Friday, 11 December 2009

क़ुरआन - अल्मायदा ५



पाँचवीं किस्त




सूरह मायदा -5


(5 The Food)



धर्म और ईमान के मुख्तलिफ नज़रिए और माने अपने अपने हिसाब से गढ़ लिए गए हैं. आज के नवीतम मानव मूल्यों का तकाज़ा इशारा करता है कि धर्म और ईमान हर वस्तु के उसके गुण और द्वेष की अलामतें हैं. इस लम्बी बहेस में न जाकर मैं सिर्फ मानव धर्म और ईमान की बात पर आना चाहूँगा. मानव हित,जीव हित और धरती हित में जितना भले से भला सोचा और भर सक किया जा सके वही सब से बड़ा धर्म है और उसी कर्म में ईमान दारी है.वैज्ञानिक हमेशा ईमानदार होता है क्यूँकि वह नास्तिक होता है, इसी लिए वह अपनी खोज को अर्ध सत्य कहता है. वह कहता है यह अभी तक का सत्य है कल का सत्य भविष्य के गर्भ में है.मुल्लाओं और पंडितों की तरह नहीं कि आखरी सत्य और आखरी निजाम की ढपली बजाते फिरें. धर्म और ईमान हर आदमी का व्यक्तिगत मुआमला होता है मगर होना चाहिए हर इंसान को धर्मी और ईमान दार, कम से कम दूसरे के लिए. इसे ईमान की दुन्या में ''हुक़ूक़ुल इबाद'' कहा गया है, अर्थात ''बन्दों का हक'' आज के मानव मूल्य दो क़दम आगे बढ़ कर कहते हैं ''हुक़ूक़ुल मख्लूकात'' अर्थात हर जीव का हक.
धर्म और ईमान में खोट उस वक़्त शुरू हो जाती है जब वह व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो जाता है. धर्म और ईमान , धर्म और ईमान न राह कर मज़हब और रिलीज़न यानी राहें बन जाते हैं. इन राहों में आरंभ हो जाता है कर्म कांड, वेश भूषा,नियमावली , उपासना पद्धित, जो पैदा करते हैं इंसानों में आपसी भेद भाव. राहें कभी धर्म और ईमान नहीं हो सतीं. धर्म तो धर्म कांटे की कोख से निकला हुआ सत्य है, पुष्प से पुष्पित सुगंध है, उपवन से मिलने वाली बहार है. हम इस धरती को उपवन बनाने के लिए समर्पित राहें यही मानव धर्म है. धर्म और मज़हब के नाम पर रची गई पताकाएँ, दर अस्ल अधार्मिकता के चिन्ह हैं.
लोग अक्सर तमाम धर्मों की अच्छाइयों(?) की बातें करते हैं यह धर्म जिन मरहलों से गुज़र कर आज के परिवेश में कायम हैं, क्या यह अधर्म और बे ईमानी नहीं बन चुके है? क्या यह सब मानव रक्त रंजत नहीं हैं? इनमें अच्छाईयां है कहाँ? जिनको एह जगह इकठ्ठा किया जाय, यह तो परस्पर विरोधी हैं..

