सूरह अनआम ६-
(6 The Cattle)
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यह दीन धरम के खुद साख्ता पैगम्बर और स्वयम्भू बने भगवान आज तक अपने विरोधी इन्सान को, इंसानियत को जी भर के कोसते काटते, गलियां, देते और तरह तरह की उपाधियाँ प्रदान करते चले आए हैं. हम कुछ नहीं कर सकते थे, कानून इनका संरक्षक था और है. हुकूमतें इनकी पुश्त पनाही में थीं और हैं. जनता इनके साथ में थी और है मगर शिक्षित,और जागृति जनता, बेदार अवाम अब सिर्फ हमारे साथ हैं. हम सुरक्षा महसूस कर रहे हैं. सदियों से ये हमें धिक्कारते चले आ रहे हैं अब हमारी बारी है इनकी पोल पट्टी खोलने की, एक बुद्दी जीवी हजारो भेड़ बकरियों पर भरी पड़ेगा. हम शुक्र गुज़र हैं गूगल आदि वेब साइड्स के, हम शुक्र गुज़र है ब्लॉग के उस मुकाम के अविष्कार के जहाँ कबीर का सच बोला जा सकेगा.अब सदाक़त धडाधड छपेगी और कोई कुछ न बिगड़ पाएगा.
अब आये कुरआनी अल्लास कि जेहालत पर - - -
''और अगर हम कागज़ पर लिखा हुवा कोई नविश्ता आप पर नाज़िल फ़रमाते, फिर ये लोग इसको अपने हाथ से छू भी लेते, तब भी ये काफ़िर यही कहते, ये कुछ भी नहीं, सही जादू है और अगर हम इन को फ़रिश्ते तजवीज़ करते तो इसको आदमी ही बनाते . . . आप फ़रमा दीजिए ज़रा ज़मीन पर चलो फिरो देख लो कि तक्ज़ीब करने वालों का कैसा अंजाम हुवा.''
''सूरह अनआम -६-७वाँ पारा आयत (11)
फिर मैं कुरआन के पाठकों को याद दिला दूं कि नाज़िल कोई प्रकोप ही होता है वरदान नहीं.जैसा कि मैं ने कुरआन की व्याख्या की शुरू में बतलाया था कि इस्लाम के प्रकोपित ओलिमा ने बहुत से लफ्जों के माने कुछ के कुछ कर दिए हैं. वैसे ही कुरआन वरदानित नहीं हुवा है बल्कि मुहम्मद पर प्रकोपित हुवा है.नाज़िल हुवा है. जिसे खुद वह गा बजा रहे हैं. कुरआन मुसलमानों पर मुहम्मदी अल्लाह का नजला है, नजला एक तरह की बीमारी है जो आधी बीमारियों कि जड़ होती है. जब तक मुसलमान इस नजला को नेमत समझता रहेगा उसका कल्याण कभी नहीं हो सकता. कुरआन किसी खुदाए बरतर का कलाम नहीं बल्कि एक चालाक अहमक की बतकही है.
''आप फरमा दीजिए कि मुझे ये हुक्म हुवा है कि सब से पहले मैं इस्लाम कुबूल करूँ और तुम इन मुशरिकीन में से हरगिज़ न होना. आप फरमा दीजिए कि अगर मैं अपने रब का कहना न मानूँ तो मैं एक बड़े दिन के अज़ाब से डरता हूँ.''
इन आयतों का का तर्जुमा इस्लाम के मशहूर आलिम मौलाना शौकत अली थानवी का है. देखें कि उनका अल्लाह फूहड़ है या फिर उसका रसूल या फिर मौलाना का तर्जुमा. यह थानवी साहब वही हैं जो लड़कियों के तालीम के खिलाफ थे, क़ुरआन, हदीस, और अपनी गढ़ी हुई कठमुल्लाई किताबों (जैसे बेहिश्ती ज़ेवर) तक में उन्हों ने लड़कियों को एक सदी तक महदूद रखा. रसूल कैसा बच्चों को फुसला रहे है. अल्लाह जल्ले जलालहु उम्मी को आप फरमा दीजिए कह कर बात करता है, फिर अगली सांस में ही तुम पर उतर आता है. नाबालिग़ मुसलमान ऐसी पैगम्बरी की शान में नातें पढ़ रहे हैं.
