तीसरी किस्त
सूरह मायदा -5
(5 The Food)
तालिबान अफगानिस्तान से खदेडे जाने के बाद अब पाकिस्तान पर जोर आजमाई कर रहा है,बिलकुल इसलाम का प्रारंभिक काल दोहराया जा रहा है जब मुहम्मद बज़ोर गिजवा (जंग) हर हाल में इसलाम को मदीना के आस पास फैला देना चाहते थे। वह अपने हुक्म को अल्लाह का फ़रमान क़ुरआनी आयतों द्वारा प्रसारित और प्रचारित करते. लोगों को ज़बर दस्ती जेहाद पर जाने के लिए आमादा करते, लोग अल्लाह के बजाय उनको ही परवर दिगर! कह कर गिडगिडाते की आप हम को क्यूं मुसीबत में डाल रहे हैं तो वह ताने देते की औरतों की तरह घरों में बैठो.मज़े की बात ये कि जंगी संसाधन भी खुद जुटाओ. एक ऊँट पर ११-११ जन बैठते. ये सब क़ुरआन में साफ साफ़ है जिसे इस्लामी विद्वान छिपाते हैं और जालिम तालिबान सब जानते हैं.आज भी तालिबान अपने अल्लाह द्वतीय मुहम्मद के ही पद चिन्हों पर चल रहे है. इन्हें इंसानी ज़िन्दगी से कोई लेना देना नहीं,बस मिशन है इस्लाम का प्रसार। इसी में उनकी हराम रोज़ी का राज़ छुपा है.
इधर पाकिस्तान का धर्म संकट है कि इस्लाम के नाम पर बन्ने वाला पाकिस्तान जब तालिबानियों द्वारा इस्लामी मुल्क पूरी तरह बन्ने की दर पर है तो उसकी हवा क्यूं ढीली हो रही है? उसका रूहानी मिशन तो साठ साल बाद मुकम्मल होने जा रहा है. निजामे मुस्तफा ही तो ला रहे हैं ये तालिबानी. मुस्तफा यानी मुहम्मद जो बच्ची के पैदा होने को औरत का पैदा होना कहते थे (क़ुरआन में देखें ) औरत पर पर्दा लाजिम है. मुहम्मद ने सात साला औरत आयशा के साथ शादी रचाई, आठ साल में उस से सुहाग रात मनाई और परदे में बैठाया, तालिबान अपने रसूल की पैरवी करके क्या गलत कर रहे हैं? उनको ख़त्म करके पाकिस्तान इस्लाम को क़त्ल कर रहा है, कोई मुल्ला उसे फतवा क्यूं नहीं दे रहा? "मुहम्मद मैले कपडे लादे रहते" इस ज़रा सी बात पर पाकिस्तान न्यायलय ने एक ईसाई बन्दे को तौहीन ए रिसालत के जुर्म में सजाए मौत दे दिया था, आज पाक अद्लिया किं कर्तव्य विमूढ़ क्यूँ ? पाक इसलाम के तलिबों से लड़ने के साथ साथ कुफ्र से भी (भारत) लडाई पर आमादा है. कहते हैं कि उसकी एटमी हत्यारों का रुख भारत की ओर है. यह पाकिस्तान की गुमराही ही कही जाएगी.
मज़हब के नाम पर जो हमारे बड़ों ने अप्रकृतिक बटवारा किया था उसका बुरा अंजाम सामने है, बहुत बुरा हो जाने से पहले हम को सर जोड़ कर बैठना चहिए कि हम १९४७ की भूल सुधारें और फिर एह हो जाएँ. इसतरह कल का हिदोस्तान शायद दुन्या कि नुमायाँ हस्ती बन कर लोगों कि आँखें खैरा कर दे। मगर भारत के हिदुत्व के पाखंड को भी साथ साथ ख़त्म करना होगा जो कि इस्लामी नासूर से कम नहीं।
लीजिए शुरू होती है क़ुरआनी गाथा - - -
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"यकीनन जो लोग काफ़िर हैं अगर उनके पास दुनिया भर की तमाम चीजें हों और उन चीज़ों के साथ उतनी चीजें और भी हों ताकि वोह उनको देकर रोजे क़यामत के अज़ाब से छुट जाएं, तब भी वोह चीजें उन से कुबूल न की जाएँगी और उनको दर्द नाक अजाब होगा."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (36)
इंसानी समाज में गरीब अवाम हमेशा ही ज्यादा रहे है. गरीब और अमीर की अज़्ली जंग भी हमेशा जारी रही है. गरीब अमीरों से नफ़रत तभी तक क़ायम रखता है जब तक अमारत को वोह खुद छू नहीं लेता और फिर वह अपने ही समाज की नफरत, हसद और लूट का शिकार बन जाता है. ईसा का कहना था ऊँट सूई के नाके से निकल सकता है मगर दौलत मंद जन्नत में दाखिल नहीं हो सकता. कार्ल मार्क्स ने इस इंसानी समाज का गनीमत हल निकाला, माओ ज़े तुंग ने इस को अमली जामा पहनाया जो अभी तक अपने आप में इज्तेहाद (सुधार) के साथ कामयाब है और बेदाग है.वहां इन इस्लामी आलिमों जैसी कोई नापाक मखलूक(जीव) या उसका बीज नहीं बचा है. कई कम्युनिस्ट मुमालिक के रहनुमाओं ने इसकी ना जायज़ औलाद जन्मी और नापैद हुए. मुहम्मद ने भी गुरबत की दुखती रग पर ही हाथ रख कर इतनी कामयाबी हासिल की, मगर उनकी तहरीक में सच्चाई की जगह खुराफ़ात थी और उनके बाद ही उनकी नस्ल में हसन ऐश और अय्याशी के शिकार होकर ज़िल्लत की मौत मरे. हुसैन अपने मासूम भानजों भतीजे, बच्चो और खानदान के दीगर लोगों को कुर्बान कर के खुद को इस्लामी फौज के हवाले किया, सिर्फ खिलाफत की लालच में. मुहम्मद की आमाल की बुरी सज़ा उनकी नस्लों को मिली.