और अब लीजिए कुरआनी बक्वासें पेश हैं - - -

" और जब वोह (सूफी, संत, दुरवैश और रहिब) इस को सुनते हैं जो कि मुहम्मद (इस्लाम) की तरफ से भेजा गया है, तो उनकी आँखें आंसुओं से बहती हुई दिखती हैं, इस सबब से कि उन्हों ने हक को पहचान लिया है. कहते हैं कि ए हमारे रब! हम मुस्लमान हो गए, तो हम को भी इन लोगों में लिख लीजिए जो तस्दीक करते हैं, और हमारे पास कौन सा उज्र है कि हम अल्लाह ताला पर और जो हक हम पर पहुंचा है, इस पर ईमान न लाएँ और इस बात की उम्मीद रक्खें कि हमारा रब हम को नेक लोगों की जमाअत में हमें दाखिल करेगा."
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा(वइज़ासमेओ)-आयत (75)
सूफी और दरवेश हमेशा से इसलाम से भयभीत और बेजार रहे हैं. इस के डर से वोह गरीब बस्तियों को छोड़ कर वीरानों में रहा करते थे.प्रसिद्ध संत उवैस करनी मोहम्मद का चाहीता होते हुए भी उनसे कोसों दूर जंगलों में रहता था. इस्लामी हाकिमो के खौफ से वोह हमेशा अपना पता ठिकाना बदलता रहता कि कहीं इस को मोहम्मद के कुर्बत में जा कर 'मोहम्मादुर रसूल अल्लाह' न कहना पड़े.मोहम्मद के वासीअत के मुताबिक मरने के बाद उनका पैराहन उवैस करनी को भेंट किया जाना था, समय आने पर, जब पैराहन को लेकर अबू बकर और अली बमुश्किल तमाम उवैस तक पहंचे तो पाया की वोह ऊँट चरवाहे की नौकरी कर रहा था. उन हस्तियों से मिल कर या पैराहन पाकर उसके चेहरे पर कोई खास रद्दे अमल न देख कर दोनों मायूस हुए. बहुत देर तक खमोशी छाई रही, जिसको तोड़ते हुए अबू बकर बोले उम्मत ए मोहम्मदी के लिए कुछ दुआ कीजिए.फकीर दुआ के बहाने उठा और अपने हुजरे के अन्दर चला गया. बहुत देर तक बाहर न निकला तो इन दोनों को उस से बेजारी हुई, हुजरे के दर से सूफ़ी को आवाज़ दी कि बाहर आएं, उवैस बर आमद हुवा और कहा जल्दी कर दी वर्ना पूरी उम्मते मुहम्मदी को बख्शुवा लेता.दोनों दरवेश के रवैयए से खिन्न होकर वापस हुए.बाद मआश ओलिमा ने ओवैस करनी की उलटी कहानिया गढ़ राखी हैं. यही हाल मशहूर सूफ़ी हसन बसरी का था.
हसन बसरी और राबिया बसरी मुहम्मद के बाद तबा ताबेईन हुए, जो बागी ए पैगंबरी थे और मुहम्मदुर रसूल अल्लाह कभी नहीं कहा.हसन बसरी का वक़ेआ मशहूर है कि एक हाथ में आग और दूसरे हाथ में पानी ले कर भागे जा रहे थे, लोगों ने पूंछा कहाँ? बोले जा रहा हूँ उस दोज़ख को पानी से ठंडी करने जिसके डर से लोग नमाज़ पढ़ते हैं और उस जन्नत को आग लगाने जिस की लालच में लोग नमाज़ पढ़ते हैं. मोहम्मद की गढ़ी जन्नत और दोज़ख का उस वक़्त ही हस्तियों ने नकार दिया था जिसको आज मान्यता मिली हुई है, ये मुसलमानों के साथ कौमी हादसा ही कहा जा सता है.
*हम मुहम्मदी अल्लाह की एक बुरी आदत पर आते हैं - - -
कुरानी आयातों से ज़ाहिर होता है की अरबों में कसमें खाने का बड़ा रिवाज था.यह रोग शायद भारत में वहीँ से आया है,वरना यहाँ तो प्राण जाए पर वचन न जाय की अटल बात थी. अल्लाह भी अरबों की खसलत से प्रभावित है. कसमें भी जानें किन किन चीजों की और कैसी कैसी. वह बन्दों के लिए दो किस्में कसमों की मुक़ररर करता है--पहली इरादा कसमें, और दूसरी पुख्ता कसमें.
" अल्लाह तुम से जवाब तलबी नहीं करता तुम्हारी कसमों पर, ब्यर्थ किस्म की हों, लेकिन जवाब तलबी इस पर करता है कि क़सम को पुख्ता करो और तोड़ दो.सो इस का कफ्फारा (प्रयश्चित) दस मोहताजों को खाना देना है या औसत दर्जे का कपडा देना या एक गर्दन को आजाद करना या कुछ न हो सके तो तीन दिन का रोजा रखना."
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा(वइज़ासमेओ)-आयत (77)
देखिए कि कितना आसन है इसलाम में मुसलमानों के लिए झूट बोलना, वह भी कसमें खा कर. इरादा (निशचय)कसमें अल्लाह की, रसूल, क़ुरआन की, माँ बाप की, दिन भर कसमें खाते रहिए, अल्लाह इसकी जवाब तलबी नहीं करता, हाँ अगर पुख्ता (ठोंस) क़सम खा ली तो फिर गज़ब हो जाने वाला नहीं, बस सिर्फ तीन रोज़ का दिन का फाका, जो कि गरीब को यूँ भी उस वक़्त उपलब्ध नहीं हुवा करता था. इसको रोजा कहते हैं, इसमें सवाब भी है. किस क़दर झूट की आमेज़िश है कुरानी निजाम में जिसे अनजाने में हम "पूर्ण जीवन व्यव्स्था" कहते हैं.अदालतों में क़ुरआन पर हाथ रख कर क़सम खाते है जो खुद झूट बोलने की इजाज़त देता है.आर्श्चय होता है न्याय के अंधे विश्वास पर.
देखिए कि हर मुस्लिम ही नहीं मुझ जैसा मोमिन भी इस ईमानी कमजोरी से कितना कुप्रभावित है, खुद मेरी बीवी इरादा कसमे खाने की आदी है जिसको हजम करने के हम आदी हो चुके हैं. पुख्ता यानी ठोंस झूट भी उसके बहुत से पकडे गए हैं जिसके लिए वह अक्सर पुख्ता कसमें खा चुकी है. मज़े की बात ये है कि वह कफ्फारा भी मेरी कमाई से अदा करती है,पक्की मुसलमान है, क़ुरआन की तिलावत रोजाना करती है और इन कुरानी फार्मूलों से खूब वाकिफ है. सच है कि गैर मुस्लिम शरीके हयात बेहतर होती बनिस्बत एक मुसलमान के.

