Tuesday, 1 December 2009

क़ुरआन - सूरह निसाअ ४


तीसरी किस्त

लोहे को जितना गरमा गरमा कर पीटा जाय वह उतना ही ठोस हो जाता है। इसी तरह चीन की दीवार की बुन्यादों की ठोस होने के लिए उसकी खूब पिटाई की गई है, लाखों इंसानी शरीर और रूहें उसके शाशक के धुर्मुट तले दफ़न हैं. ठीक इसी तरह मुसलमानों के पूर्वजों की पिटाई इस्लाम ने इस अंदाज़ से की है कि उनके नस्लें अंधी, बहरी और गूंगी पैदा हो रही हैं.(सुम्मुम बुक्मुम उम्युन, फहुम ला युर्जून) इन्हें लाख समझाओ यह समझेगे नहीं.
मैं कुरआन में अल्लाह की कही हुई बात ही लिख रह हूँ जो कि न उनके हक में है न इंसानियत के हक में मगर वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं, वजेह वह सदियों से पीट पीट कर मुसलमान बनाए जा रहे है, आज भी खौफ ज़दा हैं कि दिल दिमाग और ज़बान खोलेंगे तो पिट जाएँगे, कोई यार मददगार न होगा.
यारो! तुम मेरा ब्लॉग तो पढो, कोई नहीं जान पाएगा कि तुमने ब्लॉग पढ़ा,फिर अगर मैं हक बजानिब हूँ तो पसंद का बटन दबा दो, इसे भी कोई न जान पाएगा और अगर अच्छा न लगे तो तौबा कर लो,तुम्हारा अल्लाह तुमको मुआफ करने वाला है। अली के नाम से एक कौल शिया आलिमो ने ईजाद किया है ''यह मत देखो कि किसने कहा है, यह देखो की क्या कहा है.'' मैं तुम्हारा असली शुभ चितक हूँ, मुझे समझने की कोशिश करो.
मैं पहले उम्मी मुहम्मद की एक भविष्य वाणी यानी हदीस से आप को आगाह कराना चाहूंगा उसके बाद उनकी शाइरी कुरआन पर आता हूँ - - -
'' दूसरे खलीफा उमर के बेटे अब्दुल्ला के हवाले से ... रसूल मकबूल सललललाहो अलैहे वसललम (मुहम्मद की उपाधियाँ) ने फ़रमाया एक ऐसा वक़्त आएगा कि इस वक़्त तुम लोगों की यहूदियों से जंग होगी, अगर कोई यहूदी पत्थर के पीछे छुपा होगा तो पत्थर भी पुकार कर कहेगा की ऐ मोमिन मेरी आड़ में यहूदी छुपा बैठा है, आ इसको क़त्ल कर दे. (बुखारी १२१२)
आज मुसलमान पहाड़ी पत्थरों में छुपे यहूदियों के ही बोसीदा ईजाद हथियारों से लड़ कर अपनी जान गँवा रहे हैं. इंसानी हुकूक उनको बचाए हुए है मगर कब तक? मुहम्मद की जेहालत रंग दिखला रही है.

" क्या तुम लोग इस का इरादा रखते हो कि ऐसे लोगों को हिदायत करो जिस को अल्लाह ने गुमराही में डाल रक्खा है और जिस को अल्लाह ताला गुमराही में डाल दे उसके लिए कोई सबील नहीं।"

सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (84)

गोया मुहम्मदी अल्लाह शैतानी काम भी करता है, अपने बन्दों को गुमराह करता है. मुहम्माद परले दर्जे के उम्मी ही नहीं अपने अल्लाह के नादाँ दोस्त भी हैं, जो तारीफ में उसको शैतान तक दर्जा देते हैं. उनसे ज्यादा उनकी उम्मत, जो उनकी बातों को मुहाविरा बना कर दोहराती हो कि " अल्लाह जिसको गुमराह करे, उसको कौन राह पर ला सकता है"?


