार ''निसार-उल-ईमान''

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Nothing is more essential to Islam's credibility than Muhammad's version of Abraham. Islam must prove that he was a Muslim, that his God was Allah, and that he worshiped in Mecca. Recognizing this, Muhammad tried desperately to make the case.
We pick up the trail in Tabari's History with something that sounds like Hitler's idea of Arian supremacy. Tabari II:21 "Ham [Africans] begat all those who are black and curly-haired, while Japheth [Turks] begat all those who are full-faced with small eyes, and Shem [Arabs] begat everyone who is handsome of face with beautiful hair. Noah prayed that the hair of Ham's descendants would not grow beyond their ears, and that whenever his descendants met the children of Shem, the latter would enslave them." The slavery theme keeps reappearing because Muhammad used the slave trade to finance the spread of Islam. Turning Noah into a racist to justify such behavior wasn't beneath Islam's prophet - but then again, little was.
We're going to pass by Muhammad's history lesson on the mythical tribes of Ad and Thamud. Their battles with the Almighty seemed important to Muhammad as he dedicated scores of Hadith to them. But I want to focus on the Islamic path to Abraham as it lies at the core of the prophet's deception. Tabari II:50 "Nimrod was Abraham's master and wanted him burned.... The first king who ruled over all the earth was Nimrod. There were four such kings who ruled all the earth: Nimrod, Solomon bin David, Dhu'l-Qarnain, and Nebuchadnezzar - two believers [Muslims] and two infidels." Nimrod only ruled a city-state. Solomon's kingdom only included a portion of the Middle East. Nebuchadnezzar's realm like that of Dhu'l-Qarnain, as Alexander the Great, was large, but neither ruled over the whole earth. As for two of them being Muslims - Muhammad and Allah are again mistaken. There wasn't a Muslim in the batch.
Prophet of Doom
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Saturday, 12 December 2009

क़ुरआन - सूरह अल्मायदा ५


सूरह मायदा की छटवीं और आखरी किस्त



सूरह मायदा -5


(5 The Food)

मेरे गाँव की एक फूफी के बीच बहु-बेटियों की बात चल रही थी किमेरा फूफी ज़ाद भाई बोला अम्मा लिखा है औरतों को पहले समझाओ बुझाओ, न मानें
तो घुस्याओ लत्याओ, फिरौ न मानैं तो अकेले कमरे मां बंद कर देव, यहाँ तक कि वह मर न जाएँ . फूफी आखें तरेरती हुई बोलीं उफरपरे! कहाँ लिखा है? बेटा बोला तुम्हरे क़ुरआन मां.-- आयं? कह कर फूफी बेटे के आगे सवालिया निशान बन कर रह गईं. बहुत मायूस हुईं और कहा ''हम का बताए तो बताए मगर अउर कोऊ से न बताए''
मेरे ब्लॉग के मुस्लिम पाठक कुछ मेरी गंवार फूफी की तरह ही हैं.वह मुझे राय देते हैं कि मैं तौबा करके उस नाजायज़ अल्लाह के शरण में चला जाऊं. मज़े कि बात ये है कि मैं उनका शुभ चिन्तक हूँ और वह मेरे. ऐसे तमाम मुस्लिम भाइयों से दरख्वास्त है कि मुझे पढ़ते रहें, मैं उनका ही असली खैर ख्वाह हूँ .हिदी ब्लॉग जगत में एक सांड के नाम से जाना जाने वाला कैरानवी है जो खुद तो परले दर्जे का जाहिल है मगर ज़मीर फरोश ओलिमा की लिखी हुई कपटी रचनाओं को बेच कर गलाज़त भरी रोज़ी से पेट पालता है. अल्लाह का चैलेंज, अंतिम अवतार, बौद्ध मैत्रे जैसे सड़े गले राग खोंचे लगाए गाहकों को पत्ता रहता है. उसको लोगों के धिक्कार की परवाह नहीं. मेरे हर आर्टिकल पर अपना ब्लाक लगा देता है, कि मेरे पास आ मैं जेहालत बेचता हूँ.

अब आये अल्लाह की रागनी पर - - -

"तुम्हारे लिए दरया का शिकार पकड़ना और खाना हलाल किया गया"
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (96)
ये एक हिमाकत कि बात है. जो जीविका का साधन हजारों साल से मानव जाति को जीवित किए हुए हैं, उसको कुरानी फरमान बनाना क़ुरआन का मजाक और बेवज्नी में इजाफा ही है. दरया में बहुत से जीव विषैले और गंदे होते हैं जिसको हराम करना मुहम्मद भूल गए हैं.
"अल्लाह ने काबे को जो कि अदब का मकान है,लोगों के लिए कायम रहने का सबब करार दे दिया है और इज्ज़त वाले महीने को भी और हरम में कुर्बानी होने वाले जानवरों को भी और उनको भी जिनके गले में पट्टे हों, ये इस लिए कि इस बात का यकीन करलो कि बे शक अल्लाह तमाम आसमानों और ज़मीन के अन्दर की चीजों का इल्म रखता है."
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (97)
लगता है मुहम्मदी अल्लाह ने इन बकवासों से यह बात साबित कर दिया हो की उसको आसमानों और ज़मीन का राज़ मालूम है, जब कि वह यह भी नहीं जाता की आसमान सिर्फ एक है और ज़मीनें लाखों.आप इस आयात को बार बार पढिए और मतलब निकालिए, नतीजे तक पहुँचिए।क्या साबित नहीं होता कि यह किसी पागल कि बड़ बड़ है,या क़ुरआनका पेट भरने के लिए मुहम्मद कुछ न कुछ बोल रहे हैं। इन बकवासों को ईश वाणी का दर्जा देकर और सर पर रख कर हम कहाँ के होंगे? एक बार फिर मौत से पहले विरासत नामे पर लम्बी तकरीर और बहसें दूर तक चलती हैं जिसको नज़र अंदाज़ करना ही बेहतर होगा.
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (९८-109)
ईसा को एक बार फिर नए सिरे से पकडा जाता है जिसे पढ़ कर मुँह पीटने को जी चाहता है मगर अल्लाह हाथ नहीं लगता. इसे मुहम्मद की दीवानगी कहें या उनकी मौजूदा उम्मत की जो इस पर ईमान रखे हुए हैं.देखिए बकते हैं - - -
"आप बे शक पोशीदा बातों को जानने वाले है, जब अल्लाह तअला इरशाद फरमाएंगे : ऐ ईसा इब्ने मरयम! याद करो जो तुम पर और तुम्हारी वाल्दा पर, जब कि मैं ने युम्हें रूहुल-कुद्स से ताईद दी, तुम आदमियों से कलाम करते थे, गोद में भी और बड़ी उम्र में भी और जब की मैं ने तुम को किताबें और समझ की बातें और तौरेत और इंजील की तालीम किन और जब कि तुम गारे से एक शक्ल बनाते थे, जैसे परिंदे की होती है, मेरे हुक्म से फिर तुम उसके अन्दर फूँक मार देते थे, जिस से वह परिंदा बन जाता था,मेरी हुक्म से. और जब तुम अच्छा कर देते थे मदर ज़द अंधे को और कोढ़ से बीमार को, मेरे हुक्म से और जब तुम मुर्दों को निकाल कर खडा कर देते थे, मेरे हुक्म से और जब मैं ने बनी इस्राईल को तुम से बांध रखा, जब तुम उनके पास दलीलें लेकर आए थे, फिर उन में जो काफिर थे उन्हों ने कहा था यह सिवाय खुले जादू के और कुछ भी नहीं
."सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (110)
इसी दीवानगी की बड़बड़ाहट को करोरो मुस्लमान चौदह सौ सालों से दोहरा रहा है, नतीजतन दुन्या की सब से पिछली कतार में जा लगा है. इसके धार्मिक गुरु इसको गुमराह किए रहते है जब तक इनका सफाया नहीं होता, इनका उद्धार मुमकिन नहीं. अफ़सोस कि पढा लिखा वर्ग बहुत स्वार्थी गया है, वह सच को जनता है मगर आगे आना पसंद नहीं करता, वह सोचता है खुद को बचा लिया बाक़ी जाएँ जहन्नम में. बस एक ही रास्ता है कि मुस्लिम अवाम बेदार हों और ओलिमा को नजिस जानवर का दर्जा दें.
मुसलमानों! मैं मुस्लिम समाज का ही बेदार फर्द हूँ जो मुस्लिम से मोमिन हो गया,यह काम बहुत ही मुस्क्किल है और बेहद आसन भी. मोमिन का मतलब है ईमान दार और मुस्लिम का मतलब है हठ धर्मं, जेहालत पसंद, जेहादी, क़दामत परस्त, झूठा, शर्री, तअस्सुबी,ना इन्साफ और बहुत सी इन्सान दुश्मन बातें जो इसलाम की तालीम है. मोमिन के ईमान की कसौटी पर ही सच्चाई कि परख आती है, मोमिम बनो, धरम कांटे का ईमान अपने अंदर पैदा करो, देखो कि अपने आप में आप का क़द कितना बढ़ गया है. इसलाम जिसे तस्लीम किया,मुस्लिम हो गए.ईमान जो फितरी (प्रकृतिक) सच होगा २+२=४ की तरह .ईमान पर ईमान लाओ इसलाम को तर्क करो.