''सूरह अनआम -६-७वाँ पारा आयत (15)
क़ुरआन में मुस्म्मद ने जेहालत की दलीलें ऐसी फिट कीं हैं कि साहिबे इल्म अपना सर पीटे या उनका मगर सदियों से यह दलीलें बेज़मीर ओलिमा सर झुकाए हुए बुजदिल कौम को समझा रहे हैं और उनके साथ हुकूमत की तलवारें आज भी उनके सरों पर झूल रही हैं, किसी इन्कलाब की आहट नहीं है. खुद को अल्लाह का रसूल और क़ुरआन को अल्लाह का कलाम साबित करने के लिए मुहम्मद अल्लाह की गवाही को काफी बतलाते हैं, बगैर किसी अदालत, मुक़दमा और वकील के, वही अल्लाह जिसको उन्हों से खुद गढा है. कहते हैं कि अगर अल्लाह ने कोई तकलीफ दिया है तो वही दूर करने वाला भी है.यह बात मुस्लिम समाज की इतनी दोहराई गई है कि गैर मुस्लिम भी यह गान गाने लगे हैं. मौत का मज़ा चखाने वाला भी यही ज़ालिम अल्लाह मुस्लिम समाज से है.
अल्लाह मियाँ मुहम्मद से कहते हैं
''क्या तुम सचमुच गवाही दोगे कि अल्लाह के साथ और कोई देव भी हैं? आप कह दीजिए कि मैं तो गवाही नहीं देता. आप कह दीजिए कि वह तो बस एक ही माबूद है और बेशक मैं तुम्हारे शिर्क से बेजार हूँ''
उम्मी मुहम्मद की उम्मियत की इन जुमलों से बढ़ कर कोई गवाही नहीं हो सकती. इन मोहमिलात और अपनी पागलों कि सी बातों से खुद मुहम्मद परेशान हुए होंगे और इन बातों से पीछा छुडाते हुए इसे अल्लाह का कलाम करार दे दिया और इसकी तिलावत सवाब करार दे दी गई.
'' जिन लोगों को हमने किताब दी वह लोग इसको इस तरह पहचानते हैं जिस तरह बेटों को पहचानते हैं.''
हाँ! आलमे इंसानियत के लिए ना लायक़ और ना जायज़ बेटों की तरह.
'' जिन लोगों ने अपने आप को ज़ाया कर लिया वह ईमान न लाएंगे''
सच तो ये है वह ज़ाया हुवा जो उम्मी के नाक़बत अनदेशियों और उसकी जेहालत का शिकार हुवा.
फिर एक बार क़यामत में मुशरिकों पर मुक़दमे का सिलसिला शुरू होता है और उम्मी मुहम्मद की हठ धर्मी की गुफ्तुगू. हम इस मुसीबत की तफसील में जाना नहीं चाहते, अजीयत पसंद चाहें तो तर्जुमा पढ़ लें वर्ना वास्ते तिलावत टालें.
''सूरह अनआम -६-७वाँ पारा आयत (१६-२४)
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ऐतिहासिक सत्य में क़ुरआन की हक़ीक़त
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We're going to pass by Muhammad's history lesson on the mythical tribes of Ad and Thamud. Their battles with the Almighty seemed important to Muhammad as he dedicated scores of Hadith to them. But I want to focus on the Islamic path to Abraham as it lies at the core of the prophet's deception. Tabari II:50 "Nimrod was Abraham's master and wanted him burned.... The first king who ruled over all the earth was Nimrod. There were four such kings who ruled all the earth: Nimrod, Solomon bin David, Dhu'l-Qarnain, and Nebuchadnezzar - two believers [Muslims] and two infidels." Nimrod only ruled a city-state. Solomon's kingdom only included a portion of the Middle East. Nebuchadnezzar's realm like that of Dhu'l-Qarnain, as Alexander the Great, was large, but neither ruled over the whole earth. As for two of them being Muslims - Muhammad and Allah are again mistaken. There wasn't a Muslim in the batch.
According to Ishaq's Sira: Tabari II:50 "Allah desired to send Abraham as an argument against his people and as a messenger to His worshippers since there had been no messengers between Noah and Abraham except Hud and Salih [the mythical rulers of Ad and Thamud]." If that's true, there couldn't have been Muslim worshippers. A thousand years had passed with no religious communication. Allah said he destroyed the Ad and Thamud and he never suggests Abraham visited them. So in an attempt to establish a religious context for his scam, Muhammad destroyed it. The scenario he has just laid out precludes worshippers, and without them, all he has shared thus far concerning the establishment of Islamic rites and the veneration of the Ka'aba, could not have been passed along.