" वह इस तमन्ना में हैं कि जैसे वोह काफ़िर हैं, वैसे तुम भी काफ़िर बन जाओ, जिस से तुम और वोह सब एक तरह के हो जाओ। सो इन में से किसी को दोस्त मत बनाना, जब तक कि अल्लाह की राह में हिजरत न करें, और अगर वोह रू गरदनी करें तो उन को पकडो और क़त्ल कर दो और न किसी को अपना दोस्त बनाओ न मददगार"

सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (89)


कितना जालिम तबा था अल्लाह का वह खुद साख्ता रसूल? बड़े शर्म की बात है कि आज हम उसकी उम्मत बने बैठे हैं. सोचें कि एक शख्स रोज़ी की तलाश में घर से निकला है, उसके छोटे छोटे बाल बच्चे और बूढे माँ बाप उसके हाथ में लटकती रिज्क़ की पोटली का इन्तेज़ार कर रहे हैं और इसको मुहम्मद के दीवाने जहाँ पाते हैं क़त्ल कर देते हैं? एक आम और गैर जानिबदार की ज़िन्दगी किस क़दर मुहाल कर दिया था मुहम्मद की दीवानगी ने. बेशर्म और ज़मीर फरोश ओलिमा उल्टी कलमें घिस घिस कर उस मुज्रिमे इंसानियत को मुह्सिने इंसानियत बनाए हुए हैं. यह क़ुरआन उसके बेरहमाना कारगुजारियों का गवाह है और शैतान ओलिमा इसे मुसलमानों को उल्टा पढा रहे हैं. हो सकता है कुछ धर्म इंसानों को आपस में प्यार मुहब्बत से रहना सिखलाते हों मगर उसमें इसलाम हरगिज़ नहीं हो सकता. मुहम्मद तो उन लोगों को भी क़त्ल कर देने का हुक्म देते हैं जो अपने मुस्लमान और काफिर दोनों रिश्तेदारों को निभाना चाहे. आज तमाम दुन्या के हर मुल्क और हर क़ौम, यहाँ तक कि कुरानी मुस्लमान भी इस्लामी दहशत गर्दी से परेशान हैं. इंसानियत की तालीम से नाबलाद, कुरानी तालीम से लबरेज़ अल्कएदा और तालिबानी तंजीमों के नव जवान अल्लाह की राह में तमाम इंसानी क़द्रों पैरों तले रौंद सकते हैं, इर्तेकई जीनों को तह ओ बाला कर सकते हैं। सदियों से फली फूली तहजीब को कुचल सकते हैं. हजारों सालों की काविशों से इन्सान ने जो तरक्की की मीनार चुनी है, उसे वोह पल झपकते मिस्मार कर सकते हैं। इनके लिए इस ज़मीन पर खोने के लिए कुछ भी नहीं है एक नाकिस सर के सिवा, जिसके बदले में ऊपर उजरे अजीम है। इनके लिए यहाँ पाने के लिए भी कुछ नहीं है सिवाए इस के की हर सर इनके नाकिस इसलाम को कुबूल करके और इनके अल्लाह और उसके रसूल मुहम्मद के आगे सजदे में नमाज़ के वास्ते झुक जाए। इसके एवाज़ में भी इनको ऊपर जन्नतुल फिरदौस धरी हुई है, पुर अमन चमन में तिनके तिनके से सिरजे हुए आशियाने को इन का तूफ़ान पल भर में पामाल कर देता है। क़ुरआन कहता है - - -


" बाजे ऐसे भी तुम को ज़रूर मिलेगे जो चाहते हैं तुम से भी बे ख़तर होकर रहें और अपने क़ौम से भी बे ख़तर होकर रहें. जब इन को कभी शरारत की तरफ मुतवज्जो किया जाता है तो इस में गिर जात्ते हैं यह लोग अगर तुम से कनारा काश न हों और न तुम से सलामत रवी रखें और न अपने हाथ को रोकें तो ऐसे लोगों को पकडो और क़त्ल कर दो जहाँ पाओ ।" सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (91)