निसार ''निसार-उल-इमान''




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मेरे हम नवा



Qur'an 5:97 "Allah made the Ka'aba, the Sacred House, an asylum of security for men, as also the Sacred Months...." Qur'an 5:98 "Know you that Allah is severe in punishment and that Allah is Oft-Forgiving, Most Merciful." Since by definition a hypocrite is one who says one thing and does another, Allah has just defined himself. And guess what? He's exactly like Muhammad.
This next passage opens with dialog beneath Sesame Street. Qur'an 5:100 "Say: 'Not equal are things that are bad and things that are good, even though there is an abundance of bad to dazzle, please, and attract you; so be careful and fear Allah, O you who understand (so) you may prosper.'" Muslims "prosper" according to Allah because "booty is lawful and good." (8:69)
There are two Qur'anic verses in particular that condemn Muslims to live in religious, economic, intellectual, and civil poverty। One says: Qur'an 4:89 "If they turn back from Islam, becoming renegades, seize them and kill them wherever you find them." The other commands: Qur'an 5:101 "Believers! Do not ask questions about things which if made plain and declared to you, may vex you, causing you trouble." Qur'an 5:102 "Some people before you did ask such questions, and on that account they lost their faith and became disbelievers." It's true; the Qur'an is so incomprehensible, so obviously fraudulent, so mean-spirited, anyone who even questions it loses their faith. So we need to give Muslims the freedom to ask questions and to make choices.
Questioning minds will reject the Qur'an because it says things like this: Qur'an 5:104 "When it is said to them: 'Come to what Allah has revealed; come to the Messenger.' They say: 'Enough for us are the ways we found our fathers following.' What! Even though their fathers were void of knowledge and guidance?" Qusayy founded the religious scam that Muhammad promoted as Islam. How could he have been void of guidance if Allah was his god, the Ka'aba was his shrine, the hajj and umrah were his pilgrimages, the prostration, fasts, and the sacred months were his rituals, the zakat tax his means, and holy war his method?
But there was a man without knowledge. His name was Muhammad. Qur'an 5:109 "One day Allah will gather the messengers together, and ask: 'What was the response you received (from men to your teaching)?' They will say: 'We have no knowledge.'" So all of Allah's messengers will be called together and they will say that they know nothing.
The same surah that says: "Disbelievers are those who say that God is the third in the Trinity,'" now proclaims: Qur'an 5:110 "And God will say: 'O Jesus! Recount My favor to you and to your mother. Behold! I strengthened you with the Holy Spirit so that you spoke to the people in the cradle and in the prime of life.'" That's the Trinity: God (Yahweh), Jesus (Yahshua), and the Holy Spirit (Yahweh's/Yahshua's Spirit). So I guess that makes the Islamic god a disbeliever. Can't say that I blame him.
"Behold! I taught you the law and the judgment, the Torah and the Gospel." Actually, Yahweh revealed the Torah, the Gospels are the good news of freedom from judgment, and they were written about him, not taught to him. But even Babe Ruth struck out sometimes.
Not finished swinging wildly away, Allah quotes an obscure and irrelevant story from an Egyptian text falsely attributed to Thomas. "And behold, you made out of clay, as it were, the figure of a bird and you breathed into it and it became a bird by My permission." Trivia aside, Muhammad knew that his god had an embarrassing problem - one he didn't want to talk about - impotence. He couldn't do a miracle. So to help his god out, Muhammad claimed that the Messiah's miracles were really performed by Allah. "And you healed those born blind by My permission and the lepers by My permission. And behold! You raised forth the dead by My permission." Muhammad not only stole Jewish scripture, possessions, homes, property, wives, and children; he stole their miracles, too.
But that was enough. He wanted nothing to do with Christ's sacrifice. According to the Qur'an, that crucifixion thing never happened. "And behold! I did restrain the Children of Israel from harming you when you came with clear proofs." Then to make Christ's situation somewhat analogous to his own, Muhammad said: "And the unbelievers among the Jews said: 'This is nothing but pure magic.'"
Delusional to the last breath, Allah claims that Christ's disciples were Muslims. I wonder why they didn't say so? Qur'an 5:111 "And behold! I inspired the disciples to have faith in Me and My Messenger. They said, 'We are Believers, and bear witness that we prostrate ourselves to Allah as Muslims.'" Surely you jest.
After claiming credit for Christ's best miracles, Allah says that miracles aren't what they're cracked up to be. Qur'an 5:112 "Behold! The disciples, said: 'O Jesus, can your Lord send down to us a table well laid out from heaven.' Said Jesus: 'Fear Allah, if you have faith.'" In other words, "No." "When the disciples said: 'O Jesus, son of Mary, is your Lord able to send down for us a table spread with food from heaven.' He said: "Observe your duty to Allah, if you are true believers.'" No miracles for you.
Since the Qur'an claims Christ performed miracles, this is senseless: Qur'an 5:113 "They said: 'We only wish to eat thereof to satisfy our hearts, and to know you have told us the truth. We want to witness a miracle.' Said Jesus, the son of Mary: 'O Allah our Lord! Send us from heaven a table well laid out, that there may be a feast, a Sign from you."
Ever in character Allah promises and threatens: Qur'an 5:115 "Allah said: 'I am going to send it down unto you, but if any of you after that disbelieves, resisting Faith [Islam], I will punish him with a torment such as I have not inflicted on any of my creatures, man or jinn.'" The "Feast" for which this surah is named was never described or even mentioned again. Which means it never happened. But, just three verses from the Qur'an's parting salvo Allah tells Christians "I will punish them with a torment such as I have not inflicted on any of my creatures." Pain and punishment, thievery and terror, savagery and slavery, these are the things at which Allah excels. In that regard, nothing has changed. Twenty-two years earlier, the first Qur'an revelations were demonic to a fault, fixated on hellish tortures. One hundred and fourteen surahs later, we haven't progressed very far. We are still mired in the realm of doom and damnation.
As you know by now Muhammad was easily confused. Even the Qur'an said that those around him claimed, "He was all ear and believes everything he hears." Well, he must have heard some Catholic say a "Hail Mary" and came to the conclusion that Christians believed she was a goddess. Qur'an 5:116 "And behold! Allah will say: 'O Jesus, the son of Mary! Did you say unto men, worship me and my mother as two gods besides Allah.' He will say: 'Glory to You! Never could I utter what I had no right.'" Wouldn't you know, the man who fancied himself the Messiah, finished his recital uttering what he had no right.
The second to last verse remains focused on Yahshua, converting him into a Muslim: Qur'an 5:117 "I only said what You (Allah) commanded me to say: Worship Allah, my lord and your Lord." Then, without benefit of the crucifixion, Yahshua was resurrected: "I was a witness over them while I dwelt amongst them but you took me up." The Noble Qur'an goes on to say: "This is a great admonition and warning to the Christians of the whole world." So Islamic salvation is capricious and based upon "god's. whim, not man's choice: Qur'an 5:118 "If You punish them, they are Your slaves. If You forgive them, you are the All-Mighty."
Having damned Christians and Jews, having condemned their Scripture, having ordered Muslims to murder and mutilate them, and having converted David and Jesus to Islam, the Qur'an's final verse explained what motivated Muhammad to perpetrate Islam in the first place: Qur'an 5:119 "Allah will say: This is the day on which the Muslims will profit from Islam..."
Since Islam began by corrupting the Bible, I'd like to give Yahweh the last word: "For what does it profit a man to gain the whole world, and forfeit his soul?" (Mark 8:36)
Prophet of Doom

Friday, 11 December 2009

क़ुरआन - अल्मायदा ५



पाँचवीं किस्त




सूरह मायदा -5


(5 The Food)