"As time drew near, the astrologers came to Nimrod, saying, 'We have learned from our lore that a boy will be born in this city of yours who will be called Abraham। He will abandon your religion and break your idols in such and such a month and year." Muslims are attempting to bestow on Abraham, whom they view as the father of Islam, the same kind of birth announcement enjoyed by Yahshua, the founder of Christianity, but they didn't have a clue when either man actually lived.
Both secular and scriptural histories tell us that Nimrod died centuries before Abraham was born. The clay tablets that were unearthed near ancient Babylon starting in the late 19th century suggest Nimrod died violently at the age of forty around 2800 B.C., two generations after the great flood. Apart from the Bible, Abraham is not as well known. Yet, archeologists have been able to confirm the Biblical accounting of when he lived by unearthing the places the Scriptures say he visited or that coexisted during his time. They have found dozens of corroborating artifacts that confirm Abraham lived between 2100 B.C. and 1950 B.C. These men were not contemporaries.
Since their lives were separated by 700 years, everything Muhammad claims about them is both suspect and uninspired. Tabari II:53 "Another story about Abraham is that a star rose over Nimrod so bright that it blotted out the light of the sun and the moon. He became frightened and called the magicians, soothsayers, and prognosticators to ask about it. They said, 'A man will arise in your domain whose destiny is to destroy you and your rule.' Nimrod lived in Babylon but he left his town and moved to another, forcing all men to go with him but leaving the women. He ordered that any male child who was born should be slain." This is a blatant, although not believable, rip-off of the star of Bethlehem that directed wise men to Christ and of King Herod killing the male children born that year in Bethlehem.
The Bible tells us that Abram, the future Abraham, was born in Ur, the great Chaldean city, to Terah. His journey to the Promised Land is detailed in Genesis 11. Muhammad says: "Some task in Babylon came up for which Nimrod could trust only Azar, the father of Abraham. He sent him to do the job, saying, 'See that you do not have intercourse with your wife.' Azar said to him, 'I am too tenacious in my religion for that.' But when he entered Babylon he visited his wife and could not control himself. He had intercourse with her and fled to a town called Ur."
Prophet of Doom
पढ़ रहे हैं।
ReplyDeleteप्यारे मोमिन अपने मामा का किया अनुवाद लिए फिरते हो,अरे यह इन्टरनेट का जमाना है,altafseer.com पर हिन्दी सहित 25 भाषाओं में अनुवाद है वहां से सूरत और आयत न. देख कर लिखा करो, अब कुरआन देखने का तरीके में पारा न. नहीं होता, जिससे लाखों में एक जिसे शंका हो आसानी से देख लिया करे ,खेर कुरआन 1400 साल पहले थोडा थोडा करके आया था,कुरआन दुनिया के अन्तिम दिन तक की हिदायत भी है यह आयते केवल 1400 पहले की उस समय की आबादी को कही गई है, इससे तुम क्या निकालोगे, अरे अकलमंद हम 1400 साल से कुरआन पढते आ रहे हैं क्या यह बातें हमें नहीं दिखाई दी या तुम तीसरी आँख रखते हो जरा पढो तो आगे-पीछे सहित जो तुम्हारे हेडमास्टर ने गायब कर रखा है
ReplyDelete6:5:
चुनान्चे जब उनके पास (क़ुरआन बरहक़) आया तो उसको भी झुठलाया तो ये लोग जिसके साथ मसख़रापन कर रहे है उनकी हक़ीक़त उन्हें अनक़रीब ही मालूम हो जाएगी
6:6