"ऐ ईमान वालो! अल्लाह क़द्रे शिकार से तुम्हारा इम्तेहान करेगा. जिन तक तुम्हारे हाथ और तुम्हारे नेज़े पहुँच सकेंगे ताकि अल्लाह समझ सके कि कौन शख्स इस से बिन देखे डरता है. सो इसके बाद जो शख्स हद से निकलेगा इसके लिए दर्द नाक सजा है"
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (94)
दिलों कि बात जानने वाला मुहम्मदी अल्लाह मुसलमानों का प्रेटिकल इम्तेहान ले रहा है और बेचारी क़ौम उसी इम्तेहान में मुब्तिला है, न शिकार रह गए हैं न नेज़े. आलिमान दीन ने इन आयात को गोबर सुंघा सुंघा कर कर मरी मुसरी को ज़िदा रखा है. मुस्लिम अवाम जब तक खुद बेदार होकर कुरानी बोझ को सर से दफा नहीं करते तब तक कौम का कुछ होने वाला नहीं.
"अल्लाह तअला ने गुज़श्ता को मुआफ कर दिया और जो शख्स फिर ऐसी ही हरकत करेगा तो अल्लाह तअला उस से इंतकाम ले सकते हैं."
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (95)
अल्लाह न हुवा बल्कि बन्दा ए बद तरीन हुआ जो इन्तेकाम(प्रतिशोध) भी लेता है।

इसी आयत पर शायद जोश मलीहा बादी कहते हैं - - -


गर मुन्तकिम है तो खोटा है खुदा,
जिसमें सोना न हो, वह गोटा है खुदा,
शब्बीर हसन खाँ नहीं लेते बदला,
शब्बीर हसन खाँ से भी छोटा है खुदा.

पिछले सारे गुनाह मुआफ आगे कोई खता नहो, बस कि बद नसीब मुसलमान बने रहो. इस मुहम्मदी अल्लाह से इंसानियत को खुदा बचाए.
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निसार ''निसार-उल-ईमान''
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हमीं नहीं कि तुम पे निसार और भी हैं ___________________________________________________________________________________