धर्म और ईमान के मुख्तलिफ नज़रिए और माने अपने अपने हिसाब से गढ़ लिए गए हैं. आज के नवीतम मानव मूल्यों का तकाज़ा इशारा करता है कि धर्म और ईमान हर वस्तु के उसके गुण और द्वेष की अलामतें हैं. इस लम्बी बहेस में न जाकर मैं सिर्फ मानव धर्म और ईमान की बात पर आना चाहूँगा. मानव हित,जीव हित और धरती हित में जितना भले से भला सोचा और भर सक किया जा सके वही सब से बड़ा धर्म है और उसी कर्म में ईमान दारी है.वैज्ञानिक हमेशा ईमानदार होता है क्यूँकि वह नास्तिक होता है, इसी लिए वह अपनी खोज को अर्ध सत्य कहता है. वह कहता है यह अभी तक का सत्य है कल का सत्य भविष्य के गर्भ में है.मुल्लाओं और पंडितों की तरह नहीं कि आखरी सत्य और आखरी निजाम की ढपली बजाते फिरें. धर्म और ईमान हर आदमी का व्यक्तिगत मुआमला होता है मगर होना चाहिए हर इंसान को धर्मी और ईमान दार, कम से कम दूसरे के लिए. इसे ईमान की दुन्या में ''हुक़ूक़ुल इबाद'' कहा गया है, अर्थात ''बन्दों का हक'' आज के मानव मूल्य दो क़दम आगे बढ़ कर कहते हैं ''हुक़ूक़ुल मख्लूकात'' अर्थात हर जीव का हक.
धर्म और ईमान में खोट उस वक़्त शुरू हो जाती है जब वह व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो जाता है. धर्म और ईमान , धर्म और ईमान न राह कर मज़हब और रिलीज़न यानी राहें बन जाते हैं. इन राहों में आरंभ हो जाता है कर्म कांड, वेश भूषा,नियमावली , उपासना पद्धित, जो पैदा करते हैं इंसानों में आपसी भेद भाव. राहें कभी धर्म और ईमान नहीं हो सतीं. धर्म तो धर्म कांटे की कोख से निकला हुआ सत्य है, पुष्प से पुष्पित सुगंध है, उपवन से मिलने वाली बहार है. हम इस धरती को उपवन बनाने के लिए समर्पित राहें यही मानव धर्म है. धर्म और मज़हब के नाम पर रची गई पताकाएँ, दर अस्ल अधार्मिकता के चिन्ह हैं.
लोग अक्सर तमाम धर्मों की अच्छाइयों(?) की बातें करते हैं यह धर्म जिन मरहलों से गुज़र कर आज के परिवेश में कायम हैं, क्या यह अधर्म और बे ईमानी नहीं बन चुके है? क्या यह सब मानव रक्त रंजत नहीं हैं? इनमें अच्छाईयां है कहाँ? जिनको एह जगह इकठ्ठा किया जाय, यह तो परस्पर विरोधी हैं..

और अब लीजिए कुरआनी बक्वासें पेश हैं - - -

" और जब वोह (सूफी, संत, दुरवैश और रहिब) इस को सुनते हैं जो कि मुहम्मद (इस्लाम) की तरफ से भेजा गया है, तो उनकी आँखें आंसुओं से बहती हुई दिखती हैं, इस सबब से कि उन्हों ने हक को पहचान लिया है. कहते हैं कि ए हमारे रब! हम मुस्लमान हो गए, तो हम को भी इन लोगों में लिख लीजिए जो तस्दीक करते हैं, और हमारे पास कौन सा उज्र है कि हम अल्लाह ताला पर और जो हक हम पर पहुंचा है, इस पर ईमान न लाएँ और इस बात की उम्मीद रक्खें कि हमारा रब हम को नेक लोगों की जमाअत में हमें दाखिल करेगा."
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा(वइज़ासमेओ)-आयत (75)
सूफी और दरवेश हमेशा से इसलाम से भयभीत और बेजार रहे हैं. इस के डर से वोह गरीब बस्तियों को छोड़ कर वीरानों में रहा करते थे.प्रसिद्ध संत उवैस करनी मोहम्मद का चाहीता होते हुए भी उनसे कोसों दूर जंगलों में रहता था. इस्लामी हाकिमो के खौफ से वोह हमेशा अपना पता ठिकाना बदलता रहता कि कहीं इस को मोहम्मद के कुर्बत में जा कर 'मोहम्मादुर रसूल अल्लाह' न कहना पड़े.मोहम्मद के वासीअत के मुताबिक मरने के बाद उनका पैराहन उवैस करनी को भेंट किया जाना था, समय आने पर, जब पैराहन को लेकर अबू बकर और अली बमुश्किल तमाम उवैस तक पहंचे तो पाया की वोह ऊँट चरवाहे की नौकरी कर रहा था. उन हस्तियों से मिल कर या पैराहन पाकर उसके चेहरे पर कोई खास रद्दे अमल न देख कर दोनों मायूस हुए. बहुत देर तक खमोशी छाई रही, जिसको तोड़ते हुए अबू बकर बोले उम्मत ए मोहम्मदी के लिए कुछ दुआ कीजिए.फकीर दुआ के बहाने उठा और अपने हुजरे के अन्दर चला गया. बहुत देर तक बाहर न निकला तो इन दोनों को उस से बेजारी हुई, हुजरे के दर से सूफ़ी को आवाज़ दी कि बाहर आएं, उवैस बर आमद हुवा और कहा जल्दी कर दी वर्ना पूरी उम्मते मुहम्मदी को बख्शुवा लेता.दोनों दरवेश के रवैयए से खिन्न होकर वापस हुए.बाद मआश ओलिमा ने ओवैस करनी की उलटी कहानिया गढ़ राखी हैं. यही हाल मशहूर सूफ़ी हसन बसरी का था.
हसन बसरी और राबिया बसरी मुहम्मद के बाद तबा ताबेईन हुए, जो बागी ए पैगंबरी थे और मुहम्मदुर रसूल अल्लाह कभी नहीं कहा.हसन बसरी का वक़ेआ मशहूर है कि एक हाथ में आग और दूसरे हाथ में पानी ले कर भागे जा रहे थे, लोगों ने पूंछा कहाँ? बोले जा रहा हूँ उस दोज़ख को पानी से ठंडी करने जिसके डर से लोग नमाज़ पढ़ते हैं और उस जन्नत को आग लगाने जिस की लालच में लोग नमाज़ पढ़ते हैं. मोहम्मद की गढ़ी जन्नत और दोज़ख का उस वक़्त ही हस्तियों ने नकार दिया था जिसको आज मान्यता मिली हुई है, ये मुसलमानों के साथ कौमी हादसा ही कहा जा सता है.
*हम मुहम्मदी अल्लाह की एक बुरी आदत पर आते हैं - - -
कुरानी आयातों से ज़ाहिर होता है की अरबों में कसमें खाने का बड़ा रिवाज था.यह रोग शायद भारत में वहीँ से आया है,वरना यहाँ तो प्राण जाए पर वचन न जाय की अटल बात थी. अल्लाह भी अरबों की खसलत से प्रभावित है. कसमें भी जानें किन किन चीजों की और कैसी कैसी. वह बन्दों के लिए दो किस्में कसमों की मुक़ररर करता है--पहली इरादा कसमें, और दूसरी पुख्ता कसमें.
" अल्लाह तुम से जवाब तलबी नहीं करता तुम्हारी कसमों पर, ब्यर्थ किस्म की हों, लेकिन जवाब तलबी इस पर करता है कि क़सम को पुख्ता करो और तोड़ दो.सो इस का कफ्फारा (प्रयश्चित) दस मोहताजों को खाना देना है या औसत दर्जे का कपडा देना या एक गर्दन को आजाद करना या कुछ न हो सके तो तीन दिन का रोजा रखना."
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा(वइज़ासमेओ)-आयत (77)
देखिए कि कितना आसन है इसलाम में मुसलमानों के लिए झूट बोलना, वह भी कसमें खा कर. इरादा (निशचय)कसमें अल्लाह की, रसूल, क़ुरआन की, माँ बाप की, दिन भर कसमें खाते रहिए, अल्लाह इसकी जवाब तलबी नहीं करता, हाँ अगर पुख्ता (ठोंस) क़सम खा ली तो फिर गज़ब हो जाने वाला नहीं, बस सिर्फ तीन रोज़ का दिन का फाका, जो कि गरीब को यूँ भी उस वक़्त उपलब्ध नहीं हुवा करता था. इसको रोजा कहते हैं, इसमें सवाब भी है. किस क़दर झूट की आमेज़िश है कुरानी निजाम में जिसे अनजाने में हम "पूर्ण जीवन व्यव्स्था" कहते हैं.अदालतों में क़ुरआन पर हाथ रख कर क़सम खाते है जो खुद झूट बोलने की इजाज़त देता है.आर्श्चय होता है न्याय के अंधे विश्वास पर.
देखिए कि हर मुस्लिम ही नहीं मुझ जैसा मोमिन भी इस ईमानी कमजोरी से कितना कुप्रभावित है, खुद मेरी बीवी इरादा कसमे खाने की आदी है जिसको हजम करने के हम आदी हो चुके हैं. पुख्ता यानी ठोंस झूट भी उसके बहुत से पकडे गए हैं जिसके लिए वह अक्सर पुख्ता कसमें खा चुकी है. मज़े की बात ये है कि वह कफ्फारा भी मेरी कमाई से अदा करती है,पक्की मुसलमान है, क़ुरआन की तिलावत रोजाना करती है और इन कुरानी फार्मूलों से खूब वाकिफ है. सच है कि गैर मुस्लिम शरीके हयात बेहतर होती बनिस्बत एक मुसलमान के.

