Wednesday, 2 December 2009

क़ुरआन - सूरह निसाअ ४

लीजिए सब से पहले एक प्यारी सी नज़्म पढ़िए- -



ईश वाणी



मैं हूँ वोह ईश,
कि जिसका स्वरूप प्रकृति है.
मैं स्वयंभू हूँ,
और भवता के विचारों से परे,
मेरी वाणी नहीं भाषा कोई,
न कोई लिपि न कोई रस्मुल ख़त,
मेरे मुँह, आँख, कान, नाक नहीं,
कोई ह्रदय भी नहीं, कोई समझ बूझ नहीं.
मैं समझता हूँ न समझाता हूँ,
हाँ! मगर अपनी ग़ज़ल गता हूँ.
जल की कल-कल कि हवा की सर-सर,
मेरी वाणी है यही मेरी तरफ से सृजित.
गान पंछी के सुनो, तान सुनो जंतु के,
यही इल्हाम-ए-खुदा वंदी है.
बादलों की गरज और यह बिजली की चमक,
हैं सदाएं मेरी.
चरमराते हुए बांसों की खनक,
हैं निदाएँ मेरी.
ज़लज़ले, ज्वाला मुखी और बे रहेम तूफ़ान,
मेरी वहियों की नामूदारी है.
ईश वाणी या खुदा के फ़रमान,
जो कि काग़ज़ पे लिखे मिलते है,
मेरी आवाज़ के साए भी नहीं,
मेरी तस्वीर भी,आवाज़ भी है,
दिल की धड़कन में सुनो,
और पढो फितरत में।




दूसरी किस्त


(मैं गलती से पिछली बार दूसरी किस्त से पहले तीसरी किस्त पोस्ट कर गया था पाठक क्षमा करें।)


अब देखिए कि हरियाणा के मुखियाओं जैसा मुहम्मदी अल्लाह अरबी भाषा में क्या क्या कहता है - - -


अल्लाह नशे की हालत में नमाज़ के पास भटकने से भी मना करता है. मुसलमानों को जनाबत(शौच) इस्तेंजा(लिंग शोधन ) मुबाश्रत (सम्भोग) और तैममुम (पवित्री करण) के तालमेल और तरीके समझाता है इस सिलसिले में यहूदियों की गुमराहियों से आगाह करता है कि वह तुम को भी अपना जैसा बनाना चाहते हैं. अल्लाह समझाता है कि वह अल्फाज़ को तोड़ मरोड़ कर तुम्हारे साथ गुफ्तुगू में कज अदाई करते हैं. यहाँ पर सवाल उठता है कि न यहूदी हमारे संगी साथी हैं और न उनकी भाषा का हम से कोई लेना देना, इस पराई पंचायत में हम भारतीय लोगों को क्यूँ सदियों से घसीटा जा रहा है, क्यूँ ऐसे क़ुरआन का रटंत हम मुसलसल किए जा रहे है। फ़र्द कल दूर भूत काल में था कि हाफिज़ क़ुरआन बन कर ज़रीया मुआश क़ुरआन पाठ्य को बनाता था, अब जब रौशनी नए इल्म की आ चुकी है तो ऐसे इल्म को तर्क करना और इसकी मुखालफ़त करना सच्चा ईमान बनता है. देखिए बेईमान अल्लाह कहता है - - -

" उन को अल्लाह ने उन के कुफ्र के सबब अपनी रहमत से दूर फेंक दिया है. ए वह लोगो! जो किताब दी गए हो, तुम उस किताब पर ईमान लाओ जिस को हम ने नाज़िल फ़रमाया है, ऐसी हालत पर वोह सच बतलाती है जो तुम्हारे पास है, इस से पहले कि हम चेहरों को बिलकुल मिटा डालें और उनको उनकी उलटी जानिब की तरफ बना दें या उन पर ऐसी लानत करें जैसी लानत उन हफ़्ता वालों पर की थी. अल्लाह जिस को चाहे मुक़द्दस बना दे, इस पर धागे के बराबर भी ज़ुल्म न होगा - - - वोह बुत और शैतान को मानते हैं. वोह लोग कुफ्फार के निस्बत कहते हैं कि ये लोग बनिस्बत मुसलमानों के ज़्यादः राहे रास्त पर हैं - - - और दोज़ख में आतिश-ऐ-सोज़ाँ काफी है''


सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (43-55)


उम्मी मुहम्मद अपने क़ुरआन और हदीस में बवजेह उम्मियत हज़ार झूट गढा हो मगर उसमे उनके खिलाफ़ सच्चाई दर पर्दा दबे पाँव रूपोश बैठी नज़र आ ही जाती है. बुत को मानने वाले तो काफ़िर थे ही, बाकी उस वक़्त नुमायाँ कौमें हुवा करती थीं जो मशसूरे वक़्त थीं, ये शैतान के मानने वाले गालिबन नास्तिक हुवा करते थे? बडी ही जेहनी बलूगत थी इनमें जब इसलाम नाजिल हुवा, इसने तमाम ज़र खेजियाँ गारत करदीं. ये नास्तिक हमेशा गैर जानिब दार और इमान दार रहे हैं. यह इन की ही बे लाग आवाज़ होगी "वोह बुत और शैतान को मानते हैं. वोह लोग कुफ्फर के निस्बत कहते हैं कि ये लोग बनिस्बत मुसलमानों के ज़्यादः राहे रास्त पर हैं " जहाँ भी मुसलमानों के साथ किसी क़ौम का झगडा होता है, तीसरी ईमान दार आवाज़ ऐसी ही आती है. आज जो लोग गलती से मुस्लमान हैं, वक्ती तौर पर इस बात का बुरा मान सकते हैं, क्यूँ कि वोह नहीं जानते कि आम मुस्लमान फितरी तौर पर लड़ाका होता है जिसकी वकालत गाँधी जी भी करते हैं। मुहम्मदी अल्लाह आजतक अपने मुखालिफों का चेहरा मिटा कर उलटी जानिब तो कर नहीं सका मगर हाँ मुसलमानों की खोपडी को अतीत की ओर करने में कामयाब ज़रूर हुवा है।


" जो लोग अल्लाह की आयातों के मुनकिर (विरोधी) हो जाएँगे उन को जहन्नम में इतना जलाया जाएगा कि इनकी खालें गल जाएँगी और इनको मज़ा चखाने के लिए नई खालें लगा दी जाएगी. बिला शक अल्लाह ज़बरदस्त हिकमत वाला है."


सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (56)


गौर तलब है कि अल्लाह की इस हिकमत पर ही मुहक़्क़िक़ान-ऐ-क़ुरआन (शोध करता) ने इस मूर्खता को ''क़ुरआन-ऐ-हकीम'' का नाम दिया है. इस को इतना उछाला गया है कि दुन्या में क़ुरआन एक हिकमत वाली किताब बन कर रह गई है. हिकमत क्या है? बस यही जो मुहम्मद की जेहालत और इस्लामी ओलिमा की अय्याराना चाल. अफ़सोस कि तालीम याफ़्ता मुस्लिम अवाम मेडिकल साइंस की ए बी सी से वाकिफ़ है और कानो में बेहिसी का तेल डाले बैठे, इन हराम जादों के साथ हम नावाला हम पियाला हैं.