मुहम्मद ये उन लोगों को क़त्ल कर देने का हुक्म दे रहे हैं जो आज सैकुलर जाने जाते हैं और मुसलमानों के लिए पनाहे अमां बने हुए हैं। आज़ादी के पहले यह भी मुसलमानों के लिए काफ़िर ओ मुशरिक जैसे ही थे, मगर इब्नुल वक़्त ओलिमा आज इनकी तारीफ़ में लगे हुए हैं। वैसे भी नज़रियात बदल जाते हैं, मज़हब बदल जाते हैं मगर खून के रिश्ते कभी नहीं बदलते. मुहम्मदी इसलाम इन्सान से गैर फितरी काम कराता है, इसी लिए बिल आखिर रुसवे ज़माना है. मैं एक बार फिर आप की तवज्जो को होश में लाना चाहता हूँ कि इस कायनात का निगरान, वोह अज़ीम हस्ती अगर कोई है भी तो क्या उसकी बातें ऐसी टुच्ची किस्म की हो सकती हैं जो क़ुरआन कहता है. किसी बस्ती के ना इंसाफ मुख्या की तरह, या कभी किसी कस्बे के बे ईमान बनिए जैसा. कभी गाँव के लाल बुझक्कड़ कि तरह. अल्लाह भी कहीं ज़नानो कि तरह बैठ कर पुत्राओ-भत्राओ करता है? कुन फ़यकून की ताक़त रखता है तो पंचायती बातें क्यूँ? आखिर मुसलमानों को समझ क्यों नहीं आती, उस से पहले उसे हिम्मत क्यों नहीं आती?


" और किसी मोमिन को शान नहीं की किसी मोमिन को क़त्ल करे और किसी मोमिन को गलती से क़त्ल कर दे तो उसके ऊपर एक मुस्लमान गुलाम या लौंडी को आज़ाद करना है और खून बहा है, जो उसके खानदान के हवाले से दीजिए, मगर ये की वोह लोग मुआफ कर दें।" सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (92)


"और जो किसी मुस्लमान का क़सदन क़त्ल कर डाले तो इस की सजा जहन्नम है जो हमेशा हमेशा को इस में रहना।"


सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा आयात (93)


बड़ी ताकीद है कि मोमिन मोमिन को क़त्ल न करे, इस्लामी तारीख जंगों से भारी पड़ी हैं और ज़्यादा तर जंगें आपस में मुसलमनो की इस्लामी मुल्को और हुक्मरानों के दरमियाँ होती हैं। आज ईरान, ईराक, अफगानिस्तान, और पाकिस्तान में खाना जंगी मुसमानों की मुसलमानों के साथ होती है। बेनजीर और मुजीबुर रहमान जैसा सिलसिला रुकने का नहीं, मज़े की बात कि इनको मारने वाले शहीद और जन्नत रसीदा होते हैं, मरने वाले चाहे भले न होते हों। मुस्लमान आपस में एक दूसरे से हमदर्दी रखते हों या नहीं मगर इस जज्बे का नाजायज़ फायदा उठा कर एक दूसरे को चूना ज़रूर लगते हैं


" अल्लाह ताला ने इन लोगों का दर्जा बहुत ज़्यादा बनाया है जो अपने मालों और जानों से जेहाद करते हैं, बनिसबत घर में बैठने वालों के, बड़ा उजरे अज़ीम दिया है, यानी बहुत से दर्जे जो अल्लाह ताला की तरफ़ से मिलेंगे।"


सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (95)


मुहम्मद ने जेहाद का आगाज़ भर सोचा था, अंजाम नहीं, अंजाम तक पहुँचने के लिए उनके पास अशोक जैसा जेहन ही नहीं था न ही होने वाले रिश्ते दार नौ शेरवाने आदिल का दिल था. उन्होंने अपनी विरासत में क़ुरआन की ज़हरीली आयतें छोडीं, तेज़ तर तलवार और माले गनीमत के धनी खुलफा, उमरा, सुलतान, और खुदा वंद बादशाह, साथ साथ जेहनी गुलाम जाहिल उम्मत की भीड़।


" मुहम्मदी अल्लाह कहता है जब ऐसे लोगों की जान फ़रिश्ते कब्ज़ करते हैं जिन्हों ने खुद को गुनाह गारी में डाल रक्खा था तो वोह कहते हैं कि तुम किस काम में थे? वोह जवाब देते हैं कि हम ज़मीन पर महज़ मग्लूब थे। वोह कहते हैं कि क्या अल्लाह की ज़मीन वसी न थी? कि तुम को तर्क वतन करके वहाँ चले जाना चाहिए था? सो इन का ठिकाना जहन्नम है।"
अल्लाह अपनी नमाजें किसी हालात में मुआफ नहीं करता, चाहे आजारी ओ लाचारी हो या फिर मैदाने जंग. मैदान जंग में आधे लोग साफ बंद हो जाएँ और बाकी नमाज़ की सफ में खड़े हो जाएँ. नमाज़ और रोजा अल्लाह की बे रहम ज़मींदार की तरह माल गुजारी है.बहुत देर तक और बहुत दूर तक अल्लाह अपने घिसे पिटे कबाडी जुमलो की खोंचा फरोशी करता है, फिर आ जाता है अपनी मुर्ग की एक टांग पर.