"ऐ ईमान वालो! अल्लाह क़द्रे शिकार से तुम्हारा इम्तेहान करेगा. जिन तक तुम्हारे हाथ और तुम्हारे नेज़े पहुँच सकेंगे ताकि अल्लाह समझ सके कि कौन शख्स इस से बिन देखे डरता है. सो इसके बाद जो शख्स हद से निकलेगा इसके लिए दर्द नाक सजा है"
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (94)
दिलों कि बात जानने वाला मुहम्मदी अल्लाह मुसलमानों का प्रेटिकल इम्तेहान ले रहा है और बेचारी क़ौम उसी इम्तेहान में मुब्तिला है, न शिकार रह गए हैं न नेज़े. आलिमान दीन ने इन आयात को गोबर सुंघा सुंघा कर कर मरी मुसरी को ज़िदा रखा है. मुस्लिम अवाम जब तक खुद बेदार होकर कुरानी बोझ को सर से दफा नहीं करते तब तक कौम का कुछ होने वाला नहीं.
"अल्लाह तअला ने गुज़श्ता को मुआफ कर दिया और जो शख्स फिर ऐसी ही हरकत करेगा तो अल्लाह तअला उस से इंतकाम ले सकते हैं."
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (95)
अल्लाह न हुवा बल्कि बन्दा ए बद तरीन हुआ जो इन्तेकाम(प्रतिशोध) भी लेता है।

इसी आयत पर शायद जोश मलीहा बादी कहते हैं - - -


गर मुन्तकिम है तो खोटा है खुदा,
जिसमें सोना न हो, वह गोटा है खुदा,
शब्बीर हसन खाँ नहीं लेते बदला,
शब्बीर हसन खाँ से भी छोटा है खुदा.

पिछले सारे गुनाह मुआफ आगे कोई खता नहो, बस कि बद नसीब मुसलमान बने रहो. इस मुहम्मदी अल्लाह से इंसानियत को खुदा बचाए.
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निसार ''निसार-उल-ईमान''
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हमीं नहीं कि तुम पे निसार और भी हैं ___________________________________________________________________________________

Rotten to the bitter end, the Qur'an protests: Qur'an 5:78 "Curses were pronounced on the unbelievers, the Children of Israel who rejected Islam, by the tongues of David and of Jesus because they disobeyed and rebelled." Qur'an 5:80 "You see many of them allying themselves with the Unbelievers [other translations read: "Infidels"]. Vile indeed are their souls. Allah's wrath is on them, and in torment will they abide." Qur'an 5:81 "If only they had believed in Allah, in the Prophet, and in what had been revealed to him." Qur'an 5:82 "You will find the Jews and disbelievers [defined as Christians in Qur'an 5:73] the most vehement in hatred for the Muslims." Not only are Jews and Christians "vile" according to Allah and thus destined for eternal torment, their leaders, "David and Jesus" will be the ones cursing them. Weird.
The last half of the 82nd verse concludes with these contradictory words. It's as if Muhammad hadn't been listening to his own vitriolic diatribe. "And nearest among them in affection to the Believers will you find those who say, 'We are Christians,' because amongst these are priests and monks, men devoted to learning who have renounced the world, and are not arrogant." I can almost hear the False Prophet of Revelation fame, the Pontiff of the one-world religious order that sweeps the globe during the last days, quoting this verse (out of context, of course).
And how, pray tell, can Christians be "nearest in affection to the Believers" if: Qur'an 5:51 "Believers, take not Jews and Christians for your friends. They are friends to each other. He who befriends them becomes (one) of them. Lo! Allah guides not wrongdoing folk?" Or how do priests and monks "renounce the world" if: Qur'an 9:34 "Believers, there are indeed many among the priests who in falsehood devour the wealth of mankind and wantonly debar (men) from the way of Allah. They who hoard gold and silver and spend it not in Allah's Cause, unto them give tidings of a painful doom?"
Still speaking of Christians - the people he had gleefully called vile and condemned to hell, the schizophrenic god lies: Qur'an 5:83 "And when they listen to the revelation received by this Messenger, you will see their eyes overflowing with tears, for they recognize the truth. They pray: 'Our Lord! We believe. Write us down among the witnesses." I didn't think they had hallucinogenic drugs back then, but somebody must have spiked the water. In this very same surah, we were told: Qur'an 5:14 "From those who call themselves Christians, We made a covenant, but they forgot and abandoned a good part of the message that was sent them: so we estranged them, stirred up enmity and hatred among them to the Day of Doom. Soon will Allah show them the handiwork they have done." Team Islam is very confused.
Qur'an 5:84 "'What reason can we [Christians] have not to believe in Allah and the truth which has come to us, seeing that we long for our Lord to admit us to the company of the good people?'" I'll take a stab at that one. Good Muslims are killing Christians because their messenger and his god commanded them to wipe them out to the last. The Qur'an denies Christ's entire mission, his sacrifice, and deity. Then there's the fact that Muhammad was a rotten scoundrel. Qur'an 5:86 "But those who reject Islam and are disbelievers, denying our Signs and Revelations - they shall be the owners of the Hell Fire." Hey, at least Muhammad's Muslims won't steal everything from the Christians.
Coming from a man whose father was spared by divination of arrows, a man who cast lots to determine which wife would accompany him on terrorist raids, one who kissed and fondled a Stone, and one who claimed that the rivers of paradise flowed with wine, this verse is entertaining. Qur'an 5:90 "Believers! Intoxicants and gambling, (dedication of) stones, and (divination by) arrows, are an abomination. They are Satan's handwork. Shun such (abomination) that you may prosper. Satan's plan is to excite hostility and hatred between you with wine and gambling, and hinder you from the remembrance of Allah, and devotional obligations." Therefore, Allah must be Satan since he's responsible for making the "rivers of paradise flow with wine." Allah must be Satan since his Qur'an "excites hostility and hatred." Allah must be Satan since young Muslim boys are commanded to buy into the unholiest of bargains - gambling their lives away by betting on martyrdom. Allah, the Black Stone, must be Satan since the "dedication of stones" is Satanic.
To hell with truth, Islam was about obedience. Qur'an 5:92 "Obey Allah and obey the Messenger, and beware!" And Islam was about war: Qur'an 5:94 "Believers, Allah will make a test for you in the form of a little game in which you reach out your hands for your lances that He may know who fears. Any who fails this test will have a grievous penalty, a painful punishment." According to Allah, suicide bombers aren't terrorists; they are just boys playing "games." And Allah's final test for determining salvation or damnation is based upon whether men reach for their lances.
While this verse starts off benign, listen to how it ends. Qur'an 5:95 "Believers! Kill not game while in the sacred precincts or in pilgrim garb. If any of you do so intentionally, the compensation is an offering, brought to the Ka'aba, of a domestic animal equivalent to the one he killed...that he may taste the penalty of his deed. Allah forgives what is past: for repetition Allah will exact a penalty. For Allah is the Lord of Retribution."
Forgetting for a moment that Adam and Abraham are both credited with making the Ka'aba, how can there be asylum during the "Sacred Months" when Muhammad launched his conquest of the Ka'aba during Ramadhan and proceeded to assassinate a dozen or more souls hiding behind its covers?
Prophet of Doom
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Thursday, 10 December 2009

क़ुरआन - सूरह अल्मायदा


चौथी किस्त


सूरह मायदा -5

(The Food-5)