"मुहम्मद का गलबा मदीना पर है, उन का फ़रमान है कि मुस्लमान अपने हर व्ययिगत और सामूहिक मुआमले अल्लाह और उसके रसूल के सामने पेश किया करें( अल्लाह तो कहीं पकड़ में आने से रहा, मतलब साफ़ था का कि अल्लाह का मतलब भी मुहम्मद है. कुछ समझदार लोग मुसलमानों, यहूदियों और दीगरों में अपने मुआमले मुहम्मदी पंचायत में न ले जाकर आपस में बैठ कर निपटा लेते हैं, ऐसे तरीकों की तारीफ़ करने की बजाय मुहम्मद इसे मुनाफ़िक़त (कपटाचार) की राह क़रार देते हैं. कोई झगडा दो लागों का खामोशी से आपसी समझदारी से ख़त्म हो जाय, यह बात अल्लाह के रसूल को रास नहीं आती. इसको वोह शैतानी इसे रास्ता बतलाते हैं. क़ुरआन के मुताबिक़ हुए फैसले को ही सहीह मानते हैं. हर मुआमले का तस्फिया बहैसियत अल्लाह के रसूल के खुद करना चाहते हैं।"


सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (59-73)


" और जो शख्स अल्लाह कि राह में लडेगा वोह ख्वाह जान से मारा जाए या ग़ालिब आ जाए तो इस का उजरे अज़ीम देंगे और तुम्हारे पास क्या औचित्य है कि तुम जेहाद न करो अल्लाह कि राह में।"


सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (75)


यह मुहम्मदी क़ुरआन का अहेम पाठ है जिस पर भारत सरकार को सोचना होगा, किसी हिन्दू वादी संगठन को नहीं। ये आयात और इस से मिलती जुलती हुई आयतें मदरसों में मुस्लमान लड़कों के कच्चे ज़हनों में घोल घोल कर पिलाई जाती हैं जो बड़े होकर मौक़ा मिलते ही तालिबानी बन जाते हैं, बहरहाल अन्दर से जेहनी तौर पर तो वह बुनयादी देश द्रोही होते ही हैं, जो इस इन में रह कर इस ज़हर से बच जाए वह सोना है. हर राज नैतिक पार्टी को बिना हिचक मदरसों पर अंकुश लगाने की माँग करनी चाहिए बल्कि एक क़दम बढ़ा कर क़ुरआन की नाक़िस तालीम देने वाले सभी संगठनों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए. इसका सब से ज़्यादा फ़ायदा मुस्लिम अवाम का होगा, नुक़सान दुश्मने क़ौम ओलिमा का और गुमराह करने वाले नेताओं का।


" फिर जब उन पर जेहाद करना फ़र्ज़ कर दिया गया तो क़िस्सा क्या हुआ कि उन में से बअज़् आदमी लोगों से ऐसा डरने लगे जैसे कोई अल्लाह से डरता हो, बल्कि इस भी ज़्यादह डरना और कहने लगे ए हमारे परवर दीगर ! आप ने मुझ पर जेहाद क्यूँ फ़र्ज़ फरमा दिया? हम को और थोड़ी मुद्दत देदी होती ----"


सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (77)


आयात गवाह है कि मुहम्मद को लोग डर के मारे "ऐ मेरे परवर दिगर" कहते और वह उनको इस बात से मना भी न करते बल्कि खुश होते जैसा की कुरानी तहरीर से ज़ाहिर है। हकीक़त भी है क़ुरआन में कई ऐसे इशारे मिलते हैं कि अल्लाह के रसूल से वोह अल्लाह नज़र आते हैं. खैर - - -खुदा का बेटा हो चुका है, ईश्वर के अवतार हो चुके है तो अल्लाह का डाकिया होना कोई बड़ा झूट नहीं है। मुहम्मद जंगें बशक्ले हमला लोगों पर मुसल्लत करते थे जिस से लोगों का अमन ओ चैन गारत था। उनको अपनी जान ही नहीं माल भी लगाना पड़ता था. हमलों की कामयाबी पर लूटा गया माले गनीमत का पांचवां हिस्सा उनका होता. जंग के लिए साज़ ओ सामान ज़कात के तौर पर उगाही मुसलमानों से होती.दौर उस दौर में इसलाम मज़हब के बजाए गंदी सियासत बन चुका था. अज़ीज़ ओ अकारिब में नज़रया के बिना पर आपस में मिलने जुलने पर पाबंदी लगा दी गई थी। तफ़रक़ा नफ़रत में बदलता गया. बड़ा हादसती दौर था. भाई भाई का दुश्मन बन गया था. रिश्ते दारों में नफ़रत के बीज ऐसे पनप गए थे कि एक दूसरे को बिना मुतव्वत क़त्ल करने पर आमादा रहते, इंसानी समाज पर अल्लाह के हुक्म ने अज़ाब नाजिल कर रखा था. नतीजतन मुहम्मद के मरते ही दो जंगें मुसलमानों ने आपस में ऐसी लड़ीं कि दो लाख मुसलमानो ने एक दूसरे को काट डाला, गलिबन ये कहते हुए कि इस इस्लामी अल्लाह को तूने पहले तसलीम किया - - - नहीं पहले तेरे बाप ने - -