"जो शख्स अल्लाह और उसके रसूल की पूरी इताअत करेगा, अल्लाह ताला उसको ऐसी बहिश्तों में दाखिल करेगा जिसके नीचे नहरें जारी होंगी, हमेशा हमेशा इन में रहेगे. यह बड़ी कामयाबी है."


सूरह निसाँअ पाँचवाँ पारा- आयात (96-122)


फिर एक बार कूढ़ मगजों के लिए मुहम्मदी अल्लाह कहता है - - -


" और जो शख्स कोई नेक काम करेगा ख्वाह वोह मर्द हो कि औरत बशरते कि वोह मोमिन हो, सो ऐसे लोग जन्नत में दाखिल होंगे और इन पर ज़रा भी ज़ुल्म न होगा।"


सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (124)


अल्लाह न जालिम है न रहीम करोरों साल से दुन्या क़ायम है ईमान दारी के साथ उसकी कोई खबर नहीं है, अफवाह, कल्पना, और जज़्बात की बात बे बुन्याद होती हैं. खुद मुहम्मद ज़ालिम तबाअ थे और अपने हिसाब से उसका तसव्वुर करते हैं. आम मुसलमानों में जेहनी शऊर बेदार करने के लिए खास अहले होश और बुद्धि जीवियों को आगे आने की ज़रुरत है


" यह तो कभी न हो सकेगा की सब बीवियों में बराबरी रखो, तुमरा कितना भी दिल चाहे।"


सूरह निसाँअ 4 पाँचवाँ पारा- आयात (129)


यह कुरानी आयत है अपनी ही पहली आयात के मुकाबले में जिसमें अल्लाह कहता है दो दो तीन तीन चार चार बीवियां कर सकते हो मगर मसावी सुलूक और हुकूक की शर्त है, और अब अपनी बात काट रहा है, कुरानी कठमुल्ले मुहम्मदी अल्लाह की इस कमजोरी का फायदा यूँ उठाते है की अल्लाह ये भी तो कहता है.


" ऐ ईमान वालो! इंसाफ पर खूब कायम रहने वाले और अल्लाह के लिए गवाही देने वाले रहो।"सूरह निसाँअ 4 पाँचवाँ पारा- आयात (135)


मुसलमानों सोचो तुम्हारा अल्लाह इतना कमज़ोर की बन्दों की गवाही चाहता है? अगर तुम पीछे हटे तो वोह मुक़दमा हार जाएगा। उस झूठे और कमज़ोर अल्लाह को हार जाने दो. ताक़त वर जीती जागती क़ुदरत तुम्हारा इन्तेज़ार अपनी सदाक़त की बाहें फैलाए हुए कर रही है


" जब एहकामे इलाही के साथ इस्तेह्ज़ा (मज़ाक) होता हुवा सुनो तो उन लोगों के पास मत बैठो - - - इस हालत में तुम भी उन जैसे हो जाओगे.''


सूरह निसाँअ 4 पाँचवाँ पारा- आयात (140)


मुहम्मद की उम्मियत में बला की पुख्तगी थी, अपनी जेहालत पर ही उनका ईमान था जिसमें वह आज तक कामयाब हैं। जब तक जेहालत कायम रहेगी मुहम्मदी इसलाम कायम रहेगा. इस आयात में यही हिदायत है कि तालीमी रौशनी में इस्लामी जेहालत का मज़ाक बनेगा. मुसलमानों को हिदायत दी जाती है की उस में बैठो ही नहीं. वैसे भी मुल्लाजी के लिए दुम दबा कर भागने के सिवा कोई रास्ता नहीं रह जाता जब "ज़मीन नारंगी की तरह गोल और घूमती हुई दिखती है, रोटी की तरह चिपटी और कायम नहीं है." जैसी बात चलती है - - - एहकामे इलाही में ज़्यादा तर इस्तेहज़ा के सिवा है क्या? इस में एक से एक हिमाक़तें दरपेश आती हैं। इन के लिए जेहनी मैदान की बारीकियों में जेहद की जमा जेहाद के काबिल तो कहीं पर क़दम ज़माने की जगह मिलती नहीं आप की उम्मत को.अक्सर अहले रीश नमाज़ के बहाने खिसक लेते हैं जब देखते हैं कि इल्मी, अकली, या फितरी बहस होने लगी.