''यहूदियों और ईसाइयों को दोस्त मत बनाना , वह एक doosre के दोस्त हैं और तुम में से जो शख्स उन से दोस्ती करेगा, बेशक वोह इन्हीं में से होगा."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (51)
कोई सच्चा रहनुमा कहीं इंसानों को इंसानों से इस तरह बुग्ज़ और नफरत की बातें सिखलाता है? मुहम्मद को अपना पैगम्बर मान कर वैसे भी हम तीन चौथाई दुन्या को दुश्मन बनाए हुए हैं. दोस्ती भी कोई अक़ीदत है ? दोस्ती तो हुस्ने एख्लाक पर मुनहसर करती है न कि हिदू मुस्लमान और ईसाई पर.
" ऐ ईमान वालो! जो शख्स तुम में से अपने दीन से फिर जाए तो अल्लाह बहुत जल्द ऐसी क़ौम पैदा कर देगा कि जिस को इस से मोहब्बत होगी और उसको इस से मुहब्बत होगी. मेहरबान होंगे वोह मुसलमानों पर और तेज़ होंगे काफिरों पर. जेहाद करने वाले होंगे अल्लाह की रह पर."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (54)
कितना कमज़ोर है मुहम्मद का गढा अल्लाह जो अपनी ही कमजोरी से परेशान है. अफ़सोस मुस्लमान ऐसे कमज़ोर अल्लाह के जाल में फंसे हुए हैं जो खुद जाल बुनते वक़्त घबरा रहा था.
तारीखी पास मंज़र में अल्लाह कहता है - - -
" जिन्हों ने तुम्हारे दीन को हंसी खेल बना रक्खा है, उनको और दूसरे कुफ्फार को दोस्त मत बनाओ और अल्लाह से डरो अगर तुम ईमान वाले हो और जब तुम नमाज़ के लिए एलन करते हो तो यह तुम्हारे साथ हँसी खेल करते हैं, इस सबब से कि वह लोग ऐसे हैं कि बिलकुल अक्ल नहीं रखते."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (59)
जब किसी क़ौम का गलबा होता है तो उसका छू मंतर भी काबिले एहतराम इबादत बन जाती है. नमाज़ कल भी एक संजीदा शख्स के लिए काबिले एतराज़ हरकत थी और आज भी हो सकती है. अवामी सतह पर उट्ठक- बैठक बनाम इबादत कल भी हंसी खेल रहा होगा आज भी यकीनन है. ऐसी बेतुकी हरकत को कम से कम इबादत तो नहीं कहा जा सकता. कम अकली के ताने देने वाला अल्लाह खुद अपने ऊपर शर्म करे कि दुन्या के कोने कोने से मुस्लमान अक्ल के अंधे काबा जाते है शैतान को कंकड़ीयाँ मरने.
" आप कहिए कि क्या मैं तुम को ऐसा तरीका बतलाऊँ जो इस से भी अल्लाह के यहाँ बदला लेने में ज़्यादा बुरा हो. वोह इन लोगों का तरीका है जिन को अल्लाह ने दूर कर दिया हो और इन पर गज़ब फ़रमाया हो और इन को बन्दर और सुवर बना दिया हो और इन्हों ने शैतान की परिस्तिश की हो."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (60)
मुहम्मदी अल्लाह का दिमाग कैसी कैसी गलाज़तों से भरा हुवा था? यही इबारत मुस्लमान सुबहो-शाम अपनी नमाजों में पढ़ते हैं. अगर अपनी जबान मैं पढें तो एक हफ्ते मैं शर्म से डूब मरें.
मुहम्मद से अल्लाह कहता है - - -
" और जो आप के पास आप के परवर दिगार की तरफ से भेजा जाता है वोह इनमें से बहुतों की सरकशी और कुफ्र का सबब बन जाता है और हम ने इन में बाहम क़यामत तक अदावत और बुघ्ज़ डाल दिया है. जब कभी लडाई की आग भड़काना चाहते हैं, अल्लाह ताला ,उसको फर्द कर देते हैं और मुल्क में फसाद करते फिरते हैं और अल्लाह ताला फसाद करने वालों को पसंद नहीं करते."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (64)
यह सोंच मुहम्मद की फितरत का आइना है जिसको उनके एजेंट सदियों से पुजवाते चले आ रहे हैं। मुहम्मद खुद परस्ती के सिवाए तमाम इन्सान और इंसानियत का दुश्मन था. इसकी उलटी मुश्तःरी करके आलिमों ने सारे दुन्या की बीस फी सद आबादी के साथ दगाबाज़ी की है और करते जा रहे हैं. मुसलामानों गौर करो की यह घटिया तरीन बातें जिनको किसी से कहने में खुद तुमको शर्म आए , तुहारे कुर आनी अल्लाह की हैं. वह कभी अपने बन्दों को बन्दर बना देता है तो कभी सुवर, कभी उनको आपस में लडवा कर ज़मीन पर फसाद कराता है, क्यूँ? क्यूं करता रहता है वह ऐसा? क्या कभी हुवा भी है ऐसा ? क्या मुहम्मद का झूट, उसकी साज़िश इन बातें में तुम को नज़र नहीं आती?अरे मेरे भाइयो! खुदा के लिए आँखें खोलो वर्ना मुहम्मद का अल्लाह तुम को बे मौत मारेगा. .
" और अगर यह लोग तौरेत की और इंजील की और जो किताब इन के परवर दिगर की तरफ से इनके पास पहुँच गई है उसकी पूरी पाबन्दी करते तो ये लोग अपने ऊपर से और अपने नीचे से पूरी फरागत से खाते."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (66)
लाहौल वलाकूवत! क्या मतलब हुवा मुहम्मदी अल्लाह का? आप खुद अख्ज़ करें कि उसका ऐसा फूहड़ मजाक अहले किताब के फरमा बरदारों के साथ? अच्छा हुवा कि न फरमान हुए वरना नीचे से खाना पड़ता, शायद इसी लिए नाफ़र्मान हो गए हों. मुहम्मद की गन्दी जेहेनियत ही कही जा सकती है. अनुवाद करने वाले मक्कार आलिम इसमें मानी ओ मतलब भरते रहें.
"बे शक वोह लोग काफ़िर हो चुके हैं जिन्हों ने कहा अल्लाह ताला में मसीह इब्ने मरियम है."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (72)
इस्लामी इस्तेलाह में किसी को काफिर कहना, उसे गाली देने की तरह होता है। अहले किताब यानी यहूदी और ईसाई काफिर नहीं होते हैं मगर मुहम्मद का मूड कब कैसा हो? ईसाइयों को उनके आस्था पर काफ़िर कहते है, जब की ईसाई खुद कुफ़्र (खास कर मूर्ती पूजा) को सख्त न पसंद करते हैं. इस तरह ईसाइयों का मुसलमानों से बैर बंधता गया.
" जो शख्स अल्लाह और रसूल की पूरी इताअत (आज्ञा करी)करेगा, अल्लाह ताला उसको ऐसी बहिश्तों में दाखिल कर देंगे जिस के नीचे नहरें जारी होंगी, हमेशा हमेशा इन में रहेंगे.ये बड़ी कामयाबी है,"
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा(वइज़ासमेओ)-आयत (75)
कुरआन में यह आयत मोहम्मद की कामर्सियल ब्रेक्क है और बार बार आती है.
" ऐ अहले किताब! तुम अपने दीन में न हक गुलू (मिथ्य) मत करो और उन लोगों के ख्याल पर मत चलो जो पहले ही गलती में आ चुके हैं और बहुतों को गलती में डाल चुके हैं."
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा(वइज़ासमेओ)-आयत (77)

ऐ मोहम्मद! दूसरों को राह मत दिखलाओ, पहले खुद राह-ऐ-रास्त पर आओ। अपनी उम्मत की ज़िन्दगी पलीद किए बैठे हो और अहल ए किताब यहूदियों और ईसाइयों को चले हो राह बतलाने।

निसार ''निसार-उल-ईमान''


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हमीं नहीं कि तुम पे निसार और भी हैं


