Saturday, 12 December 2009

क़ुरआन - सूरह अल्मायदा ५


सूरह मायदा की छटवीं और आखरी किस्त



सूरह मायदा -5


(5 The Food)

मेरे गाँव की एक फूफी के बीच बहु-बेटियों की बात चल रही थी किमेरा फूफी ज़ाद भाई बोला अम्मा लिखा है औरतों को पहले समझाओ बुझाओ, न मानें
तो घुस्याओ लत्याओ, फिरौ न मानैं तो अकेले कमरे मां बंद कर देव, यहाँ तक कि वह मर न जाएँ . फूफी आखें तरेरती हुई बोलीं उफरपरे! कहाँ लिखा है? बेटा बोला तुम्हरे क़ुरआन मां.-- आयं? कह कर फूफी बेटे के आगे सवालिया निशान बन कर रह गईं. बहुत मायूस हुईं और कहा ''हम का बताए तो बताए मगर अउर कोऊ से न बताए''
मेरे ब्लॉग के मुस्लिम पाठक कुछ मेरी गंवार फूफी की तरह ही हैं.वह मुझे राय देते हैं कि मैं तौबा करके उस नाजायज़ अल्लाह के शरण में चला जाऊं. मज़े कि बात ये है कि मैं उनका शुभ चिन्तक हूँ और वह मेरे. ऐसे तमाम मुस्लिम भाइयों से दरख्वास्त है कि मुझे पढ़ते रहें, मैं उनका ही असली खैर ख्वाह हूँ .हिदी ब्लॉग जगत में एक सांड के नाम से जाना जाने वाला कैरानवी है जो खुद तो परले दर्जे का जाहिल है मगर ज़मीर फरोश ओलिमा की लिखी हुई कपटी रचनाओं को बेच कर गलाज़त भरी रोज़ी से पेट पालता है. अल्लाह का चैलेंज, अंतिम अवतार, बौद्ध मैत्रे जैसे सड़े गले राग खोंचे लगाए गाहकों को पत्ता रहता है. उसको लोगों के धिक्कार की परवाह नहीं. मेरे हर आर्टिकल पर अपना ब्लाक लगा देता है, कि मेरे पास आ मैं जेहालत बेचता हूँ.