" ऐ इंसान! तुझ को कोई खुश हाली पेश आती है, वोह महेज़ अल्लाह तअला की जानिब से है और कोई बद हाली पेश आवे, वोह तेरी तरफ़ से है और हम ने आप को पैगम्बर तमाम लोगों की तरफ़ से बना कर भेजा है और अल्लाह गवाह काफ़ी है."


सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (79)


यह मोहम्मदी अल्लाह की ब्लेक मेलिंग है। अवाम को बेवकूफ बना रहा है. आज की जन्नत नुमा दुनिया, जदीद तरीन शहरों में बसने वाली आबादियाँ, इंसानी काविशों का नतीजा हैं, अल्लाह मियां की रचना नहीं. अफ्रीका में बसने वाले भूके नंगे लोग कबीलाई खुदाओं और इस्लामी अल्लाह की रहमतों के शिकार हैं. आप जनाब पैगम्बर हैं, इसका गवाह अल्लाह है, और अल्लाह का गवाह कौन है? आप ? बे वकूफ मुसलमानों आखें खोलो।


" पस की आप अल्लाह की राह में कत्ताल कीजिए. आप को बजुज़ आप के ज़ाती फेल के कोई हुक्म नहीं और मुसलमानों को प्रेरणा दीजिए . अल्लाह से उम्मीद है कि काफ़िरों के ज़ोर जंग को रोक देंगे और अल्लाह ताला ज़ोर जंग में ज़्यादा शदीद हैं और सख्त सज़ा देते हैं।"


सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (84)


कैसी खतरनाक आयात हुवा करती थी कभी ये गैर मुस्स्लिमो के लिए और आज खुद मुसलामानों के लिए ये खतरनाक ही नहीं, शर्मनाक भी बन चुकी है जिसको वह ढकता फिर रहा है। मुहम्मद ने इंसानी फितरत की बद तरीन शक्ल नफ़रत को बढ़ावा देकर एक राहे हयात बनाई थी जिसका नाम रखा इसलाम. उसका अंजाम कभी सोचा भी नहीं, क्यूंकि वोह सच्चाई से कोसों दूर थे. यह सच है कि उनके कबीले कुरैश की सरदारी की आरजू थी जैसे मूसा को बनी इस्राईल की बरतरी की, और ब्रह्मा को, ब्रह्मणों की श्रेष्टता की. इसके बाद उम्मत यानी जनता जनार्दन कोई भी हो, जहन्नम में जाए. आँख खोल कर देखा जा सकता है, सऊदी अरब मुहम्मद की अरब क़ौम कि आराम से ऐशो आराइश में गुज़र कर रही है और प्राचीन बुद्धिष्ट अफगानी दुन्या तालिबानी बनी हुई है, सिंध और पंजाब के हिन्दू अल्कएदी बन चुके हैं, हिदुस्तान के बीस करोड़ इन्सान मुफ़्त में साहिबे ईमान (खोखले आस्था वान) बने फिर रहे है, दे दो पचास पचास हज़ार रुपया तो ईमान घोल कर पी जाएँ. सब के सब गुमराह। होशियार मुहम्मद की कामयाबी है यह, अगर कामयाबी इसी को कहते हैं।