काफ़िर इसलाम के वजूद में आने के बाद से लेकर आज तक धरती पर सुर्ख रू हैं.मुस्लमान ऊपर की आसमानी दौलत के चक्कर में दुनया की एक पिछड़ी क़ौम बन कर रह गई है. भारत में काफ़िरों की संगत में रह कर कुछ मुस्लमान अपनी हैसियत बनाने में कामयाब है, ख्वाह वोह सनअत में हों या फ़नकार हों, जिन पर आम मुस्लमान फख्र करते हैं और ये फटीचर मौलाना उनके सामने चंदे की रसीद लिए खड़े रहते हैं.
"और जो औरत या मर्द चोरी करे, सो उन दोनों के दाहिने हाथ गट्टे से काट डालो. इन के किरदार के एवाज़, बतोर सजा के, अल्लाह की तरफ से और अल्लाह ताला बड़ी कूवत वाले हैं और बड़ी हिकमत वाले हैं."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (38)
आज भी यह क़ानून सऊदी अरब में लागू है। काश कि यह वहशियाना क़ानून दुनया के तमाम मुल्कों में सिर्फ मुसलमानों पर लागू कर दिया जाए जिस तरह शादी और तलाक़ को मुस्लमान पर्सनल ला बना कर अलग अपनी डेढ़ ईंट की मस्जिद बनाए हुए है. कोई मुस्लिम तन्जीम या ओलिमा इस आयत को लेकर मैदान में नहीं उतरते कि मुस्लिम चोरों और उठाई गीरों के दाहिने हाथ गट्टे से काट दी जाएं. उन के लिए जो जेहाद के बहाने बस्तियों पर डाका डालते थे, मुहम्मद ने कोई सजा नहीं रखी , उनकी लूट को तो गनीमत करके निगलने जाने का फरमान है. चवन्नी की चोरी पर हाथ को घुटनों से काट देने का हुक्म? इंसान किन हालात में चोरी करने पर मजबूर होता है, ये बात कोई उम्मी सोंच भी नहीं सकता.
कुरानी अल्लाह का यहूदियों से खुदाई बैर चलता रहता है. इनका वजूद भी इसे अज़ीज़ है और इन की दुश्मनी भी. ज़बरदस्ती उनको अपना गवाह बनाए रहता है. इनकी कज अदाई पर कहता है - - -
" - - - और जिस को ख़राब होना ही अल्लाह को मंज़ूर हो तो इसके लिए अल्लाह से तेरा कोई जोर नहीं, यह लोग ऐसे हैं कि अल्लाह को इनके दिलों को पाक करना मंज़ूर नहीं. यह लोग गलत बात सुनने के आदी हैं, हराम खाने वाले हैं."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (41)
मुस्लमानो! अपने अल्लाह से पूंछो कि अगर बड़ी ताक़त वाला और बड़ी हिकमत वाला है तो इस ज़रा से काम में क्या क़बाहत है कि लोगों के दिलों को पाक कर दे. चुटकी बजाते ही ये काम उसके बस का है, और अगर नहीं कर सकता तो वोह भी बन्दों की तरह बेबस है. अगर वोह उनके दिलों को नापाक ही रहने देना चाहता है तो यह कुरानी नौटंकी क्यूँ? क्या उसको अपना जाँ नशीन चुनने के लिए मुहम्मद जैसा मक्के का महा-मूरख ही मिला था जो तमाम दुन्या में जेहालत की खेती करा रहा है.