अब आये अल्लाह की रागनी पर - - -

"तुम्हारे लिए दरया का शिकार पकड़ना और खाना हलाल किया गया"
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (96)
ये एक हिमाकत कि बात है. जो जीविका का साधन हजारों साल से मानव जाति को जीवित किए हुए हैं, उसको कुरानी फरमान बनाना क़ुरआन का मजाक और बेवज्नी में इजाफा ही है. दरया में बहुत से जीव विषैले और गंदे होते हैं जिसको हराम करना मुहम्मद भूल गए हैं.
"अल्लाह ने काबे को जो कि अदब का मकान है,लोगों के लिए कायम रहने का सबब करार दे दिया है और इज्ज़त वाले महीने को भी और हरम में कुर्बानी होने वाले जानवरों को भी और उनको भी जिनके गले में पट्टे हों, ये इस लिए कि इस बात का यकीन करलो कि बे शक अल्लाह तमाम आसमानों और ज़मीन के अन्दर की चीजों का इल्म रखता है."
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (97)
लगता है मुहम्मदी अल्लाह ने इन बकवासों से यह बात साबित कर दिया हो की उसको आसमानों और ज़मीन का राज़ मालूम है, जब कि वह यह भी नहीं जाता की आसमान सिर्फ एक है और ज़मीनें लाखों.आप इस आयात को बार बार पढिए और मतलब निकालिए, नतीजे तक पहुँचिए।क्या साबित नहीं होता कि यह किसी पागल कि बड़ बड़ है,या क़ुरआनका पेट भरने के लिए मुहम्मद कुछ न कुछ बोल रहे हैं। इन बकवासों को ईश वाणी का दर्जा देकर और सर पर रख कर हम कहाँ के होंगे? एक बार फिर मौत से पहले विरासत नामे पर लम्बी तकरीर और बहसें दूर तक चलती हैं जिसको नज़र अंदाज़ करना ही बेहतर होगा.
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (९८-109)
ईसा को एक बार फिर नए सिरे से पकडा जाता है जिसे पढ़ कर मुँह पीटने को जी चाहता है मगर अल्लाह हाथ नहीं लगता. इसे मुहम्मद की दीवानगी कहें या उनकी मौजूदा उम्मत की जो इस पर ईमान रखे हुए हैं.देखिए बकते हैं - - -
"आप बे शक पोशीदा बातों को जानने वाले है, जब अल्लाह तअला इरशाद फरमाएंगे : ऐ ईसा इब्ने मरयम! याद करो जो तुम पर और तुम्हारी वाल्दा पर, जब कि मैं ने युम्हें रूहुल-कुद्स से ताईद दी, तुम आदमियों से कलाम करते थे, गोद में भी और बड़ी उम्र में भी और जब की मैं ने तुम को किताबें और समझ की बातें और तौरेत और इंजील की तालीम किन और जब कि तुम गारे से एक शक्ल बनाते थे, जैसे परिंदे की होती है, मेरे हुक्म से फिर तुम उसके अन्दर फूँक मार देते थे, जिस से वह परिंदा बन जाता था,मेरी हुक्म से. और जब तुम अच्छा कर देते थे मदर ज़द अंधे को और कोढ़ से बीमार को, मेरे हुक्म से और जब तुम मुर्दों को निकाल कर खडा कर देते थे, मेरे हुक्म से और जब मैं ने बनी इस्राईल को तुम से बांध रखा, जब तुम उनके पास दलीलें लेकर आए थे, फिर उन में जो काफिर थे उन्हों ने कहा था यह सिवाय खुले जादू के और कुछ भी नहीं
."सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (110)
इसी दीवानगी की बड़बड़ाहट को करोरो मुस्लमान चौदह सौ सालों से दोहरा रहा है, नतीजतन दुन्या की सब से पिछली कतार में जा लगा है. इसके धार्मिक गुरु इसको गुमराह किए रहते है जब तक इनका सफाया नहीं होता, इनका उद्धार मुमकिन नहीं. अफ़सोस कि पढा लिखा वर्ग बहुत स्वार्थी गया है, वह सच को जनता है मगर आगे आना पसंद नहीं करता, वह सोचता है खुद को बचा लिया बाक़ी जाएँ जहन्नम में. बस एक ही रास्ता है कि मुस्लिम अवाम बेदार हों और ओलिमा को नजिस जानवर का दर्जा दें.
मुसलमानों! मैं मुस्लिम समाज का ही बेदार फर्द हूँ जो मुस्लिम से मोमिन हो गया,यह काम बहुत ही मुस्क्किल है और बेहद आसन भी. मोमिन का मतलब है ईमान दार और मुस्लिम का मतलब है हठ धर्मं, जेहालत पसंद, जेहादी, क़दामत परस्त, झूठा, शर्री, तअस्सुबी,ना इन्साफ और बहुत सी इन्सान दुश्मन बातें जो इसलाम की तालीम है. मोमिन के ईमान की कसौटी पर ही सच्चाई कि परख आती है, मोमिम बनो, धरम कांटे का ईमान अपने अंदर पैदा करो, देखो कि अपने आप में आप का क़द कितना बढ़ गया है. इसलाम जिसे तस्लीम किया,मुस्लिम हो गए.ईमान जो फितरी (प्रकृतिक) सच होगा २+२=४ की तरह .ईमान पर ईमान लाओ इसलाम को तर्क करो.



निसार ''निसार-उल-इमान''