निसार ''निसार-उल-ईमान''




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मेरे गवाह

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For a religion fixated on mindless ritual and against honest inquiry, this makes no sense: Qur'an 4:43 "Believers, approach not prayers with a mind befogged or intoxicated until you understand what you utter. Nor when you are polluted, until after you have bathed. If you are ill, or on a journey, or come from answering the call of nature, or you have touched a woman, and you find no water, then take for yourselves clean dirt, and rub your faces and hands. Lo! Allah is Benign, Forgiving." While this is too weird for words, it's troubling that the Qur'an claims women are unclean and polluted - worse than dirt. It's yet another sign suggesting that Muhammad was abused.
Like so much of the Qur'an, there is no intelligent transition from the dirt bath to this attack on Jews. The entire book is random and chaotic; it is the product of a cluttered and tormented mind. Qur'an 4:44 "Have you not considered those to whom a portion of the Book has been given? They traffic in error and desire that you should go astray. But Allah has full knowledge of your enemies. Of the Jews there are those who displace words from their (right) places, saying, 'We hear and we disobey' with a twist of their tongues they slander Faith.... Allah has cursed them for disbelief." O great Muslim scholars, if the Jews altered their scriptures to slander Islam as Allah claims, where is the evidence, the proof? What books did they alter? How did they change them? When? And why is there overwhelming evidence that they have not been changed in 2,300 years?
Qur'an 4:47 "O you People of the Book to whom the Scripture has been given, believe in what We have (now) revealed, confirming and verifying what was possessed by you, before We destroy your faces beyond all recognition, turning you on your backs, and curse you as We cursed the Sabbath-breakers, for the decision of Allah Must be executed." Let me see if I understand this. The Jews were given the Scripture Book by Allah, and the Qur'an is new. But it confirms what it condemns. So the Islamic god is going to turn the Jews on their backs and disfigure their faces while cursing them. Forget for a moment that Allah was a rock, and a dumb one at that, and that Muhammad was a sexual pervert, bloodthirsty terrorist, and a pirate; this just isn't up to the level of scripture.
Having slimed the Jews, it was time for the dark spirit of Islam to attack Christians. Qur'an 4:48 "Allah forgives not that partners should be set up with Him; but He forgives anything else, to whom He please; to set up partners with Allah is to devise a sin most heinous." If that's true, Muhammad is toast. Remember the Quraysh Bargain and the Satanic Verses? By setting up Al-Lat, Al-Uzza, and Manat as partners with Allah, his sin was heinous and unforgivable. Qur'an 4:50 "Behold! how they invent lies against Allah! That is flagrant sin." Therefore, Muhammad is in hell.
Continuing to assault Christians, Allah says: Qur'an 4:51 "Have you not seen those to whom a portion of the Book has been given? They believe in sorcery and false deities and say of those who disbelieve: these are better guided than those who believe. They are (men) whom Allah has cursed: And those whom Allah has cursed, you will find that they have no savior." The sorcery and false deities accusation is suicidal. Allah claims to be the God of the Bible so he's condemning himself.
Ever delusional, Muhammad's demonic sidekick is alleged to have said that Christians are envious of Muslims because of the spoils Allah had given his jihad fighters. Qur'an 4:54 "Are they jealous and envious what Allah has given them of his bounty? But We had already given the house of Abraham the Book, and conferred upon them a grand kingdom. Some of them believed, and some of them averted their faces from him. And Hell is sufficient for their burning. Those who reject our Signs, We shall soon cast into the Fire. As often as their skin is burnt and singed, roasted through, We shall change it for fresh skin, so that they may go on tasting the torment." Once again, we find Allah in Hell. This time he is exchanging the skin of his Christian victims so that their torture can be extended. With every word, Allah grows more Satanic. The veil that once kept us from seeing Lucifer behind these words has been singed. We are now peering directly at Satan, the Prince of Darkness, the Whore of Babylon.
For those in churches, the media, and politics eager to embrace Islam, beware. You are dealing with the Devil, and he will kill you. It isn't by chance that hell and punishment are the Qur'an's most repeated and vivid themes. It isn't a coincidence that Allah loves death and awaits the Day of Doom. Nor is it an accident that surest path to Allah's Whore House is martyrdom - death killing Christians and Jews. There is a reason the Qur'an obliterates love, trust, peace, freedom, choice and rational inquery, imposing in their place hate, fear, war, submission, obedience, and deception.