Rotten to the bitter end, the Qur'an protests: Qur'an 5:78 "Curses were pronounced on the unbelievers, the Children of Israel who rejected Islam, by the tongues of David and of Jesus because they disobeyed and rebelled." Qur'an 5:80 "You see many of them allying themselves with the Unbelievers [other translations read: "Infidels"]. Vile indeed are their souls. Allah's wrath is on them, and in torment will they abide." Qur'an 5:81 "If only they had believed in Allah, in the Prophet, and in what had been revealed to him." Qur'an 5:82 "You will find the Jews and disbelievers [defined as Christians in Qur'an 5:73] the most vehement in hatred for the Muslims." Not only are Jews and Christians "vile" according to Allah and thus destined for eternal torment, their leaders, "David and Jesus" will be the ones cursing them. Weird.
The last half of the 82nd verse concludes with these contradictory words. It's as if Muhammad hadn't been listening to his own vitriolic diatribe. "And nearest among them in affection to the Believers will you find those who say, 'We are Christians,' because amongst these are priests and monks, men devoted to learning who have renounced the world, and are not arrogant." I can almost hear the False Prophet of Revelation fame, the Pontiff of the one-world religious order that sweeps the globe during the last days, quoting this verse (out of context, of course).
And how, pray tell, can Christians be "nearest in affection to the Believers" if: Qur'an 5:51 "Believers, take not Jews and Christians for your friends. They are friends to each other. He who befriends them becomes (one) of them. Lo! Allah guides not wrongdoing folk?" Or how do priests and monks "renounce the world" if: Qur'an 9:34 "Believers, there are indeed many among the priests who in falsehood devour the wealth of mankind and wantonly debar (men) from the way of Allah. They who hoard gold and silver and spend it not in Allah's Cause, unto them give tidings of a painful doom?"
Still speaking of Christians - the people he had gleefully called vile and condemned to hell, the schizophrenic god lies: Qur'an 5:83 "And when they listen to the revelation received by this Messenger, you will see their eyes overflowing with tears, for they recognize the truth. They pray: 'Our Lord! We believe. Write us down among the witnesses." I didn't think they had hallucinogenic drugs back then, but somebody must have spiked the water. In this very same surah, we were told: Qur'an 5:14 "From those who call themselves Christians, We made a covenant, but they forgot and abandoned a good part of the message that was sent them: so we estranged them, stirred up enmity and hatred among them to the Day of Doom. Soon will Allah show them the handiwork they have done." Team Islam is very confused.
Qur'an 5:84 "'What reason can we [Christians] have not to believe in Allah and the truth which has come to us, seeing that we long for our Lord to admit us to the company of the good people?'" I'll take a stab at that one. Good Muslims are killing Christians because their messenger and his god commanded them to wipe them out to the last. The Qur'an denies Christ's entire mission, his sacrifice, and deity. Then there's the fact that Muhammad was a rotten scoundrel. Qur'an 5:86 "But those who reject Islam and are disbelievers, denying our Signs and Revelations - they shall be the owners of the Hell Fire." Hey, at least Muhammad's Muslims won't steal everything from the Christians.
Coming from a man whose father was spared by divination of arrows, a man who cast lots to determine which wife would accompany him on terrorist raids, one who kissed and fondled a Stone, and one who claimed that the rivers of paradise flowed with wine, this verse is entertaining. Qur'an 5:90 "Believers! Intoxicants and gambling, (dedication of) stones, and (divination by) arrows, are an abomination. They are Satan's handwork. Shun such (abomination) that you may prosper. Satan's plan is to excite hostility and hatred between you with wine and gambling, and hinder you from the remembrance of Allah, and devotional obligations." Therefore, Allah must be Satan since he's responsible for making the "rivers of paradise flow with wine." Allah must be Satan since his Qur'an "excites hostility and hatred." Allah must be Satan since young Muslim boys are commanded to buy into the unholiest of bargains - gambling their lives away by betting on martyrdom. Allah, the Black Stone, must be Satan since the "dedication of stones" is Satanic.
To hell with truth, Islam was about obedience. Qur'an 5:92 "Obey Allah and obey the Messenger, and beware!" And Islam was about war: Qur'an 5:94 "Believers, Allah will make a test for you in the form of a little game in which you reach out your hands for your lances that He may know who fears. Any who fails this test will have a grievous penalty, a painful punishment." According to Allah, suicide bombers aren't terrorists; they are just boys playing "games." And Allah's final test for determining salvation or damnation is based upon whether men reach for their lances.
While this verse starts off benign, listen to how it ends. Qur'an 5:95 "Believers! Kill not game while in the sacred precincts or in pilgrim garb. If any of you do so intentionally, the compensation is an offering, brought to the Ka'aba, of a domestic animal equivalent to the one he killed...that he may taste the penalty of his deed. Allah forgives what is past: for repetition Allah will exact a penalty. For Allah is the Lord of Retribution."
Forgetting for a moment that Adam and Abraham are both credited with making the Ka'aba, how can there be asylum during the "Sacred Months" when Muhammad launched his conquest of the Ka'aba during Ramadhan and proceeded to assassinate a dozen or more souls hiding behind its covers?
Prophet of Doom
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1 comment:

  1. अल्‍लाह इन कसमों से इसलिए रोकता है कि इनकी क़सम खाने का हमें अधिकार नहीं, उसने कहा है कि केवल मेरी क़सम खाओ अगर खाने की मजबूरी मजबूरी मजबूरी आजाए, अब बता तेरी बात कहां कि खाओ और धोका दो, वह तो केवल अपनी कसम खाने को कहता है वह भी मजबूरी में

    बेवकूफ इन्‍सान कुरआन की हर बात का जवाब दिया जा चुका, 1 बात भी गैरतसल्‍लीबखश नहीं है, अगर तुम या कोई भी 1 भी ऐसी बात दिखादे तो दुनिया में एक भी मुसलमान न मिलेगा,, दूसरी तरफ तू अपना धर्म बता और गिनती बता कितनी बातें तेरी किताबों से बताई जाऐं या फिर आओ

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    विचार करें कि मुहम्मद सल्ल. कल्कि व अंतिम अवतार और बैद्ध मैत्रे, अंतिम ऋषि (इसाई) यहूदीयों के भी आखरी संदेष्‍टा? हैं या यह big Game against Islam है?
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    अल्‍लाह का चैलेंज पूरी मानव-जाति को
    अल्‍लाह का चैलेंज है कि कुरआन में कोई रद्दोबदल नहीं कर सकता
    अल्‍लाह का चैलेंजः कुरआन में विरोधाभास नहीं
    अल्‍लाह का चैलेंजः आसमानी पुस्‍तक केवल चार
    अल्‍लाह का चैलेंज वैज्ञानिकों को सृष्टि रचना बारे में
    अल्‍लाह का चैलेंज: यहूदियों (इसराईलियों) को कभी शांति नहीं मिलेगी

    छ अल्लाह के चैलेंज सहित अनेक इस्‍लामिक पुस्‍तकें
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