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मेरे हम नवा



Qur'an 5:97 "Allah made the Ka'aba, the Sacred House, an asylum of security for men, as also the Sacred Months...." Qur'an 5:98 "Know you that Allah is severe in punishment and that Allah is Oft-Forgiving, Most Merciful." Since by definition a hypocrite is one who says one thing and does another, Allah has just defined himself. And guess what? He's exactly like Muhammad.
This next passage opens with dialog beneath Sesame Street. Qur'an 5:100 "Say: 'Not equal are things that are bad and things that are good, even though there is an abundance of bad to dazzle, please, and attract you; so be careful and fear Allah, O you who understand (so) you may prosper.'" Muslims "prosper" according to Allah because "booty is lawful and good." (8:69)
There are two Qur'anic verses in particular that condemn Muslims to live in religious, economic, intellectual, and civil poverty। One says: Qur'an 4:89 "If they turn back from Islam, becoming renegades, seize them and kill them wherever you find them." The other commands: Qur'an 5:101 "Believers! Do not ask questions about things which if made plain and declared to you, may vex you, causing you trouble." Qur'an 5:102 "Some people before you did ask such questions, and on that account they lost their faith and became disbelievers." It's true; the Qur'an is so incomprehensible, so obviously fraudulent, so mean-spirited, anyone who even questions it loses their faith. So we need to give Muslims the freedom to ask questions and to make choices.
Questioning minds will reject the Qur'an because it says things like this: Qur'an 5:104 "When it is said to them: 'Come to what Allah has revealed; come to the Messenger.' They say: 'Enough for us are the ways we found our fathers following.' What! Even though their fathers were void of knowledge and guidance?" Qusayy founded the religious scam that Muhammad promoted as Islam. How could he have been void of guidance if Allah was his god, the Ka'aba was his shrine, the hajj and umrah were his pilgrimages, the prostration, fasts, and the sacred months were his rituals, the zakat tax his means, and holy war his method?
But there was a man without knowledge. His name was Muhammad. Qur'an 5:109 "One day Allah will gather the messengers together, and ask: 'What was the response you received (from men to your teaching)?' They will say: 'We have no knowledge.'" So all of Allah's messengers will be called together and they will say that they know nothing.
The same surah that says: "Disbelievers are those who say that God is the third in the Trinity,'" now proclaims: Qur'an 5:110 "And God will say: 'O Jesus! Recount My favor to you and to your mother. Behold! I strengthened you with the Holy Spirit so that you spoke to the people in the cradle and in the prime of life.'" That's the Trinity: God (Yahweh), Jesus (Yahshua), and the Holy Spirit (Yahweh's/Yahshua's Spirit). So I guess that makes the Islamic god a disbeliever. Can't say that I blame him.
"Behold! I taught you the law and the judgment, the Torah and the Gospel." Actually, Yahweh revealed the Torah, the Gospels are the good news of freedom from judgment, and they were written about him, not taught to him. But even Babe Ruth struck out sometimes.
Not finished swinging wildly away, Allah quotes an obscure and irrelevant story from an Egyptian text falsely attributed to Thomas. "And behold, you made out of clay, as it were, the figure of a bird and you breathed into it and it became a bird by My permission." Trivia aside, Muhammad knew that his god had an embarrassing problem - one he didn't want to talk about - impotence. He couldn't do a miracle. So to help his god out, Muhammad claimed that the Messiah's miracles were really performed by Allah. "And you healed those born blind by My permission and the lepers by My permission. And behold! You raised forth the dead by My permission." Muhammad not only stole Jewish scripture, possessions, homes, property, wives, and children; he stole their miracles, too.
But that was enough. He wanted nothing to do with Christ's sacrifice. According to the Qur'an, that crucifixion thing never happened. "And behold! I did restrain the Children of Israel from harming you when you came with clear proofs." Then to make Christ's situation somewhat analogous to his own, Muhammad said: "And the unbelievers among the Jews said: 'This is nothing but pure magic.'"
Delusional to the last breath, Allah claims that Christ's disciples were Muslims. I wonder why they didn't say so? Qur'an 5:111 "And behold! I inspired the disciples to have faith in Me and My Messenger. They said, 'We are Believers, and bear witness that we prostrate ourselves to Allah as Muslims.'" Surely you jest.
After claiming credit for Christ's best miracles, Allah says that miracles aren't what they're cracked up to be. Qur'an 5:112 "Behold! The disciples, said: 'O Jesus, can your Lord send down to us a table well laid out from heaven.' Said Jesus: 'Fear Allah, if you have faith.'" In other words, "No." "When the disciples said: 'O Jesus, son of Mary, is your Lord able to send down for us a table spread with food from heaven.' He said: "Observe your duty to Allah, if you are true believers.'" No miracles for you.
Since the Qur'an claims Christ performed miracles, this is senseless: Qur'an 5:113 "They said: 'We only wish to eat thereof to satisfy our hearts, and to know you have told us the truth. We want to witness a miracle.' Said Jesus, the son of Mary: 'O Allah our Lord! Send us from heaven a table well laid out, that there may be a feast, a Sign from you."
Ever in character Allah promises and threatens: Qur'an 5:115 "Allah said: 'I am going to send it down unto you, but if any of you after that disbelieves, resisting Faith [Islam], I will punish him with a torment such as I have not inflicted on any of my creatures, man or jinn.'" The "Feast" for which this surah is named was never described or even mentioned again. Which means it never happened. But, just three verses from the Qur'an's parting salvo Allah tells Christians "I will punish them with a torment such as I have not inflicted on any of my creatures." Pain and punishment, thievery and terror, savagery and slavery, these are the things at which Allah excels. In that regard, nothing has changed. Twenty-two years earlier, the first Qur'an revelations were demonic to a fault, fixated on hellish tortures. One hundred and fourteen surahs later, we haven't progressed very far. We are still mired in the realm of doom and damnation.
As you know by now Muhammad was easily confused. Even the Qur'an said that those around him claimed, "He was all ear and believes everything he hears." Well, he must have heard some Catholic say a "Hail Mary" and came to the conclusion that Christians believed she was a goddess. Qur'an 5:116 "And behold! Allah will say: 'O Jesus, the son of Mary! Did you say unto men, worship me and my mother as two gods besides Allah.' He will say: 'Glory to You! Never could I utter what I had no right.'" Wouldn't you know, the man who fancied himself the Messiah, finished his recital uttering what he had no right.
The second to last verse remains focused on Yahshua, converting him into a Muslim: Qur'an 5:117 "I only said what You (Allah) commanded me to say: Worship Allah, my lord and your Lord." Then, without benefit of the crucifixion, Yahshua was resurrected: "I was a witness over them while I dwelt amongst them but you took me up." The Noble Qur'an goes on to say: "This is a great admonition and warning to the Christians of the whole world." So Islamic salvation is capricious and based upon "god's. whim, not man's choice: Qur'an 5:118 "If You punish them, they are Your slaves. If You forgive them, you are the All-Mighty."
Having damned Christians and Jews, having condemned their Scripture, having ordered Muslims to murder and mutilate them, and having converted David and Jesus to Islam, the Qur'an's final verse explained what motivated Muhammad to perpetrate Islam in the first place: Qur'an 5:119 "Allah will say: This is the day on which the Muslims will profit from Islam..."
Since Islam began by corrupting the Bible, I'd like to give Yahweh the last word: "For what does it profit a man to gain the whole world, and forfeit his soul?" (Mark 8:36)
Prophet of Doom