क्या उन्हें सूझता नहीं कि हमने उनसे पहले कितने गिरोह (के गिरोह) हलाक कर डाले जिनको हमने रुए ज़मीन मे वह (कूव्वत) क़ुदरत अता की थी जो अभी तक तुमको नहीं दी और हमने आसमान तो उन पर मूसलाधार पानी बरसता छोड़ दिया था और उनके (मकानात के) नीचे बहती हुयी नहरें बना दी थी (मगर) फिर भी उनके गुनाहों की वजह से उनको मार डाला और उनके बाद एक दूसरे गिरोह को पैदा कर दिया
6:7
और (ऐ रसूल) अगर हम कागज़ पर (लिखी लिखाई) किताब (भी) तुम पर नाज़िल करते और ये लोग उसे अपने हाथों से छू भी लेते फिर भी कुफ्फार (न मानते और) कहते कि ये तो बस खुला हुआ जादू है
6:8
और (ये भी) कहते कि उस (नबी) पर कोई फरिश्ता क्यों नहीं नाज़िल किया गया (जो साथ साथ रहता) हालॉकि अगर हम फरिश्ता भेज देते तो (उनका) काम ही तमाम हो जाता (और) फिर उन्हें मोहलत भी न दी जाती
6:9
और अगर हम फरिश्ते को नबी बनाते तो (आखिर) उसको भी मर्द सूरत बनाते और जो शुबे(शंका) ये लोग कर रहे हैं वही शुबहे (गोया) हम ख़ुद उन पर (उस वक्त भी) उठा देते
6:10
(ऐ रसूल तुम दिल तंग न हो) तुम से पहले (भी) पैग़म्बरों के साथ मसख़रापन किया गया है पस जो लोग मसख़रापन करते थे उनको उस अज़ाब ने जिसके ये लोग हॅसी उड़ाते थे घेर लिया
6:11
(ऐ रसूल उनसे) कहो कि ज़रुर रुए ज़मीन पर चल फिर कर देखो तो कि (अम्बिया के) झुठलाने वालो का क्या (बुरा) अन्जाम हुआ
उपर्युक्त तो पिछली नसल के लिए था इस नसल के लिए और इससे भी अगली के लिए निम्न बातें है कि आओ
ReplyDeletesignature:
विचार करें कि मुहम्मद सल्ल. कल्कि व अंतिम अवतार और बैद्ध मैत्रे, अंतिम ऋषि (इसाई) यहूदीयों के भी आखरी संदेष्टा? हैं या यह big Game against Islam है?
antimawtar.blogspot.com (Rank-2 Blog) डायरेक्ट लिंक
अल्लाह का चैलेंज पूरी मानव-जाति को
अल्लाह का चैलेंज है कि कुरआन में कोई रद्दोबदल नहीं कर सकता
अल्लाह का चैलेंजः कुरआन में विरोधाभास नहीं
अल्लाह का चैलेंजः आसमानी पुस्तक केवल चार
अल्लाह का चैलेंज वैज्ञानिकों को सृष्टि रचना बारे में
अल्लाह का चैलेंज: यहूदियों (इसराईलियों) को कभी शांति नहीं मिलेगी
छ अल्लाह के चैलेंज सहित अनेक इस्लामिक पुस्तकें
islaminhindi.blogspot.com (Rank-3 Blog)
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आप एक निहायत नेक काम कर रहे हैं. ऊपर वाला सबको नेकबख्त बनाये.
ReplyDeleteAn American Millionaire Becomes Muslim
ReplyDeleteMark Shaffer, an American attorney and millionaire has declared his Islam in Saudi Arabia on Saturday, 17th October 2009. Mark was at that time on a holiday in Saudi Arabia to visit some famous cities like Riyadh, Abha and Jeddah for 10 days.
Mark is a well-known millionaire and also a practiced lawyer in Los Angeles, specializing in cases of civil laws. The last big case he handled was the case of the famous American pop singer, Michael Jackson, a week before he passed away.
After Mark declared his Islamic faith, he had the chance to express his happiness in Al-Riyadh Newspaper saying: I could not express my feeling at this time but I am being reborn and my life has just started… then he added: I am very happy. This happiness that I am feeling could not be expressed in words especially when I visited the Masjidil Haram and noble Ka’bah.
Regarding his next step after his conversion to Islam, Mark explained: I will learn more about Islam, I will delve deeper into this religion of Allah (Islam) and come back to Saudi Arabia to perform the Hajj.
As to what impelled him into converting to Islam, Mark explained: I have already had information about Islam, but it was very limited. When I visited Saudi Arabia and personally witnessed the Muslims there, and saw how they performed the solat, I felt a very strong drive to know more about Islam. When I read true information about Islam, I became confident that Islam is a religion of haq (truth).
Sunday morning, 18th October 2009, Mark left the Airport of King Abdul Aziz Jeddah heading for America. When filling in the immigration form before leaving Jeddah, Mark wrote ISLAM as his religion.