निसार ''निसार-उल-ईमान''
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मेरे हम नवा


Muhammad's never-ending war marched on। Qur'an 4:84 "Then fight (O Muhammad) in Allah's Cause - you are only responsible for yourself। Incite the believers to fight along with you." How can there be no contradictions in the Qur'an if five verses earlier we read: "We have sent (Muhammad) as a Messenger to mankind," and now he's "only responsible for himself?" And how can Islam be peaceful if its scripture says: "Incite the believers to fight along with you?"
The pacifist uprising became so severe, the peaceful Muslims had to be kicked out of the way. Qur'an 4:88 "What is the matter with you that you are divided about the Hypocrites? Allah has cast them back (causing their disbelief). Would you guide those whom Allah has thrown out of the Way? For those whom Allah has thrown aside and led astray, never shall they find the Way." Once again, we see Allah imitating Satan.
Qur'an 4:89 "They wish that you would reject Faith, as they have, and thus be on the same footing: Do not be friends with them until they leave their homes in Allah's Cause. But [and this is a hell of a but...] if they turn back from Islam, becoming renegades, seize them and kill them wherever you find them." The book that preached: Qur'an 2:256 "There should be no compulsion in religion," just said "if they turn back from Islam, becoming renegades, seize them and kill them wherever you find them." If that isn't a contradiction, the word needs to be redefined.
This verse is among the most heinous ever attributed to god. It is the reason Islam has managed to enslave a billion people. If a Muslim rejects Islam, he is labeled a renegade, and must be seized and killed on direct orders from Allah. It's hard to imagine a dogma - religious or political - so unappealing it has to murder those who leave, just to keep others in line.
Moving on we find Muhammad attempting to justify his cowardice, capitulation, and abdication at Hudaybiyah. Allah says the treaty was an interim strategy designed to deceive the enemy - to lull them into a false sense of peace. Qur'an 4:90 "Except those who join a group between you and whom there is a treaty, or (those who become) weary of fighting you. If Allah had willed, He could have given them power over you, and they would have fought you. Therefore if they withdraw from you and wage not war, and send you (guarantees of) peace, then Allah has not given you a way (to war) against them." The purpose of terror is to cause people to become so "weary of fighting" they surrender. That's what is happening in Israel today.
But if a people desiring peace are perceived to be mischievous, Allah commands his militants to kill them. Qur'an 4:91 "You will find others who, while wishing to live in peace and being safe from you to gain the confidence of their people; thrown back to mischief headlong; therefore if they do not withdraw from you, and offer you peace besides restraining their hands, then seize them and kill them wherever you find them; and against these We have given you a clear sanction and authority." So if you wish to live in peace, but are perceived as being mischievous (i.e., non-Muslim), Allah has given his Jihad warriors "a clear sanction and authority to seize and kill" you.
Islam is an equal opportunity hater. Even today, "good" Muslims fight and kill more "bad" Muslims than they do infidels. As such, they must be either accident prone or mistaken. Qur'an 4:92 "Never should a believer kill a believer unless (it be) by mistake." Qur'an 4:93 "If a man kills a believer intentionally, he will be cast into Hell, to abide therein. The wrath, damnation, and curse of Allah are upon him, and a dreadful penalty is prepared for him."
For the hundredth time we are reminded that "Allah's Cause" is "Holy War," better known as "Jihad." Qur'an 4:94 "Believers, when you go abroad to fight wars in the Cause of Allah, investigate carefully, and say not to anyone who greets you: 'You are not a believer!' Coveting the chance profits of this life (so that you may despoil him). With Allah are plenteous spoils and booty." Muhammad has bribed his mercenaries to fight for booty. He has demonstrated how easy it is to rob unarmed civilians. So now he is afraid that Muslims will loot everyone they meet. While loot is fine, according to Allah, there is more to destroying a man than just plundering his possessions. Muhammad and Allah were looking at the bigger picture. A world submissive to them was a far greater prize.
"Good" Muslims fight. Qur'an 4:95 "Not equal are believers who sit home and receive no hurt and those who fight in Allah's Cause with their wealth and lives. Allah has granted a grade higher to those who fight with their possessions and bodies to those who sit home. Those who fight He has distinguished with a special reward." A Muslim Hadith explains the verse: Muslim:C40B20N4676 "Believers who sit home and those who go out for Jihad in Allah's Cause are not equal." Fundamental Islam, the Islam of Allah, Muhammad, and the Qur'an preaches Jihad. Islam was born violent and weaned on blood.
Muhammad may have felt a momentary twinge of guilt for having banished the Jews. So he had his god say that that the earth was big and the Jews ought to have migrated out of Medina on their own. But since they didn't, they're off to hell. Qur'an 4:97 "Surely those whom the angels cause to die while they are wrong, shall say: 'In what plight were you?' They say: 'We were weak in the earth.' 'Was not Allah's earth spacious, so that you should have migrated?' So their abode is hell, an evil resort." The prophet's last words were: "Banish the Jews from Arabia."
Allah wants Jihadists to live off the land. Qur'an 4:100 "He who leaves his home in Allah's Cause finds abundant resources and many a refuge. Should he die as a refugee for Allah and His Messenger his reward becomes due and sure with Allah. When you travel through the earth there is no blame on you if you curtail your worship for fear unbelievers may attack you. In truth the disbelievers are your enemy." Either fighting is more important than religion or this religion is about fighting. But either way, that's disconcerting because Muslims see all non-Muslims as their enemy.