If I've told you once, I've told you a thousand times... Qur'an 5:51 "Believers, take not Jews and Christians for your friends. They are but friends and protectors to each other." You'd think that Allah would occasionally get something right. But this is another ignorant mistake. Jews and Christians were antagonistic when this was "revealed," and they remained so for another thousand years. Qur'an 5:57 "Believers, take not for friends those who take your religion for a mockery or sport, a joke, whether among those who received the Scripture before you or among those who reject Faith; but fear Allah." In other words, don't hang out with rational people. This would be funny if they weren't killing us.
The Islamic god believes he turned Jews into apes and pigs. Qur'an 5:59 "Say: 'People of the Book! Do you disapprove of us for no other reason than that we believe in Allah, and the revelation that has come to us and that which came before.' Say: 'Shall I point out to you something much worse than this by the treatment it received from Allah? Those who incurred the curse of Allah and His wrath, those of whom He transformed into apes and swine." A Jew must have said that a swine had made monkeys of men.
Qur'an 5:64 "The Jews say: 'Allah's hands are fettered.'" As do I. If Allah is Yahweh, why can't he do any of the miracles with which he so vividly demonstrated his power throughout the Bible? Have Allah's hands become fettered?
For a "new" religion, Islam sure seems fixated on old ones. And for a "tolerant" dogma, it's overly intent on condemning others. Muhammad protests: "Be their hands tied up and be they accursed for the blasphemy they utter. Nay, both His hands are widely outstretched, giving [Muslims Jewish booty] as He pleases. Amongst them we have placed enmity and hatred till the Day of Doom. Every time they kindle the fire of war, Allah does extinguish it. But they strive to do mischief on earth." It had been 1,500 years since the Jews had fought offensively, and it would be nearly that long before they would fight again. Banished from the Promised Land by Assyrians, Babylonians, and most recently Romans, the Jews were just trying to survive, to get along. They were among the least "mischievous" people on the planet. It was Muhammad's militants who spiked the mischief scale. They had lied and looted in the process of "kindling the fires of war" seventy-five times in the first nine years of the Islamic Era.
Qur'an 5:65 "If only the People of the Book had believed, We should indeed have blotted out their evil deeds [of rejecting and mocking] and admitted them to the Gardens of Bliss." Not knowing enough to be lucid, Muhammad takes a lame swipe at assuaging his conscience by inferring that the plight of the Jews wasn't his fault. "If only they had observed the Torah, the Gospel, and all the revelation that was sent to them from their Lord, they would have enjoyed happiness from every side." While it's true Jews would have been "happier" if they had followed their Torah and accepted the Gospel, Allah makes a fool of himself by saying it because he repudiates the Torah, dismantling the Ten Commandments, and his prophet's behavior was the antithesis of the message proclaimed in the Gospels. As a result, the Jews were besieged on every side by the Islamic terrorists who, in the name of Allah, stole their homes and possessions, murdered their men, raped their women, and enslaved their children.
Goebbels proposed a theory which states: "If a lie were repeated often enough and long enough, it would come to be perceived as truth." It's true today; virtually everyone - Muslims, Christians, and Jews, political leaders, media spokespeople, and common folk - are befuddled by Islam. They view Qusayy's Ka'aba Inc. and Khadija's Profitable Prophet Plan as a religion. They think that it's peaceful and tolerant because other religions are peaceful and tolerant - it's innocence by association. They believe that Allah is God and that Islam is one of many paths to him. As a result, over a billion Muslims live in religious, economic, intellectual, and political poverty, and five billion others live in fear of them. Islamic terrorism runs amuck because Islam runs amuck. And Islam runs amuck because non-Muslims tolerate it.
Qur'an 5:67 "Messenger, deliver the (message) which has been sent to you from your Lord. If you do not, you will not have delivered His message. And Allah will protect you from people." The opening lines are too dumb for words, much less scripture. The last is too sinister to be believed. Why does Allah need to promise to protect his delivery boy? Is Muhammad a coward? Is he so insecure that mocking, ridicule, and rejection have overwhelmed him? Or is the messenger afraid that he who lives by spewing poison will die by being poisoned?
Ever the hypocrite, Allah's poison pen proclaims: Qur'an 5:68 "Say: 'O People of the Scripture Book! You have no ground to stand upon unless you observe the Taurat [Torah], the Injeel [Gospel], and all the revelation that has come to you from your Lord [Muhammad's recitals].' It is the revelation [of the Qur'an] that comes to you from your Lord (Muhammad), is certain to increase their rebellion and blasphemy. But grieve you not over (these) unbelieving people." It's another Islamic first; Allah's scripture causes people to rebel against God. And the reason is that Muhammad never understood the Torah's place in the Hebrew Scriptures or the Gospel's role in the Christian Bible, much less their relationship one to the other.
Calling Allah "God" was blasphemy of the first order, but for rebellion, consider this: from the dawn of recorded history (2500 B.C.) to the creation of Islam (620 A.D.) Arabs were among the freest, most self-reliant, tolerant, and least warlike people on earth. There is no record of them conquering or looting neighboring nations. Then everything changed. In the first ten years of the Islamic Era, under the leadership of Muhammad, they initiated scores of terrorist campaigns - pillaging their way to infamy. The following year, Abu Bakr's War of Compulsion forever sealed their fate. He forced every Arab into submission. They lost their freedom, self-reliance, tolerance, and peaceable nature forever. Over the next six years, Arabs - now Muslims - fought six bloody crusades conquering what is today Yemen, Syria, Israel, Jordan, Egypt, Turkey, Iraq, and Iran. They would go on wielding swords over the necks of civilized people from Spain to India. Their victims were always given three choices: surrender and capitulate (accept Islam and pay the zakat tax); surrender and pay the jizyah protection tax in humility; or die. Islam was the sole impetus for the "increase in rebellion." And lest we forget, the collection of spoils and taxes was the motivation. So I challenge you - even dare you - to explain this change of heart any other way.
Muslims take this next verse out of context and use it to promote Islam as peaceful and tolerant. Qur'an 5:69 "Those who believe (in the Qur'an), those who follow the Jewish (Scriptures), and the Sabians and the Christians - whoever believes in Allah and the Last Day, and does right - on them shall be no fear, nor shall they grieve." The Concise Encyclopedia of Islam says of the Sabians: "A people named in the Qur'an along with Christians, Jews and Zoroastrians (Qur'an 22:17), as having a religion revealed by Allah.... They were Hellenistic pagans with roots to the ancient Babylonian religions." Therefore, since the Sabians worshiped the Greek gods and followed the occult practices of Babylon, it would make Allah Satan if he revealed their religion.
Returning to the core of the verse we discover that by including the "whoever believes in Allah" segment between the dashes - Muhammad dashed any semblance of tolerance. Muslims were the first believers listed, thus the dashed portion was established to require Islamic submission from the others to qualify for "no fear or grief." Additionally, in context, this verse contradicts any notion of Islamic tolerance. The previous verse said that Jews were blasphemers. Ten verses earlier they were called "apes and swine." And throughout, Christians have been defined as "disbelievers," thus evoking the wrath of the 8th and 9th surahs - the Qur'an's War Manifestos.
Before we press on, I'd like you to consider the 98th surah - one revealed about this same time. Allah said Christianity and Judaism were "false religions." Qur'an 98:1 "Those among the People of the Book, who disbelieve and are idolaters [making Christians and Jews pagans], would never have been freed from their false religion if the Clear Proofs had not come to them. An Apostle of Allah came reading out of hallowed pages, containing firm decrees.... They were commanded to serve Allah exclusively, fulfilling their devotional obligations, and paying the zakat. Surely the unbelievers and idolaters from the People of the Book will abide in the Fire of Hell. They are the worst of creatures."
So I pose this question to the world's cadre of Islamic scholars: if Qur'an 5:69 is testimony to Islamic tolerance, why does Qur'an 98:1 contradict it? Further, if Allah was Yahweh, why isn't there an order for fighting in his cause, for paying the zakat tax, for observing holy months, for performing devotional obligations, for Ramadhan fasting, or for participating in the hajj pilgrimage in the Ten Commandments? And while we are on the subject of Exodus 20, most everything Muhammad did violated Yahweh's commands. How could that be if the Qur'an confirmed the Torah? How can Judeo-Christianity be a false religion if Allah revealed it and then confirmed it?
Preoccupied with the Jews, the Arab god attacks them again: Qur'an 5:70 "We took a solemn pledge from the Children of Israel and sent messengers to them; but every time a messenger came bringing something that did not suit their mood - they called one an impostor, another they slew. They imagined that there would be no trial (or punishment); so they became willfully blind and deaf." Muhammad is inferring that the Jews called him an "imposter" and that they "slew" Christ. But that's a problem for Islam because the Qur'an claims "Jesus" wasn't killed and history confirms that while he was crucified, the Jews didn't do it.
These next two verses, combined with Qur'an 5:17 and 98:1, condemn Christians to endure the cutting edge of Islamic terror - forever. Throughout the Qur'an's most violent surahs (4, 5, 8, 9, 33, 47, 48, 59, 60, and 61) Muhammad used the words "infidel," "unbeliever," and "disbeliever" to describe his enemy. Then in the 5th surah, the prophet defined his terms. "Infidels, unbelievers, and disbelievers" become Christians; and thus they inherited the legacy of Islam's sword.
While it was ingenious and efficient, it was also transparent and immoral. Muhammad had robbed, enslaved, and killed every significant Jewish settlement in Arabia. After enduring ten years of terror, the Quraysh had surrendered, as had most every Arab town within Islam's reach. There was nothing left to steal. But having turned self-sufficient and peaceful men into bloodthirsty pirates, Muhammad needed a new enemy.
So... Qur'an 5:72 "They are surely infidels who blaspheme and say: 'God is Christ, the Messiah, the son of Mary.' But the Messiah only said: 'O Children of Israel! Worship Allah, my Lord and your Lord.'" Now that the Qur'an has brought the 14th chapter of John's Gospel to our attention, we know that Christ, the Messiah, claimed that he was God. Thus Allah is doing what he does best: lie. "Lo! Whoever joins other gods with Allah or says He has a partner, Allah has forbidden Paradise, and the Hell Fire will be his abode. There will for the wrong-doers be no one to help." Qur'an 5:73 "They are surely disbelievers who blaspheme and say: 'God is one of three in the Trinity for there is no ilah (god) except One, Allah. If they desist not from saying this (blasphemy), verily a grievous penalty will befall them - the disbelievers will suffer a painful doom."
With that said, "Christian" must now be substituted for "infidel" and "disbeliever" in every verse commanding Muslims to fight, kill, terrorize, plunder, or enslave. "Must" because of Qur'anic abrogation. Qur'an 2:106 proclaims: "Whenever We cancel a verse or throw it into oblivion, We bring one which is better." The 5th surah was the last handed down and thus its commands and definitions abrogate all others. The result is as clear as the skies over New York at 8:45 A.M. E.D.T., the 11th of September 2001. I'm sorry to be the bearer of such bad news, but this is why Muslims kill Americans. They believe we are Christians.
The prophet-less profit, the miracle-less apostle, the illiterate messenger of "scripture" (Latin for writing) felt the need to disparage the Messiah and his mission once more. Qur'an 5:75 "The Messiah, Christ, the son of Mary, was no more than a messenger; many were the messengers that passed away before him. His mother was a woman of truth. They had to eat their food. See how Allah does make His signs clear to them; yet see in what ways they are deluded!" Speaking of deluded, the Qur'an previously revealed that "Jesus" didn't "pass away." We were told that Allah raised him. Qur'an 4:157 "'We [Jews] killed the Messiah, Jesus.' but they killed him not, nor crucified him. It appeared so to them (as the resemblance of Jesus was put over another man and they killed that man). Nay, Allah raised him up unto Himself. Those who differ with this version are full of doubts. They have no knowledge and follow nothing but conjecture. For surely they killed him not."
The impotent Islamic god had the nerve to grumble: Qur'an 5:76 "Say: 'Will you serve something which has no power either to harm or benefit you?" This is followed by something that, considering the context of the Islamic Hadith, may be the most hypocritical statement yet spoken. Qur'an 5:77 "Say (Muhammad): 'People of the Book! Exceed not in your religion the bounds of what is proper, trespassing beyond truth, nor follow the vain desires of people who erred in times gone by, who led many astray."
Prophet of Doom

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Tuesday, 8 December 2009

क़ुरआन - सूरह अल्मायदा


तीसरी किस्त



सूरह मायदा -5
(5 The Food)