Since the rivers in Allah's paradise flow with wine, and the entertainment is virgins, Islamic heaven as demented as Islamic hell. Qur'an 4:57 "But those who believe and do good deeds, We shall soon admit to Gardens, with rivers flowing, their eternal home: Therein shall they have pure companions."
The religion of submission is incompatible with freedom and democracy. Qur'an 4:59 "Believers, obey Allah, and obey the Messenger, and those charged with authority. If you dispute any matter, refer it to Allah and His Messenger. That is best, and most suitable for final determination." There is no freedom of choice in "submit and obey." And the Hadith and Qur'an speak with one voice as it relates to the central mission of the poligious doctrine. Bukhari:V4B52N203 "I heard Allah's Apostle saying, 'He who obeys me, obeys Allah, and he who disobeys me, disobeys Allah. He who obeys the chief, obeys me, and he who disobeys the chief, disobeys me.'" Without choice there can be no democracy. There can't be a religion either, but that's another matter.
Continuing to focus on the prophet's favorite theme: Qur'an 4:64 "We sent not a messenger but to be obeyed, in accordance with the will of Allah." Qur'an 4:65 "But no, by the Lord, they can have no Faith until they make you (Muhammad) judge in all disputes, and find in their souls no resistance against Your decisions, and accept them with complete submission." Qur'an 4:66 "If We had ordered them to sacrifice their lives or to leave their homes [to fight], very few of them would have done it: But if they had done what they were told, it would have been best for them, and would have strengthened their (faith)." Qur'an 4:69 "All who obey Allah and the Messenger are the ones whom Allah has bestowed favors [war booty]."
Each time I read these passages I close my eyes in horror. The fact that the president of the United States sent America's finest men and women into harm's way to accomplish the impossible is unforgivable. There will never be freedom or democracy in any Islamic state. Sixty percent of Iraqis are Shi'ite Muslims, from which Hezbollah - Allah's Party - is formed. Thirty-five percent are Sunni Muslims. Enough will follow their prophet's and god's orders to assure two things: American's will die and democracy will fail.
I am also horrified that so few people see through this demented hoax. Islam wasn't created to lead men to a god. It was perpetrated to empower a man.
Moving on to war we learn: Qur'an 4:71 "Believers, take your precautions, and advance in detachments or go (on expeditions) together in one troop. There are among your men who would tarry behind (not fighting in Allah's Cause). If a misfortune befalls you, they say: 'Allah favored us in that we were not present among them.'" Qur'an 4:74 "Let those who fight in Allah's Cause sell the life of this world for the hereafter. To him who fights in the Cause of Allah, whether he is slain or gets victory - We shall give him a great reward." Jihad is all about greed. The Muslim god promises booty for those who live and paradise for those who die. It's little wonder there are so many suicide bombers selling this life for the hereafter. Sadly, they lose both.
Muhammad spoke as if he were Allah. Bukhari:V4B52N44 "A man came to Allah's Apostle and said, 'Instruct me as to such a deed as equals Jihad in reward.' He replied, 'I do not find such a deed.'" If the best thing a Muslim can do is fight Jihad in Allah's Cause then Islam is a call to war. Bukhari:V4B52N50 "The Prophet said, 'A single endeavor of fighting in Allah's Cause in the forenoon or in the afternoon is better than the world and whatever is in it.'" Jihad is, therefore, more important than all of the Five Pillars of Islam combined. Bukhari:V4B52N46 "I heard Allah's Apostle saying, 'Allah guarantees that He will admit the Mujahid [Muslim fighter] in His Cause into Paradise if he is killed, otherwise He will return him to his home safely with rewards and war booty.'" If you die, you get heavenly booty. If you live, you get earthly booty.
Islam is a religion to die for: Bukhari:V4B52N53 "The Prophet said, 'Nobody who dies and finds Paradise would wish to come back to this life even if he were given the whole world and whatever is in it, except the martyr who, on seeing the superiority of martyrdom, would like to come back to get killed again in Allah's Cause.'" "Martyrdom," "fighting," "Allah's Cause," and "Jihad" are synonymous. Bukhari:V4B52N54 "The Prophet said, 'By Him in Whose Hands my life is! Were it not for the believers who do not want me to leave them, I would certainly and always go forth in army-units setting out for Jihad. I would love to be martyred in Allah's Cause and then get resurrected and get martyred again only to be resurrected so that I could get martyred once more.'" But like Imams today, Allah's prophet preferred to send boys out to do his dirty work.