In Islam, religion and war are inseparable. Qur'an 4:102 "When you (Prophet) lead them in prayer, let some stand with you, taking their arms with them. When they finish their prostrations, let them take positions in the rear. And let others who have not yet prayed come - taking all precaution, and bearing arms. The Infidels wish, if you were negligent of your arms, to assault you in a rush. But there is no blame on you if you put away your arms because of the inconvenience of rain or because you are ill; but take (every) precaution. For the Unbelieving Infidels Allah hath prepared a humiliating punishment." Translated: Thugs who murder for god and booty need to watch their backs. After a while, such thugs become known as terrorists - and people start disliking them.
Islam's war is never-ending. Qur'an 4:104 "And do not relent in pursuing the enemy. If you are suffering hardships, they are suffering similar hardships; but you have hope from Allah, while they have none." So long as Islam exists they will never relent.
Religions empower men, giving them authority over others. Qur'an 4:115 "If anyone contradicts or opposes the Messenger [not Allah] after guidance has been conveyed to him, and follows a path other than the way [of Muhammad], We shall burn him in Hell!"
Trying to make amends for the Satanic Verses, Muhammad recited: Qur'an 4:116 "Surely Allah does not forgive setting up partners with Him; and whoever associates anything with Allah, he indeed strays off into remote error. They call but upon female deities. They call but upon Satan, the persistent rebel!" Muhammad admitted to having been duped by Satan. His crime was associating "female deities" with Allah. Since such sins are unforgivable, I wonder if he's enjoying hell as much as Allah seems to? And while this is a fatal problem for Islam, Muhammad didn't learn his lesson. Rather than calling Allah's daughters "idols" or "false gods," he just called them "deities" again.
Allah is the spirit of deceit. Qur'an 4:118 "Allah did curse him. He said: 'I will mislead them, and I will create in them false desires; I will order them to slit the ears of cattle, and to deface the (fair) nature created by Allah.' Whoever, forsaking Allah, takes Satan for a patron, they are a loser. Satan makes them promises, and creates in them false desires; but Satan's promises are nothing but deception. (His dupes) will have their dwelling in Hell, and from it they will find no way of escape." Satan doesn't create false desires; he preys on carnal and vain desires. He defaces mankind, not cattle. But since Islam is war and war is deception, how are Muslims to differentiate between Allah and Satan?
In a line that would feel equally at home in the Communist Manifesto , Mao's Little Red Book , or Mein Kampf , Allah instructs Muslims to rat on their parents. Qur'an 4:135 "Believers, stand out for justice as witnesses for Allah even against yourselves, your parents, your family, and relatives whether it be against rich or poor.... Allah is aware of what you do." This verse serves godless tyrants and their regimes. It's neither civil nor religious. But it helps us understand why Islam and Nazism embraced and why Muslims later aligned themselves with the Communists.
Putting himself on par with the god he created, Muhammad tells Muslims to believe in him. Qur'an 4:136 "O Believers! Believe in Allah and His Messenger, and the Scripture which He has sent to His Messenger, and the Scripture which He revealed to those before. Any who denies Allah, His angels, His Books, His Messengers, and the Day of Judgment, hath gone far astray." Setting aside for a moment that he was a pervert and a terrorist, how are Muslims to believe in the "scripture revealed before" if it is the antithesis of the "scripture revealed to Muhammad?" And if there was an "uncorrupted" version of the Torah, Psalms, and Gospels, why didn't the Allah/Muhammad brain trust provide Muslims with a copy?
It's evident that Muhammad lost his grip on the Medina Muslims. Many came to think as little of him as the Meccans had before. Qur'an 4:137 "Those who believe, then reject faith, then believe and reject faith, and go on increasing in unbelief, Allah will never pardon them, nor guide them. To the Hypocrites give the glad tidings that there is for them a grievous penalty, a painful doom." The "glad tidings" line is especially perverted. It reveals Muhammad's deeply disturbed character.
Qur'an 4:140 "You have been commanded in the Book that whenever you hear Verses of Allah denied, derided, ridiculed, or mocked [as is the only reasoned response], do not sit with them and engage them in this talk or you will be no different from them. Indeed, Allah will collect the Hypocrites and Infidels together and put them all in Hell." Those who heard Muhammad's feeble, immoral, and violent "scriptures" directly from his lips denied, derided, ridiculed, and mocked them. So Muhammad banned debate. Even to this day, any Muslim who criticizes Islam is imprisoned or murdered.
If Islam were open to scrutiny there would be no Muslims। To survive, the poligious doctrine requires its tyrannical dictators to use draconian measures to repress freedom of thought, debate, speech, press, and religion. It's why Islam is wholly incompatible with freedom and democracy. It is why Islamic governments are the most repressive regimes on earth. Islam thrives in submission and ignorance. Therefore, we must defy this ungodly ban and free Muslims from Islam if we hope to free ourselves from the terror it breeds. And the best way to free billions from this lie is to expose it. Truth is lethal to Islam. William Muir, a man considered to be one of Islam's foremost scholars, agrees: "The Qur'an is the most stubborn enemy of Civilization, Liberty, and Truth which the world has yet known."