तालिबान अफगानिस्तान से खदेडे जाने के बाद अब पाकिस्तान पर जोर आजमाई कर रहा है,बिलकुल इसलाम का प्रारंभिक काल दोहराया जा रहा है जब मुहम्मद बज़ोर गिजवा (जंग) हर हाल में इसलाम को मदीना के आस पास फैला देना चाहते थे। वह अपने हुक्म को अल्लाह का फ़रमान क़ुरआनी आयतों द्वारा प्रसारित और प्रचारित करते. लोगों को ज़बर दस्ती जेहाद पर जाने के लिए आमादा करते, लोग अल्लाह के बजाय उनको ही परवर दिगर! कह कर गिडगिडाते की आप हम को क्यूं मुसीबत में डाल रहे हैं तो वह ताने देते की औरतों की तरह घरों में बैठो.मज़े की बात ये कि जंगी संसाधन भी खुद जुटाओ. एक ऊँट पर ११-११ जन बैठते. ये सब क़ुरआन में साफ साफ़ है जिसे इस्लामी विद्वान छिपाते हैं और जालिम तालिबान सब जानते हैं.आज भी तालिबान अपने अल्लाह द्वतीय मुहम्मद के ही पद चिन्हों पर चल रहे है. इन्हें इंसानी ज़िन्दगी से कोई लेना देना नहीं,बस मिशन है इस्लाम का प्रसार। इसी में उनकी हराम रोज़ी का राज़ छुपा है.
इधर पाकिस्तान का धर्म संकट है कि इस्लाम के नाम पर बन्ने वाला पाकिस्तान जब तालिबानियों द्वारा इस्लामी मुल्क पूरी तरह बन्ने की दर पर है तो उसकी हवा क्यूं ढीली हो रही है? उसका रूहानी मिशन तो साठ साल बाद मुकम्मल होने जा रहा है. निजामे मुस्तफा ही तो ला रहे हैं ये तालिबानी. मुस्तफा यानी मुहम्मद जो बच्ची के पैदा होने को औरत का पैदा होना कहते थे (क़ुरआन में देखें ) औरत पर पर्दा लाजिम है. मुहम्मद ने सात साला औरत आयशा के साथ शादी रचाई, आठ साल में उस से सुहाग रात मनाई और परदे में बैठाया, तालिबान अपने रसूल की पैरवी करके क्या गलत कर रहे हैं? उनको ख़त्म करके पाकिस्तान इस्लाम को क़त्ल कर रहा है, कोई मुल्ला उसे फतवा क्यूं नहीं दे रहा? "मुहम्मद मैले कपडे लादे रहते" इस ज़रा सी बात पर पाकिस्तान न्यायलय ने एक ईसाई बन्दे को तौहीन ए रिसालत के जुर्म में सजाए मौत दे दिया था, आज पाक अद्लिया किं कर्तव्य विमूढ़ क्यूँ ? पाक इसलाम के तलिबों से लड़ने के साथ साथ कुफ्र से भी (भारत) लडाई पर आमादा है. कहते हैं कि उसकी एटमी हत्यारों का रुख भारत की ओर है. यह पाकिस्तान की गुमराही ही कही जाएगी.
मज़हब के नाम पर जो हमारे बड़ों ने अप्रकृतिक बटवारा किया था उसका बुरा अंजाम सामने है, बहुत बुरा हो जाने से पहले हम को सर जोड़ कर बैठना चहिए कि हम १९४७ की भूल सुधारें और फिर एह हो जाएँ. इसतरह कल का हिदोस्तान शायद दुन्या कि नुमायाँ हस्ती बन कर लोगों कि आँखें खैरा कर दे। मगर भारत के हिदुत्व के पाखंड को भी साथ साथ ख़त्म करना होगा जो कि इस्लामी नासूर से कम नहीं।

लीजिए शुरू होती है क़ुरआनी गाथा - - -
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"यकीनन जो लोग काफ़िर हैं अगर उनके पास दुनिया भर की तमाम चीजें हों और उन चीज़ों के साथ उतनी चीजें और भी हों ताकि वोह उनको देकर रोजे क़यामत के अज़ाब से छुट जाएं, तब भी वोह चीजें उन से कुबूल न की जाएँगी और उनको दर्द नाक अजाब होगा."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (36)
इंसानी समाज में गरीब अवाम हमेशा ही ज्यादा रहे है. गरीब और अमीर की अज़्ली जंग भी हमेशा जारी रही है. गरीब अमीरों से नफ़रत तभी तक क़ायम रखता है जब तक अमारत को वोह खुद छू नहीं लेता और फिर वह अपने ही समाज की नफरत, हसद और लूट का शिकार बन जाता है. ईसा का कहना था ऊँट सूई के नाके से निकल सकता है मगर दौलत मंद जन्नत में दाखिल नहीं हो सकता. कार्ल मार्क्स ने इस इंसानी समाज का गनीमत हल निकाला, माओ ज़े तुंग ने इस को अमली जामा पहनाया जो अभी तक अपने आप में इज्तेहाद (सुधार) के साथ कामयाब है और बेदाग है.वहां इन इस्लामी आलिमों जैसी कोई नापाक मखलूक(जीव) या उसका बीज नहीं बचा है. कई कम्युनिस्ट मुमालिक के रहनुमाओं ने इसकी ना जायज़ औलाद जन्मी और नापैद हुए. मुहम्मद ने भी गुरबत की दुखती रग पर ही हाथ रख कर इतनी कामयाबी हासिल की, मगर उनकी तहरीक में सच्चाई की जगह खुराफ़ात थी और उनके बाद ही उनकी नस्ल में हसन ऐश और अय्याशी के शिकार होकर ज़िल्लत की मौत मरे. हुसैन अपने मासूम भानजों भतीजे, बच्चो और खानदान के दीगर लोगों को कुर्बान कर के खुद को इस्लामी फौज के हवाले किया, सिर्फ खिलाफत की लालच में. मुहम्मद की आमाल की बुरी सज़ा उनकी नस्लों को मिली.
काफ़िर इसलाम के वजूद में आने के बाद से लेकर आज तक धरती पर सुर्ख रू हैं.मुस्लमान ऊपर की आसमानी दौलत के चक्कर में दुनया की एक पिछड़ी क़ौम बन कर रह गई है. भारत में काफ़िरों की संगत में रह कर कुछ मुस्लमान अपनी हैसियत बनाने में कामयाब है, ख्वाह वोह सनअत में हों या फ़नकार हों, जिन पर आम मुस्लमान फख्र करते हैं और ये फटीचर मौलाना उनके सामने चंदे की रसीद लिए खड़े रहते हैं.
"और जो औरत या मर्द चोरी करे, सो उन दोनों के दाहिने हाथ गट्टे से काट डालो. इन के किरदार के एवाज़, बतोर सजा के, अल्लाह की तरफ से और अल्लाह ताला बड़ी कूवत वाले हैं और बड़ी हिकमत वाले हैं."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (38)
आज भी यह क़ानून सऊदी अरब में लागू है। काश कि यह वहशियाना क़ानून दुनया के तमाम मुल्कों में सिर्फ मुसलमानों पर लागू कर दिया जाए जिस तरह शादी और तलाक़ को मुस्लमान पर्सनल ला बना कर अलग अपनी डेढ़ ईंट की मस्जिद बनाए हुए है. कोई मुस्लिम तन्जीम या ओलिमा इस आयत को लेकर मैदान में नहीं उतरते कि मुस्लिम चोरों और उठाई गीरों के दाहिने हाथ गट्टे से काट दी जाएं. उन के लिए जो जेहाद के बहाने बस्तियों पर डाका डालते थे, मुहम्मद ने कोई सजा नहीं रखी , उनकी लूट को तो गनीमत करके निगलने जाने का फरमान है. चवन्नी की चोरी पर हाथ को घुटनों से काट देने का हुक्म? इंसान किन हालात में चोरी करने पर मजबूर होता है, ये बात कोई उम्मी सोंच भी नहीं सकता.
कुरानी अल्लाह का यहूदियों से खुदाई बैर चलता रहता है. इनका वजूद भी इसे अज़ीज़ है और इन की दुश्मनी भी. ज़बरदस्ती उनको अपना गवाह बनाए रहता है. इनकी कज अदाई पर कहता है
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" - - - और जिस को ख़राब होना ही अल्लाह को मंज़ूर हो तो इसके लिए अल्लाह से तेरा कोई जोर नहीं, यह लोग ऐसे हैं कि अल्लाह को इनके दिलों को पाक करना मंज़ूर नहीं. यह लोग गलत बात सुनने के आदी हैं, हराम खाने वाले हैं."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (41)
मुस्लमानो! अपने अल्लाह से पूंछो कि अगर बड़ी ताक़त वाला और बड़ी हिकमत वाला है तो इस ज़रा से काम में क्या क़बाहत है कि लोगों के दिलों को पाक कर दे. चुटकी बजाते ही ये काम उसके बस का है, और अगर नहीं कर सकता तो वोह भी बन्दों की तरह बेबस है. अगर वोह उनके दिलों को नापाक ही रहने देना चाहता है तो यह कुरानी नौटंकी क्यूँ? क्या उसको अपना जाँ नशीन चुनने के लिए मुहम्मद जैसा मक्के का महा-मूरख ही मिला था जो तमाम दुन्या में जेहालत की खेती करा रहा है.
कुरानी अल्लाह की यह बात भी दावते फ़िक्र देती है - - -
" और हम ने उन पर इस में ये बात फ़र्ज़ की थी कि जान के बदले जान, आँख के बदले आँख, नाक के बदले नाक, कान के बदले कान, दाँत के बदले दाँत और खास ज़ख्मों का बदला भी, फिर भी इस के लिए जो मुआफ करदे, वोह उसके लिए कुफ्फारा हो जाएगा - - - "
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (45)
मुन्तक़िम अल्लाह और मुन्तक़िम रसूल के कानून इस से कम क्या हो सकते हैं.
जेहालत को नए सिरे से लाने वाले अल्लाह के बने रसूल कहते हैं - - -
" यह लोग क्या फिर ज़माना ए जेहालत का फैसला चाहते हैं?"
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (50)
बाबा इब्राहीम का दौर इरतेकाई (रचना कालिक) दौर के हालात जेहालत की मजबूरी में कहे जा सकते हैं. फिर मूसा का दौर आते आते जेहालत की गाठें खुलती हैं मगर बरक़रार रहीं. ईसा ने इसे खोल कर इंसानी समाज को बड़ी राहत बख्शी. अरब दुन्या भी इस से फैज़याब हुई. .कुरआन गवाह है कि उम्मी मुहम्मद ने ईसा के किए धरे पर पानी फेर दिया और आधी दुन्या पर एक बार फिर जेहालत का गलबा हो गया.ताजुब है वह ही कह रहा है " यह लोग क्या फिर ज़माना ए जेहालत का फैसला चाहते हैं?" मुसलमान ही जाग कर अपनी किस्मत बदल सकते हैं, वगरना दुश्मने मुस्लमान यह सियासत दान और हरामी ओलिमा मुसलमानों को कभी भी जागने नहीं देंगे.
''यहूदियों और ईसाइयों को दोस्त मत बनाना , वह एक doosre के दोस्त हैं और तुम में से जो शख्स उन से दोस्ती करेगा, बेशक वोह इन्हीं में से होगा।"