Returning to the Qur'an, we don't miss a beat. Qur'an 4:75 "What reason have you that you should not fight in Allah's Cause?" Another translation says: "What is wrong with you that you do not fight for Allah?" Qur'an 4:76 "Those who believe fight in the Cause of Allah, and those who disbelieve fight in the cause of idols: So fight the allies of Satan: feeble indeed is the plot of Satan." This is why the Islamic world refers to America as the "Great Satan." And now that you know the root from which Satan was derived - Adversary - it all makes sense. America is perceived to be a nation comprising Christians and Jews. We are Lucifer's, and thus Islam's, adversary. Islam is ugly, not complicated.
Speaking for the dark spirit of Islam, Muhammad reminds us how much he despises peaceful Muslims. He also confirms that "fear" in the Islamic sense does not mean reverence, but fright. Qur'an 4:77 "Have you not seen those to whom it was said: Withhold your hands from fighting, perform the prayer and pay the zakat. But when orders for fighting were issued, a party of them feared men as they ought to have feared Allah. They say: 'Our Lord, why have You ordained fighting for us, why have You made war compulsory?'" The Qur'an ordains Muslims to fight, whether they like it or not. War is compulsory. The enemy is all non-Muslims. The timeline is forever.
Allah is going to kill the pacifists, so they might as well fight. Qur'an 4:78 "Wherever you are, death will find you, even if you are in towers built up strong and high! If some good befalls, they say, 'This is from Allah;' but if evil, they say, 'This is from you (Muhammad).' Say: 'All things are from Allah.' So what is wrong with these people, that they fail to understand these simple words?" Arabs recognized that evil flowed directly from Muhammad and his dark spirit. What's more, the Qur'an agrees.
The man who folded while negotiating with a Meccan merchant claims he's Allah's messenger to all mankind. But first, Allah must contradict himself. Qur'an 4:79 "Whatever good happens to you is from Allah; but whatever evil happens to you is from yourself. We have sent (Muhammad) as a Messenger to (instruct) mankind. And enough is Allah for a witness." How, pray tell, is Allah a sufficient witness? The Black Stone never spoke, performed a miracle, or issued a prophecy. This feeble attempt at scripture deserves an "F." The subject matter is ugly - overly focused on demented torments, violence, and war. The message is immoral - approving thievery, murder, kidnapping, the slave trade, rape, incest, and even genocide. The book is plagiarized, and poorly, I might add. And it's jumbled together without context or chronology. It is only a witness in that it exposes the fraudulent nature of Muhammad, Allah, and Islam.
Qur'an 4:80 "He who obeys the Messenger obeys Allah." If it weren't for Muhammad, Allah would be unknown today. He was merely a stone to be thrown.
Next, we are reminded that prophet and pal were losing their grip. Muslims were beginning to think for themselves. Qur'an 4:81 "They have obedience on their lips; but when they leave you (Muhammad), a section of them plots things that are very different from what you commanded them. So keep clear of them." The reason the first Muslims feigned support was obvious. It's the same reason the vast majority of Germans and Russians pretended to be Nazis and Communists. Dissent was met with imprisonment and death. And this is why we must care enough about "bad" Muslims to free them from "good" ones.
Qur'an 4:82 "Do they not consider and ponder the Qur'an? Had it been from other than Allah, they would surely have found therein much discrepancy and incongruity." The 78th verse says: "All things are from Allah." The 79th contradicts it saying: "Whatever good happens to you is from Allah; but whatever evil happens to you is from yourself." The Qur'an is so rife with contradictions, it has a verse explaining how to deal with them. "Whenever We cancel a verse or throw it into oblivion, We bring one which is better." That's why the "book" warns: "Do not question the Qur'an. There was a party of you who questioned it and as a result, they lost their faith."
Much of the Qur'an was anachronistic - only pertaining to Muhammad, focusing on his critics, his sexual indulgences, his financial appetite, and lust for power. Muslims are ordered to submit and obey a dead man. This next verse is one of a thousand examples. Qur'an 4:83 "When there comes to them some matter regarding war, they discuss it. If only they had referred it to the Messenger, or to those charged with authority, the proper investigators would have understood it. Were it not for the grace of Allah, most of you would have fallen into Satan's clutches." Along these lines the Noble Qur'an references this Hadith: Bukhari:V9B92N384 "Allah's Apostle said, 'Whoever obeys me will enter Paradise, and whoever disobeys me will not.'"
Muhammad's never-ending war marched on. Qur'an 4:84 "Then fight (O Muhammad) in Allah's Cause - you are only responsible for yourself. Incite the believers to fight along with you." How can there be no contradictions in the Qur'an if five verses earlier we read: "We have sent (Muhammad) as a Messenger to mankind," and now he's "only responsible for himself?" And how can Islam be peaceful if its scripture says: "Incite the believers to fight along with you?"
The pacifist