Prophet of Doom


2 comments:

  1. तर्क के हथौड़े तो आप अथक चलाते जा रहे हैं....यकीनन इसका असर भी होगा, जरूर होगा। भय और लालच पर कायम अल्लाह की सत्ता को दफन होना ही होगा...लगे रहे, मेरी शुभकामनाएं आपके साथ है...

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  2. बेटा हमारे सुपर वाइरस से गुज़र कर हर इस्‍लाम दुशमन के मन्‍सूबे फेल हो जाते हैं, नीचे देख, आओ

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    विचार करें कि मुहम्मद सल्ल. कल्कि व अंतिम अवतार और बैद्ध मैत्रे, अंतिम ऋषि (इसाई) यहूदीयों के भी आखरी संदेष्‍टा? हैं या यह big Game against Islam है?
    antimawtar.blogspot.com (Rank-2 Blog) डायरेक्‍ट लिंक

    अल्‍लाह का चैलेंज पूरी मानव-जाति को
    अल्‍लाह का चैलेंज है कि कुरआन में कोई रद्दोबदल नहीं कर सकता
    अल्‍लाह का चैलेंजः कुरआन में विरोधाभास नहीं
    अल्‍लाह का चैलेंजः आसमानी पुस्‍तक केवल चार
    अल्‍लाह का चैलेंज वैज्ञानिकों को सृष्टि रचना बारे में
    अल्‍लाह का चैलेंज: यहूदियों (इसराईलियों) को कभी शांति नहीं मिलेगी

    छ अल्लाह के चैलेंज सहित अनेक इस्‍लामिक पुस्‍तकें
    islaminhindi.blogspot.com (Rank-3 Blog)
    डायरेक्‍ट लिंक

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