2 comments:

  1. उल्‍लू की दुम वह केवल हज के दौरान लोगों के लिए कहा गया है, ले अगली पिछली आयते देख लाया है तेरे लिए साइबर मौलाना
    5:95
    (ऐ ईमानदारों जब तुम हालते एहराम में हो तो शिकार न मारो और तुममें से जो कोई जान बूझ कर शिकार मारेगा तो जिस (जानवर) को मारा है चैपायों में से उसका मसल तुममें से जो दो मुन्सिफ आदमी तजवीज़ कर दें उसका बदला (देना) होगा (और) काबा तक पहुँचा कर कुर्बानी की जाए या (उसका) जुर्माना (उसकी क़ीमत से) मोहताजों को खाना खिलाना या उसके बराबर रोज़े रखना (यह जुर्माना इसलिए है) ताकि अपने किए की सज़ा का मज़ा चखो जो हो चुका उससे तो ख़ुदा ने दरग़ुज़र की और जो फिर ऐसी हरकत करेगा तो ख़ुदा उसकी सज़ा देगा और ख़ुदा ज़बरदस्त बदला लेने वाला है
    5:96
    तुम्हारे और काफ़िले के वास्ते दरियाई शिकार और उसका खाना तो (हर हालत में) तुम्हारे वास्ते जायज़ कर दिया है मगर खुश्की का शिकार जब तक तुम हालते एहराम में रहो तुम पर हराम है और उस ख़ुदा से डरते रहो जिसकी तरफ (मरने के बाद) उठाए जाओगे
    5:97
    ख़ुदा ने काबा को जो (उसका) मोहतरम घर है और हुरमत दार महीनों को और कुरबानी को और उस जानवर को जिसके गले में (कुर्र्बानी के वास्ते) पट्टे डाल दिए गए हों लोगों के अमन क़ायम रखने का सबब क़रार दिया यह इसलिए कि तुम जान लो कि ख़ुदा जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है यक़ीनन (सब) जानता है और ये भी (समझ लो) कि बेशक ख़ुदा हर चीज़ से वाक़िफ है

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    विचार करें कि मुहम्मद सल्ल. कल्कि व अंतिम अवतार और बैद्ध मैत्रे, अंतिम ऋषि (इसाई) यहूदीयों के भी आखरी संदेष्‍टा? हैं या यह big Game against Islam है?
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    अल्‍लाह का चैलेंज पूरी मानव-जाति को
    अल्‍लाह का चैलेंज है कि कुरआन में कोई रद्दोबदल नहीं कर सकता
    अल्‍लाह का चैलेंजः कुरआन में विरोधाभास नहीं
    अल्‍लाह का चैलेंजः आसमानी पुस्‍तक केवल चार
    अल्‍लाह का चैलेंज वैज्ञानिकों को सृष्टि रचना बारे में
    अल्‍लाह का चैलेंज: यहूदियों (इसराईलियों) को कभी शांति नहीं मिलेगी

    छ अल्लाह के चैलेंज सहित अनेक इस्‍लामिक पुस्‍तकें
    islaminhindi.blogspot.com (Rank-3 Blog)
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  2. maulan bahut hi saargarbhit jawaab diya hai aapne.nisaar kis pe nisaar hain!!!!!
    nisaar sahab khoob padhiye aur kisi bhi cheez ko samagrta mein dekhiye.sandarbh kat kar bat mat kijiye.

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