Prophet of Doom

2 comments:

  1. नकलची तू नकल करता रह, ऊपर जो तूने नक़ल किया है 'मर्द-ए-मोमिन' इसका अर्थ है मोमिन का मर्द, लिखना था मर्द मोमिन या मोमिन मर्द, नक़ल के लिए भी अकल चाहिए, वो मोमिन तेरा मर्द है,खेर हमने तुझ जैसों के लिए बनाया है सुपर वाइरस, आओ

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    विचार करें कि मुहम्मद सल्ल. कल्कि व अंतिम अवतार और बैद्ध मैत्रे, अंतिम ऋषि (इसाई) यहूदीयों के भी आखरी संदेष्‍टा? हैं या यह big Game against Islam है?
    antimawtar.blogspot.com (Rank-2 Blog) डायरेक्‍ट लिंक

    अल्‍लाह का चैलेंज पूरी मानव-जाति को
    अल्‍लाह का चैलेंज है कि कुरआन में कोई रद्दोबदल नहीं कर सकता
    अल्‍लाह का चैलेंजः कुरआन में विरोधाभास नहीं
    अल्‍लाह का चैलेंजः आसमानी पुस्‍तक केवल चार
    अल्‍लाह का चैलेंज वैज्ञानिकों को सृष्टि रचना बारे में
    अल्‍लाह का चैलेंज: यहूदियों (इसराईलियों) को कभी शांति नहीं मिलेगी

    छ अल्लाह के चैलेंज सहित अनेक इस्‍लामिक पुस्‍तकें
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  2. बहुत खूब. जिसकी अपनी भाषा ही नहीं दुरुस्त, वह चला है कुरआन की भाषा पर ऊँगली उठाने.

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