नतीजे में आज सिर्फ ईसाई और यहूदी ही नहीं कोई कौम भी खुद मुसलमानों को दोस्त बनाना पसंद नहीं करती, यहाँ तक की मुसलमान भी एक बार मुसलमान को दोस्त बनाने के लिए सौ बार सोचता है.



निसार ''निसार-उल-ईमान''
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मेरे हम नवा

Not fear, fighting, terror, or booty. Neither submission nor obedience. Not painful punishments nor hateful tirades. Love: nothing more, nothing less.
Returning to the Qur'an we discover that Allah prefers torture to love. And while civilized man had advanced three thousand years from the time Hammurabi's laws were first pressed into clay tablets, Allah prefers the Stone Age. Yet it's fitting; it's where his Black Stone belongs. Qur'an 5:37 "The [Christian] disbelievers will long to get out of the Fire, but never will they get out there from; and theirs will be an enduring torture." Qur'an 5:38 "And as to the thief, male or female, cut off his or her hands: a punishment by way of example from Allah. Allah is Mighty, Wise [for a stone]. But if the thief repents after his crime, and amends his conduct, Allah turns to him in forgiveness." So, if you say you're sorry you can steal all you want.
Qur'an 5:41 "Messenger, let not those [rejecters and mockers] grieve you. They race each other into unbelief: among those who say 'We believ.' with their lips but whose hearts have no faith." Allah is rebuking the bad Muslims, who like bad Nazis, pretended to go along with the program to keep their heads attached. "Or it be among the Jews, men who will listen to any lie. They change the context of the words from their (right) times and places." Muhammad is once again projecting his faults onto the Jews. The Bible is the most historically accurate ancient document the world has ever known. Every story is set within the context of time and place. It is his Qur'an that has no "context" and is devoid of "times and places."
By way of example, I present the second half of the verse: "They say, 'If you are given this, take it, but if not, beware.' If anyone's temptation is intended by Allah's desires, you have no authority in the least for him against Allah. For such it is not Allah's will to purify their hearts. For them there is disgrace in this world, and in the Hereafter a heavy punishment." This is gibberish without context.
The most that can be deciphered from the verse is that Allah is once again acting like the Devil. Another translation reads: "Whomever Allah wants to deceive you cannot help." It goes on to say: "Allah does not want them to know the truth because he intends to disgrace them and then torture them." Lurking behind the veil of Islam is none other than Satan - the Adversary. While that might sound harsh and intolerant, it remains the only rational conclusion. The presentation of Allah's character and ambition in the Qur'an doesn't leave us any other choice. By prostrating themselves to Allah and fighting Jihad in Allah's Cause, Muslims have surrendered to Lucifer; they are doing the Devil's business. While the Qur'anic evidence is overwhelming, the prophet's Sunnah, or example, serves as proof. And the river of blood that has flowed from the mantra of the Black Stone serves as a harsh and vivid confirmation. It isn't by chance that good Muslims are 2000% more violent than the rest of us. It isn't by accident that terror and Islam are irrevocably and undeniably linked. It isn't a coincidence that Allah's enemies are Yahweh's chosen.
Muhammad, speaking of the Jews he had plundered, said on behalf of the spirit that possessed him: Qur'an 5:42 "They are fond of listening to falsehood, of devouring anything forbidden; they are greedy for illicit gain!" If ever a verse was guilty of projecting one's own faults upon a foe, this is it. It defines hypocrite.
The man/god went on to lie: Qur'an 5:44 "It was We who revealed the Torah (to Moses). By its standard the prophets judged the Jews, and the prophets bowed (in Islam) to Allah's will, surrendering. For the rabbis and priests: to them was entrusted the protection of Allah's Scripture Book, and they were witnesses of it. Therefore fear not men, but fear Me, and sell not My revelations for a miserable price." How do you suppose that a god who jumps between first and third person, who can't remember his name, or if he is singular or plural, could have revealed the Torah? And if he revealed it, why couldn't he protect it from change? More important, since Allah claims that his Qur'an was written before time began, and that it was his perfect revelation, why did he bother with the Torah? Moreover, if Allah was such a great and prolific "revealer," why did Muhammad have to buy his scripture "revelations for a miserable price?"
Continuing to prove his lack of divinity, Allah proclaims: Qur'an 5:46 "And in their footsteps We sent Jesus, the son of Mary, confirming the Law that had come before him: We sent him the Gospel: therein was guidance and light, and confirmation of the Law that had come before him: a guidance to those who fear Allah." God has to be smarter than me. The universe is too complex and magnificent to have been formed by a nincompoop. The Gospels were written about Christ, not given to him. The first, Mark, was written twenty years after the resurrection. The last, John, was composed some thirty years later. And since the Gospel fulfills the Torah by confirming its prophecies, why does the Qur'an reject that fulfillment in its entirety, and why does it contradict its central message? It is as if the author of the Qur'an were ignorant of the Scriptures he was trying to plagiarize and condemn.
While I do not take my direction from the former Meccan moon god, the following advice is sound up to a point: Qur'an 5:47 "Let the people of the Gospel judge by what Allah has revealed therein. If any fail to judge by (the light of) what Allah has revealed, they are (no better than) those who rebel." If I were a Muslim, I would question why my god, who claims to have personally created "Jesus" by breathing his spirit into him, and then "given him the Gospel," knows nothing of him - or it. While I know why he is ignorant of such things, the paradox ought to trouble Muslims. (The answer: there were no Christians living in Medina from whom to purchase or purloin Gospel quotes.)
While I have shared many excerpts from the Scriptures in an effort to challenge the foolishness of the Qur'anic corruptions of them, I haven't had to delve into the New Testament in rebuttal simply because Muhammad didn't know it well enough to twist its accounts. His Gospel presentation was wholly his own. In one surah Muhammad makes up a story about Mary being adopted and attributes Mose.' father to her; in another he says that Jesus babbled in the cradle and was resurrected but not crucified. In the Hadith, he claims that Christ raised Ham and discussed the problem of poop in the Ark. Muhammad didn't plagiarize or twist these stories; he simply imagined them.
Qur'an 5:48 "To you [Christians] We sent the Scripture in truth, confirming the scripture that came before it, and guarding it in safety: so judge between them by what Allah has revealed." Mission accomplished. We have judged between them and found Muhammad guilty of counterfeiting scripture. And to add insult to injury, he had his dimwitted deity say that he "sent the Scripture in truth...and guarded it safely." If that's true, the Gospel and the Qur'an should be the same, not polar opposites.
Fearing that he had made a fool of himself, Muhammad added a caveat after his second challenge. Qur'an 5:49 "And this (He commands): Judge between them by what Allah has revealed and follow not their [Christian] desires, but beware of them lest they beguile you, seducing you away from any of that which Allah hath sent down to you. And if they turn you away [from being Muslims], be assured that for their crime it is Allah's purpose to smite them. Truly most men are rebellious." This is a very strange passage since Allah claims he revealed the Christian Gospels. Yet in the same breath he tells Muslims not to follow the Christians who have based their faith on them. If Allah had revealed the Gospels, their message could not beguile and seduce Muslims away from Islam. So somebody isn't telling the truth
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Prophet of Doom
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