कुरानी अल्लाह की यह बात भी दावते फ़िक्र देती है - - -
" और हम ने उन पर इस में ये बात फ़र्ज़ की थी कि जान के बदले जान, आँख के बदले आँख, नाक के बदले नाक, कान के बदले कान, दाँत के बदले दाँत और खास ज़ख्मों का बदला भी, फिर भी इस के लिए जो मुआफ करदे, वोह उसके लिए कुफ्फारा हो जाएगा - - - "
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (45)
मुन्तक़िम अल्लाह और मुन्तक़िम रसूल के कानून इस से कम क्या हो सकते हैं.
जेहालत को नए सिरे से लाने वाले अल्लाह के बने रसूल कहते हैं - - -
" यह लोग क्या फिर ज़माना ए जेहालत का फैसला चाहते हैं?"
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (50)
बाबा इब्राहीम का दौर इरतेकाई (रचना कालिक) दौर के हालात जेहालत की मजबूरी में कहे जा सकते हैं. फिर मूसा का दौर आते आते जेहालत की गाठें खुलती हैं मगर बरक़रार रहीं. ईसा ने इसे खोल कर इंसानी समाज को बड़ी राहत बख्शी. अरब दुन्या भी इस से फैज़याब हुई. .कुरआन गवाह है कि उम्मी मुहम्मद ने ईसा के किए धरे पर पानी फेर दिया और आधी दुन्या पर एक बार फिर जेहालत का गलबा हो गया.ताजुब है वह ही कह रहा है " यह लोग क्या फिर ज़माना ए जेहालत का फैसला चाहते हैं?" मुसलमान ही जाग कर अपनी किस्मत बदल सकते हैं, वगरना दुश्मने मुस्लमान यह सियासत दान और हरामी ओलिमा मुसलमानों को कभी भी जागने नहीं देंगे.
''यहूदियों और ईसाइयों को दोस्त मत बनाना , वह एक doosre के दोस्त हैं और तुम में से जो शख्स उन से दोस्ती करेगा, बेशक वोह इन्हीं में से होगा।"
नतीजे में आज सिर्फ ईसाई और यहूदी ही नहीं कोई कौम भी खुद मुसलमानों को दोस्त बनाना पसंद नहीं करती, यहाँ तक की मुसलमान भी एक बार मुसलमान को दोस्त बनाने के लिए सौ बार सोचता है.
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मेरे हम नवा
Not fear, fighting, terror, or booty. Neither submission nor obedience. Not painful punishments nor hateful tirades. Love: nothing more, nothing less.
Returning to the Qur'an we discover that Allah prefers torture to love. And while civilized man had advanced three thousand years from the time Hammurabi's laws were first pressed into clay tablets, Allah prefers the Stone Age. Yet it's fitting; it's where his Black Stone belongs. Qur'an 5:37 "The [Christian] disbelievers will long to get out of the Fire, but never will they get out there from; and theirs will be an enduring torture." Qur'an 5:38 "And as to the thief, male or female, cut off his or her hands: a punishment by way of example from Allah. Allah is Mighty, Wise [for a stone]. But if the thief repents after his crime, and amends his conduct, Allah turns to him in forgiveness." So, if you say you're sorry you can steal all you want.
Qur'an 5:41 "Messenger, let not those [rejecters and mockers] grieve you. They race each other into unbelief: among those who say 'We believ.' with their lips but whose hearts have no faith." Allah is rebuking the bad Muslims, who like bad Nazis, pretended to go along with the program to keep their heads attached. "Or it be among the Jews, men who will listen to any lie. They change the context of the words from their (right) times and places." Muhammad is once again projecting his faults onto the Jews. The Bible is the most historically accurate ancient document the world has ever known. Every story is set within the context of time and place. It is his Qur'an that has no "context" and is devoid of "times and places."
By way of example, I present the second half of the verse: "They say, 'If you are given this, take it, but if not, beware.' If anyone's temptation is intended by Allah's desires, you have no authority in the least for him against Allah. For such it is not Allah's will to purify their hearts. For them there is disgrace in this world, and in the Hereafter a heavy punishment." This is gibberish without context.
The most that can be deciphered from the verse is that Allah is once again acting like the Devil. Another translation reads: "Whomever Allah wants to deceive you cannot help." It goes on to say: "Allah does not want them to know the truth because he intends to disgrace them and then torture them." Lurking behind the veil of Islam is none other than Satan - the Adversary. While that might sound harsh and intolerant, it remains the only rational conclusion. The presentation of Allah's character and ambition in the Qur'an doesn't leave us any other choice. By prostrating themselves to Allah and fighting Jihad in Allah's Cause, Muslims have surrendered to Lucifer; they are doing the Devil's business. While the Qur'anic evidence is overwhelming, the prophet's Sunnah, or example, serves as proof. And the river of blood that has flowed from the mantra of the Black Stone serves as a harsh and vivid confirmation. It isn't by chance that good Muslims are 2000% more violent than the rest of us. It isn't by accident that terror and Islam are irrevocably and undeniably linked. It isn't a coincidence that Allah's enemies are Yahweh's chosen.
Muhammad, speaking of the Jews he had plundered, said on behalf of the spirit that possessed him: Qur'an 5:42 "They are fond of listening to falsehood, of devouring anything forbidden; they are greedy for illicit gain!" If ever a verse was guilty of projecting one's own faults upon a foe, this is it. It defines hypocrite.
The man/god went on to lie: Qur'an 5:44 "It was We who revealed the Torah (to Moses). By its standard the prophets judged the Jews, and the prophets bowed (in Islam) to Allah's will, surrendering. For the rabbis and priests: to them was entrusted the protection of Allah's Scripture Book, and they were witnesses of it. Therefore fear not men, but fear Me, and sell not My revelations for a miserable price." How do you suppose that a god who jumps between first and third person, who can't remember his name, or if he is singular or plural, could have revealed the Torah? And if he revealed it, why couldn't he protect it from change? More important, since Allah claims that his Qur'an was written before time began, and that it was his perfect revelation, why did he bother with the Torah? Moreover, if Allah was such a great and prolific "revealer," why did Muhammad have to buy his scripture "revelations for a miserable price?"
Continuing to prove his lack of divinity, Allah proclaims: Qur'an 5:46 "And in their footsteps We sent Jesus, the son of Mary, confirming the Law that had come before him: We sent him the Gospel: therein was guidance and light, and confirmation of the Law that had come before him: a guidance to those who fear Allah." God has to be smarter than me. The universe is too complex and magnificent to have been formed by a nincompoop. The Gospels were written about Christ, not given to him. The first, Mark, was written twenty years after the resurrection. The last, John, was composed some thirty years later. And since the Gospel fulfills the Torah by confirming its prophecies, why does the Qur'an reject that fulfillment in its entirety, and why does it contradict its central message? It is as if the author of the Qur'an were ignorant of the Scriptures he was trying to plagiarize and condemn.
While I do not take my direction from the former Meccan moon god, the following advice is sound up to a point: Qur'an 5:47 "Let the people of the Gospel judge by what Allah has revealed therein. If any fail to judge by (the light of) what Allah has revealed, they are (no better than) those who rebel." If I were a Muslim, I would question why my god, who claims to have personally created "Jesus" by breathing his spirit into him, and then "given him the Gospel," knows nothing of him - or it. While I know why he is ignorant of such things, the paradox ought to trouble Muslims. (The answer: there were no Christians living in Medina from whom to purchase or purloin Gospel quotes.)
While I have shared many excerpts from the Scriptures in an effort to challenge the foolishness of the Qur'anic corruptions of them, I haven't had to delve into the New Testament in rebuttal simply because Muhammad didn't know it well enough to twist its accounts. His Gospel presentation was wholly his own. In one surah Muhammad makes up a story about Mary being adopted and attributes Mose.' father to her; in another he says that Jesus babbled in the cradle and was resurrected but not crucified. In the Hadith, he claims that Christ raised Ham and discussed the problem of poop in the Ark. Muhammad didn't plagiarize or twist these stories; he simply imagined them.
Qur'an 5:48 "To you [Christians] We sent the Scripture in truth, confirming the scripture that came before it, and guarding it in safety: so judge between them by what Allah has revealed." Mission accomplished. We have judged between them and found Muhammad guilty of counterfeiting scripture. And to add insult to injury, he had his dimwitted deity say that he "sent the Scripture in truth...and guarded it safely." If that's true, the Gospel and the Qur'an should be the same, not polar opposites.
Fearing that he had made a fool of himself, Muhammad added a caveat after his second challenge. Qur'an 5:49 "And this (He commands): Judge between them by what Allah has revealed and follow not their [Christian] desires, but beware of them lest they beguile you, seducing you away from any of that which Allah hath sent down to you. And if they turn you away [from being Muslims], be assured that for their crime it is Allah's purpose to smite them. Truly most men are rebellious." This is a very strange passage since Allah claims he revealed the Christian Gospels. Yet in the same breath he tells Muslims not to follow the Christians who have based their faith on them. If Allah had revealed the Gospels, their message could not beguile and seduce Muslims away from Islam. So somebody isn't telling the truth.
Prophet of Doom
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what u say i cant undrstand, kya aap such likh rahain hai.
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